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Channel: स्पेशल स्टोरी : संडे एनबीटी, Sunday NBT | NavBharat Times विचार मंच
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ऐसे जीती नए घर की लड़ाई

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जब अपनी पूरी कमाई लगाने के बाद भी घर न मिले तो परेशान होना लाजिमी है। रेंट के साथ ईएमआई चुकाना भारी पड़ता है। ऐसे में लगता है कि किसी भी तरह बस अपना आशियाना मिल जाए। लेकिन इसके लिए सही टीम वर्क और योजना की जरूरत होती है। कैसे एक प्रॉजेक्ट के खरीदारों ने बिल्डर से लड़कर लिया अपना आशियाना, बता रहे हैं लोकेश के. भारती

किचन से बर्तन गिरने की आवाज आई। गुप्ताजी ने चिल्लाकर पत्नी से कहा कि घर आने के बाद भी चैन नहीं। आज महीने की 4 तारीख है। इस घर का रेंट देना है और जो घर मिल नहीं रहा, बैंक उसका ईएमआई भी काट लेगा। फिर बिजली बिल, मोबाइल बिल, महीने भर का घर के लिए सामान भी लाना है। गनीमत बस यही है कि बच्चों के स्कूल की फीस इस महीने नहीं भरनी है। पत्नी ने भी तुनकते हुए कह दिया कि मुझे मत सुनाइए! आप मेरे लिए अलग-से कुछ खर्च नहीं कर रहे। मैंने तो नहीं कहा था कि ऐसे बिल्डर से घर बुक कराइए जिसका फ्लैट तैयार ही नहीं है। पिछले 4 सालों से हम रेंट और ईएमआई, दोनों देते आ रहे हैं। पता नहीं घर कब मिलेगा?
पत्नी की शिकायत भी जायज थी। गुप्ताजी चुप ही रहे और पहुंच गए फ्लैशबैक में, जब 2010 में उन्होंने नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे पर एक बड़े डिवेलपर के प्रॉजेक्ट में 2 बीएचके फ्लैट बुक कराया था। घर में सभी बहुत खुश थे, लेकिन उनकी खुशी को किसी की नजर लग गई! सितंबर 2014 तक बिल्डर से कई बार मिलने के बाद भी यह पता नहीं चला कि घर कब मिलेगा। हां, दिसंबर 2014 तक तक आते-आते चीजें कुछ बेहतर होने लगीं। गुप्ताजी को लगने लगा था कि उन्हें भी घर की छत नसीब हो जाएगी। हालांकि, सफर और संघर्ष अभी लंबा था। तय डेट पर घर का कब्जा न मिलने के बाद मैराथन कोशिशें शुरू हुईं।

पत्नी से नोंक-झोंक के बाद गुप्ताजी ने अपना मन शांत किया और सोचा कि ज्यादा-से-ज्यादा क्या होगा, घर नहीं मिलेगा, जिंदगी तो नहीं खत्म होगी! हां, परेशानी बहुत होगी, लेकिन हमारे जैसे तो हजारों लोग हैं। कोशिश तो करते ही रहेंगे। पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए गुप्ताजी ने कहा कि परेशान न हो। अपना घर भी होगा और उसकी बालकनी में बैठकर हम दोनों सुबह की चाय का आनंद भी लेंगे। बस, तुम ताने मत मारा करो। तुम्हें तो पता ही है कि हम अपनी कोशिश में धीरे-धीरे ही सही, कामयाब होते जा रहे हैं।

आखिर गुप्ता जी ने किस तरह पाया अपना घर, आगे की बात वह खुद बता रहे हैं:
हमने 2010 के अक्टूबर में बुकिंग कराई थी और ढाई साल में बिल्डर ने 22 माले का ढांचा खड़ा कर दिया और हमसे 70 से 80 फीसदी पेमंट भी ले लिया। जब हमने इतनी तेजी से काम होते देखा तो लगा कि डिवेलपर तो सही काम कर रहा है, लेकिन यह सोचना हमारी भूल थी। स्ट्रक्चर खड़ा होने के बाद काम आगे ही नहीं बढ़ा। महीने पर महीने बीतने लगे, लेकिन स्थिति जस की तस रही। जब भी डिवेलपर से मिलो तो एक ही आश्वासन मिलता था कि बस, काम शुरू कर रहे हैं। आखिर में हमें यह लगने लगा कि कुछ तो झोल है और इसे खत्म करने के लिए कुछ नहीं, बहुत कुछ करना पड़ेगा। ऐसे में सबसे पहले यह जरूरी था कि हमारे जैसे और भी जो खरीदार परेशान है, उन्हें एक साथ लाया जाए। एक आदमी के बोलने और 100 आदमी के बोलने में बहुत फर्क आ जाता है। अब समस्या यह थी कि सभी लोग एक साथ कैसे आएं? हमने इसके लिए कई तरह से कोशिशें कीं:

ऑनसाइट कोशिश
शनिवार और रविवार को मैं और मेरे जैसे दो-चार लोग जो पहले से ही आपस में संपर्क में थे, सुबह 10 से शाम 6 बजे तक साइट पर रहते थे। फिर हम एक साथ या फिर बारी-बारी साइट पर पहुंचने लगे। वहां जो भी लोग आते थे, हम उनसे जानने की कोशिश करते थे कि क्या उनकी कोई बुकिंग उस प्रोजेक्ट में है? अगर है तो उनसे पूरी जानकारी और फोन नंबर जरूर लेते थे। साथ ही हमने फेसबुक पर सोसायटी के नाम से जो पेज बनाया था, उससे भी उनको जोड़ते थे। यह सिलसिला करीब 4 महीनों से भी ज्यादा चला। ऐसा करते हुए हमने 100 से ज्यादा खरीदारों को जोड़ लिया, लेकिन हमें और लोगों के साथ की जरूरत थी।

चाय-पान के बहाने
अपने फ्लैट वाली सोसायटी के लोगों को जोड़ने की कोशिश जारी रखने के लिए हमने सोसायटी के आसपास की चाय की दुकानवालों से भी हाथ मिलाया। हमने पर्चे छपवाए और चाय के दुकानदारों के बीच बांट दिए। उनसे कहा कि जो भी शख्स तुम्हारी दुकान पर आए, उससे जरूर पूछो कि उसका या उसके किसी जानने वाले का कोई फ्लैट इस प्रॉजेक्ट में है क्या? अगर हां तो उससे फोन नंबर और डिटेल्स ले लो और हमारा पर्चा भी उन्हें दे दो। फिर हम उन्हें संपर्क करते। हम इसमें कामयाब रहे। हमारे ग्रुप में खरीदारों की संख्या 200 से भी ज्यादा हो गई। अमूमन सभी बिल्डर अपने प्रॉजेक्ट के विज्ञापन के लिए विडियो बनाकर यू-ट्यूब पर जरूर अपलोड करते हैं। हम यूटयूब पर उनके विडियो के कमेंट्स सेक्शन में जाकर बायर्स से कॉन्टैक्ट नंबर मांगते थे और हमारे फेसबुक पेज से जुड़ने की अपील भी करते थे। इससे कुछ और लोग भी हमारे साथ जुड़े, जिन्होंने उस प्रॉजेक्ट में घर लिया था। हमें हमेशा एक बात याद रखनी चाहिए कि किसी-न-किसी को आगे आना ही पड़ता है। सभी अगर इंतजार करते रहेंगे कि कोई और आगे बढ़ेगा तो हो गया काम! यही वजह है कि दो-चार लोग आगे बढ़े और फिर कारवां बन गया।

टीम बनाने के बाद क्या?
जब हमारी बड़ी टीम बन गई तो फिर हमने उन तरीकों के बारे में सोचना शुरू किया, जिन पर हमें आगे बढ़ना था। सबसे पहले हमने अपने ग्रुप में ही ऐसा शख्स ढूंढने की कोशिश की, जो कानून का जानकार हो और हमें सही सलाह दे सके। खुशकिस्मती से हमारे ग्रुप में एक एडवोकेट भी थे। हालांकि बिल्डर ने उन्हें व्यक्तिगत तौर पर पैसे रिफंड करने की बात की थी, लेकिन उन्होंने जब सबकी परेशानी देखी तो हमारी गुजारिश पर वह सभी के लिए साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार हो गए। हमारे लिए यह अच्छा था कि वह पहले भी ऐसे मामले संभाल चुके थे। उनकी सलाह और हम सबकी राय से सबसे पहले यह तय हुआ कि यह पता लगाया जाए कि हमने जो 700 करोड़ रुपये से ज्यादा का पेमंट बिल्डर को किया था, उसका क्या हुआ?

इसके लिए कंपनी की बैलेंसशीट निकालने की बात शुरू हुई। यह जरा भी मुश्किल काम नहीं है। मिनिस्ट्री ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स की वेबसाइट www.mca.gov.in पर जाकर किसी भी कंपनी के बारे में पूरी जानकार हासिल कर सकते हैं। हां, इसके लिए आपको इस साइट पर रजिस्ट्रेशन कराना होगा। इसके बाद लॉगइन आईडी बन जाएगी। फिर लॉगइन करने के बाद वेबसाइट पर जाकर MCA Services के टैब पर क्लिक करना होगा। इसके बाद Master Data वाले ऑप्शन को क्लिक करना होगा। इससे आप कंपनी की बैलंसशीट भी निकलवा सकते हैं। आपको यहां से यह भी पता चलेगा कि कंपनी की सिग्नेटरी अथॉरिटी कौन है? शेयर किनके हैं आदि। बैलंसशीट से यह पता चलता है कि कंपनी में आए हुए फंड को कहां और कैसे खर्च किया गया? कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हुई? इस बैलंसशीट को कोई भी शख्स 100 रुपये खर्च कर हासिल कर सकता है। इसकी पैमंट ऑनलाइन हो जाएगी। इसके बाद आपको इसकी सॉफ्ट कॉपी मिलेगी, लेकिन आप इसकी हार्ड कॉपी करवा कर रख लें क्योंकि कोर्ट के मामलों में या किसी दूसरी जगह पर आपको हार्ड कॉपी ही ज्यादा काम आती है। हमने भी ऐसा ही किया।

एडवोकेट ने अपने सीए मित्र की मदद से उस बैलेंसशीट की तमाम खामियों को जाना और हमें भी समझा दिया। बैलंसशीट से स्पष्ट था कि हमारे फंड को बिल्डर ने दूसरी कंपनी में ट्रांसफर कर दिया था। फिर फंड निल दिखाकर मार्केट से पैसे भी उठा लिए। इतना ही नहीं, हमारे उस पैसे से बिल्डर ने किसी दूसरी जगह बड़ा-सा प्लॉट भी खरीद लिया था। यानी हमारे पैसे एक दूसरी कंपनी खड़ी कर उसमें ट्रांसफर कर दिए गए और बैलेंसशीट पर सीधा घाटा दिखाकर काम रोक दिया। मामला सीधा धोखाधड़ी का था। इस जानकारी ने हमारे हाथ मजबूत कर दिए।

कौन-सा विकल्प सबसे सही?
हालांकि साल 2015 के शुरुआती महीनों में रेरा (रियल एस्टेट रेग्युलेटिंग ऐक्ट) की चर्चा तो थी, लेकिन कानून बनने में इसे अभी और सफर तय करना था। ऐसे में कुछ ही विकल्प हमारे सामने थे। ये विकल्प थे:
1. कोर्ट के पास जाएं
2. इकनॉमिक ऑफेंस विंग (EOW): पुलिस का विभाग जिसमें आर्थिक अपराध को लेकर एफआईआर दर्ज की जा सकती थी।
3. बैलेंसशीट के साथ सीधे डिवेलपर्स से बात की जाए। हम इससे पहले जब भी बात करते थे तो हमारे पास ऐसा कोई हथियार नहीं था जिससे डिवेलपर को सीधे घेरा जा सके।
हमने डिवेलपर से सीधे बात की। दबाव काम आया। डिवेलपर को उसकी बैलंसशीट दिखाई तो उसके पास कोई जवाब नहीं था। वह समझौते की बात करने लगा। हालांकि इससे पहले वह पहले की तरह ही लालच देने से नहीं चूका। हमसे कहा गया कि हमारे पास जमीन है, उसे ले लो। दूसरी जगह घर बनाकर दे दूंगा। लेकिन सवाल था कि जब वह एक सोसायटी पूरी नहीं कर पा रहा है तो दूसरी जगह घर कहां से देगा? हमने कहा कि या तो हमारे सारे पैसे ब्याज के साथ वापस करो या फिर घर बनाकर दो। उसे घर बनाकर देना ही आसान लगा। चूंकि अब डिवेलपर के पास पैसे नहीं थे, इसलिए इसके लिए भी एक योजना तैयार की गई। खरीदार और बिल्डर, दोनों को साथ में रखकर एक अकाउंट बनवाया गया, ताकि जो भी पैसा अकाउंट में आए वह तभी निकले, जब दोनों के उस पर दस्तखत हों। चूंकि बैंक ने भी पैसा देना बंद कर दिया था, इसलिए बैंक के साथ मिलकर ट्राई पार्टी अग्रीमेंट भी किया गया जिसमें बायर, डिवेलपर और बैंक तीनों थे। हमने डिवेलपर से कहा कि पहले 9 टावर को एक साथ पूरा करना मुश्किल है। साथ ही बायर बिना काम आगे बढ़ाए पैसा देगा नहीं। इसलिए सबसे पहले 2 टावर कंप्लीट कर पजेशन दे दिया जाए ताकि खरीदारों का विश्वास बने। ऐसा ही किया गया। मार्च 2016 से काम तेजी से आगे बढ़ा और जल्द ही दो टावरों में पजेशन दे दिया गया। अब स्थिति यह है कि ज्यादातर टॉवर में लोग रह रहे हैं। मैं भी अपनी वाइफ के साथ जाड़े की गुनगुनी धूप में चाय का मजा लेता हूं।

अब कर सकते हैं 'रेरा' से वार
डिवेलपर न घर दे रहा है और ना ही पैसा ब्याज के साथ रिटर्न कर रहा है, तो रेरा आपके पास है। आप यहां शिकायत कर सकते हैं। इसके लिए राज्य की रेरा वेबसाइट पर जाएं और अपना यूजर आईडी व पासवर्ड क्रिएट करें। कुछ वेबसाइट्स पर बिना आईडी बनाए भी शिकायत कर सकते हैं। फिर होम पेज पर ही complaint को क्लिक करें। उसके बाद register complaint में जाकर किसी बिल्डर के खिलाफ शिकायत कर रहे हैं उसकी डिटेल्स भरें, फिर अपनी। फिर प्रॉपर्टी से संबंधित सभी डॉक्युमेंट्स मसलन पेमंट रसीद, अग्रीमेंट की कॉपी, लेआउट प्लान आदि को स्कैन कर डाउनलोड करें। फिर पेमंट करना होगा। यह ऑनलाइन या ऑफलाइन, दोनों तरीके से हो सकता है। यूपी, दिल्ली, हरियाणा में यह 1000 रुपये है। इसके बाद आपको कंप्लेंट नंबर मिलेगा। इस नंबर और डॉक्युमेंट्स को मिलाकर 3 या 5 कॉपी तैयार कर लें। इन तैयार कॉपी की एक हार्डकॉपी रेरा को, एक बिल्डर को देनी होगी और एक अपने पास रखनी होगी। फिर complaint के अंदर ही कंप्लेंट नंबर डालकर अपनी शिकायत का स्टेटस चेक करते रहें।
दिल्ली रेरा की वेबसाइट: dda.org.in/rera
यूपी रेरा की वेबसाइट: up-rera.in

रेरा के दायरे में कौन-कौन
रेरा को लेकर अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग नियम हो सकते हैं। यूपी में अगर किसी प्रॉजेक्ट के 60 फीसदी यूनिट बिक चुके हैं या प्रॉजेक्ट का पजेशन पूरा हो चुका है और आरडल्ब्यूए का गठन किया जा चुका है तो वह निर्माणाधीन प्रॉजेक्ट की परिभाषा से बाहर है। अगर प्रॉजेक्ट तीन-चार साल भी पुराना है लेकिन ये दोनों में से कोई भी बात प्रॉजेक्ट पर लागू नहीं होतीं तो उस प्रॉजेक्ट पर भी रेरा के नियम लागू होंगे। रेरा के नियम 500 वर्ग मीटर से कम जमीन पर बने या फिर आठ से कम अपार्टमेंट पर लागू नहीं होंगे। अगर कोई बिल्डर 400 वर्ग मीटर जमीन पर 10 फ्लैट बनाता है तो वह भी रेरा के दायरे में आएगा। इसी तरह से अगर कोई बिल्डर 500 वर्ग मीटर से बड़ी जमीन पर 8 से कम फ्लैट बनाता है, तो भी वह रेरा के दायरे में ही आएगा।

मेरी राय में बैलेंसशीट के साथ सीधे डिवेलपर्स से बात करने का विकल्प सबसे बेहतर था। वजह यह कि कोर्ट में मामला जाने पर और भी देरी की आशंका रहती है। दूसरा विकल्प भी वक्त गंवाने वाला है। डिवेलपर के खिलाफ एफआईआर हो भी जाए और वह जेल भी चला जाए तो भी घर मिलना मुश्किल होता है। ऐसे में गुप्ताजी ने सही विचार किया कि बैलंसशीट के साथ डिवेलपर से बात करें और यह भी कहें कि हमारे पास आपसे बात करने के अलावा दो विकल्प और भी हैं, जिन्हें हमने अभी बचाकर रखा है। - अनिल कुमार शर्मा, सीनियर ऐडवोकेट

सभी खरीदारों को एक साथ, एक प्लैटफॉर्म पर लाना चुनौतीपूर्ण तो है ही। हर आदमी की अपनी राय होती है, लेकिन जब कोशिश सही हो तो स्थिति बेहतर हो सकती है। दूसरे लोग भी चाहें तो बिल्डर से लड़कर अपने सपनों का आशियाना पा सकते हैं। - सुनीलकांत शर्मा, एक सोसायटी के ऑनर्स वेलफेयर एसोसिएशन के प्रेजिडेंट

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हौसलागीरी के हीरो

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जिन्हें ईश्वर ने मुकम्मल बनाया, वे अक्सर अपनी जिंदगी कमियां तलाशते निकाल देते हैं। इसके उलट कई ऐसे शख्स भी हैं जिनमें कुदरत ने कोई कमी-बेशी कर दी लेकिन उन्होंने इसी कमी को अपनी ताकत बना लिया। आज वे दूसरों के लिए हौसलों की नई इबारतें लिख रहे हैं। ऐसी चंद शख्सियतों से रूबरू करा रही हैं प्रियंका सिंह

दीपा मलिकः 4 खेलों में जीते 58 गोल्ड मेडल
अगर किसी को लकवा हो जाए तो उसके लिए सामान्य ढंग से जीना मुश्किल हो जाता है लेकिन गुड़गांव की दीपा मलिक ने अपने हौसले के दम पर आम जिंदगी से कहीं ज्यादा स्पेशल जिंदगी हासिल की है। 47 साल की दीपा पैरालिंपिक खेलों में मेडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला हैं। 30 सितंबर 1970 को जन्मीं दीपा ने पैरालिंपिक 2016 में शॉटपुट में सिल्वर मेडल जीतकर इतिहास रचा। अपनी हिम्मत के बूते शॉटपुट और जैवलीन थ्रो, तैराकी और मोटर रेसिंग की अलग-अलग प्रतियोगिताओं में अब तक वह कुल 18 इंटरनैशनल मेडल और 58 नैशनल गोल्ड जीत चुकी हैं।

दीपा को छह साल की उम्र में पहली बार स्पाइन में ट्यूमर हुआ। सर्जरी हुई और उन्होंने किसी तरह फिर से चलना सीखा लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। 30 साल की उम्र में फिर से उनकी स्पाइन में ट्यूमर हो गए। दीपा का कहना है, 'डॉक्टरों ने कहा कि इस बार मैं बिस्तर से नहीं उठ सकूंगी। मुझे यह नामंजूर था। मैं कॉलेज के दिनों में राजस्थान की तरफ से क्रिकेट और बास्केटबॉल खेलती थी। मैं अपनी जिंदगी को एक कमरे में समेट कर नहीं रखना चाहती थी। मुझे बाइकिंग का बहुत शौक था। इस शौक को जिंदा रखने के लिए मैंने तैराकी शुरू की, क्योंकि मेरे लिए चार पहियों की स्पेशल बाइक तो बन गई लेकिन उसे चलाने के लिए कंधों और हाथों में दम चाहिए था। कुछ कर दिखाने की इच्छा ने मुझे पैरा एथलीट बना दिया।' पति कर्नल बिक्रम सिंह ने भी हमेशा उनका साथ दिया लेकिन दीपा को सब कुछ अपने दम पर हासिल करना था इसलिए साधन संपन्न होने के बावजूद लंबे समय तक एक कमरे में रहकर उन्होंने गेम्स की तैयार की। इस दौरान उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को भी साथ रखा। दीपा की बड़ी बेटी देविका भी पैरा एथलीट हैं और रेस और लॉन्ग जंप की 37 कैटिगरी में खेलती हैं। उनके नाम भी कई रेकॉर्ड हैं। फिलहाल वह ब्रिटेन में डिसएबिलिटी स्पोर्ट्स साइकॉलजी में पीएचडी कर रही हैं और ऐसा करने वालीं वह देश की इकलौती शख्स हैं। छोटी बेटी एमबीए के फाइनल ईयर में है।

वह देश की पहली ऐसी दिव्यांग शख्स हैं, जिन्होंने हिमालय कार रैली में हिस्सा लिया। 2008 और 2009 में उन्होंने यमुना नदी में तैराकी और स्पेशल बाइक सवारी में भाग लेकर दो बार लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में नाम दर्ज कराया। पैरालिंपिक खेलों में उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए उन्हें 2012 में अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया गया। एनजीओ 'वीलिंग हैपीनेस फाउंडेशन' के जरिए वह अपने जैसे तमाम लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम कर रही हैं। वह बड़े गर्व के साथ कहती हैं, 'एक किटबैग लेकर मैं 7 साल पहले दिल्ली आई थी और आज एनडीएमसी की ब्रैंड ऐंबैसड हूं। लेकिन मेरा यह भी कहना है कि 70 साल लगे देश की किसी महिला को पैराओलिंपिक में मेडल लाने में। इस बार यह इंतजार इतना लंबा नहीं होना चाहिए।'

मेजर डी. पी. सिंहः करगिल वॉर के हीरो से ब्लेड रनर तक
मेजर डी. पी. सिंह का इसे दूसरा जन्म कह सकते हैं। 1999 में करगिल वॉर के दौरान एक गोला उनके पास आकर गिरा, जिसमें वह इतनी बुरी तरह जख्मी हुए कि डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। कुछ देर के लिए उनके शरीर को मॉर्चूएरी में भी भेजा गया लेकिन उन्होंने उनके अंदर जिंदा रहने का जज्बा बरकरार था। डॉक्टरों ने देखा कि वह जिंदा हैं तो उनका फटाफट ऑपरेशन किया। उनकी आंत का एक हिस्सा और एक पैर काटना पड़ा। मेजर सिंह यह देखकर हताश नहीं हुए। वह जिंदा थे, यही उनके लिए काफी था। वह बताते हैं, 'जब मैंने सुना कि मेरा एक पैर काटना पड़ेगा तो मैंने सोचा कि यह मेरी जिंदगी का नया चैलेंज होगा। उस वक्त किसी ने नहीं सोचा था कि मैं अपने पैरों पर फिर से खड़ा भी हो पाऊंगा। लेकिन मैंने सोचा कि खड़ा होना ही क्यों, दौड़ना क्यों नहीं? बस, यहीं से मैंने रनर बनने की ठान ली। इससे पहले मैं कभी रनर नहीं था। फिर भी मैंने सोच लिया कि यह करके दिखाना है। अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में मैं हजारों बार गिरा लेकिन हर बार गिरने को मैंने सबक माना और फिर से उठकर चलना शुरू किया। करगिल वॉर के दौरान जब मुझे चोट लगी थी तो मुझे अलग-अलग जाति, धर्म और राज्यों के लोगों ने खून दिया। मेरी नसों में दौड़ रहे इसी खून ने मुझे महसूस कराया कि मैं कुछ भी कर सकता हूं।'

प्रॉस्थेटिक पैर की मदद से उन्होंने पहली दौड़ लगाई तो पैरों से खून निकलने लगा। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और आज 39 साल की उम्र में वह 20 मैराथन दौड़ चुके हैं। देश के पहले ब्लेड रनर के तौर पर उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में भी दर्ज है। यही नहीं, वह 'द चैलेंजिंग वंस' नाम से एक एनजीओ भी चलाते हैं। यह संगठन शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की मदद करता है। उनके जज्बे का अनुमान उनकी एक फेसबुक पोस्ट से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने लिखा, 'छोड़ देना बहुत आसान है। ज्यादातर यही करते हैं लेकिन मैं आखिरी सांस तक कोशिश करना चाहता हूं। मैं जानता हूं कि यह मुश्किल है लेकिन जब भगवान ने खुद मुझे इस तरह के चैलेंज के लिए खुद चुना है तो फिर मैं क्यों घबराऊं।' मेजर सिंह का यही जज्बा आज हजारों को नई राह दिखा रहा है।

पाकिस्तान की आयरन लेडी मुनिबा माज़री
यह कहानी है पाकिस्तान की मुनिबा माज़री की, जिन्हें आज आयरन लेडी के नाम से जाना जाता है। 30 साल की मुनिबा बताती हैं, '18 साल की थी, जब मेरी शादी हुई। यह एक खुशहाल शादी नहीं थी। करीब 9 साल पहले की बात है। शादी के दो साल के बाद मैं पति के साथ कार से कहीं जा रही थी। कार चलाते-चलाते पति की अचानक आंख लग गई। कार खाई में गिरने लगी तो उसने कूदकर जान बचा ली लेकिन मैं कार के अंदर रह गई और कार खाई में गिर गई। मुझे बहुत चोट लगी। मेरी कलाई की हड्डी टूट गई, कंधे की हड्डी में फ्रेक्चर हो गया, मेरी रीढ़ की हड्डी में बहुत चोट लगी। लोगों ने किसी तरह सीपीआर करके मेरी जान बचाई। मैं ढाई महीने अस्पताल में रही। वे ढाई महीने मेरी जिंदगी के सबसे मुश्किल थे। एक दिन डॉक्टर मेरे पास आया और बोला, 'सुना है कि तुम आर्टिस्ट बनना चाहती थीं लेकिन हाउसवाइफ बन गईं। मेरे पास तुम्हारे लिए बुरी खबर है। तुम कभी पेंट नहीं कर पाओगी।' अगले दिन डॉक्टर फिर आया और बोला, 'तुम्हारी स्पाइन को इतना नुकसान हुआ है कि तुम कभी चल नहीं पाओगी।' अगले दिन डॉक्टर ने कहा, 'रीढ़ की हड्डी में लगी चोट के कारण तुम मां नहीं बन सकोगी।' मैं टूट गई। खुद से पूछा कि मैं जिंदा क्यों हूं? थककर मैंने अपने भाई से कहा, मैं जानती हूं कि मेरे हाथ में चोट है। लेकिन मैं सफेद रंग देखकर थक चुकी हूं। मुझे एक छोटा कैनवस और कलर लाकर दे दो। और इस तरह मौत के बिस्तर पर मैंने अपनी पहली पेंटिंग बनाई। मैंने बिना एक भी शब्द बोले, अपने मन की बात सामने रख दी थी। लोग कहते थे, वाह! कितनी सुंदर पेंटिंग है। क्या रंग हैं? किसी को उसके पीछे का दर्द नहीं दिखा। सिर्फ मुझे दर्द दिख रहा था। बस, उसी पल मैंने तय कर लिया कि मैं दूसरों के लिए परफेक्ट नहीं बनूंगी। अब मैं अपने लिए जिऊंगी। हर पल को भरपूर जिऊंगी।'

फिर मुनिबा ने अपने तमाम तरह के डरों को एक पेपर पर लिखा। उनका सबसे बड़ा डर था 'तलाक'। उन्होंने पति को तलाक के कागज भेज दिए। उनका दूसरा डर था कि वह मां नहीं बन सकती थीं। उन्होंने सोचा कि हजारों बच्चे हैं, जो किसी के प्यार के लिए तरस रहे हैं तो क्यों न मैं एक बच्चा गोद ले लूं। उन्होंने एक बेबी बॉय को गोद ले लिया। तब वह बच्चा 2 दिन का था। अब 6 साल का हो गया है।

वह कहती हैं, 'जब आप वीलचेयर पर होते हैं तो आपके लिए सबसे मुश्किल है खुद को स्वीकार कराना क्योंकि परफेक्ट लोगों की दुनिया में हम इम्परफेक्ट होते हैं। इससे निपटने के लिए मैं ज्यादा-से-ज्यादा घर से बाहर निकली। मैंने पेंटिंग शुरू की। मॉडलिंग कैंपेन किए। नैशनल टीवी पर एंकर बनी। पाकिस्तान की नैशनल गुडविल एंबैसडर फॉर विमिन बनी। 2015 में बीबीसी की टॉप 100 महिलाओं में चुनी गई तो 2016 में टॉप अंडर 30 में। दरअसल, जब आप खुद को वैसे ही स्वीकार कर लेते हैं, जैसे आप हैं तो दुनिया आपकी कद्र करने लगती है। यह सब आपके अंदर से शुरू होता है। हम सोचते हैं कि जिंदगी ऐसी ही होनी चाहिए। सबकुछ हमारी योजना के अनुसार होना चाहिए। जब ऐसा नहीं होता तो हम हार मान जाते हैं। लेकिन जिंदगी 'टेस्ट एंड ट्रायल' है और टेस्ट कभी आसान नहीं होते। मैंने कभी नहीं चाहा कि मैं वीलचेयर पर रहूं लेकिन ऐसा हुआ। मुझे लगता है कि मौत से पहले मरना नहीं चाहिए इसलिए हर लम्हे को जिएं।

अरुणिमा सिन्हाः ऐवरेस्ट से ऊंचा हौसला
ऐवरेस्ट फतह करने की कल्पना भी हममें से ज्यादातर को नामुमकिन लगती है लेकिन एक पैर न होने के बावजूद अरुणिमा ने इसे मुमकिन कर दिखाया। 11 अप्रैल 2011 को अरुणिमा सिन्हा पद्मावती एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली जा रही थीं। रात के लगभग 1 बजे कुछ बदमाश ट्रेन के चढ़े और अरुणिमा के गले की चेन छीनने लगे। उन्होंने विरोध किया तो बदमाशों ने अरुणिमा को चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया। अरुणिमा का बायां पैर पटरियों के बीच में आ जाने से कट गया। पूरी रात अरुणिमा कटे हुए पैर के साथ दर्द से चीखती-चिल्लाती रहीं। करीब 40-50 ट्रेन गुजरने के बाद सुबह होने पर अरुणिमा को मदद मिल सकी। उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया, जहां वह चार महीने तक जिंदगी और मौत से लड़ती रहीं। आखिर में अरुणिमा की जीत हुई। उनकी बाईं टांग में नकली पैर जोड़ दिया गया। डॉक्टर उन्हें आराम करने की सलाह दे रहे थे तो परिवार वाले और जानकार उन्हें लाचारगी की नजर से देख रहे थे। अरुणिमा ने खुद को लाचार मानने से इनकार करते हुए दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट ऐवरेस्ट को फतह करने की ठान ली। अपनी इच्छा को पूरी करने के लिए वह ऐवरेस्ट फतह करने वाली पहली भारतीय महिला बछेंद्री पाल से मिलने जमशेदपुर जा पहुंचीं। अरुणिमा की हालत देखकर बछेंद्री पाल ने उन्हें आराम करने की सलाह दी लेकिन फिर वह अरुणिमा के हौसलों के आगे झुक गईं। बछेंद्री बोलीं, 'तुम्हारे हौसले तो ऐवरेस्ट से भी ऊंचे हैं। ऐवरेस्ट तो तुमने पहले ही फतह कर लिया है। अब बस इसे अपनी तुम्हें अपनी फतह की तारीख लिखनी है।'

इसके बाद अरुणिमा ने बछेंद्री पाल की देखरेख में पर्वतारोहण के गुर सीखे। 31 मार्च 2013 को अरुणिमा ने मांउट ऐवरेस्ट पर चढ़ाई शुरू की। फिर 52 दिनों की बेहद मुश्किल चढ़ाई के बाद उन्होंने 21 मई 2013 को माउंट ऐवरेस्ट फतह कर लिया। इस तरह ऐवरेस्ट फतह करने वाली वह दुनिया की पहली दिव्यांग महिला बन गईं।

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ये लड़े तो हम जीते

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इंसान को इंसान होने का हक दिलाने के लिए जरूरी हैं मानवाधिकार। इनकी रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम फैसले दिए। ये फैसले किसी ऐसे शख्स या संस्था की पहल पर सुनाए गए, जिन्होंने हमारे हक के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। ऐसे ही योद्धाओं की दास्तां साझा कर रहे हैं राजेश चौधरी

विल्सन: गंदी प्रथा को कराया खत्म
बेजवाड़ा विल्सन सन 1966 में कर्नाटक के कोलार में एक ऐसे परिवार में जन्मे जो हाथ से मैला साफ करने का काम करता था। पुश्तैनी काम करने के बजाय बेजवाड़ा ने पढ़ाई-लिखाई करने की ठानी। पॉलिटिकल साइंस में ग्रैजुएशन करने के बाद उन्होंने हाथ से मैला साफ करने के खिलाफ आवाज उठाई। हालांकि सबसे पहले अपने ही घर में उनका विरोध हुआ। घरवालों ने समझाया कि वह इन बातों में न पड़कर अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाएं, लेकिन उन्होंने अपने मन की आवाज सुनी। 1986 में मुखर रूप से हाथ से मैले की सफाई के खिलाफ काम करना उन्होंने शुरू किया। 1994 में बेजवाड़ा ने सफाई कर्मचारी आंदोलन की स्थापना की। उन्होंने 2003 में सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर इस प्रथा को खत्म करने की गुहार लगाई। कोर्ट ने उनकी अर्जी पर इस प्रथा को बंद करने का अहम फैसला सुनाया। विल्सन को 2016 में रमन मैगसायसाय अवॉर्ड से भी नवाजा जा चुका है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 27 मार्च 2014 को हाथ से गंदगी साफ करने की प्रथा को रोकने के लिए निर्देश दिए। साथ ही कहा कि सीवर की सफाई के लिए बिना सेफ्टी इक्विपमेंट्स के मजदूर को न उतारा जाए। कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए 5 साल तक की सजा का भी प्रावधान किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम के बेंच ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे 2013 के उस कानून को लागू करें, जिसमें हाथ से मैला साफ करने की प्रथा को खत्म करने और इस काम में लगे परिवारों के पुनर्वास का प्रावधान किया गया था। अदालत ने कहा कि कानून के लागू होने के बाद खतरनाक सीवर में काम करने के लिए मजदूरों को मजबूर नहीं किया जाएगा। जो लोग हाथ से गंदगी साफ करते हैं, उनकी लिस्ट बनाई जाए। उनके बच्चों को स्कॉलरशिप दी जाए। ऐसे मजदूरों को घर बनाने लिए सहयोग किया जाए और परिवार के एक सदस्य को किसी कामकाज की ट्रेनिंग दी जाए। अगर सीवर की सफाई करते हुए किसी मजदूर की मौत हो जाए तो उसके आश्रितों को 10 लाख रुपये तक मुआवजा दिया जाएगा। बेशक विल्सन की कोशिशों से सदियों से समाज में हाशिये पर रहे एक बड़े तबके को राहत मिली।

लक्ष्मी: एसिड पीड़ितों की बनीं आवाज
2005 का वाकया है। लक्ष्मी 15 साल की थीं। दिल्ली में गोल्फ लिंक के पास एक लड़के ने उनके चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। वह बुरी तरह से झुलस गईं और ढाई महीने आरएमएल अस्पताल में भर्ती रहीं। लक्ष्मी के बयान पर आरोपी लड़के को गिरफ्तार कर लिया गया। इस दौरान आरोपी ने लक्ष्मी के सामने शादी का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन उन्होंने आरोपी को सजा दिलाकर ही दम लिया। साथ ही, उन्होंने ठान लिया कि अब वह एसिड पीड़ितों के लिए लड़ाई लड़ेंगी। 2006 में उनकी ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई। सुनवाई के बाद एसिड पीड़ितों के इलाज और पुनर्वास के अलावा एसिड बिक्री पर लगाम लगाने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने कई आदेश पारित किए। फिलहाल वह 'छांव फाउंडेशन' से जुड़ी हैं जो एसिड अटैक के खिलाफ कैंपेन चलाता है। लक्ष्मी एसिड पीड़ितों के पुर्नवास के लिए भी काम कर रही हैं। उन्होंने आगरा और लखनऊ में शिरोज़ नाम से कैफे शुरू किए हैं, जिन्हें एसिड पीड़ित महिलाएं मिलकर चलाती हैं। दिलचस्प है कि इस कैंपेन में उनके साथ काम करने वाले आलोक ने उनका हर कदम पर साथ निभाया। फिर दोनों ने जीवन भर साथ निभाने का फैसला कर लिया। उनकी दो साल की बेटी है। लक्ष्मी कहती हैं, 'जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है, लेकिन इतना तय है कि सफर लंबा है और लोगों के लिए इंसाफ की लड़ाई भी जारी रहने वाली है।'

सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई 2013 को दिए फैसले में कहा कि हर एसिड अटैक पीड़ित को राज्य सरकार को तीन लाख रुपये मुआवजे का भुगतान करना होगा ताकि उसका पुनर्वास हो सके। इन 3 लाख रुपये में से 1 लाख रुपये एफआईआर दर्ज होने के 15 दिनों के भीतर देना होगा। एसिड अटैक पीड़ित के इलाज पर आने वाला खर्च भी राज्य सरकार ही उठाएगी। कोर्ट ने कहा कि कोई भी अस्पताल (प्राइवेट भी) एसिड अटैक पीड़ित के फ्री इलाज और सर्जरी से इनकार नहीं कर सकता। उसके खाने और रहने का इंतजाम भी अस्पताल को करना होगा। हालांकि इलाज पर खर्च हुई रकम का बाद में राज्य सरकार भुगतान करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने एसिड बिक्री को लेकर भी गाइडलाइंस जारी कीं। लक्ष्मी की कोशिश और सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एसिड पीड़ितों के दर्द को बहुत हद तक कम करने का काम किया है।

इज्जत पाने का हक किन्नरों को भी
समाज के जो लोग हाशिये पर हैं, उनके लिए कानूनी सहायता उपलब्ध कराती है नैशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी। अथॉरिटी ने किन्नरों के मानवाधिकार का मसला उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर की कि ट्रांसजेंडरों को तीसरे जेंडर के तौर पर मान्यता दी जाए। साथ ही, केंद्र और राज्य सरकारें किन्नरों के कल्याण के लिए सामाजिक योजनाएं चलाएं और पब्लिक अवेयरनेस कैंपेन भी, ताकि उन्हें सामाजिक मान-सम्मान मिल सके।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल 2014 को किन्नरों को तीसरे जेंडर के तौर पर मान्यता देते हुए कहा कि समाज को इनके प्रति सोच बदलने की जरूरत है। हमारे समाज में ये प्रताड़ना और भेदभाव झेल रहे हैं, लेकिन समय आ गया है कि इनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से ऐसे कदम उठाने को कहा जिनसे ये समाज में मान-सम्मान पा सकें। केंद्र और राज्य सरकारों से कहा गया कि वे इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए कदम उठाएं। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि लोग जो डर, शर्म, डिप्रेशन और सामाजिक दबाव झेल रहे हैं, उसे खत्म किया जाना जरूरी है। संविधान के तहत हर नागरिक को मानवाधिकार और मौलिक अधिकारों का संरक्षण दिया गया है। ट्रासंजेंडरों को भी इनसे वंचित नहीं किया जा सकता। जाहिर है, नैशनल लीगल अथॉरिटी की पहल पर ही सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडरों के हक में इतना बड़ा फैसला लिया।

गिरफ्तार शख्स का भी है अधिकार
7 जनवरी 1994 की बात है। वकील जोगेंद्र कुमार को गाजियाबाद के एसएसपी ने बुलाया। वह अपने भाइयों के साथ थाने गए। थाने में उनके भाइयों से पुलिस ने कहा कि कुछ पूछताछ के सिलसिले में जोगेंद्र को बुलाया गया है। उन्हें शाम तक वापस भेज दिया जाएगा। ऐसे में बाकी लोग लोग घर लौट आए। देर शाम तक जोगेंद्र जब घर नहीं पहुंचे तो भाइयों ने पुलिस से जोगेंद्र के बारे में जानना चाहा, लेकिन उन्हें कोई जानकारी नहीं मिली। उन्हें आशंका थी कि कहीं जोगेंद्र का फर्जी एनकाउंटर न कर दिया जाए। परेशान भाइयों ने इस बारे में यूपी के सीएम को भी सूचना दी, लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं मिला। आखिरकार उन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर मामला उठाया। सुप्रीम कोर्ट ने 11 जनवरी को गाजियाबाद एसएसपी को नोटिस जारी किया और कोर्ट में पेश होने को कहा। गाजियाबाद एसएसपी 14 जनवरी को कोर्ट में पेश हुए और उन्होंने कहा कि जोगेंद्र को छोड़ दिया गया है। लेकिन याचिकाकर्ता की ओर से मानवाधिकार के उल्लंघन का मामला बताया गया और फिर कोर्ट ने अहम आदेश पारित किया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला
25 अप्रैल 1994 को सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी के मामले में अहम गाइडलाइंस जारी कीं। दिल्ली हाई कोर्ट के वकील नवीन शर्मा बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जोगेंद्र कुमार बनाम स्टेट ऑफ यूपी के केस में मानवाधिकार के मद्देनजर अहम फैसला दिया था। इस मामले में याचिकाकर्ता ने अर्जी दाखिल कर कहा था कि उसे पुलिस ने थाने में बैठा लिया था और पांच दिन तक हिरासत में रखा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर शख्स को संविधान के अनुच्छेद-21 में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। इस अधिकार को लागू किया जाना अनिवार्य है। जब भी किसी शख्स की गिरफ्तारी हो तो उसे यह मौका मिलना चाहिए कि वह गिरफ्तारी के बारे में अपने रिश्तेदार या जानकार को बता सके। इसके अलावा पुलिस की यह ड्यूटी है कि उस शख्स को बताए कि आखिर उसकी गिरफ्तारी क्यों हुई है? जब भी किसी की गिरफ्तारी हो तो थाने में डायरी में इस बात की एंट्री जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि गिरफ्तार शख्स को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करना अनिवार्य है। मैजिस्ट्रेट यह देखेगा कि गिरफ्तारी कानूनन सही है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश ने आम लोगों को काफी राहत दी है और थाने में होने वाले अत्याचारों में काफी कमी आई है।

जब तक सांस, तब तक अधिकार
किसी भी शख्स (फिर वह चाहे मुजरिम ही क्यों न हो) के अधिकारों की हिफाजत करते हुए एक अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी के मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिए, फिर चाहे वह फांसी की सजा पाया मुजरिम ही क्यों न हो! जब तक सांस है, तब तक मानवाधिकार सुरक्षित हैं, इसी बात के मद्देनजर अदालत ने फांसी की सजा पाए 15 मुजरिमों की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा पाए मुजरिमों की उस याचिका को मंजूर कर लिया जिसमें उन्होंने दया याचिका के निपटारे में देरी के आधार पर फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने की गुहार लगाई थी। कई मुजरिमों की दया याचिका 5 से लेकर 12 साल तक राष्ट्रपति के पास पेंडिंग थी। इसी देरी के आधार पर फांसी को उम्रकैद में बदला गया। मानवाधिकार के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनैशनल ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मानवाधिकार के लिहाज से बेहद अहम है। सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइंस जारी कर यह भी कहा कि दया याचिका खारिज होने से पहले फांसी की सजा पाए मुजरिम को काल कोठरी में न रखा जाए। ऐसा करना असंवैधानिक है। दया याचिका के निपटारे के लिए एक समय सीमा होनी चाहिए। दया याचिका खारिज होने के बाद मुजरिम और उसके परिवार वालों को इस बारे में जानकारी दी जाए। साथ ही, मुजरिम को फांसी चढ़ाए जाने से पहले परिवार वालों से मिलने दिया जाए। समय-समय पर मुजरिम का हेल्थ चेकअप होना और दया याचिका खारिज होने के बाद उसकी मानसिक स्थिति की जांच भी जरूरी है। कोर्ट ने कहा कि अगर मुजरिम की मानसिक स्थिति ठीक न हो तो
उसे फांसी पर न चढ़ाया जाए।

बेशक सुप्रीम कोर्ट ने मुजरिमों की याचिका पर ये फैसले दिए थे, लेकिन ये अहम हैं क्योंकि इन फैसलों ने एक बार फिर से इस बात पर मुहर लगाई कि जब तक जिंदगी है, हर इंसान का मानवाधिकार संरक्षित है।

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कुछ दिन जो गुजारे गुजरात में

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गुजरात में जिन दिनों सियासी घमासान मचा था, एनबीटी ने गुजरात के दौरों में सियासत से दूर गुजरात के गांवों की जिंदगानी को समझने की कोशिश की। वहां आम लोगों की जिंदगी कैसे चलती है, यहां के गांव दूसरे गांवों से कैसे अलग हैं, क्या सोचते हैं यहां के बाशिदें और क्या हैं उनकी उम्मीदें? गुजरात के गांवों पर पेश है खास रिपोर्ट...

उड़ने की चाह, पर पंखों की तलाश
गुजरात के अहमदाबाद में शहरीकरण के कई मिसालें मिलती हैं। साबरमती रिवर फ्रंट पर घूमते लोगों की आंखों में बेहतर होती जिंदगी के सबूत दिखते हैं। तमाम दूसरे शहरों की तरह यहां भी विकास और बाकी चीजों के पैरामीटर एक समान हैं। लेकिन अहमदाबाद से दूर राज्य के गांवों की अलग तस्वीर है। यहां का सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना यहां के गांवों की जिंदगी को दूसरे राज्यों के गांवों की जिंदगी से अलग करता है।

सौराष्ट्र और वड़ोदरा के दर्जनों गांवों का दौरा करते हुए साफ लगा कि यहां के निवासियों को हालात और सामाजिक-भौगोलिक चुनौतियों से जूझते हुए जिंदगी की रफ्तार को बढ़ाना है। खेती इन गांवों में मुख्य पेशा है। पूरे राज्य की लगभग 32 फीसदी और गांवों की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी खेती से जुड़ी हुई है। कपास और मूंगफली की खेती से इन इलाकों की अर्थव्यवस्था चलती है। इन गांवों के ज्यादातर युवा आसपास के शहरों में ही नौकरी करने जाते हैं। राजकोट यूनिवर्सिटी के प्रफेसर सुकुमार सिंह ने बताया कि गुजरात में हाल के बरसों में शहरीकरण बहुत तेजी से हुआ है। हर गांव के 150 किमी के अंदर एक बड़ा शहर जरूर है, जहां नौकरी करना पास के गांववालों की प्राथमिकता होती है। लेकिन डिमांड ज्यादा होने की वजह से शहरों में कंपनियों के पास काम देने के विकल्प कम बचे हैं। ऐसे में युवा दोराहे पर खड़े हैं। कई युवा दूर के शहरों में भी काम की तलाश में भी जा रहे हैं तो कुछ 'गांव वापसी' को भी चुन रहे हैं। वड़ोदरा के कविनगर के बिमलेश बताते हैं, 'मुझे अच्छी पगार वाली नौकरी नहीं मिलती। ऐसे में गांव में खेती के साथ ही कुछ धंधा करता हूं। मैं कुछ महीने बाद मुंबई जाना चाहता हूं।' बिमलेश की पिछली कई पीढ़ियों में किसी ने गुजरात के बाहर नौकरी नहीं की। अगर वह गए तो अपने परिवार के पहले 'परदेसी बाबू' होंगे। वहीं अपना जीवन बिता चुके किसान पशोपेश में है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ठहराव का असर उनकी जीवनशैली पर दिखता है। इन गांवों में लोग एकजुट रहे हैं लेकिन अब जरूरतें पूरा नहीं होने के कारण अब गांव खाली होने लगे हैं। गांववाले इससे परेशान हैं। उनका कहना है कि पहले ऐसा नहीं था लेकिन अब गांव कुछ खाली होने लगे हैं।

अहमदाबाद अभी दूर है!
इन गांवों में एक बात दिलचस्प दिखी कि यहां के लोग बाहर कम निकलते हैं। राजकोट जिले के तापड़ गांव में दो लोग मिले। लगभग 50 साल के योगेश्वर भाई पूरी जिंदगी में एक बार भी अहमदाबाद नहीं गए। वह कहते हैं, 'सब काम राजकोट में हो जाता है। बाकी कभी जरूरत नहीं पड़ी। मेरी तरह गांव में बहुत सारे लोग हैं, जो कभी अहमदाबाद या किसी दूसरे बड़े शहर नहीं गए।' शायद ये लोग गांव की अपनी सादा-सी जिंदगी में खुशहाल हैं और शहर की भागमभाग से दूर ही रहना पसंद करते हैं।

हेलिकॉप्टर से बेटी की विदाई...
गुजरात के गांवों में इन दिनों नया शगल शुरू हुआ है। इन गांवों के संपन्न लोगों में अपनी बेटी को शादी के बाद हेलिकॉप्टर से ससुराल भेजने का ट्रेंड शुरू हुआ है। दौरे के दौरान महज 50 किलोमीटर के अंदर दो ऐसी शादियां देखने को मिलीं, जिनमें बेटी को हेलिकॉप्टर से विदा करते देखा। गांव वालों ने बताया कि इलाके के रईस अपनी बेटियों की शादी में ऐसा करते हैं और पिछले कुछ बरसों में यह चलन तेजी से बढ़ा है। राजकोट के जशदन गांव में ऐसा ही दृश्य था। मैदान में खड़े हेलिकॉप्टर को देख रहे किराना दुकान चलाने वाले श्रीपति ने कहा कि चार साल बाद फिर उसके गांव की बेटी हेलीकॉप्टर से ससुराल जा रही है। यह देखकर लगा कि दिल्ली-एनसीआर जैसी चकाचौंध अब धीरे-धीरे यहां भी अपने पांव पसार रही है।

हाई-फाई, वाई-फाई गांव
राजकोट से सटे हाइवे पर बने मैदान में एक लोकल क्रिकेट मैच चल रहा था। वहां कुछ लड़के मिले। बातचीत में एक लड़के ने दूसरे से कहा कि वे शाम में मिलकर गांव में फिल्म देखेंगे वाई-फाई से। पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके गांव का वाई-फाई बहुत तेज चलता है। गुजरात में एक मॉडल गांव भी मिला। यह कई मायनों में अद्भुत है। दूसरे गांवों के लिए मिसाल भी। राजकोट से लगभग 50 किलोमीटर दूर एक गांव है मोविया। हाइवे से सटा लगभग 10 हजार आबादी वाला यह गांव पूरी तरह वाई-फाई लैस है। सभी लोग वाई-फाई का पूरा लाभ उठाते हैं। सारा सिस्टम पंचायत संचालित करती है। यहां की पंचायत ही पहली और अंतिम सरकार है। यहां के लोग बताते हैं कि उन्हें किसी भी चीज के लिए सिर्फ पंचायत के पास जाना होता है। पंचायत ने पूरे गांव में दर्जन भर जगहों पर पब्लिक अनाउंसमेंट सिस्टम बना रखा है। किसी योजना के बारे में सूचना देनी हो या किसी घटना के बारे में जानकारी, पंचायत केंद्र से सूचना जारी की जाती है और पूरे गांव के लोग सुन लेते हैं। गांव में कोई इमरजेंसी की स्थिति आने पर भी इस सिस्टम से घोषणा की जाती है। राजकोट में पढ़ाई कर हर दिन अपने गांव आने वाले 25 साल के विशाल शाह कहते हैं कि उनके गांव का सिस्टम पूरी दुनिया में अनोखा है। इसे सभी गांव वालों ने खुद अपने हिसाब से बनाया है। गांव में कुछ टीचर मिलकर ई-क्लास भी चलाते हैं। इसी गांव के निलेश पटेल कहते हैं कि गांव के जुड़े कुछ लोगों की पहल से गांव को तकनीक के मामले में अडवांस बनाने का सिलसिला तीन साल पहले शुरू हुआ था। आज अब इस गांव से सीखने के लिए देश के तमाम दूसरे हिस्सों से लोग आते हैं। गांव की पंचायत के अंदर ही अलग-अलग कमिटियां बनी हैं, जो साफ-सफाई से लेकर सुरक्षा तक के मामले की मॉनिटरिंग करती हैं। क्या इसके लिए सरकार से पूरी मदद मिलती है, इस सवाल पर निलेश कहते हैं कि फंड वे सरकार से लेते हैं। इसके अलावा कुछ बाहर से भी मदद ली जाती है। पूरे गांव में कई जगहों पर सीसीटीवी कैमरे भी लगे हुए हैं। इस गांव में इतना बड़ा बदलाव कैसे मुमकिन हुआ, यह पूछने पर गांव के सुकेश भाई बताते हैं कि पांच साल पहले गांव में बड़ी मीटिंग हुई थी जिसमें सबने तय किया कि वे अपने गांव को आधुनिक और समृद्ध बनाएंगे।

पूरा दिन निकल जाता है पानी लाने में
ऐसा नहीं है कि हर गांव की तस्वीर मोविया जैसी है। कुछ गांवों की कहानी में दर्द भी है। ऐसा ही दर्द बड़ोदरा से 40 किलोमीटर दूरे डांगिया गांव में दिखा। वड़ोदरा हाइवे से करीब 5 किलोमीटर दूर अंदर जाने पर एक परिवार मिलता है। वहां लगभग 40 साल की सुनीला बताती हैं कि वह हर दिन सुबह और शाम अपने दो बच्चों को झोपड़ी में छोड़कर अपने पति के साथ पानी लेने 2 किलोमीटर दूर जाती हैं। उससे पहले कहीं पानी नहीं मिलता। लगभग 5000 की आबादी वाली इस गांव में हर किसी की यही कहानी है। 'जल ही जीवन है लेकिन उसे पाना बेहद मुश्किल है' यहां की तस्वीर कुछ ऐसी ही कहानी कहती है। क्या हैंडपंप इस गांव में कभी नहीं लगे, यह पूछने पर गांव वाले बताते हैं कि अब तक कई बार हैंडपंप लगे लेकिन कुछ ही दिन चल पाते हैं और खराब होने पर महीनों कोई सुध लेने आता है।

सरपंच ही पंच-परमेश्वर
गुजरात के गांवों में पंचायती सिस्टम बहुत ही प्रभावी तरीके से जमा हुआ दिखता है। पंचों को परमेश्वर सरीखा माना जाता है इन गांवों में। कई गांवों के लोगों के लिए पंचायत का आदेश ही अंतिम होता है। पंचायत हर तरह की समस्या को दूर करने का जरिया है। इतना तक कि चुनावी मौसम में कई लोगों से पूछा कि वे किसे वोट करेंगे तो बोले कि वोट से पहले पंचायत जिसे बोलेगी, हम उसे वोट देंगे। सुरेंद्रनगर के बासी गांव में त्रिलोचन सिंह ने भी कहा कि सरपंच जो बोलते हैं, वह मानना होता है लेकिन यह कोई मजबूरी नहीं है। उनका तर्क है कि उनकी समस्या का हल न दिल्ली से आकर कोई करेगा, न अहमदाबाद से। ऐसे में जो उनकी दिक्कतों को दूर करे, सुख-दुख में साथ दे, बात उसकी ही सुनी जाएगी। देश के दूसरे हिस्सों के गांवों में पंचायत का गांव के लोगों पर इस कदर असर शायद ही दिखे।

जाति व्यवस्था की जड़ें अब भी मजबूत
गुजरात के गांवों में जाति व्यवस्था अब भी बहुत मजबूत है और इसी के अनुसार सबको चलना होता है। सुरेंद्रनगर के गोसाईं गांव में कुछ क्षत्रिय लोगों से बात हो रही थी। वे अपनी समस्या बता रहे थे। उसी भीड़ से दूर कुछ दूर दो लोग खड़े थे। उनके बारे में उन क्षत्रिय सदस्यों ने कहा कि वे दलित हैं और उन्हें हमारी बात माननी ही होती है। यह तस्वीर कई गांवों में दिखती है। स्थानीय लोग बताते हैं कि गांवों में शुरू से यह परंपरा चलती आ रही है और इसे बदलने की जरूरत किसी को महसूस नहीं हुई। हालांकि इसी इलाके में दलित आंदोलन भी हुए थे। ऊना आंदोलन के संदर्भ में उस गांव के बगल में एक व्यक्ति ने कहा कि उस तरह की घटना पहले भी होती रही है लेकिन इस बार उसका विडियो बन गया तो पूरे देश में मामला फैल गया।

- गुजरात की 6.03 करोड़ आबादी में से 57.4% गांवों में और 42.6% शहरों में रहती है।
- 2001 से 2011 के बीच गुजरात के गांवों में खर्च करने की क्षमता में 265% की बढ़ोतरी हुई थी। हालांकि बाद में यह धीमी हो गई।

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रिटर्न ऑफ द लोकल

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इस साल बॉलिवुड कुछ अलग रहा। दिल्ली-मुंबई को छोड़कर यह कुछ आगे निकला और देश के छोटे शहरों से कनेक्ट हुआ। 2017 की कुछ चर्चित फिल्मों ने देश के छोटे शहरों-कस्बों से किरदारों को ढूंढा और लोगों ने इस प्रयोग को पसंद भी किया। मिहिर पंड्या नजर डाल रहे हैं इसी ट्रेंड पर:

मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों से आजाद हुआ हिंदी सिनेमा कैसा दिखता है? यह बरेली, आरा, मैक्लुस्कीगंज, बस्तर, बनारस और भोपाल की नई नजर से आपके-मेरे जैसे साधारण इंसानों की कहानी की फिल्मी पर्दे पर खोज है। कहानी उनके सपनों पर डाले गए बंधनों की, कहानी उनकी चतुर महत्वाकांक्षाओं की। खूबसूरत है यह देखना कि हॉलिवुड की लगातार बढ़ती चुनौती का सामना करने के लिए हिंदी सिनेमा ने स्थानीयता को अपना हथियार बनाया है। ये वे मौलिक जमीन से निकली उर्वर कहानियां हैं जो विदेशों में घूमते हिंदी सिनेमा को वापस अपने देश के छोटे शहरों में ले आई हैं। यह देखना दिलचस्प है कि इस साल रिलीज 6 चर्चित फिल्में भारत के नक्शे पर कैसा विहंगम दृश्य बनाती हैं-

ऐ डेथ इन दि गंज
यह इस साल की सबसे मुलायम, सबसे बारीक और शायद सबसे शानदार फिल्म है। एक पीरियड फिल्म जो 'मर्दानगी' के विचार के पीछे छिपे आक्रामक अनुकूलन और उससे उपजने वाली हिंसा की विजुअल पोट्रेट है। विक्रांत मैसी ने मुख्य भूमिका में इतना उजला काम किया है कि लगता है जैसे छू लिया तो मैला हो जाएगा। शुटू अकेला है क्योंकि उसका कोमल मन हमउम्र पुरुषों के 'ब्रो-कोड' में फिट नहीं बैठता। 1979 में कलकत्ता से छुट्टी मनाने झारखंड के जंगलों में बसे मैक्लुस्कीगंज पहुंचे इस परिवार में शुटू की अकेली दोस्त 8 साल की तानी है लेकिन शुटू भी उन जैसा होना चाहता है। वैसी ही इज्जत और सम्मान चाहता है। बराबरी चाहता है।

इसे शुद्ध हिंदी की फिल्म कहने में कुछ को कठिनाई होगी क्योंकि इस मैक्लुस्कीगंज में भाषाओं का विहंगम कोलाहल है। अव्वल कोंकणा सेन शर्मा निर्देशित 'ऐ डेथ इन दि गंज' में पात्रों की पहचान उनकी बानी तय करती है। इसीलिए यहां बांग्ला, अंग्रेजी, हिंदी के साथ असमिया और स्थानीय छोटा नागपुर की बोली भी सुनाई देती है लेकिन यही विविधता तो हिंदी पट्टी की असल पूंजी है जिसे बचाना है।


महानगर से कस्बे में लौटकर वापस जाना, समय में पीछे लौटकर जाना भी है। लगता है जैसे जिंदगी ठहर गई है यहीं। यह किसी मूसलाधार बरसात से भरी शाम को अकेले बैठकर उदास कविता पढ़ने सरीखा काम है। इस फिल्म की टोन, इसका स्वर इसकी खूबी है। यहां बियाबान कस्बा अपनी पूरी आरामतलबी के साथ जिंदा हो उठा है लेकिन उतनी ही बारीकी से यह पारिवारिक संबंधों के बीच चलते पावर गेम को भी बयां करती है। यहां जेंडर, इलाकाई, जातीय, भाषाई, आर्थिक, पारिवारिक, यहां तक कि मनुष्य और जानवरों के मध्य तक के बीच भेदभाव और पावर रिलेशंस की तमाम परतें खोल दी गई हैं।

न्यूटन
घर में न्यूटन कुमार के कमरे में बाबासाहेब आंबेडकर की तस्वीर टंगी है। इशारों में फिल्म बताती है कि वही इस घर में 'रोशनी' लाने वाला है। बचकाना लगने की हद तक आदर्शवादी नौजवान जिसे सबसे कठिन ड्यूटी पर चुनाव करवाने दंडकारण्य के जंगलों में भेज दिया जाता है। विशालकाय राज्य संस्था की मशीन में एक पुर्जा भर है वह। अमित मासुरकर की 'न्यूटन' कड़वी सच्चाई को सचेत हास्य के साथ हमारे सामने रखती है। यहां गैर-बराबरी और नाइंसाफी सिस्टम की गलती से नहीं हो रहे, यह तो दरअसल इस व्यवस्था में सिस्टमैटिक तरीके से अंजाम दिए जाने वाले काम हैं। 'जाने भी दो यारो' की ब्लैक कॉमिडी की याद दिलाती 'न्यूटन' इस साल की सबसे उल्लेखनीय फिल्म है। 'न्यूटन' लड़ता है, हारता है और फिर से लड़ता है।


फिल्म के आखिरी सीन में जंगल की जगह नजर आती फैक्ट्री में इस नाइंसाफी की कुंजी है। नक्सलियों का डर दिखाकर आदिवासी मतदान से रोके जाते हैं। 'न्यूटन' सवाल पूछती है कि यह कैसा लोकतंत्र है जो अपने ही एक नागरिक को दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है? क्यों बचा है अब तक यह इस नाटक के बदले? और शायद खुद जवाब भी देती है उस अंतिम दृश्य में जहां सबकुछ देख लेने के बावजूद पहचान में एक दलित, एक आदिवासी, एक महिला बैठे हुए हैं, अपने हिस्से की ड्यूटी निपटाते लंच टाइम के इंतजार में। अपने हिस्से का विश्वास बचाए हुए। वे पुर्जे भर हैं इस विशालकाय राज्य व्यवस्था के लेकिन कई बार आस्था में पुर्जे पूरी मशीन से बड़े होते हैं।

मुक्ति भवन

कैसा लगता है एक बेटे को जब 77 साल का बूढ़ा पिता उससे बोले, 'बेटा, मुझे अब काशी छोड़ आ, मेरा जीने में मन नहीं लगता।' क्या उसे अपराधबोध होता होगा कि पिता की सेवा में कोई कमी तो नहीं रह गई? क्या उसे गुस्सा आता होगा अपने पिता की इस अतार्किक मांग पर? क्या वह शक करता होगा अपने वृद्ध पिता की अचानक उपजी धार्मिकता और समझदारी पर? या उसे झुंझलाहट होती होगी कि अब पिता को मरने के बहाने से भी उसकी कीमती छुट्टी खानी है?

बाप-बेटे के रोल में आदिल हुसैन और ललित बहल की सुनहरी भूमिकाओं से सजी 'मुक्ति भवन' में अपराधबोध भी है, गुस्सा भी, शक भी है और झुंझलाहट भी। कमाल की बात यह है कि यह दोनों ओर से है। बेटा अब खुद एक बालिग लड़की का पिता है। वह जैसे झूल रहा है बीचों-बीच या फंस गया है और पिता वापस बचपन की जिद की ओर लौट रहे हैं जैसे मूल की ओर। पुरानी अदावतें हैं और फिर अचानक सब बह जाना है। निर्मल। 24 साल की उम्र में निर्देशक शुभाशीष भूटियानी ने मृत्यु पर फिल्म बनाई है। क्या खूब!


इस फिल्म को बनारस के घाट पर ही होना था क्योंकि यहां मृत्यु सबसे आम चीज है। वह अवश्यंभावी है, इसलिए उसकी उपस्थिति पर बहस गैरजरूरी है। मृत्यु का यह स्वीकार ही अंतत: बनारस को उससे पार देख पाने की दृष्टि देता है। इस जीवन को अपराधबोध में नहीं, उत्सव में बिताने की दृष्टि देता है।

बरेली की बर्फी

एक लड़की है बिट्टी। पंख बड़े हैं और शहर छोटा। शहर कौन-सा, बरेली। यहां शादी के लिए देखने आए लड़कों को प्यार से ज्यादा उसके वर्जिन होने की चिंता है। वह तो भाग ही जाती पर उसका दिल स्टेशन पर डिस्काउंट में खरीदे लुगदी उपन्यास 'बरेली की बर्फी' के लेखक प्रीतम विद्रोही पर आ जाता है। क्यों, क्योंकि उनके उपन्यास की नायिका भी बरेली में रहती है। ब्रेक डांस करती है। इंग्लिश फिल्में देखती है। डिट्टो बिट्टी!

बीते जमाने की फिल्म 'साजन' की याद दिलाती इस कहानी को बरेली में ही होना था। यहां एक नायक शादी के कार्ड छापने वाली प्रेस के मालिक दुबे जी का बेटा है और दूसरा वाला साड़ी की दुकान में सेल्समैन। यहां कुंवारी लड़की का बाप के सामने सिगरेट पीना और दिनदहाड़े बॉयफ्रेंड के साथ मोटरसाइकल पर घूमना ही क्रांति बराबर है। फिर यह जो छोटा शहर है, बहुत से दर्शकों के लिए छूटा शहर है। इसका नॉस्टेल्जिया आज महानगर के दर्शक के लिए सबसे कीमती चीज है। 'बरेली की बर्फी' इसे खूब भुनाती है।


ऋषिकेश मुखर्जी और सई परांजपे की फिल्मों की तरह यहां भी कोई विलन नहीं है। कहानी का भोलापन ऐसा है कि गुंडई करते नायकों पर भी प्यार ही आता है और राजकुमार राव ने तो प्रीतम विद्रोही की भूमिका में मुशायरा लूट लिया है। एक फ्रेम में दब्बू, दूसरे में दादागिरी से भरपूर पर जरा भी एक्सप्रेशन का सही नोट मिस नहीं होता उनका। बीते साल की सबसे बड़ी हिट 'दंगल' के लेखकों ने इस साल फिर चमत्कार किया है। यह इस साल की सबसे मजेदार स्क्रिप्ट और दर्शकों को खूब पसंद आने वाली फिल्म है।

लिपिस्टिक अंडर माय बुर्का
यह कोई पहली बार नहीं है कि किसी हिंदी फिल्म में महिलाओं की जरूरतें और उनकी सोच को केंद्र में रखा गया हो लेकिन जो बात 'लिपिस्टिक अंडर माय बुर्का' को खास बनाती है, वह इसका परिवेश है। यह मुखर है। यह असहज करती है क्योंकि यह हमारे घरों के कुछ ज्यादा ही निकट है। भोपाल की तंग गलियों में स्थित हवेली 'हवाई मंजिल' का सामुदायिक जीवन हमारा पहचाना है लेकिन जिस बेखौफ, निडरता और बिना जरा भी अपराधबोध के फिल्म अपनी नायिकाओं की सेक्सुअलिटी पर बात करती है, वह काफी नया है। यह एक महिला की नजर है। उनके जरूरतों की दुनिया, सपनों को सच करने की दुनिया। निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव ने यहां महिला को वस्तु समझने वाले मिडल क्लास सोसायटी के पैरों तले से लाज का मखमली कालीन खींच दिया है।

यहां महिला कर्ता की भूमिका में है। उम्र की चार भिन्न दहलीजों पर खड़ी महिलाएं- कॉलेज में पहला कदम रखती तरुण रिहाना, शादी की दहलीज पर खड़ी लीला, आत्मविश्वास से भरपूर लेकिन अपने ही शरीर को रोज अपने पति के हाथों हारने वाली शादीशुदा शिरीन और मोहल्लेभर की बुआजी अधेड़ उम्र ऊषा, दरअसल एक ही लड़ाई लड़ रही हैं, अपने शरीर पर अधिकार की लड़ाई। अपने तन-मन और उससे जुड़े फैसलों पर अधिकार की लड़ाई और जिस समाज में महिला शरीर की पवित्रता पर सभ्यताओं का पाया टिका हो, वहां आज भी यही सबसे मौलिक लड़ाई है।


यह साल की सबसे विवादास्पद फिल्म है। सबसे बेहतर भले न हो, यह साल की सबसे जरूरी फिल्म तो है। फिल्म में मैरिटल रेप के सीन पर जब ऑडियंस में बैठी कुछ पुरुष की टोलियां हंसती हैं तो यह हमारे मिडल क्लास सोसायटी का एक बदसूरत चेहरा दिखाती है। इस बदसूरत चेहरे को ठीक से पहचान लीजिए क्योंकि समस्या को समझने के लिए पहचान जरूरी है। पहचान के बाद ही समाधान का कोई रास्ता निकलने की सूरत बनेगी।

अनारकली ऑफ आरा
यह 'पिंक' फिल्म की खींची 'न' की लकीर को और गाढ़ा करती है। अपनी स्थानीयता में गहरे रची-बसी फिल्म। प्रामाणिक संवाद और गीतों से सराबोर। अनारकली द्विअर्थी गाने गाती है। उसकी मां भी एक नाचनेवाली थी। महिला सम्मान की कसौटी रचते हुए वह कभी हमारा आदर्श नहीं होगी। इसीलिए जरूरी है कि उसकी नजर से हम व्यवस्था को देखें जैसे गांधी विकास की अवधारणा को 'अंतिम व्यक्ति' की कसौटी पर परखते थे। वह हमारे महिला सम्मान की कसौटी की 'अंतिम व्यक्ति' है। देखें, पराए कस्बे में सैकड़ों शोहदों के सामने खुले स्टेज पर नाचते हुए वह सुरक्षित है लेकिन ऐन पुलिस थाने के भीतर प्रोग्राम में उसकी इज्जत पर हमला होता है। देखें, कैसे कस्बे के सबसे सम्मानित व्यक्ति की आरामगाह में उसकी 'न' की बोली लगाई जाती है।


अनारकली दिल्ली में रहकर भी अपनी लड़ाई लड़ सकती थी। वह सवाल को बड़े सिविल मंच पर लेकर जा सकती थी लेकिन वह आरा कस्बे के उसी मंच पर लौटती है जहां उसका अपमान हुआ और उसी तथाकथित द्विअर्थी अश्लील नाच को अपना हथियार बनाती है जिसने उसे 'आरा की अनारकली' बनाया और बदनाम किया। अनारकली बताती है कि कुछ लड़ाइयां ऐसी होती हैं जिनसे बचकर भागा नहीं जा सकता। उन्हें उनकी जड़ों में लौटकर ही लड़ना होता है, अपने मौलिक हथियारों से।

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जलवा कायम किताबों का

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नई दिल्ली
इंटरनेट और मोबाइल के इस दौर में क्या किताबों का कारोबार सिमट रहा है? यह ऐसा सवाल है, जो गाहे-बगाहे उठता रहता है। फिलहाल इसका जवाब ना में है। इंसान किताबों के साथ अपने रिश्ते को भूला नहीं है। हां, कुछ नए ट्रेंड और बदलाव जरूर सामने आ रहे हैं। किताबों की बदलती दुनिया की दास्तां बता रहे हैं प्रभात रंजन :

ब्रिटेन का एक बेहद पॉप्युलर अखबार हर साल अंग्रेजी भाषा में छपी 100 किताबों की बेस्टसेलर लिस्ट जारी करता है। 2017 में इस सूची में टॉप पर जो किताब रही वह है 'फाइव इनग्रेडिएंट्स - क्विक ऐंड इजी फ़ूड'। जेमी ओलिवर की यह किताब पाक कला की किताब है। यह किताब तेज रफ्तार दौड़ती-भागती जिंदगी में कम समय में बेहतरीन खाना बनाने की कला सिखाती है और बताती है कि सिर्फ 5 चीजों को मिलाकर किसी भी तरह का खाना टेस्टी बन सकता है। इस सूची में दूसरे नंबर पर जो किताब रही, वह है 'बैड डैड'। डेविड वलियम्स का यह ग्राफिक नॉवल बच्चों के लिए है। हाल के बरसों में डेविड वलियम्स की किताबों ने दुनिया भर में बच्चों को पढ़ने की आदत डालने का काम किया है।

जब बच्चों की किताबों की बात चल रही है तो यह जानना भी दिलचस्प होगा कि गार्डियन वीकली की बिक्री के आधार पर जारी 100 पुस्तकों की इस सूची में 39 किताबें बच्चों की हैं, जिनमें अकेले वलियम्स की 11 किताबें हैं। यह देखकर अच्छा लगता है कि जिस दौर में इस बात की आशंका जताई जा रही है कि स्मार्टफोन और तकनीक के दूसरे माध्यमों के बीच बड़े हो रहे बच्चे किताबों से दूर चले जाएंगे, उसी दौर में बच्चों की किताबों के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं और उनकी बिक्री अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है। बेशक दुनिया भर में बच्चों की किताबों की बिक्री पहले से ज्यादा बढ़ी है।

इसी तरह माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला की किताब 'हिट रिफ्रेश' का जिक्र करना भी जरूरी है। एसी निल्सन समेत अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं की बेस्टसेलर सूची में इस किताब ने जगह बनाई है। दिलचस्प बात यह है कि यह किताब मूलतः तकनीक पर है कि किस तरह आने वाले समय में तकनीक इंसान के जीवन को बदलने वाली है। इस डिजिटल युग में तकनीक के साथ इंसानी रिश्तों के बारे में जानने की ललक बढ़ रही है। सत्या नडेला की किताब की सफलता इसका एक उदाहरण है।

ये तमाम उदाहरण साबित करते हैं कि किताबों का प्रभाव कम नहीं हो रहा है। हां, उनका रूप जरूर बदल रहा है। उदाहरण के लिए 2015 में प्रकाशन जगत में सबसे बड़े ट्रेंड के रूप में वयस्कों के लिए कलरिंग बुक का आगमन हुआ। कहा जाता है कि वयस्कों के काम के तनाव और चिंता को दूर करने में इस तरह की कलरिंग बुक्स काफी काम आती हैं। 2015 में वयस्कों के लिए कलरिंग बुक की एक करोड़ से ज्यादा कॉपी बिकीं। हालांकि 2017 में इस तरह की कुछ अलग तरह की किताबों की बिक्री में गिरावट देखी गई, लेकिन अभी यह ट्रेंड कायम रहने वाला बताया जा रहा है। इसमें और नए-नए प्रयोग सामने आने की संभावना है।

ई-बुक्स की रफ्तार
हां, इस बीच एक हैरान करने वाली बात भी नजर आई। इस डिजिटल युग में अंग्रेजी भाषा में डिजिटल बुक्स यानी ई-बुक्स और ऐप आधारित किताबों की बिक्री में बड़े पैमाने पर गिरावट देखी गई। 2011 के बाद ई-बुक्स को किताबों के भविष्य के रूप में देखा जा रहा था लेकिन नया ट्रेंड यह बता रहा है कि अमेरिका जैसे देशों में पाठक फिर से प्रिंटेड बुक्स की ओर लौट रहे हैं। लोग दोबारा किताबों की दुकानों की तरफ जा रहे हैं। सिर्फ उपन्यास ही ई-बुक में रूप में बिक रहे हैं।

हालांकि डिजिटल प्लैटफॉर्म पर किताबों का उपलब्ध होना हिंदी प्रकाशन जगत में पिछले साल की सबसे बड़ी घटना मानी जा सकती है। ऐमजॉन किंडल ने हिंदी सहित 5 भारतीय भाषाओं में ई-बुक उपलब्ध करवाने की शुरुआत की थी। हिंदी में इसकी कामयाबी और नाकामी को लेकर अलग-अलग तरह के दावे किए जा रहे हैं। 'नई वाली हिंदी' के स्लोगन के साथ हाल के बरसों में प्रकाशन जगत में उल्लेखनीय मौजूदगी दर्ज करा चुके प्रकाशन हिन्द युग्म के शैलेश भारतवासी ने बताया, 'किंडल के भारतीय भाषाओं में उतरने की घटना महज 1 साल पुरानी है। पुराना अनुभव कहता था कि ई-बुक से मिलने वाला रेवेन्यू हमारे कुल रेवेन्यू का अधिकतम 7 फीसदी हो सकता है लेकिन किंडल पर आने के बाद किसी-किसी महीने हिंद युग्म की किताबों के किंडल संस्करण के कुल डाउनलोड्स, उनके प्रिंटेड पब्लिकेशन की बिक्री के बराबर या उससे ज्यादा भी हो जाते हैं। इस तरह, हमारे कुल रेवेन्यू में ई-बुक की साझेदारी 50 फीसदी तक की हो गई है।'

कुछ ऐसा ही मानना राजकमल प्रकाशन के अलिंद माहेश्वरी का भी है। माहेश्वरी कहते हैं, 'ऐमजॉन किंडल के भारतीय भाषाओं में शुरुआत के बाद ई-बुक की बिक्री में काफी अच्छा बदलाव आया है। हमारी बहुत-सी किताबें हैं, जो प्रिंट के साथ-साथ ई-बुक के रूप में भी बहुत अच्छी बिक रही हैं। जावेद अख़्तर की 'तरकश', पीयूष मिश्रा की 'कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया', रामधारी सिंह 'दिनकर' की रश्मिरथी इनमें मुख्य हैं।'

हालांकि राजपाल ऐंड संस की डायरेक्टर मीरा जौहरी का यह मानना है, 'अभी हिंदी के प्रकाशकों में ई-बुक्स के प्लेटफॉर्म को लेकर वैसी तैयारी नहीं दिखाई दे रही है इसलिए इसके जरिए किताबों की बिक्री उतनी उत्साहवर्धक नहीं है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह प्लैटफॉर्म आने वाले बरसों में बेहद लोकप्रिय होने वाला है।'

ऑडियो बुक्स के जलवे
ई-बुक के अलावा इस साल हिंदी में ऑडियो बुक्स की भी धमक सुनाई दी। हाल में storytel.in नामक ऐप की शुरुआत हुई है। यह शुरुआत एक मल्टिनैशनल कंपनी ने की और इस ऐप के जरिए आवाज की दुनिया के जाने-माने लोग ऑडियो के रूप में किताबों को प्रस्तुत करेंगे। storytel.in की प्रियंवदा रस्तोगी के बताया, 'हम अपने ऑडियो बुक प्लैटफॉर्म, स्टोरीटेल की बात करें तो हमारे ऐप पर हिंदी, मराठी और इंग्लिश में लिया गया कंटेंट और ओरिजनल ऑडियो स्टोरी बुक, दोनों हैं। स्टोरीटेल आठ देशों में बहुत अच्छा बिजनेस कर रही है। हम इंडिया में नवंबर के आखिरी हफ्ते में लॉन्च हुए हैं और हमें बहुत अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है। इन ऑडियो बुक का एक अहम पक्ष यह भी है कि इन कहानियों को इंडस्ट्री की दमदार आवाजों ने अपने अंदाज में लाइव कर दिया है। उन्होंने इनकी रोचकता बढ़ा दी है।'

वाणी प्रकाशन के निदेशक अरुण महेश्वरी ने बताया कि उनके प्रकाशन की प्रमुख किताबें भी storytel.in के ऐप पर जल्द ही आने वाली हैं। उनका मानना है कि किताबों का यह रूप शायद आने वाले समय में ई-बुक से ज्यादा लोकप्रिय हो जाए।

ऐप पर भी बुक्स
देश में मोबाइल फोन और इंटरनेट का इस्तेमाल करनेवाले लगातार बढ़ रहे हैं। इसके साथ ही ऐप के जरिए पाठकों को किताबों से जोड़ने की कोशिशें भी बड़े पैमाने पर शुरू हुई हैं। इस दिशा में सबसे पहली कामयाब कोशिश 'न्यूजहंट' ऐप ने की थी। 'न्यूजहंट' ने हिंदी-अंग्रेजी में फोन के जरिए किताबों को पहली बार लोकप्रिय बनाने का काम किया। पिछले साल 'जगरनॉट बुक्स' ने हिंदी में कई ऐसी किताबें प्रकाशित कीं, जिनको सिर्फ 'जगरनॉट बुक्स' के ऐप पर ही पढ़ा जा सकता है। हाल में ही 'जगरनॉट बुक्स' ने एयरटेल के साथ करार करके ऐप आधारित किताबों के विस्तार की दिशा में नई उम्मीदें जगाई हैं। हालांकि, अभी हिंदी में ऐसा कंटेंट नहीं आया है जो ऐप को ध्यान में रखकर लिखा गया हो या जिनके जरिए ऐप का इस्तेमाल बढ़े और हिंदी कंटेंट भी लोकप्रिय हो सके। उम्मीद है, जल्द ही इस दिशा में भी काम होगा।

इसी तरह, हिंदी प्रकाशन जगत को पेशेवर बनाने की दिशा में भी काम चल रहा है। एक मीडिया संस्थान ने 'निल्सन बुकस्कैन' के साथ मिलकर हिंदी में कथा-अकथा-अनुवाद की कैटिगरी में तिमाही बेस्टसेलर सूची जारी करना शुरू किया है। इन सूचियों के जरिए हिंदी रचनाशीलता की नई पौध को बड़े स्तर पर स्वीकृति मिली है। हिंदी में अनुदित किताबों की तरफ भी सबका ध्यान गया है। हाल में यात्रा बुक्स की निदेशक नीता गुप्ता ने यह कहकर चौंका दिया कि अंग्रेजी के लोकप्रिय लेखक अमीश त्रिपाठी की हिंदी में अनुदित किताबें 5 लाख से ज्यादा संख्या में बिक चुकी हैं।

कहने का मतलब यह है कि बुक फेयर, लिटरेचर फेस्टिवल्स और ऑनलाइन बिक्री के जरिए हिंदी किताबों का न केवल प्रसार बढ़ रहा है, बल्कि युवा लेखन को स्वीकृति भी मिल रही है। मीरा जौहरी के मुताबिक, ऑनलाइन माध्यमों ने हिंदी के क्लासिक साहित्य के साथ-साथ समकालीन लेखकों को भी खड़ा होने का एक बढ़िया मंच प्रदान किया है। अरुण महेश्वरी ने बताया कि ऑनलाइन मंचों, सोशल मीडिया ईबुक्स के कारण हिंदी में पारंपरिक विधाओं के रूप बदल रहे हैं। अब हिंदी साहित्य का मतलब सिर्फ कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना ही नहीं रह गए हैं।

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एक होंगे हिंदू!

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राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) देश के हिंदुओं को एकजुट करने के लिए कई अभियान चला रहा है। दूसरी ओर देश के अलग-अलग हिस्सों में जाति के नाम पर हिंदु एक-दूसरे के सामने खड़े दिख रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हिंदू समाज एक होने के बजाय बिखरता जा रहा है? सेकुलर चेहरा रखनेवाली पार्टियां भी अब क्यों हिंदुओं को लुभाने में जुटने लगी हैं। ऐसे ही सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश कर रही हैं पूनम पाण्डे...

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभर के हिंदुओं को एकजुट करने के लिए काफी वक्त से 'एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान' का अभियान चला रहा है यानी सभी हिंदू, चाहे वे किसी भी जाति के हों, एक साथ पूजा करें, एक साथ पानी पिएं और अंतिम संस्कार भी एक ही श्मशान पर हो। संघ का दावा है कि उसके 'समरसता अभियान' का असर दिख रहा है और हिंदुओं के बीच जातिभेद की दीवार छोटी हो रही है। लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में हाल में हुई घटनाएं अलग ही कहानी कह रही हैं। इन घटनाओं से तो यही लगता है कि एकजुट होने के बजाय हिंदुओं के बीच खाई बढ़ रही है।

क्या आरक्षण है दरार की वजह!

जातिगत आरक्षण के मसले पर संघ के लोग बेहद संभलकर बोलते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर एक बयान दिया था, जिसने वहां के समीकरण ही बदल गए। उसके बाद संघ कई मौकों पर साफ करता रहा है कि वह आरक्षण के खिलाफ नहीं है। संघ विश्लेषक दिलीप देवधर कहते हैं कि हिंदू समाज के बीच जो विभाजन दिख रहा है, वह राजनीति की वजह से है। अपने वोट बैंक को एक साथ करने के लिए अलग-अलग जगह के नेता इस आग को भड़का रहे हैं। वह कहते हैं हिंदू समाज के बीच जमीनी स्तर पर भेदभाव कम हुआ है लेकिन राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई में यह विभाजन बढ़ता दिखता है।

आंदोलनों में बिखरे हिंदू
पिछले दिनों महाराष्ट्र में हुई हिंसा के बाद दलित और मराठा एक-दूसरे के सामने खड़े दिख रहे हैं। जहां दलित अपनी अस्मिता का सवाल उठा रहे हैं, वहीं मराठों को भी चिंता है कि उन्हें अहमियत नहीं मिल रही। राजस्थान में गुर्जर अपने लिए आरक्षण चाहते हैं तो हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग को लेकर अड़े हुए हैं। आंध्र प्रदेश में ओबीसी के तहत आरक्षण की मांग को लेकर कापू समुदाय भी आंदोलन करता रहा है। कर्नाटक में लिंगायत खुद की हिंदुओं से अलग धार्मिक पहचान की मांग कर रहे हैं। जब अपनी अस्मिता या अहमियत को लेकर हिंदुओं के अलग-अलग समूह लगातार बंटे दिख रहे हैं और एक-दूसरे के सामने खड़े नजर आ रहे हैं तो ऐसे में संघ का हिंदुओं को एकजुट करने के सपने का क्या होगा? संघ विचारक राकेश सिन्हा दावा करते हैं कि संघ की कोशिशों से हिंदू समाज के बीच छुआछूत काफी हद तक कम हुई है। वह कहते हैं कि राजनीति विभाजित करने का काम करती है लेकिन संघ सबको एकजुट करने की मुहिम में लगातार आगे ही बढ़ा है। 70 के दशक के सोशलिस्ट से लेकर कांग्रेस और कम्युनिस्ट तक, सभी जातिविहीन समाज की बात करते थे लेकिन अब संघ को छोड़कर कोई इसकी बात ही नहीं करता।

भटका हुआ किसान आंदोलन
राजनीतिक विचारक योगेंद्र यादव का भी यही कहना है कि हाशिए पर खड़े लोग अब मुखर हो रहे हैं। वह कहते हैं कि हिंदू समाज की प्रकृति ही विविधता से भरा होना है। यहां कोई एक काबा, एक कुरान या एक बाइबल नहीं है। यही हिंदू समाज की ताकत भी है। वह कहते हैं कि जैसे-जैसे समाज में जागरूकता आ रही है, वैसे हाशिए पर खड़े लोग मुखर हो रहे हैं। वह आरोप लगाते हैं कि संघ की मानसिकता अगड़ी जातियों के दबदबे को बनाए रखने की है इसलिए वह इस कोशिश में रहता है कि इस तरह के उभार को रोका जाए। सही सोच यह होगी कि अब तक हाशिए पर रहे जो लोग मुखर हो रहे हैं, उनका विरोध न किया जाए। उनका स्वागत किया जाए। ऐसे में एक-दूसरे के खिलाफ विरोध का जहर नहीं बनेगा। योगेंद्र यादव कहते हैं जाट, मराठा, पाटीदार, कापू के जो आरक्षण आंदोलन चल रहे हैं, वे खेतिहर समुदाय की समर्थ जातियों के आंदोलन हैं। किसान का सवाल बतौर किसान उठाने के बजाय जाति के नाम पर उठाया जा रहा है, जिसका नुकसान हो रहा है। किसान की हालत में सुधार के लिए कदम उठाए जाएं, यह कहने की बजाय मेरी जाति को आरक्षण मिले, यह कहना महज छलावा है। ये भटके हुए किसान आंदोलन हैं।

विरोध हुआ मुखर
वरिष्ठ पत्रकार और विचारक दिलीप मंडल कहते हैं कि हिंदू समाज में विभाजन बढ़ा नहीं है, बल्कि उतना ही है, जितना पहले था। अब विरोध के सुर तेज हुए हैं इसलिए यह उथल-पुथल दिख रही है। यथास्थिति को चुनौती दी जा रही है इसलिए लग रहा है कि हिंदू समाज के लोग आमने-सामने आ गए हैं। मंडल ने कहा कि भारतीय समाज आंतरिक तौर पर बंटा हुआ समाज है। इसके आपसी विरोध, झगड़े, जाति के नाम पर ऊंच-नीच, ये सब इसकी संरचना का हिस्सा हैं। इसे धार्मिक मान्यता भी हासिल है। यह विभेद बनावटी नहीं है और न ही बंटवारा किसी राजनीतिक शरारत का हिस्सा। यह भारतीय समाज की संरचना का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि यह विभाजन बढ़ा नहीं है, बल्कि नई चीज यह हुई है कि वह तबका जो अभी तक दबा रहा है, उसने विरोध करना शुरू किया है। उसने कहना शुरू किया है कि अगर मैं किसी खास जाति में पैदा हुआ हूं तो जरूरी नहीं कि मैं ही टॉयलेट साफ करूं। जब उसने कहना शुरू किया कि हम क्यों करें, तो मतभेद पैदा हुआ। उम्मीदें और आकांक्षाएं सामने आने से यह बदला दिख रहा है। यह विभाजन अभी और ज्यादा दिखेगा क्योंकि आधुनिकता आ रही है और बाजार सबको बराबरी का दर्जा दे रहा है। यह यथास्थिति को चुनौती है इसलिए उथल-पुथल है। बकौल मंडल, संघ अगर चाहता है कि यह विभेद खत्म हो तो उसे तमाम जातियों के बीच एकता के सूत्र को मजबूत करना होगा। संघ को शुरुआत घर से ही करनी होगी। उन्हें अपने संगठन के ढांचे में तमाम जातियों को जगह देनी होगी। एक को छोड़कर सारे संघ प्रमुख ब्राह्मण रहे और अगर यह संघ की चिंता का विषय नहीं है तो कैसे वह समतामूलक समाज बना पाएगा? वीएचपी नेता प्रवीण तोगड़िया मानते हैं कि हिंदू समाज के लोगों के दिलों में दूरियां बढ़ी नहीं हैं। वे दिल से एक-दूसरे के खिलाफ नहीं खड़े हो रहे, बल्कि हिंदू समाज में जो दिक्कतें आ रही हैं, वे बिगड़ी माली हालत की वजह से हैं। हर किसी की धार्मिक आकांक्षाएं होती हैं, वैसे ही आर्थिक आकांक्षाएं भी हैं। तोगड़िया कहते हैं कि कर्नाटक में लिंगायत आंदोलन अपनी शैक्षिक संस्थाओं को बचाने के लिए है और इस तरह यह आर्थिक आकांक्षा है। मराठा, जाट, गुर्जर, सभी रोजगार और बेहतर शिक्षा की इच्छा रखते हैं। तोगड़िया कहते हैं कि देश की आर्थिक नीति लंबे वक्त से रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य देने में नाकाम हुई है। सभी जातियों में 10 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। हमारी आर्थिक नाकामी की वजह से यह स्थिति खड़ी हुई है कि हिंदू एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए हैं। तोगड़िया ने दावा किया कि जाति के बीच की दूरी मिटाने और हिंदुओं को एक करने का 'समरसता अभियान' सही दिशा में जा रहा है और कई संत इस काम में लगे हैं। उन्होंने कहा कि जो भी आंदोलन चलता है, उसमें अस्मिता का सवाल तो होता ही है लेकिन दो-तिहाई वजह माली हालत होती है। तोगड़िया ने कहा कि मैं खुद पटेल परिवार में जन्मा हूं इसलिए जाट, मराठा या पटेल, इन सबकी भावनाओं का मुझे अंदाजा है। यह सब बेरोजगारी और शिक्षा के अभाव में हो रहा है। अगर आर्थिक स्थिति ठीक होगी तो जातिगत भावनाएं इतनी नहीं उभरेंगी।

राजनीति की टीआरपी में हिंदू टॉप पर
भारतीय राजनीति में पहले जहां वोट पाने के लिए अल्पसंख्यकों की बात करना जरूरी-सा माना जाता था, वहीं राजनीति की टीआरपी अब तीन चीजों से चल रही है: हिंदू, हिंदू और हिंदू। बीजेपी तो हिंदुत्व की राह पर थी ही लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने भी अब हिंदुओं की बात और उनकी भावनाओं का राग छेड़ना शुरू कर दिया है। राजनीतिक दलों को लगने लगा है कि अगर बीजेपी से मुकाबला करना है तो देश के बहुसंख्यकों की बात करनी ही होगी। जो दल पहले अपना सेकुलर फेस सामने रखने की कोशिश करते थे, वे अब हिंदू विरोधी दिखने से बचने की कोशिश में रहते हैं।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात विधानसभा चुनाव में 20 से ज्यादा मंदिरों में माथा टेका। कांग्रेसियों ने उनके जनेऊधारी ब्राह्मण होने की पूरी ब्रैंडिंग करने की कोशिश की। कांग्रेस इसी राह पर आगे बढ़ती भी दिख रही है। तीन तलाक बिल पर कांग्रेस इस वजह से अपनी आपत्तियों और सुझावों को मुखरता से नहीं रख पा रही है कि कहीं उन पर महिला और मुस्लिम विरोधी होने का तमगा न लग जाए। वह अपने नए-नवेले हिंदू रंग को धुंधला नहीं होने देना चाहती।

कांग्रेस ही नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल में सत्तासीन ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) भी हिंदू रंग में रंगने की कोशिश करती दिख रही है। ममता पर पहले मुस्लिम समर्थक होने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन अब वह हिंदू भावनाओं का पूरा ख्याल रखती दिख रही हैं। उनकी पार्टी ने राज्य में सभी ग्रामीण परिवारों को गाय बांटने का ऐलान किया था। हाल में उन्होंने बीरभूमि में ब्राह्मण सम्मेलन किया। इस सम्मेलन में आए तमाम पुजारियों को रामनामी चादर के अलावा गीता और स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण की किताबें व तस्वीरें भेंट की गईं। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पुरोहितों को भी इमामों की तर्ज पर सरकारी भत्ता देने की मांग भी उठा रही है।

कुल मिलाकर अल्पसंख्यकों के नाम पर बनीं पार्टियों को छोड़कर कोई बड़ी पार्टी हिंदू वोटर को खुद से दूर करने का कोई मौका नहीं देना चाहती। यह नया रुझान देश की राजनीति को किस दिशा में ले जाएगा, यह आनेवाले वक्त में ही साफ हो पाएगा।

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जिदंगी मिल गई दोबारा

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यह एक जिंदगी के पिर से जी उठने की कहानी है। जिस एचआईवी पॉजिटिव अनाथ बच्चे को अपनों ने ठुकरा दिया था, आज उसकी जिंदगी में प्यार भी है तो सुविधाएं भीं। आभा मिश्रा से जानतें हैं इस बच्चे की कहानी:

मेरा नाम आभा मिश्रा है और एक एनजीओ से जुड़ी हूं। अक्सर राजस्थान के आदिवासी बहुल इलाकों में जाती हूं। वहां हम गरीबों के लिए छोटे क्लिनिक चलाते हैं, जहां मरीजों का फौरी इलाज किया जाता है। हमारे एनजीओ से जुड़ी एक युवा डॉक्टर से मेरी पक्की दोस्ती हो गई थी। वह अक्सर मुझसे गांवों के अनुभव साझा किया करती थीं। उन्हीं कहानियों में से बेहद बीमार बच्चे की एक कहानी कब हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गई, पता ही नहीं चला।

उस बच्चे की कहानी शुरू करने से पहले यह बता दूं कि मेरी वह डॉक्टर सहेली पहले गुड़गांव की एक बड़े अस्पताल में मोटी सैलरी पर काम करती थीं। उनका बेचैन मन हर दिन उनसे सवाल पूछता था कि बड़े शहरों में फाइव स्टार हॉस्पिटल तो ढेरों हैं और स्पेशल डॉक्टर भी, लेकिन गांवों का क्या! ऐसे में एक दिन उन्होंने अपने मन की सुनते हुए हमारे साथ जुड़कर काम करने का फैसला कर लिया।

डॉक्टर से मेरी मुलाकात हर शनिवार होती थी। एक शनिवार को जब हम मिले तो उन्होंने बताया, 'आज मेरे यहां एक 8-10 साल का बच्चा आया था। बहुत कमजोर था। उसे बुखार भी था। मैंने जब उससे पूछा कि स्कूल जाते हो तो उसका जवाब था, नहीं। मैंने थोड़े गुस्से में पूछा कि क्यों नहीं जाते? उसने डरते हुए बताया कि उसके मां-बाप जिंदा नहीं हैं और वह अपने रिश्तेदार के साथ रहता है। वह रिश्तेदार उससे दिन भर काम करवाता है। फिर मैंने उस बच्चे से पूछा कि अगर पढ़ने का मौका मिले तो क्या पढ़ोगे? उसने हां में जवाब दिया। तब से मैं बेचैन हूं।' डॉक्टर की बात सुनने के बाद मैं कुछ समय के लिए उस बच्चे के बारे में सोचने लगी और दिल के किसी कोने में आह-सी महसूस हुई।

डॉक्टर को पता था कि उन्हीं की तरह मुझे भी बच्चों से बहुत लगाव है, चाहे बच्चे मेरे हों या किसी अनजान के। उस शाम हम दोनों ने तय किया कि उस बच्चे को उसके रिश्तेदार के पास से लाकर शहर के स्कूल में दाखिला करवाना है। हम यहीं पर नहीं रुके। हमने उसे पढ़ाने और आगे लालन-पालन की भी प्लानिंग कर ली। पैसे की दिक्कत को डॉक्टर की एक अमीर कजन ने दूर करने का वादा किया। इन सभी बातों की चर्चा करने के बाद हम सो गए। सोमवार को फिर से ऑफिस के कामों में हम व्यस्त हो गए। सोमवार से फिर शनिवार आ गया। हमने फिर से यही प्लानिंग की और फिर से व्यस्त हो गए। यह सिलसिला लगभग तीन महीने चला। हम लोग सिर्फ योजना ही बनाते रहते थे। सच कहूं तो तब खुद पर ही शर्म महसूस होने लगी थी।

एचआईवी पॉजिटिव निकला
एक दिन अचानक उस डॉक्टर सहेली का फोन आया। संयोगवश मैं भी एनजीओ के कुछ काम से उसी गांव के करीब थी। फोन पर ही डॉक्टर ने बताया कि उस बच्चे की हालत काफी नाजुक है। उसे लेकर उसका एक रिश्तेदार आया था। वह भी बहुत गरीब लग रहा था। मैंने उसके रिश्तेदार को डांटा कि क्या बच्चे को तुम पहले नहीं ला सकते थे? अगर तुम इसकी देखरेख सही से नहीं कर सकते तो इसे हमें दे दो। इस पर रिश्तेदार ने बोला, 'ठीक है। मैं इसे नहीं रख सकता। अब आप ही संभालो।' इतना कहकर उसका रिश्तेदार बच्चे को छोड़कर चला गया। बच्चे की स्थिति बहुत खराब हो गई थी। वह बहुत कमजोर था और देखने से लगता था कि उसे कई दिनों से भरपेट खाना भी नसीब नहीं हुआ है। बच्चे को जब यह पता चला कि उसका वह रिश्तेदार भी उसे छोड़ गया तो वह सदमे में आ गया और बेहोश हो गया। बच्चे की हालत देखकर यह तय था कि उसे बड़े अस्पताल में भेजना पड़ेगा। जब टेस्ट हुए तो सबसे बड़ा झटका यह जानकर लगा कि बच्चा टीबी का मरीज है और एचआईवी पॉजिटिव भी है।

गोद लेना चाहती थी मैं
बच्चे को बड़े अस्पताल तक तो ऐम्बुलेंस ले आई, लेकिन एक बड़ी समस्या आ गई। समस्या थी कि आखिर बच्चे के साथ अस्पताल में रहेगा कौन? इसके लिए शहर की ही बाल कल्याण समिति से संपर्क किया गया। वहां से सीधा और सपाट जवाब मिला कि हम इस मामले में आपकी कोई मदद नहीं कर सकते। उधर, उस बड़े अस्पताल के बड़े डॉक्टरों ने भी टका-सा जवाब दिया कि इस बच्चे का बच पाना मुश्किल है। आप बेकार ही अपना और मेरा वक्त बर्बाद कर रहे हैं। इस जवाब को सुनने के बाद हमारे क्लिनिक के डॉक्टरों ने बच्चे को दूसरे प्राइवेट अस्पताल में ले जाने का फैसला लिया। इसके साथ हमारे एनजीओ का समझौता था। इस बीच बच्चे को लकवा भी मार गया। उसकी आवाज भी चली गई।

दूसरे अस्पताल में शिफ्ट होने के बाद बच्चे के लिए चीजें बेहतर होनी शुरू हुईं। हमारी संस्था के साथ काम करने वाले एक डॉक्टर के एक दोस्त इनकम टैक्स अफसर थे। उन्होंने बच्चे के बारे में सुना तो इलाज का सारा खर्च उठाने के लिए राजी हो गए। की सहमति दे दी। डॉक्टरों की देखभाल के बाद बच्चा बेहोशी से बाहर आ चुका था। वह हॉस्पिटल में अनजाने लोगों के बीच गुमसुम-सा पड़ा रहता था। उसके शरीर में कई नलियां लगी हुई थीं। मैं और मेरी डॉक्टर दोस्त उससे मिलने हॉस्पिटल जाते रहते थे। कभी-कभी संस्था के दूसरे साथी थी हमारे साथ बच्चे को देखने आते थे। सच कहूं तो अब हम सभी को उस बच्चे से प्यार हो गया था। वह था ही ऐसा। उससे मेरा लगाव इतना बढ़ चुका था कि मैं उसे हमेशा के लिए गोद लेने के बारे में सोचने लगी, लेकिन मुझे अपनी आर्थिक स्थिति और उम्र का भी अहसास था। मेरे अंदर यह अहसास उमड़ने लगा था कि यह बच्चा सभी की नहीं बस सिर्फ मेरी जिम्मेदारी है। यह हमारा नहीं, सिर्फ मेरा है।

लेकिन दूर करना पड़ा
फिर वह वक्त भी आ गया जब अस्पताल ने बच्चे को डिस्चार्ज के लिए बोल दिया। सचाई यह थी कि उसकी जान तो बच गई थी, लेकिन वह अब भी बहुत कमजोर था। उसे विशेष देखभाल की जरूरत थी जो मैं अकेले नहीं कर सकती थी। अभी उसकी आवाज भी वापस नहीं आई थी। हमें यह एहसास हो गया था कि यह बच्चा सामान्य बच्चों की तरह नहीं रह सकता। ऐसे में हमें दिल्ली की एक संस्था के बारे में चला जो एचआईवी पॉजिटिव बच्चों की देखभाल करता है। दिल्ली ले जाने का काम जितना मुश्किल था, उससे ज्यादा मुश्किल था उसे अपने से दूर कर पाना। मैंने उससे वादा किया था कि उसे कभी भी खुद से अलग नहीं करूंगी। पहले मां-बाप चले गए, फिर रिश्तेदारों ने साथ छोड़ दिया और अब मैं भी उसे दूर भेजने वाली थी। लेकिन उसकी भलाई के लिए हमें खुद से उसे दूर करना था। एक दिन मैंने उससे कहा कि अगर तुम कुछ नहीं बोलोगे तो मैं नाराज हो जाऊंगी और फिर उसके मुंह से जो पहला शब्द निकला था, वह मेरा ही नाम था।

ट्रेन से जब हम उसे दिल्ली ले जा रहे थे तो रास्ते में उसे उल्टियां होने लगीं। ट्रेन में आसपास बैठे लोग उठकर वहां से दूसरी जगह चले गए। यह देखकर हमें बहुत बुरा लगा। लेकिन जैसे ही हम बच्चे को लेकर दिल्ली में उस संस्था के पास पहुंचे, उनकी आवभगत देखकर हमारा सारा गुस्सा काफूर हो गया। इस संस्था में पहुंचने के बाद बच्चे की जिंदगी ने नया मोड़ लिया। वहां के बच्चों और स्टाफ ने रात-दिन उसकी देखभाल करनी शुरू कर दी। मैं जब भी दिल्ली जाती, उससे मिलती। उसमें सुधार दिखने लगा था। वहीं पर एक अमेरिकी फिजियोथिरेपिस्ट इस बच्चे को लकवे से उबरने में मदद कर रहे थे। इसी दौरान इस अमेरिकी को बच्चे से काफी लगाव हो गया।

फिर आए देवदूत
कुछ दिनों बाद इस अमेरिकी और उसकी पत्नी ने बच्चे को गोद लेने की इच्छा जताई। एक पढ़े- लिखे युवा जोड़ी की उसे गोद लेने की इच्छा से हम सब खुशी से झूम उठे। दरअसल, हम बच्चों की देखभाल और इलाज में इतने बिजी रहे कि उसे संरक्षण में रखने के कानूनी पहलू के बारे में हमने सोचा ही नहीं। लेकिन हमारी खुशी क्षणिक ही साबित हुई। अपने देश में किसी बच्चे को गोद लेना एक जंग जीतने से कम मुश्किल नहीं है और यहां मामला तो विदेशी व्यक्ति को बच्चा गोद देने का था।

अब इसके बाद शुरू हुई दूसरी जंग। पहली जंग थी बीमारी से उसे बचाने की और दूसरी जंग थी सरकारी तंत्र के जंजाल से निकालकर उसके भविष्य को संवारने की। हम अपनी व्यवस्था के कैसे शिकार हैं, यह हम सब जानते हैं। मैंने अपने एक नौकरशाह दोस्त से संपर्क किया। उनकी बाल विभाग में बड़े अफसरों से पहचान थी। अभी तक गोद लेने के इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्प बात यह निकलकर आ रही थी कि सभी को उस विदेशी कपल की मंशा पर शक था, लेकिन उस अनाथ बच्चे की चिंता भी थी। इस सबके बीच बच्चे का भविष्य बेहतर करने के लिए जो उपाय हो सकते थे, उनके बारे में न कोई सोच रहा था और न ही कोई साथ दे रहा था। खैर, कदम-कदम पर मदद करने वाले अफसर जुड़ते गए और कहानी आगे बढ़ती गई। लेकिन समस्या अब भी बनी हुई थी। विभिन्न विभागों और समितियों में जो बैठे थे, उनकी उदासीनता आड़े आ रही थी। उनकी यह उदासीनता और उपेक्षा गोद लेने की प्रक्रिया को इतना धीमा और उलटे रास्ते पर लेकर चली जाती थी कि अफसर के सामने बिना आंसू बहाए बात ही नहीं बनती थी। रोना जैसे जीवन का एक अहम हिस्सा बन चुका था। दिन महीनों में बदलते जा रहे थे। बच्चा भी हमारे साथ सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते हुए बड़ा हो रहा था। हालांकि अच्छी बात यह थी कि वह स्वस्थ भी हो रहा था। इस बीच गोद लेने वाले युवा कपल का बच्चे के प्रति लगाव बढ़ रहा था। उस कपल ने गोद लेने की जो औपचारिकताएं अमेरिका में अपनानी थी, उन्हें पूरी कर ली, लेकिन हम यहां पर कहीं पहुंचते हुए नहीं दिख रहे थे। हर जगह से एक ही जवाब मिलता था, 'एक बच्चे का सवाल है, उसे ऐसे कैसे सौंप दें।'

हमारा भी एक ही जवाब होता था, 'आप सही हैं, पर आप सब जांच करके ही उन्हें सौंपे, लेकिन समय का भी तो ध्यान रखें। यह एक जीवन का सवाल है। बच्चा बड़ा हो रहा है।' इसके बाद हमें तर्क दिया जाता था कि ऐसे तो बहुत से बच्चे हैं। फिर काम को लटकाने का एक बहुत आसान तरीका था: फोन न उठाना। ऐसे में हम एक कदम आगे बढ़ते तो पांच कदम पीछे चले जाते। खैर, जैसे-तैसे गोद लेने का मामला अपने आखिरी पड़ाव यानी कोर्ट के सामने पहुंचा। कुछ दिनों की कोशिशों के बाद जज साहब ने गोद लेने की अनुमति दे दी। हमारे लिए असली खुशी का मौका अब आया था। बच्चा अब उस कपल के साथ था और बेहद खुश था।

बहरहाल, अब वह 12 साल का बच्चा अमेरिका के न्यूयार्क शहर के एक स्कूल में 7वीं क्लास में पढ़ रहा है और सभी बातों को भूलकर अपने पैरंट के साथ मस्त जिंदगी जी रहा है!

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अब सुनने की बारी...

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जगजीत सिंह की गाई हुई गजल ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो... सभी के दिलों में अब भी है। इसी गजल में एक खूबसूरत अंतरा है: 'वो नानी की बातों में परियों का डेरा, वो चेहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा, भुलाए नहीं भूल सकता है कोई, वो छोटी-सी रातें वो लम्बी कहानी...।' यह अंतरा लोगों को अब भी बचपन में लेकर चला जाता हैं। अगर आप भी कहानी सुनने के शौकीन हैं और बुक पढ़ना भारी लगता है तो ऑडियोबुक है ना। कानों में ईयर फोन लगाइए और पहुंच जाइए, कहानियों की अद्भुत दुनिया में। आज भारत समेत दुनियाभर में ऑडियोबुक का ट्रेंड काफी तेजी से बढ़ रहा है। यानी बुक पढ़ने के लिए आपको घंटों तक किताब पर आंख टिकाए रखने की जरूरत नहीं है, बस कान में ईयरफोन लगाइए और पूरी बुक सुनकर पढ़ लीजिए। चूंकि यह सुविधा हर समय मोबाइल पर उपलब्ध है, इसलिए भी लोग इसका खूब उपयोग कर पा रहे हैं।

ऑडियोबुक की शुरुआत

भले ही ऑडियोबुक का ट्रेंड आज बढ़ रहा हो, लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इसकी शुरुआत आज से 86 साल पहले यानी 1931 में ही हो गई थी। सबसे पहले (अमेरिकन फाउंडेशन फॉर ब्लाइंड) एएफबी और लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस बुक्स ने अडल्ट ब्लाइंड प्रोजेक्ट के तहत टॉकिंग बुक्स प्रोग्राम पेश किया था और पहला टेस्ट रिकॉर्डिंग 1932 में किया था। वहीं टॉकिंग बुक प्रोग्राम के तहत 1934 में बाइबल सेक्शन को डाला गया। 1952 में मैकडॉनल्ड ने सात शहरों में ऑडियो रिकॉर्डिंग स्टूडियो का विस्तार किया। इसके बाद 1969 में लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस ने ऑडियोबुक कैसेट्स रिकॉर्ड कर उपलब्ध कराया। 1970 के बाद तो इस काम में कई बड़े नाम और जुड़ गए। बाद में ऑडियो बुक को कैसेट्स, सीडी और डीवीडी फॉर्मेट में भी रिकॉर्ड किए गए। बड़ी बात यह है कि इंटरनेट के आने के बाद ही इस क्षेत्र में तेजी से विकास देखने को मिला। 2005 में अमेरिका में न्यू यॉर्क टाइम्स के लेखकों ने एमपी 3 ऑडियो बुक के क्षेत्र में काफी काम किया। इसके बाद से ही इसका क्रेज काफी तेजी से बढ़ने लगा।

आज क्या है स्थिति

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि वर्ष 2017 में यूएस में ऑडियोबुक सबसे तेजी से विकास करनेवाला डिजिटल पब्लिशिंग इंडस्ट्री बन गया। एक साल में 2.5 बिलियन डॉलर के ऑडियोबुक्स बिके। पिछले 12 महीने में यूएस की 26 फीसदी आबादी ऑडियोबुक सुन रही है। यूएस के अलावा यूरोप में भी यह काफी लोकप्रिय हैं। इसकी लोकप्रियता में इस तेजी की सबसे बड़ी वजह रही है इंटरनेट के चलते मोबाइल पर इसकी उपलब्धता। यानी यह आपके साथ हमेशा ही रहेगा, जबकि पहले ऑडियो कैसेट्स और सीडी के साथ ऐसा नहीं था। इंटरनेट ने एक ऐसा प्लेटफॉर्म दिया है जिसकी मदद से ऑडियो बुक को एक जगह अपलोड कर देने से ही दुनियाभर के पाठक अपने घर में डाउनलोड कर इन्हें पढ़ सकते हैं।

आज ऑडियोबुक की चर्चा इसलिए भी ज्यादा हो गई है क्योंकि इसमें दुनियाभर की प्रमुख तकनीकी कंपनियां इसमें शामिल हो गई हैं। एमजॉन जैसी बड़ी कंपनी इस क्षेत्र में पहले से ही मौजूद थी। हाल ही में गूगल ने प्ले स्टोर पर ऑडियोबुक का नया सेक्शन बनाया है जहां आप इसे सब्सक्राइब कर पढ़ सकते हैं। ऑडियोबुक के क्षेत्र में आज सबसे बड़ा नाम 'ऑडिबल' का है। वर्ष 2008 में अमेज़न ने इस कंपनी का अधिग्रहण कर लिया था। आज दुनियाभर में 'ऑडिबल' का एकछत्र राज है। हालांकि इसके अलावा भी कुछ कंपनियां है जो बेहतर कर रही हैं। एमजॉन के अलावा नोबल और कोबो भी ऑडियोबुक के क्षेत्र में बेहतर काम कर रही हैं। इनके अलावा दुनियाभर के कई बड़े बुक पब्लिशर भी इस क्षेत्र में दस्तक दे चुके हैं। इनमें अहम नाम हैं पेंगुइन और हार्पर कॉलिंस।

भारत में क्या है स्थिति

भारत में ऑडियोबुक का मार्केट फिलहाल बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन भारत दुनिया में तेजी से विकास करनेवाला मार्केट जरूर है। ऑडियोबुक क्षेत्र में यहां भी अच्छी कोशिशें देखने को मिल रही हैं। भारत का प्रमुख बुक पब्लिशर राजकमल और वाणी प्रकाशन ने स्टोरीटेल इंडिया के साथ समझौता किया है। स्टोरीटेल के ऑडियोबुक्स ऐप के माध्यम से मोबाइल प्लेटफॉर्म और वेब प्लेटफॉर्म पर भी उपलब्ध हैं। इस प्लेटफॉर्म पर इंग्लिश के अलावा हिंदी और मराठी में भी बुक्स उपलब्ध हैं। इसी प्लेटफॉर्म पर राजकमल के ऑडियोबुक्स कलेक्शन अलग से उपलब्ध हैं। इसके अलावा भी यहां कई दूसरी भरतीय बुक्स भी ऑडियो फॉर्मेट में उपलब्ध हैं। जहां तक गूगल की बात है तो फिलहाल यहां से अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक की किताबें ही पढ़ने को मिल सकती हैं। हिंदी की इस क्षेत्र में मौजूदगी बहुत कम है। जैसा कि देखा जाता है कि गूगल शुरू से ही क्षेत्रीय भाषाओं को भी काफी महत्व देता है। ऐसे में वह दिन दूर नहीं होगा जब गूगल पर हिंदी समेत तमाम दूसरी भारतीय भाषाओं के ऑडियोबुक्स भी उपलब्ध होंगे।

क्यों बढ़ रहा है ऑडियो बुक मार्केट

ई-बुक की शुरुआत तो बहुत पहले हो गई थी, लेकिन अब ऑडियोबुक की चर्चा हो रही है। ऑडियोबुक की सबसे बड़ी खासियत है कि यह उपयोग में काफी आसान है। 'गुड रीडर' द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, यूएस में 29 फीसदी से भी ज्यादा मोबाइल यूजर ऑडियोबुक का उपयोग करते हैं और एक साल में एक यूजर 15 से ज्यादा ऑडियो बुक को सुन लेता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है। ऑडियोबुक को पढ़ने की बजाय आप सुन सकते हैं। आप घर में हों या फिर ऑफिस में, कार में या फिर मेट्रो में, कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे ही समय मिला आपने इसे ऑन कर लिया और सुनते चले गए। वहीं किताब या ईबुक के साथ समस्या यह है कि इसे आप हर जगह नहीं पढ़ सकते। आपको इसके लिए पूरा ध्यान देना पड़ता है। ऑडियोबुक में आपके पास यह सुविधा होती है कि जिस तरह किसी कहानी का कुछ पार्ट आप नहीं पढ़ना चाहते, तो पन्ने पलट देते हैं, उसी तरह ऑडियो को फास्ट फॉरवर्ड करके प्ले करने का भी विकल्प मिलता है। आप काम करते करते हुए भी ऑडियोबुक सुन सकते हैं। डॉक्टर्स की मानें तो लंबे समय तक एक्टिव मोबाइल स्क्रीन को देखना सेहत के लिए ठीक नहीं है। ऐसे में ऑडियोबुक एक बड़ी सुविधा है।

ऑडियोबुक यूजर के अलावा पब्लिशर के लिए भी काफी फायदेमंद है। यह खर्च बचाता है। इसके लिए भारी मात्रा में प्रिंटिंग कॉस्ट उठाना नहीं पड़ता, साथ ही इसे स्टॉल तक पहुंचाने की जरूरत भी नहीं होती। एक बार रिकॉर्ड कर डिजिटल ऑडियो तैयार करना होता है। ऐप एक बार अपलोड हो गया तो आप चाहें जितनी बार डाउनलोड करें, कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे यूजर के लिए कॉस्टिंग काफी कम हो जाती है।

क्या है भविष्य?

एमजॉन और गूगल जैसी कंपनियों की मौजूदगी ही इस क्षेत्र को खास बना देती है। जानकार कहते हैं कि ऑडियोबुक्स की आने वाले समय में मांग काफी बढ़ेगी। पिछले साल अमेज़न ने ई-बुक रिडर किंडल ओएसिस 2 को पेश किया था। यह पहला किंडल था जिसे ब्लूटूथ और ऑडिबल बुक स्टोर से लैस किया गया था। इसमें आप फुल फंक्शन के साथ ऑडियो बुक का उपयोग कर सकते हैं।

गूगल होम और एमजॉन इको स्पीकर के बारे में शायद आप जानते होंगे। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस से लैस इन स्पीकर की काफी चर्चा है। एक सर्वे के अनुसार, पिछले साल ऑडियो बुक का उपयोग करने वाले में से 19 फीसदी लोगों ने गूगल होम और अमेज़न इको पर ऑडियोबुक सुना था। ऐसे में अब ऑडियोबुक निर्माता अमेजन एलेक्सा स्मार्ट स्पीकर, गूगल होम और एपल होमपॉड जैसे डिवाइस को ध्यान में रखकर ऐप डिजाइन कर रहे हैं जिससे कि हर तरह के यूजर इसका उपयोग कर सकें। इतना ही नहीं बीबीसी ने भी रोसिना साउंड के साथ समझौता किया है जिससे कि रेडियो ड्रामा को वे ऑडियोबुक्स फॉर्मेट में पेश कर सकें। इस तरह की कोशिशें देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आगे क्या होने वाला है! घर में अब किताबों की लाइब्रेरी की जगह फोन में ऑडियोबुक का संग्रह होगा। इतना ही नहीं यदि जल्दी ही स्कूलों में भी किताबों की जगह ऑडियो बुक से पढ़ाई होने लगे तो आश्चर्य नहीं!

कैसे सुनें ऑडियो बुक
ऐंड्रॉयड फोन: ऑडियोबुक्स को आप मोबाइल या फिर पीसी पर इंटरनेट के माध्मय से सुन सकते हैं। यदि आप ऐंड्रॉयड यूजर हैं तो:

1. गूगल प्ले स्टोर खोलें।

2.बुक्स टैब में जाना होगा। यह आपको होम टैब के बाद गेम्स, मूवीज, म्यूजिक के बाद मिलेगा। बुक्स को क्लिक करना है।

3. ऑडियो बुक्स के सभी सेक्शन आपके सामने होंगे। सबसे ऊपर वाले सेक्शन में जेनरल, टॉप सेलिंग, न्यू रिलीज और टॉप फ्री जैसे ऑप्शन मिलेंगे। नीचे में ऑडियोबुक्स फोर यू, फ्रिक्शन एंड लिटरेचर और पॉप्यूलर रोमांस जैसे ऑप्शन भी देती है। इन पर क्लिक कर अपनी पसंद के अनुसार ऑडियो बुक चुन सकते हैं।

जैसे ही आप किसी खास किताब पर क्लिक करेंगे आपको सामने फ्री सैंपल का विकल्प मिलेगा। उसके बगल में ही खरीदारी का विकल्प होगा। यदि गूगल प्ले स्टोर पर आपने पहले से अपना क्रेडिट कार्ड या नेट बैंकिंग को ऐड कर रखा है तो पेमंट आसानी से हो जाएगी, नहीं तो दूसरे ऑप्शन भी मौजूद होंगे। इसके साथ ही ऑडियो बुक आपके फोन में उपलब्ध हो जाएगी। ध्यान रहे कि ऑडियोबुक प्ले करने के लिए गूगल प्ले स्टोर खुद से आपके फोन में ऐप डाउनलोड कर लेगा।

आईओएस

एप्पल आईफोन के लिए ऐप्स आईट्यून स्टोर से डाउनलोड किए जाते हैं। परंतु आईट्यून स्टोर पर सीधे ऑडियो बुक का कोई विकल्प नहीं मिलेगा। आपको थर्ड पार्टी ऐप्स का सहारा लेना होगा।

थर्ड पार्टी ऐप स्टोर

ऐंड्रॉयड फोन और आईफोन में ऑडियो बुक के लिए आप थर्ड पार्टी ऐप का सहारा ले सकते हैं। स्टोरीटेल, ऑडिबल, ऑडियोबुक्स, ओवरड्राइव और (डाउनपॉर) जैसे कुछ अच्छे ऑप्शन उपलब्ध हैं। स्टोरीटेल और डाउनपॉर पर मासिक स्बसक्रिप्शन लेकर ऑडियो बुक सुन सकते हैं। वहीं ऑडिबल से बुक आपको खरीदना होगा। फिलहाल ऑडिबल, ऑडियोबुक्स और डाउनपॉर जैसी कंपनीज की सर्विस भारत में नहीं है। ऐसे में आपको डॉलर में कीमत चुकाना होगा। हां गूगल प्ले स्टोर और स्टोरीटेल से आप रुपये में प्राइस देकर ऑडियोबुक्स की सुविधा ले सकते हैं।

थर्ड पार्टी ऐप से ऑडियोबुक डाउनलोड करने के लिए आपको सबसे पहले इनके ऐप या वेबसाइट पर ईमेल आईडी और पासवर्ड बनाना होगा। वहीं सब्सिक्रिप्शन या खरीदारी के लिए अपने नेट बैंकिंग या क्रेडिट कार्ड डिटेल्स भरकर कार्ड शुल्क चुकाना होगा।

जहां तक फ्री ऑडियो बुक की बात है तो गूगल प्ले स्टोर पर पूरा सेक्शन है जहां कुछ साधारण कॉमिक्स और बुक्स फ्री में उपलब्ध हैं। लेकिन दूसरे ऐप में यह विकल्प नहीं मिलता है। लिबरिवॉक्स ऐप और वेबसाइट्स से आप फ्री ऑडियोबुक डाउनलोड कर सकते हैं।

यहां से डाउनलोड करें ऑडियोबुक्स

tinyurl.com/y7lnz585

(ऑडियोबुक्स)

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बंदर से नहीं बने हम

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चार्ल्स डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत इन दिनों चर्चा में है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया था कि यह सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है। 12 फरवरी को डार्विन की जयंती पर विकासवाद के सिद्धांत का जायजा ले रहे हैं डॉ स्कंद शुक्ल

हमारे पूर्वज क्या बंदर हैं?
आज रविवार है और सुनयना अपने पति और बच्चों के साथ चिड़ियाघर आई हुई हैं। ये लोग मादा चिम्पैंज़ी के बाड़े के सामने खड़े हुए हैं। ऊंचे टीले पर बैठी लंबी-चौड़ी काले बालों से ढकी देह उनकी ओर सपाट अंदाज में देख रही है। ज़ू के जानवरों के लिए इंसान कोई अजूबा नहीं, वह परेशान करनेवाला साथी है। उनके लिए इंसानों का नजारा नया नहीं है। उनके सामने से हजारों-हजार रोज गुजरते हैं। लेकिन जिस तरह से वे अपने साथी प्राणियों को कैद में रखकर सताते हैं, वह इंसान के गुरूर को दर्शाता है।

सुनयना के बेटे के हाथ से तभी एक बंदर छीन कर मूंगफलियों का पैकेट ले जाता है। बंदरों के लिए भी यह रोज का काम है, इसलिए वे ढीठ हो चले हैं। उन्हें इंसानों के साथ की इतनी आदत पड़ चुकी है कि वे मौका पाते ही हाथों से खाने-पीने की चीजें उड़ा ले जाते हैं। वे चिड़ियाघर में होकर भी आजाद हैं, वरना इंसानों के अलावा इस इलाके में आजाद घूमना विरलों के नसीब में आता है!

सामने बैठी चिम्पैंज़ी और ऊपर पेड़ पर जा बैठे बंदरों को देखकर सुनयना सोच में पड़ जाती हैं। वह और उस जैसे दुनिया के अरबों इंसान किस तरह से चिम्पैंज़ियों-बंदरों से जुड़े हैं? अगर किसी कवि या दार्शनिक या साधु से इसका जवाब पूछा जाए तो वह यह कहेगा कि सभी जीव-जंतु पृथ्वी पर उपजे हैं और इसलिए उसी की संतानें हैं। लेकिन विज्ञान विस्तार मांगता है। वह सिर्फ भावनात्मक बातों पर ठहर नहीं सकता, उसे तथ्यों और प्रयोगों के आधार पर ही अपनी बात सामने रखनी होती है।

सुनयना जीव-विज्ञान की टीचर हैं। वह चार्ल्स डार्विन और उनकी थिअरी से वाकिफ हैं। वह जानती हैं कि पेड़ पर मूंगफलियां खाते बंदर और बाड़े में बैठी मादा चिम्पैंज़ी उनके दूर के भाई-बहन हैं। लेकिन बात इतनी ही कहां है? रिश्तेदारी तो मनुष्यों की उस मूंगफली के पौधे से भी है, जिसे पैकेटों में लिए लोग खाते घूम रहे हैं। और फिर उन मूंगफलियों पर, पैकेट पर, हाथों पर चिपके वे खरबों बैक्टीरिया- क्या उनसे हमारा कोई नाता नहीं? संबंधी तो हमारे वे भी हैं!

सुनयना अपने सबसे पहले पुरखे को याद करने कोशिश करती हैं- वह कैसा रहा होगा? हम आज इंसान हैं, हम हमेशा इसी तरह के न थे। हर वक्त इस धरती पर इंसानों का ही बोलबाला न था। हर समय यहां जल-थल-नभ में आज जैसे जीव-जंतु और पेड़-पौधे नहीं पाए जाते थे। विज्ञान यह मानता है कि संसार में आई 99 प्रतिशत जीव-जातियां अब इस दुनिया में जीवित नहीं हैं, नष्ट हो चुकी हैं।

आम लोगों की सोच यह कि बंदर से इंसान निकला है, ध्यान करके सुनयना को हंसी आती है। लोग जीव-विकास को कितना कम और सतही समझते हैं। वे बंदर और चिम्पैंज़ी को मनुष्य का पूर्वज बताते हैं, जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है। बंदर-चिम्पैंज़ी-गरिल्ला-ओरैंगउटान जैसे मनुष्य-से दिखने वाले जीव हमारे पूर्वज नहीं हैं, वे हमारे कज़िन हैं। हमारे समकालीन हैं। मानव-बंदर-चिम्पैंज़ी-गरिल्ला-ओरैंगउटान जैसे जीवों का बहुत पहले कोई एक साझा पूर्वज था।

वह पूर्वज आज कहां है? उसे हम आज क्यों नहीं देख पा रहे? हमें आज कोई जानवर इंसान में बदलता क्यों नहीं दिखाई दे रहा? ये वे सवाल हैं जो सुनयना रोज अपने रिश्तेदारों से ही नहीं, अपने विद्यार्थियों से भी सुनती आई हैं। विकास शाखाओं में बढ़ता है, सीधे एक-ही तने में नहीं। समय के साथ नई शाखाएं फूटती जाती हैं, पुरानी शाखाएं नष्ट होती जाती हैं। जीव-जातियां सदा बदलती रहती हैं। आज का इंसान पहले के इंसानों-सा नहीं है। आज का बाघ भी पहले के बाघों से अलग है। समस्या यह है कि आम लोग जिन नामों से जानवरों और पौधों को बुलाते हैं, वे अपर्याप्त-अधूरे हैं। जीव-जाति आगे बढ़कर बदल जाती हैं, नाम पिछला-पुराना ही रह जाता है।

सच यही है कि हम कभी एक तने से निकले थे और आज शाखाओं-प्रशाखाओं में बंटते-बंटते यहां तक आ पहुंचे। किस्म-किस्म के बंदर, मानव, चिम्पैंजी, ओरैंगउटैन आदि सभी आनुवंशिक स्तर पर मिलते जुलते हैं। उनमें जो डीएनए के फर्क हैं, वे धीरे-धीरे पर्यावरण से तालमेल बिठाने की जरूरतों की वजह से पैदा हुए और इसीलिए डीएनए की बनावट बदलती चली गई। हरेक में अपने इलाके के हिसाब से अगल-अलग बदलाव हुए। फिर वक्त के साथ ये पूरी तरह से अलग-अलग जीव हो गए। करोड़ों-करोड़ साल पहले इंसानों-चिम्पैंज़ियों-गरिल्लों-बंदरों का जो वह पूर्वज था, वह न मनुष्य था, न चिम्पैंज़ी, न गरिल्ला और न ही बंदर। वह आज के हम-सा और हमारे जैसे वानरों-कपियों-सा कुछ भी नहीं था। लेकिन हम हैं कि अपने आज को देखकर अतीत के लिए शब्द गढ़ते हैं। अपने आसपास के जीव-जंतुओं को जान-समझ कर सोचते हैं कि हजारों-लाखों बरसों से जीव-जंतु-पेड़-पौधे ऐसे ही रहे होंगे।

सभी जंतुओं का पहला पूर्वज एक है- यह बात जीवन के विकास के मूल में है। वह पहला जीव एक जीवित कोशिका थी, उस एककोशिकीय जीव से हम सब निकले हैं। सभी पेड़-पौधे-शैवाल-फफूंद, सारे कीड़े-मकोड़े-मछलियां-सांप-पक्षी-जंगली जीव, जीवन के सभी प्रकार उसी एक पहले जीव की संतानें हैं। वह बढ़ा, बंटा, बढ़ता गया, बंटता गया। लेकिन उसे अपना रूप बदलने में और आज के जीवन की तरह जटिल होने में अरबों साल लग गए।

सुनयना की क्लास के विद्यार्थियों की तरह आम लोगों की भी धारणा है कि विकासवाद का सिद्धांत (Theory of Evolution) जीवन की उत्पत्ति के बारे में है, जबकि ऐसा नहीं है। वह जीवन के पैदा होने के बाद उसका क्या हुआ, इसकी बात करता है। अरबों साल पहले उस वीरान धरती पर वह पहली कोशिका कैसे वजूद में आई, कौन-कौन से प्रभावों से रासायनिक तत्व आपस में मिले और उन्होंने जीवन का निर्माण किया, यह अभी पूरी तरह से मालूम नहीं हो सका है। लेकिन उसके बाद वह सरल जीवित कोशिका, जो हम सभी की सबसे पहली पूर्वज है, किस तरह से जटिल-जटिलतर-जटिलतम होती चली गई, इस पर वैज्ञानिकों ने बहुत काम किया है।

चार्ल्स डार्विन को जीवन के विविध रूपों को देखने का मौका उन समुद्र-यात्राओं के दौरान मिला, जो उन्होंने एचएमएस बीगल जहाज से प्रशांत महासागर के द्वीपों की की थी। इस दौरान उन्होंने वहां की चट्टानों-शिलाओं-पौधों-जानवरों को देखा और उनके आकार-आकृतियों की बनावट और उनकी गतिविधियों को गंभीरता से परखा और समझा। फिर सन 1859 में आई अपनी किताब 'ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़' में इन तमाम बातों का उन्होंने जिक्र किया।

सुनयना डार्विन की बातों को याद करते हुए अतीत में 150 साल पीछे पहुंच जाती हैं। उन्होंने बताया था कि संसार के समस्त जीवों में ढेरों विविधताएं हैं। एक ही 'स्पीशीज़' के सभी जीव भी अलग-अलग हैं। सभी इंसान एक-से नहीं हैं, सारे बाघ-गीदड़-चमगादड़-ऊदबिलाव-वेल-मच्छर-चींटी-बरगद-गुड़हल-चमेली-गन्ने अपने ही समूह में कितने अलग-अलग नजर आते हैं। हर शेर अलग दिखता है, उसकी गतिविधियां दूसरे शेर से अलग हैं। हर लौकी की लता दूसरी लौकी की लता से भिन्न है। यह विविधता उनके जीवित रहने को प्रभावित करती है।
और इस विविधता को वे अपने बच्चों में पहुंचाते हैं। सभी जीवों के गुणधर्म उनसे उनकी संतानें पाती हैं।

चूंकि तमाम जीवों गुणधर्म अलग-अलग हैं, तो जाहिर है कि इनके आधार पर उनकी उम्र तय होगी। कौन कितना लंबा जिएगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस जीव का कोई गुण उसे जीने में मदद दे रहा है या उसके जीवन के रास्ते में रोड़ा अटका रहा है। क्योंकि लंबा जीवन प्रजनन के अवसर दिलाएगा और जो जितना प्रजनन करेंगे ,वे उतना अपने गुणधर्म अपने बच्चों में पहुंचा पाएंगे। और जीवों के ये गुणधर्म किन पर निर्भर करते हैं? किनके कारण एक शख्स लंबा और दूसरा छोटा होता है? एक मेढक पीला और दूसरा हरा होता है? एक आम मीठा और दूसरा खट्टा होता है? सुनयना जानती हैं कि इन सब बातों के पीछे जीवों की कोशिकाओं में मौजूद डीएनए और उससे बने जीनों का हाथ है। जीन कोशिकाओं के भीतर तरह-तरह के प्रोटीन बनाते हैं और वे प्रोटीन जीवों के तमाम गुणधर्मों को नियंत्रित करते हैं।
लेकिन डार्विन ने जब अपना सिद्धांत दिया, उस समय न डीएनए की खोज हुई थी और न जीनों का पता था। उस समय तक तो आनुवंशिकी (Genetics) का जन्म ही नहीं हुआ था। इसलिए डार्विन की बातों की अहमियत कम होने के बजाय बढ़ जाती है कि एक आदमी सिर्फ जीवों को देख-समझ कर इतनी गहराई से सोच सकता है।

चिम्पैंज़ी के बाड़े के पास अगला बाड़ा जिराफ का है। वह, जिसकी लंबी गर्दन विकासवाद के संदर्भ में गहरे मायने रखती है। सुनयना के बच्चे कुतूहल से उसकी लंबी गर्दन देख रहे हैं। फ्रांसीसी जीव वैज्ञानिक लैमार्क ने जिराफ की लंबी गर्दन की मिसाल देकर सन 1809 में सॉफ्ट म्यूटेशन की थिअरी सामने रखी थी। उनके अनुसार शरीर के जिस अंग का ज्यादा इस्तेमाल किया जाएगा, वह ताकतवर होता जाएगा। साथ-ही-साथ उस अंग की योग्यता वह जीव अपने बच्चों में पहुंचा देगा। यानी जब उसके बच्चे होंगे तो उनमें वह अंग पिछली पीढ़ से ज्यादा मज़बूत मिलेगा। इस बात को समझाने के लिए उन्होंने जिराफ और उसकी लंबी गर्दन का उदाहरण दिया। लैमार्क के मुताबिक, जिराफों की गर्दन हमेशा से लंबी नहीं थी। उन्हें आसपास ज्यों-ज्यों भोजन की कमी होने लगी और वह ऊंचाई पर ही मिलने लगा तो जिराफ़ों ने गर्दन उचकाना शुरू किया और इसी वजह से उनकी गर्दन लंबी होती चली गई और आज के आकार में आ गई।

सुनयना जानती है कि डार्विन को लैमार्क और पहले के विद्वानों की धारणाओं के पार जाना पड़ा। तभी वह अपनी नई थिअरी सामने ला पाए। डार्विनवाद के मूल में प्राकृतिक चुनाव है। जीवों में विविधताएँ इसलिए मौजूद हैं क्योंकि अलग-अलग समय पर कुदरत ऐसे जीवों को चुनती रही है। जीव जिस पर्यावरण में रहते हैं, वह बदल रहा है। उस बदलते पर्यावरण के अनुसार जीव बदलने की कोशिश करते हैं। यह एक प्रकार की प्रतियोगिता है जो जीवों के बीच लगातार चलती आई है। जो सफलतापूर्वक बदल पाते हैं, वे प्रजनन करते हैं और अपने बदलाव अगली पीढ़ी में पहुंचा देते हैं।

नियमों और प्रयोगों से विकासवाद को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। हम बात करोड़ों-अरबों बरसों की कर रहे होते हैं, उसे एक घंटे, एक दिन, एक महीने, एक साल में सामने घटता नहीं देख सकते। प्रकृति चुनाव करती है- इसका यह अर्थ नहीं कि वह कोई शख्स है जो जीवों में छंटनी कर रहा है। प्रकृति कोई ईश्वरीय या दैवीय सत्ता नहीं, जो ताकतवर का राजतिलक करके शोषण को सही ठहरा रही है। असल में वह बदलते पर्यावरण के अनुसार जीनों में हुए बदलावों में से बेहतर जीनवालों को छांटकर उनसे आगे अगली पीढ़ियां पैदा करवाने का कुदरती तरीका है। जो बदल पाएंगे, वे आगे जी पाएंगे और प्रजनन कर अपने जैसी संतानें पैदा कर पाएंगे।

सुनयना के बच्चों को ऊंची शाखाओं पर बैठे बंदर तरह-तरह के मुंह बनाकर डराने में लगे हैं। उनका ध्यान टूटता है और वह उठकर बच्चों के पास पहुंचती हैं। उनके हाथ पकड़ती हैं और चिड़ियाघर में आगे की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगती हैं। चलते हुए उन्हें महसूस होता है कि वह खुद किसी विशाल पेड़ पर चढ़ रही हैं। उनके साथ उनके पति हैं, जिनसे उनके जीन जा मिले हैं और दो बच्चों का जन्म हुआ है। न जाने कितने ही आनुवंशिक बदलाव लिए वह, उनका परिवार, उनकी मानव-स्पेशीज समय में आगे बढ़ रही हैं। न जाने कब तक मानव मानव रहेगा? न जाने आगे वह किन नई स्पीशीज़ में बंट जाएगा? न जाने मानवों से निकले वे नए जीव कैसे होंगे? वे कैसे समाज चलाएंगे? कैसे संबंध निभाएंगे और कैसे पृथ्वी पर रहेंगे? क्या वे भी किसी चिड़ियाघर का निर्माण करके दूसरे जीवों को बाड़ों में रखेंगे हमारी तरह?

क्या है डार्विन थिअरी की आलोचना?

क्रमिक विकास (Evolution) क्या है?
हम सब जीव जिस पर्यावरण में रहते हैं, वह लगातार बदलता रहता है। सभी जीव पर्यावरण के साथ तालमेल बनाए रखने की कोशिश करते हुए बदलाव की कोशिश करते हैं। ये बदलाव जेनेटिक यानी आनुवंशिक स्तर पर होते हैं। इन बदलावों के कारण नए बदलते हुए पर्यावरण में जीव बेहतर गुजर-बसर कर सकता है। प्रजनन के समय ये जेनेटिक बदलाव जीव अपने बच्चों में स्थानांतरित करते रहते हैं, जिसके कारण उन्हें नए पर्यावरण में रहने में आसानी होती है। इस पूरी प्रक्रिया को डार्विन प्राकृतिक चुनाव कहते हैं, यानी प्रकृति उन्हीं जीवों को जीने और प्रजनन करने के लिए चुनती है जो नए माहौल में ढल चुके होते हैं। यह असफल जीवों पर सफल जीवों का कुदरती चुनाव है।

क्या माता-पिता में हुआ हर बदलाव बच्चों में जा सकता है?
नहीं। पिता-माता अगर कसरत करते हैं तो उनके बच्चे अपने-आप चुस्त पैदा नहीं हो जाते। नाक-कान छिदवाने से बच्चे छिदे नाक-कान के साथ जन्म नहीं लेते। कारण यह है कि माता-पिता से वे ही बदलाव शिशुओं में स्थानांतरित हो सकते हैं, जो उनके डीएनए में हुए हों।

क्या हमारा और अन्य जीवों का विकास आज भी चल रहा है?
हां। चूंकि हमारा पर्यावरण लगातार बदल रहा है, इसलिए वह हमारे सामने नई-नई चुनौतियां पेश कर रहा है। ऐसे में सभी जीवों के डीएनए में बदलाव हो रहे हैं। यह सब हालांकि बहुत-बहुत धीमा काम है। खास बात यह है कि इन बदलावों में अच्छे-बुरे बदलाव दोनों हैं क्योंकि बदलाव मनमाने तरीके से होते हैं। लेकिन वही जीव बचेंगे, जो हालात के मुताबिक सबसे सही बदलावों को स्वीकार कर चुके होंगे।

क्या हम इंसान कुदरत में बदलाव करके अपने विकास को प्रभावित कर रहे हैं?
निश्चित तौर पर। अगर हम पर्यावरण में बदलाव लाएंगे तो हमें उससे नई चुनौतियां मिलेंगी। फिर उन चुनौतियों के अनुसार हमें अपने डीएनए में सफल बदलाव करने पड़ेंगे ताकि हम नए पर्यावरण में ढल सकें।

सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट टर्म से लगता है कि विकासवाद शक्तिशाली का हिमायती है?
ऐसा नहीं है। क्रमिक विकास के अनुसार कुदरत सिर्फ तब के पर्यावरण के अनुसार ढल जाने वाले को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए उसे आगे के प्रजनन के लिए चुनती है। अगर सारी दुनिया पानी में डूब जाए तो वहां बुद्धिमान मनुष्य सर्वश्रेष्ठ नहीं होगा। वहां जो जितना अच्छा तैराक होगा, वह बचेगा और प्रजनन करेगा। इसलिए यह न माना जाए कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। आज के वर्तमान पर्यावरण के अनुसार सबसे बेहतर तरीके से उसने अपने-आप को ढाला है, यह सच है। लेकिन कब तक ऐसा रहेगा, कहा नहीं जा सकता।

डार्विन की आलोचना के मुख्य बिंदु क्या हैं?
डार्विन की आलोचना के ज़्यादातर बिंदु अब निराधार सिद्ध हो चुके हैं। 1880 से 1920 के बीच का समय डार्विन थिअरी के लिए अवसान-काल रहा जब वैज्ञानिकों ने उन्हें हाशिये पर रख दिया, लेकिन अन्ततः डार्विन वापस अपने स्थान पर वापस पुरज़ोर स्वीकृति के साथ आ गए। बीसवीं सदी में ज्यों-ज्यों आनुवंशिकी (Genetics) और अणु-जैविकी (Molecular Biology) के राज खुलते गए, डार्विन की थिअरी के साथ उनका तालमेल सटीक बैठता गया। फलस्वरूप आज विकासवाद डार्विन के समय से चल कर जहां तक पहुंच चुका है, वह आधुनिक विकास-संश्लेषण (Modern Evolutionary Synthesis) के नाम से स्थापित थिअरी है।

डार्विन के विकासवाद और आधुनिक संश्लेषण में मोटे तौर पर तीन भेद हैं। डार्विन कहते हैं कि जीवन के विकास का मार्ग सिर्फ प्राकृतिक चुनाव से होकर जाता है, जबकि आधुनिक विज्ञान मानता है कि प्राकृतिक चुनाव जीवों के विकास और नई-नई जातियों के जन्म के कई तरीकों में से एक है। आधुनिक संश्लेषण डीएनए और उनसे बने जीनों के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी में गुणों के हस्तांतरण की बात करता है, डार्विन को अपने समय में यह पता नहीं था। आधुनिक संश्लेषण यह भी मानता है कि जीवों के डीएनए में पहले छोटे-छोटे बदलाव होते हैं, जिसके कारण उनके गुणधर्म पहले थोड़े बदलते हैं और फिर वे पूरी तरह से शाखाओं में बंटकर नई जीव-प्रजातियों को जन्म दे देते हैं।

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क्रिकेट के ये अनोखे सितारे

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आंध्र प्रदेश के रहने वाले प्रेम कुमार ऑर्केस्ट्रा में गाना गाकर अपना पेट भरते हैं। गुजरात के निवासी अनिलभाई गड़िया दूध बेचकर घर चलाते हैं। ओडिशा के पंकज भुई पोस्टमैन हैं और कर्नाटक के बेलगाम के बसप्पा वडगोल को नौकरी की तलाश है। इन चारों में एक बात कॉमन है। ये सभी वर्ल्ड चैंपियन हैं। जी हां! ये चारों भारत के लिए विश्व कप जीत चुके हैं। एक और बात इनको एकसूत्र में पिरोती है: ये सभी ब्लाइंड भी हैं। पिछले महीने शारजाह में पांचवें ब्लाइंड क्रिकेट वर्ल्ड कप के फाइनल में पाकिस्तान को दिलचस्प मुकाबले में दो विकेट से हराकर खिताब जीतने वाली टीम के ज्यादातर खिलाड़ियों की कहानी कमोबेश ऐसी ही है। लगातार दूसरी बार विश्व विजेता बनने वाली टीम के 17 में से 12 सदस्य या तो छोटे-मोटे काम करके पेट पालते हैं या फिर बेरोजगार हैं। तंगहाली और दृष्टिहीनता के बावजूद क्रिकेट के प्रति लगाव और दुनिया में भारत का झंडा बुलंद करने के जज्बे ने इन्हें वर्ल्ड चैंपियन बना दिया है। इन्हीं सितारों में से कुछ की दास्तां पेश कर रहे हैं संजीव कुमार...

क्रिकेट का 'प्रेम'


कुरनूल जिले (आंध्र प्रदेश) के सीसमगुंथले गांव के प्रेम कुमार जब सात साल के थे तो उन्हें चिकनपॉक्स हुआ था। किसान माता-पिता जब तक स्थिति की गंभीरता को समझते, प्रेम की दोनों आंखों की रोशनी जा चुकी थी। इतने बड़े झटके से माता-पिता का टूटना स्वाभाविक था, लेकिन प्रेम ने उस छोटी-सी उम्र में भी पढ़ाई जारी रखने की जिद की। कुछ परिचितों की मदद से उनको नांदयाल के ब्लाइंड स्कूल में भेजा गया जहां उन्हें क्रिकेट के साथ-साथ संगीत से भी लगाव हो गया। अपनी ऑलराउंड प्रतिभा के बूते प्रेम ने जिला, राज्य और फिर देश की ब्लाइंड टीम में जगह बनाई। बाद में एशिया और वर्ल्ड चैंपियन बनने वाली टीम के हिस्सा भी रहे। 28 साल के प्रेम ईटीवी पर आयोजित 'ब्लैक कलर्स ऑफ म्यूजिक' नाम का रिऐलिटी शो जीत चुके हैं। उन्होंने जेमिनी टीवी पर हुए एक 'म्यूजिक रिऐलिटी शो' का भी खिताब जीता हुआ है। प्रेम को इस बात का अफसोस तो है कि वर्ल्ड चैंपियन बनने के बावजूद ब्लाइंड क्रिकेटर्स का वह मान-सम्मान नहीं है जो सामान्य खिलाड़ियों को मिलता है। इसके बावजूद वह क्रिकेट से रिश्ता नहीं तोड़ना चाहते। अपना प्रेम जारी रखना चाहते हैं। आर्ट्स ग्रैजुएट इस युवा को जॉब की तलाश है लेकिन अगर बात नहीं भी बनी तो उन्हें रोजी-रोटी चलाने के लिए अपने संगीत प्रतिभा पर भरोसा है। उन्हें ऑर्केस्ट्रा में गाने के लिए बुलावा मिलता रहता है।

बेखौफ रमेश


भारतीय टीम के जिन कुछ खिलाड़ियों से पाकिस्तान की टीम खौफ खाती है, उनमें से एक हैं सुनील रमेश। खिताबी मुकाबले में सुनील ने 67 गेंदों पर 93 रन की आतिशी पारी खेली थी। कर्नाटक के चिकमंगलूर का यह 19 साल का बल्लेबाज फाइनल का 'मैन ऑफ द मैच' घोषित किया गया था। ब्लाइंड क्रिकेट की दुनिया में एक बेखौफ बल्लेबाज के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले सुनील संघर्षों में तपकर इस मुकाम तक पहुंचे हैं। दैनिक मजदूरी करने वाले एक परिवार में जन्मे सुनील को छुटपन से क्रिकेट से लगाव था। एक दिन क्रिकेट खेलने के दौरान ही उनकी दाईं आंख में कंटीला तार घुस गया। वह आंख पूरी तरह से चली गई, दूसरी आंख को भी नुकसान हुआ। इसमें भी विजन ना के बराबर रह गया। तब 11 साल के सुनील के जीवन में क्रिकेट रोशनी लेकर आया। तमाम मुसीबतों के बावजूद क्रिकेट से उनका नाता नहीं टूटा। आंखों की रोशनी नहीं थी तो क्या हुआ, जज्बे से उन्होंने खुद को खेल के नए सिरे के लिए तैयार किया। फिर पायदान-दर-पायदान चढ़ते हुए शिखर तक पहुंच गए।

चमचमाता 'दीपक'


वह 140 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से बोलिंग करते हैं। ब्लाइंड क्रिकेट की दुनिया में सबसे तेज। उनके नाम ब्लाइंड क्रिकेट की फास्टेस्ट वनडे फिफ्टी (17 बॉल में) का भी रेकॉर्ड है। एक जोनल मैच में तीन रन देकर आठ विकेट लेने का अनोखा कीर्तिमान भी बना चुके हैं। यही नहीं, वह 11.3 सेकंड में 100 मीटर की दूरी नापकर ऐथलेटिक्स में गोल्ड मेडल भी जीत चुके हैं। यह कारनामा किया है ब्लाइंड क्रिकेट वर्ल्ड के सबसे चमकदार सितारों में से एक दीपक मलिक ने। हरियाणा के सोनीपत के नजदीक एक गांव में जन्मे 23 साल के दीपक जब नौ साल के थे तो दिवाली के दिन रॉकेट से उनकी दाईं आंख की रोशनी चली गई। बाईं आंख भी बुरी तरह प्रभावित हो गई और धीरे-धीरे उसकी रोशनी बेहद कम हो गई। 10 साल पहले वह दिल्ली के ब्लाइंड इंस्टिट्यूट में गए तो क्रिकेट से भी जुड़ाव हुआ। उनकी प्रतिभा को देखते हुए महेंद्र सिंह धोनी को कोचिंग दे चुके एन.पी. सिंह ने उन्हें मार्गदर्शन देना शुरू किया। हरियाणा के इस दीपक की लौ आज दुनियाभर में फैल चुकी है।

ब्रैडमैन-सा अंदाज प्रकाश का

ब्लाइंड टीम के एमएसडी यानि महेंद्र सिंह धोनी का रोल अदा करते हैं वाइस कैप्टन प्रकाश जयरमैया। वह ब्लाइंड क्रिकेट के सबसे उम्दा विकेटकीपर हैं। कर्नाटक में चन्नापटना के रेकॉर्ड सर डॉन ब्रैडमैन के रेकॉर्ड्स से कम नहीं हैं। उन्होंने वर्ल्ड कप के पहले तक 68 मैचों में 47 सेंचुरीज लगाईं थी। इनके अलावा उनके नाम 27 बॉल पर सेंचुरी का वर्ल्ड रेकॉर्ड भी है। महज तीन महीने की उम्र में एक दूसरे बच्चे द्वारा आंखों में पिन चुभोने से ब्लाइंड हुए प्रकाश की आंख में हल्की-सी रोशनी आठ साल के उम्र में लौटी। इसी मंद रोशनी के बूते उन्होंने पढ़ाई भी की और खेलने का अपना शौक भी जारी रखा। इस दौरान घर में ढेर सारी मुसीबतें आईं। ट्रक ड्राइवर पिता का ऐक्सिडेंट हो गया। ऐसे में मां ने सिलाई का काम शुरू करके बच्चों का पेट पाला। आज 34 साल के प्रकाश अपनी सफलता का श्रेय मां के प्यार और समर्थन को देते हैं। उन्होंने तमाम कठिनाइयों के बावजूद बेटे को पढ़ाई और खेल में कभी रुकावट नहीं आने दी।


वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम के सदस्य:


अजय कुमार रेड्डी (कप्तान), प्रकाश जयरमैया (उपकप्तान और विकेटकीपर), नरेशभाई तुम्दा, महेंद्र वैष्णव, सोनू गोलकर, प्रेम कुमार, बासप्पा वडगोल, मोहम्मद जफर इकबाल, डी वेंकटेश्वरा राव, गणेशभाई मूहूडकर, सुरजीत घारा, अनिलभाई गड़िया, दीपक मलिक, सुनील रमेश, दुर्गा राव, पंकज भुई, रामबीर सिंह।

ब्लाइंट क्रिकेटर्स की कैटिगरी


बी1-दोनों आंखों से पूरी तरह ब्लाइंड

बी2-आंशिक रूप से ब्लाइंड (एक या दोनों आंखों से 3 से 5 फीसदी तक साफ देख सकते हैं।)

बी3-आंशिक रूप से देख सकने वाले (एक या दोनों आंखों से 10 फीसदी तक साफ देख सकते हैं।)

टीम फॉर्मेशन: प्लेइंग इलेवन में बी1 कैटिगरी के चार, बी2 के तीन और बी3 के चार प्लेयर्स होते हैं।

खास तरह की गेंद

आम क्रिकेट गेंद से कुछ बड़े आकार की गेंद होती है। गेंद फाइबर प्लास्टिक और मेटल की बनी होती है। 86 से 88 ग्राम वजन वाली गेंद के अंदर बॉल बेयरिंग्स होते हैं ताकि बल्लेबाजों को गेंद डिलिवर होने के समय उसकी आवाज सुनाई दे। आवाज के हिसाब से वह गेंद की दिशा का पता लगाकर उसे हिट करते हैं।

बोलिंग के नियम

-सारे बोलर्स अंडरआर्म बोलिंग करेंगे

-पूरे ओवर्स के 40 प्रतिशत बी1 कैटिगरी के बोलर डालेंगे

-गेंद डालते समय गेंदबाज जोर से 'प्ले' बोलेगा

बैटिंग के नियम

-बी1, बी2 और बी3 के बल्लेबाजों को मिलाकर बैटिंग का एक सर्किल पूरा होता है। अगर बी1 और बी2 कैटिगरी के खिलाड़ी ओपन करते हैं तो नंबर तीन पर बी3 कैटिगरी का प्लेयर ही जाएगा।

-बी1 कैटिगरी का खिलाड़ी जितना भी स्कोर करता है, उसको डबल माना जाएगा।

-बी1 कैटिगरी के प्लेयर को स्टंप आउट नहीं किया जा सकता, जबकि दो बार एलबीडब्ल्यू होने पर ही उसे आउट करार दिया जाएगा।

फील्डिंग के नियम

बी1 कैटिगरी का फील्डर एक बाउंस होने के बाद भी गेंद को कैच करता है तो बल्लेबाज को कैच आउट माना जाएगा।

96 साल का सफर

ब्लाइंड क्रिकेट भले ही पिछले कुछ बरसों से सुर्खियों में हो लेकिन इसका सफर 96 साल का है। 1922 में मेलबर्न में ब्लाइंड क्रिकेट की शुरुआत हुई थी। उस साल विक्टोरियन ब्लाइंड क्रिकेट असोसिएशन की स्थापना हुई और उसके छह साल बाद मेलबर्न के नजदीक ही कूयूंग में ब्लाइंड क्रिकेट के लिए खास तौर पर क्लब और मैदान बनाया गया। हालांकि, दुनियाभर में इसका विस्तार बहुत धीमी गति से हुआ। 1996 में वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल की स्थापना के बाद से इंटरनैशनल लेवल पर इसके मैचों की तादाद बढ़ी और वर्ल्ड कप भी आयोजित होने लगे।

छह साल से इंडिया-इंडिया

ब्लाइंड वर्ल्ड कप का आयोजन सबसे पहले 1998 में नई दिल्ली में हुआ था। उसमें साउथ अफ्रीका ने खिताब जीता था। अगले दो वर्ल्ड कप का विजेता पाकिस्तान रहा। 2012 में ब्लाइंड के लिए वर्ल्ड टी20 टूर्नामेंट शुरू हुआ और भारत ने उसका खिताब जीता। उसके बाद से भारतीय ब्लाइंड टीम ने विश्वस्तर पर तीन खिताब जीते। 2014 और 2018 में 50 ओवर्स का वर्ल्ड कप और 2017 का टी20 विश्व खिताब भी जीता।

समर्थनम का समर्थन

ब्लाइंड क्रिकेट को देश में बढ़ावा देने में बेंगलुरु स्थित एनजीओ समर्थनम ट्रस्ट फॉर द ब्लाइंड का बड़ा रोल रहा है। महंतेश ने अपने दोस्त नागेश एसपी के साथ मिलकर 1997 में इसकी स्थापना की थी। इन दोनों नेत्रहीन दोस्तों ने ब्लाइंड क्रिकेट के विजन के साथ अपना मिशन शुरू किया था। नागेश अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन महंतेश का अथक प्रयास जारी है। अपने अभिनव कार्यों के लिए राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कृत हो चुके 48 साल के महंतेश जब छह महीने के थे तभी टायफायड की वजह से उनकी आंखों की रोशनी चली गई। ऐसे महंतेश ने बेंगलुरु यूनिवर्सिटी से एमफिल की डिग्री हासिल करने के बाद वहीं यूनिवर्सिटी लॉ कॉलेज में लेक्चरर के रूप में अपना करियर शुरू किया। कुछ बरसों तक पढ़ाने के बाद उन्हें लगा कि दृष्टिहीनों की जिंदगी भी रोशन करनी चाहिए, लेकिन उन्हें रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं था। फिर उन्होंने समर्थनम के जरिए देश के कई हिस्सों में ब्लाइंड क्रिकेट को बढ़ावा दिया है।

काबी की मांग

भारत में क्रिकेट असोसिएशन फॉर द ब्लाइंड इन इंडिया (काबी) कुछ एनजीओ की मदद से ब्लाइंड क्रिकेटर्स को समर्थन करता है। ब्लाइंड टीम की एक के बाद एक मिली सफलता के बाद काबी ने बीसीसीआई से मांग की है कि उसे अपनी मान्यता दे। काबी से जुड़े लोगों का मानना है कि बोर्ड का समर्थन ना केवल मौजूदा खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाने वाला होगा बल्कि देश के अनगिनत दृष्टिहीनों के जीवन में एक रोशनी भी आ जाएगी। ब्लाइंड क्रिकेटर्स की तादाद बढ़ेगी। वह भी क्रिकेट में या क्रिकेट के जरिए करियर तलाश सकते हैं। वर्ल्ड कप जीतने के बाद टीम के कप्तान अजय कुमार रेड्डी ने खिताब को देश के सैनिकों के नाम समर्पित करते हुए कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सचिन तेंडुलकर की बधाई वाले ट्वीट मिले थे। लेकिन इससे खिलाड़ियों का पेट नहीं भरता।

समर्थन में तेंडुलकर ने की 'बैटिंग'

लगातार दो बार वर्ल्ड कप जीतने वाली भारतीय ब्लाइंड टीम के सपॉर्ट में भारत रत्न सचिन तेंडुलकर ने भी आवाज उठाई है। उन्होंने बीसीसीआई का कामकाज देखने वाली प्रशासकों की समिति के प्रमुख विनोद राय को पिछले दिनों एक खत लिखा। ब्लाइंड क्रिकेटर्स के समर्थन में सचिन ने लिखा, 'बीसीसीआई को इन्हें अपनी छत्रछाया में लेकर इनके लिए पेंशन योजना चलानी चाहिए। इस टीम के सामने कई बाधाएं आईं, लेकिन इनका फोकस एक ही था देश का नाम रोशन करना। इनकी जीत प्रेरणा देने वाली है और हमें इंसानी दिमाग की अंतहीन क्षमता के दर्शन कराती है। मैं अपील करता हूं कि बीसीसीआई नेत्रहीन क्रिकेट संघ को मान्यता देने पर विचार करें।'

विडियो लिंक

tinyurl.com/y99xhjdk

(भारत-पाकिस्तान फाइनल मैच के आखिरी लम्हों का विडियो)

tinyurl.com/y9fetr2n

(भारत और इंग्लैंड के बीच 2010 में खेले गए मैच के एक हिस्से का विडियो)

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हीरा है दगा के लिए

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'हीरा है सदा के लिए', हीरे के बारे में यह लाइन सबसे मशहूर है। लेकिन पीएनबी के साथ नीरव मोदी की धोखाधड़ी और हीरे की क्वॉलिटी को लेकर उड़ी खबरों ने हीरे को इस भरोसे के काबिल नहीं रखा। लोगों के मन में यह डर समा गया है कि पता नहीं हमारे पास जो हीरा है, वह असल है या फिर सिर्फ उसकी नकल। हीरा के खनन, उसकी पहचान और डायमंड बिजनस की परतें खोल रहे हैं मधुरेन्द्र सिन्हा...

हीरा हमेशा से बेशकीमती रहा है। दुनियाभर में इस पत्थर के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गईं। सैकड़ों लोगों की जानें गईं। आज भी हीरा के लिए लोगों का पागलपन इस कदर है कि एक देश से दूसरे देश ले जाने के चक्कर में वे कानून को भी धता बताने से नहीं हिचकते। बीते दिनों हीरा कारोबारी नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के खरबों रुपये के बैंक घोटाले के सामने आने के बाद हीरे के कारोबार का एक और काला अध्याय सामने आ गया। दरअसल, हीरा कार्बन का ही एक रूप है। कार्बन यानी सीधे समझें तो कोयला। जब कार्बन लाखों बरसों तक धरती की गहराइयों में दबा रहता है तो तमाम दबाव और तापमान की वजह से आखिरकार हीरे में बदल जाता है। दुनियाभर में हीरा की कई खानें मशहूर हैं। भारत में भी गोलकुंडा की खानों से निकलने वाले हीरों का अपना इतिहास रहा है। बेशक आज गोलकुंडा को भुला दिया गया है, लेकिन इतिहास गवाह है कि गोलकुंडा की धरती ने दुनिया के सबसे आकर्षक हीरों को जन्म दिया है।

इन्हीं हीरों में एक विश्वविख्यात कोह-ए-नूर है, जिसकी चमक से दुनिया अब भी चौंधिया रही है। लेकिन कोह-ए-नूर भी 182 कैरेट के नायाब हीरे दरिया-ए-नूर के सामने फीका था, जिसका गुलाबी रंग दिलों पर छा जाता था। ईरान के शासक नादिर शाह को वह इतना भा गया कि वह इसे अपने साथ ईरान ले गया। हीरे के लिए अंग्रेजों की चाहत ने तो पूरे अफ्रीका की खदानों से हीरों का लगभग सफाया-सा कर दिया। अफ्रीका में जो हीरे अब बच गए हैं, उनके लिए भी लड़ाइयां होती रहती हैं। इसलिए यहां हीरों को 'ब्लड डायमंड' भी कहा जाता है। हॉलिवुड में इसी नाम से फिल्म भी बनी है। हीरों की तलाश में अफ्रीका के कई देशों में अब भी आंतरिक संघर्ष हो रहे हैं। इस लड़ाई में हर साल सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। वहां की खदानों से चोरी-छुपे निकला हुआ हीरा दुबई के रास्ते भारत भी पहुंचता है। यह काम गुप्त तरीके से इसलिए होता है क्योंकि इन इलाकों से निकलने वाले 'ब्लड डायमंड' की बिक्री पर संयुक्त राष्ट्र ने रोक लगा रखी है।

हीरा को बना दिया 'ब्रैंड'

डायमंड बिजनस पर पकड़ बनाए रखने की जद्दोजहद दशकों से जारी है। हीरा बेचने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी 'डी बीयर्स' ने हीरे के दाम कम न होने देने और सप्लाई पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए ब्रिटेन जैसे देशों को अपने साथ मिलाया। एक समय दुनिया के हीरे की बिक्री पर 'डी बीयर्स' का एकाधिकार था, लेकिन अब यह सिमटकर 35 फीसदी रह गया है। 'डी बीयर्स' को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने अपने मोहक विज्ञापनों से हर आदमी के मन में हीरा खरीदने की इच्छा जगा दी। देखते ही देखते हीरा स्टेटस सिंबल हो गया। सन 1947 में उसके विज्ञापन की लाइन 'अ डायमंड इज फॉरएवर' आज भी उसी शिद्दत से बोली जाती है। 'डी बीयर्स' ने हीरा बाजार में अपनी पकड़ बनाए रखने और कीमतों को अपने काबू में रखने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए। शुरू में उसे काफी सफलता भी मिली, लेकिन बाद में रूस और ऑस्ट्रेलिया का साथ न मिलने के कारण हीरा के कारोबार में उसकी पहले जैसी धाक नहीं रही। लेकिन यह सच है कि उसने अपने चमकदार विज्ञापनों और जबर्दस्त मार्केटिंग से हीरों की बिक्री बेतहाशा बढ़ा दी और इसका सबसे ज्यादा फायदा भारत को मिला, जहां हीरों की कटिंग और पॉलिशिंग दुनिया भर में सबसे ज्यादा होती है। आज भारत से लगभग 22.67 अरब डॉलर के पॉलिश्ड हीरों का निर्यात होता है। गुजरात का सूरत शहर इसका सबसे बड़ा केंद्र है। भारत में पॉलिश किए गए हीरों का सबसे बड़ा खरीदार अमेरिका है।

अनुभवी धोखेबाज

दुनिया भर की खदानों से निकले कच्चे हीरे को भारत के सूरत और बेल्जियम के ऐंटवर्प शहर में भेजा जाता है, जहां कुशल कारीगर इन्हें तराशते हैं और बेशकीमती बना देते हैं। इसी ऐंटवर्प शहर में हीरे के धोखेबाज कारोबारी नीरव मोदी का जन्म हुआ था, जहां उसके माता-पिता रहते थे। नीरव की पिछली सात पीढ़ियां हीरे के कारोबार से ही जुड़ी रही हैं। ऐसे में नीरव को बचपन से ही हीरों के बारे में बहुत जानकारी थी। इसी जानकारी के बूते उसने थोड़े-से समय में ही हीरा कारोबार में अपना विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया। देखते ही देखते वह हीरों का डिजाइनर कारोबारी बन बैठा। हीरे के मामले में उसका दिमाग इतना चलता था कि 2010 में उसका एक हीरा जिसकी कीमत उसने 12 करोड़ रुपये रखी थी, नीलामी में 16 करोड़ रुपये में बिका। ऐसी सफलताओं ने उसे ज्यादा शातिर बना दिया और उसने इतना बड़ा घोटाला किया कि सभी की आंखें खुली की खुली रह गईं। पंजाब नैशनल बैंक को उसने इतना बड़ा झटका दिया है कि अगर यह प्राइवेट बैंक होता तो इसका दीवाला निकल जाता। लेकिन उससे भी बुरी बात यह रही कि उसने हजारों ग्राहकों को नकली हीरे बेचकर चूना लगाया। अब बात निकल कर सामने आ रही है कि कुछ लोगों को बेचे गए उसके 50 लाख रुपये के हीरों की असली कीमत 5 लाख रुपये भी नहीं है! नीरव मोदी के मामा मेहुल चौकसी ने गीतांजलि के नाम से कारोबार खड़ा किया था। उन्होंने भी नक्षत्र, अस्मि, संगिनी जैसे ब्रैंड नेम को आसमान में चढ़ाया, जिन पर लोग आंख मूंदकर यकीन कर लेते थे।

हीरा असली है या नकली, यह सामान्य तरीके से जानना मुश्किल है। बड़े-बड़े जूलर इसमें मात खा जाते हैं। नकली हीरे कई तरह के होते हैं और कुछ तो असली से भी ज्यादा चमकदार होते हैं। उन्हें देखकर धोखा खा जाना सहज-सी बात है। नकली हीरा बनाने वाले लोग इन नकली हीरों को कुछ इस तरह से पेश करते हैं कि देखने वाले बस देखते रह जाते हैं। भारत ही नहीं, दुनिया के लगभग हर देश में नकली हीरे बिकते हैं। इस कारोबार पर रोक लगाना किसी के बस की बात नहीं क्योंकि जैसा कि कहावत है 'हीरे को परखने के लिए पारखी निगाहें चाहिए'। पारखी हर जगह नहीं होते। इसके लिए बरसों की मेहनत और अनुभव चाहिए। नीरव ने अपने इर्द-गिर्द चकाचौंध करने वाला एक ऐसा जाल बुना कि समृद्ध लोग खिंचे चले आए। हीरे की दुनिया का वह खुद एक बड़ा ब्रैंड बन बैठा, जिसका नाम देखकर लोग खुद-ब-खुद हीरे खरीदने चले आते थे और जो नहीं खरीद पाते थे, वे मन मसोसकर रह जाते थे। उसके शानदार शोरूम न सिर्फ भारत में हैं बल्कि न्यू यॉर्क, लंदन, सिंगापुर, हॉन्ग कॉन्ग जैसे शहरों में भी हैं।

तराशने से बढ़ती है कीमत


दरअसल, हीरा जैसा आपको दिखता है, वैसा मूल रूप में होता नहीं। ज्यादातर हीरे किंबरलाइट नाम के पत्थर के अंदर होते हैं। इनसे ही कच्चे हीरे निकाले जाते हैं। हीरा, सोने की तरह अपने आप में आकर्षक नहीं है। उसे कुशल कारीगरों द्वारा तराश कर और फिर पॉलिश कर चमकदार रंग-रूप में लाया जाता है। हीरे को जितने बेहतर ढंग से तराशा जाएगा, उसकी कीमत उतनी ही बढ़ जाएगी। हीरे की कीमत 4C से निर्धारित होती है। ये हैं कट, क्लेरिटी, कलर और कैरट, यानी वज़न। एक आदर्श हीरे में 58 फलक तक हो सकते हैं और यही फलक उसमें चमक भरते हैं। दुनिया में ऐसा कोई रत्न नहीं जो खुद इतना प्रकाश पैदा करता हो और यही क्वॉलिटी हीरे को दुर्लभ बनाता है। हीरा किसी भी रंग का हो सकता है। यहां तक कि काला भी। हीरे के ये अलग-अलग रंग उसे लाखों साल तक चट्टानों के नीचे दबे रहने के दौरान वहां पैदा हुए विभिन्न गैसों से मिलते हैं।

कैसे पहचानें हीरे को

सवाल है कि हीरा असली है या नकली, इसकी पहचान आम ग्राहक कैसे कर सकता है? एक छोटा-सा नुस्खा है, जिसे आप भी आजमा सकते हैं। हीरे पर मुंह से भाप छोड़िए, जैसा मिरर पर करते हैं। अगर हीरा नकली है तो यह उस पर कुछ देर तक जमी रह जाएगी जबकि असली हीरे से यह तुरंत गायब हो जाती है। आप पानी का एक साधारण टेस्ट भी कर सकते हैं। शीशे के ग्लास में पानी भरिए और हीरा उसमें डाल दीजिए। अगर वह असली है तो तुरंत डूब जाएगा। नकली या ज़रकन का हीरा थोड़ी देर तक हिचकोले लेगा, इसके बाद ही डूब जाएगा। लेकिन समस्या यह है कि खुले हीरे लोग नहीं खरीदते। वे हीरे जड़े गहने जैसे अंगूठी वगैरह खरीदते हैं और उनमें यह पता लगाना मुश्किल है कि हीरा असली है या नहीं।

हीरे के साथ सर्टिफिकेट भी लें

कई बड़ी कंपनियां हीरे पर लेज़र के जरिये अपने निशान बना देती हैं जो नंगी आंखों से नहीं दिखते। ऐसे हीरों में शुद्धता की गारंटी होती है और रीसेल वैल्यू भी होती है। पीपी जूलर्स के वाइस चेयरमैन पवन गुप्ता कहते हैं, 'जो लोग सोलिटीएर खरीदते हैं उन्हें अधिकृत सर्टिफायर जैसे जीआईए, आईजीए, एचआरडी आदि का सर्टिफिकेट जरूर लेना चाहिए ताकि किसी तरह का धोखा नहीं हो। सर्टिफिकेट का नंबर लेकर सुरक्षित रखना भी जरूरी है। यह नंबर हीरे के किनारे पर लेजर की मदद से लिखा जाता है।' गौरतलब है कि यह नंबर माइक्रोस्कोप से ही दिख सकता है। बेहतर होगा कि हीरा हमेशा किसी जाने-माने शोरूम से ही खरीदें और बिल जरूर लें। फिर दुकानदार की विश्वसनीयता भी बहुत जरूरी है। कई बार हीरा तो असली होता है, लेकिन इसका वजन कम होता है। सिंथेटिक हीरे भी बाजार में हैं। पवन गुप्ता कहते हैं, 'जो लोग अंगूठी या जड़ाऊ गहने खरीदते हैं उन्हें हीरे का वजन जरूर जानना चाहिए और बिल में उसका जिक्र अलग से करवाना चाहिए। इससे कस्टमर्स को यह पता चलेगा कि हीरे को बेचने पर उसे क्या कीमत मिलेगी। इतना ही नहीं विक्रेता से हीरे की कीमत किस दर से बढ़ती है, इस बारे में भी पूछना चाहिए ताकि पता चले कि कितने बरसों के बाद हीरे की कीमत कितनी बढ़ेगी? यह जानना जरूरी है कि आपने जो हीरा खरीदा है, वह वैल्यू फॉर मनी है या नहीं।

हीरों के एक्सपर्ट और लालसंस जूलर्स के एमडी राजीव वर्मा कहते हैं, 'सामान्य तौर पर जूलर्स गहने का सर्टिफिकेट ही देते हैं, लेकिन आपको अलग से हीरे का भी सार्टिफिकेट लेना चाहिए। इससे उसे वापस बेचने में आपको आसानी होगी। कई बार सर्टिफिकेट देने वाली दो एजेंसियों के मूल्यांकन में फर्क होता है, लेकिन उससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। अगर आपको शक है तो आप डायमंड लैब में उसका टेस्ट करा सकते हैं। अब भारत में भी हीरे की टेस्टिंग होती है। देश में इसकी 18 लैब हैं। हालांकि राजीव का कहना है कि हीरे खूबसूरती और स्टेटस के लिए खरीदे जाते हैं, निवेश के लिए नहीं। इसलिए उनकी रीसेल वैल्यू नहीं होती। हीरा महज एक खूबसूरत पत्थर है, जिसके मूल्य के बारे में पक्के तौर कुछ कहना मुश्किल है। बहरहाल, लोग चाहे कुछ भी कहें, इतना तो तय है कि हीरे में जो बात है, वह किसी और रत्न में नहीं। इंद्रधनुषी रंग बिखेरने वाले इन पत्थरों में वाकई जान होती है!

यहां करवा सकते हैं हीरों व रत्नों की जांचः

भारत में हीरे की बढ़ती बिक्री को देखते हुए 18 टेस्टिंग लैब भी मौजूद हैं। इन लैब्स में हीरे की क्वालिटी को सर्टिफाई किया जाता है।

आईजीआई-जीटीएल, झंडेवालान, नई दिल्ली, www.gjepc.org
जेमोलॉजिकल इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (जीआईआई), मुंबई, www.giionline.com
द जेमोलॉजिकल इंस्टिटयूट ऑफ अमेरिका, मुंबई, www.giaindia.in
इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डायमंड ग्रेडिंग एंड रिसर्च, सूरत, www.iidgr.com
इंडियन डायमंड इंस्टिट्यूट, सूरत, www.diamondinstitute.net
यूरोपियन जेमोलॉजिकल लैब (ईजीएल) के कई सेंटर मुंबई आदि शहरों में हैं। www.eglindia.com

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वक्त-वक्त की बात है...

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कभी सत्ता के शीर्ष पर रहने वाले ये नेता आज लाइमलाइट से अलग एक शांतिपूर्ण जीवन जी रहे हैं। अखबार की सुर्खियों से दूर ऐसी ही चंद शख्सियतों के रूटीन में आए बदलाव से रूबरू करा रही हैं मंजरी चतुर्वेदी और गुलशन राय खत्री...

अपने लिए वक्त निकाल रहे हैं आडवाणी

लंबे वक्त तक भारतीय राजनीति का केंद्र रहे हैं लालकृष्ण आडवाणी। कोई सरकारी ओहदा न होने की वजह से इन दिनों वह भले ही सरकारी कामकाज में ज्यादा मशगूल न हों, लेकिन उनकी सक्रियता बरकरार है। अखबारों पर उनकी नजर पहले की तरह ही रहती है और संसद में भी वह सत्र के दौरान अनुशासित सांसद की तरह नियमित रूप से मौजूद रहते हैं। घर से बाहर निकलने पर सिक्यॉरिटी तो बरकरार है, लेकिन अब ज्यादा तामझाम नहीं। इससे वह थोड़े फ्री-से हैं।

दिनचर्या:
वह सुबह उठते हैं और घर के भीतर ही लॉन में टहलते हैं। इसके बाद उनकी नजर समाचार-पत्रों पर होती है। लगभग एक से डेढ़ घंटे तक वह पेपर पढ़ते हैं। इसके बाद लोगों से मिलने के लिए या बाहर जाने के लिए तैयार होते हैं। नाश्ता और भोजन पहले की तरह ही बेहद हल्का और सात्विक रहता है। जब संसद का सत्र चल रहा होता है तो वह निश्चित तौर पर सुबह 11 बजे से पहले ही संसद भवन पहुंच जाते हैं और पूरा वक्त लोकसभा में मौजूद रहते हैं। हालांकि अब वह सदन में कम बोलते हैं, लेकिन सदन में अगर विपक्ष हंगामा करता है तो सबसे ज्यादा व्यथित आडवाणी ही नजर आते हैं। जब सत्र नहीं चल रहा होता तो वह आमतौर पर घर पर ही रहते हैं। हालांकि घर में वह उन लोगों से ही मिलते हैं, जिन्हें वह पहले से अपॉइंटमेंट देते हैं। खास बात यह है कि किसी वक्त सुबह से रात तक राजनीतिक लोगों से घिरे रहने वाले आडवाणी अब गैर-राजनीतिक लोगों से मिलना ज्यादा पसंद करते हैं।

परिवार के लिए ज्यादा वक्त: राजनीतिक सक्रियता कम होने का एक असर यह हुआ है कि अब आडवाणी परिवार के लोगों को ज्यादा वक्त देते हैं, खासतौर पर अपनी 8 वर्ष की पोती को। बेहद सक्रिय राजनीतिक जीवन से अलग अब आडवाणी के जीवन में एक बड़ा चेंज यह आया है कि उन्होंने खुद को समय देना शुरू कर दिया है। अब उन्होंने घूमना भी शुरू किया है। हाल ही में वह चार दिन के लिए दुबई गए थे। वहीं, पिछले साल उन्होंने पहली बार डिज्नीलैंड की सैर की थी। इससे पहले उन्होंने क्रूज पर भी दस दिन बिताए थे और समंदर का आनंद लिया था। आजकल वह रस्किन बॉन्ड की किताब पढ़ रहे हैं।

अनुभव बांटना चाहते हैं प्रणव

पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी रिटायरमेंट के बाद नई दिल्ली के राजाजी मार्ग स्थित अपने सरकारी आवास में रह रहे हैं। हालांकि अब पहले जैसा प्रोटोकॉल नहीं है, लेकिन उनकी व्यस्तता में अभी भी कोई कमी नहीं आई है। अब उनके पहले जैसे सरकारी कार्यक्रम नहीं होते, लेकिन लोगों से मिलने-जुलने का सिलसिला अभी भी जारी है। दिलचस्प यह है कि अभी भी उनसे मिलने आने वालों में सभी दलों के नेता होते हैं। उनका झुकाव शिक्षा जगत से जुड़ी संस्थाओं के प्रति पहले से ही ज्यादा रहा है। यही वजह है कि अभी भी एजुकेशन फील्ड से जुड़े लोगों को वह दिल खोलकर वक्त देते हैं।

दिनचर्या: उनकी दिनचर्या में सरकारी कामकाज को छोड़ दिया जाए तो बाकी सब पहले जैसा ही है। मसलन, अब भी वह पहले की तरह ही सुबह 6.30 बजे जाग जाते हैं और लगभग चार किलोमीटर की सैर करते हैं। फर्क इतना है कि राष्ट्रपति होते हुए उनके साथ एडीसी चलते थे और अब उनका पीएसओ साथ होता है। उसकी एक वजह यह है कि उनके बंगले के आसपास खूब बंदर हैं और कई बार वे उनके लॉन में आ जाते हैं। सैर के बाद वह पेपर देखते हैं। सुबह के वक्त वह 12 से 15 पेपर पढ़ते हैं। इसमें लगभग दो घंटे का वक्त लगता है। इसके बाद वह नहा-धोकर पूजा करते हैं, जो लगभग डेढ़ घंटे तक चलती है। पूजा के बाद ही वह नाश्ता करते हैं और फिर कुछ कामकाज निपटाने के बाद अपने घर में बने ऑफिस पहुंचते हैं। यहां वह उन लोगों से मिलते हैं जिन्हें उन्होंने अपॉइंटमेंट दिया होता है। इनमें ज्यादातर राजनीति से जुड़े लोग ही होते हैं। दोपहर दो-ढ़ाई बजे वह भोजन करते हैं। तब तक कोलकाता से भेजा गया बांग्ला पेपर उनके घर पहुंच जाता है ताकि वह पश्चिम बंगाल की ताजा खबरों से रूबरू हो सकें। पेपर पढ़कर कुछ देर वह आराम करते हैं और शाम छह बजे फिर से ऑफिस आकर लोगों से मिलते हैं। अलबत्ता कई बार जब विदेशी राजनयिक उनसे मिलने आते हैं तो जरूर उनकी दिनचर्या में कुछ बदलाव हो जाता है। लोगों से मिलने के बाद वह अपनी डायरी लिखते हैं और फिर रात नौ बजे फिर से स्नान करके पहले पूजा और फिर डिनर लेते हैं। डिनर के बाद भी वह लगभग एक से डेढ़ घंटा किताबें पढ़ते हैं और फिर सो जाते हैं।

इरादा बड़ा: प्रणव दा के नजदीकी लोगों का कहना है कि भले ही वह रिटायर हो गए हों, लेकिन अभी भी खाली नहीं हैं। वित्त, विदेश, कॉमर्स और गृह जैसे तमाम मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल चुके अनुभवी प्रणव दा नई पीढ़ी को काफी कुछ देना चाहते हैं। इसी इरादे से यह योजना बनाई गई है कि वह कॉलेजों से 30 से 40 स्टूडेंट्स के ग्रुप को बुलाएं और उनके साथ इन तमाम विषयों पर चर्चा करें। प्रयोग के तौर पर उन्होंने दो ग्रुप के साथ शुरूआत की है, लेकिन अब वह नियमित तौर पर इस तरह की चर्चा की योजना पर काम कर रहे हैं।

'एलिस इन वंडरलैंड' शीला की फेवरेट किताब
शीला दीक्षित, पूर्व सीएम दिल्ली


शीला दीक्षित ने 15 सालों तक दिल्ली सरकार का नेतृत्व किया। खुद को कांग्रेस पार्टी का एक निष्ठावान सिपाही मानने वालीं दीक्षित भले ही सक्रिय राजनीति से दूर होकर रिटायर्ड जीवन का आनंद ले रही हैं। हालांकि उनका मानना है कि शीर्ष नेतृत्व जब भी कोई जिम्मेदारी देगा, वह बिना किसी हिचक उसे निभाएंगी। शीला अपनी व्यस्तताओं के चलते जो नहीं कर पाई थीं, अब वह वे सारे काम कर रही हैं।

दिनचर्या: शीला दीक्षित की सुबह सात बजे होती है। फ्रेश होने के बाद एक्सरसाइज और फिर कॉफी की चुस्की के साथ सारे अखबारों को खंगालती हैं वह। दिन की तीन कप कॉफी तय है: सुबह, दोहपर और रात। उन्हें खुद को अपडेट रखना बेहद पंसद है। इसलिए जहां वह सुबह कई अखबार पढ़ती हैं वहीं शाम को एक घंटा न्यूज चैनल देखती हैं। वह कहती हैं, 'एक घंटे न्यूज चैनल्स देखने से आपको अंदाजा लग जाता है कि दिनभर देश-दुनिया में क्या हुआ।' खैर, अखबार निबटाकर नाश्ता करती हैं वह और फिर साढ़े दस तक तैयार होकर लोगों के बीच पहुंच जाती हैं। लंबे सक्रिय राजनीतिक जीवन बिताने के कारण उनका लोगों के साथ संपर्क अभी भी उसी तरह से बना हुआ है। दोपहर दो से ढ़ाई बजे तक वह लंच कर लेती हैं और फिर थोड़ा-सा आराम। इस दौरान वह कुछ पढ़ना पसंद करती हैं। शाम चार से सात का समय उनका लोगों से मिलने-जुलने का होता है। कहीं जाना नहीं हुआ तो शाम को कुछ देर संगीत सुनना और टीवी देखना भी उन्हें पसंद है। रात को डिनर के बाद कुछ देर कोई न कोई किताब वह जरूर पढ़ती हैं।

फैमिली व पर्सनल लाइफ: शीला मानती हैं कि अब उनके पास परिवार और दोस्तों के लिए भरपूर समय है। वह कहती हैं कि उस समय जो नहीं कर पाती थीं, वह अब कर रही हूं। हां, उन्हें इस बात का मलाल है कि पहले वह परिवार खासकर अपने ग्रैंड चिल्ड्रन को वक्त नहीं दे पाती थीं, अब बच्चे इतने बड़े हो गए हैं कि उनकी व्यस्तता बढ़ गई है। वह कहती हैं, 'पहले मैं अपनी दोनों पोतियों को मिलने पर 'हाय और बाय' बोलती थी और अब वे मुझे 'हाय और बाय' बोलती हैं।' हालांकि इससे आपसी प्यार और जुड़ाव कहीं भी कम नहीं हुआ है। उनकी जो पोती दिल्ली में है, वह हर दूसरे-तीसरे दिन पांच-दस मिनट के लिए ही सही, लेकिन मिलती जरूर है। वह कहती हैं, 'हमें जब भी मौका मिलता है, साथ वक्त बिताते हैं। साथ में आउटिंग करने से लेकर फिल्में और ट्रैवलिंग तक खूब इंजॉय करते हैं।' सीएम पद से हटने के बाद अपने पूरे परिवार के साथ हुई केरल विजिट को वह अपनी एक खूबसूरत मेमरी मानती हैं। उन्हें पढ़ना बहुत पंसद है। रामचंद्र गुहा और वेस्टर्न लेखकों को वह काफी पसंद करती हैं। 'एलिस इन वंडरलैंड' उनकी फेवरिट बुक है। अब तक इसे दर्जनों बार पढ़ चुकी हैं वह, लेकिन मन नहीं भरा।

फिटनेस मंत्रा: खुद को फिट रखने के लिए वह सुबह तकरीबन 40 मिनट एक्सरसाइज और शाम को लगभग पौन घंटे की वॉक करती हैं। कमर दर्द और घुटनों की समस्या के चलते वह बाहर टहलने नहीं जातीं। फिर गार्डन में जमीन के ऊंचे-नीचे होने का खतरा रहता है इसलिए भी वह कोई रिस्क नहीं लेतीं।

सिंहजी फैमिली गैदरिंग में भी ज्यादा नहीं बोलते
मनमोहन सिंह, पूर्व पीएम


दिनचर्या: मनमोहन सिंह के लिए रिटायरमेंट के बाद के दिन काफी अलग हैं। वह सुबह उठकर कुछ देर वॉक करते हैं, फिर अखबार पढ़ते हैं और जरूरत होने पर फोन करना जैसे काम निबटाते हैं। दिन में पांच से छह घंटे उनके पढ़ने में बीतते हैं। यूं तो उन्होंने कई किताब और लेख लिखे हैं। उनकी नोट्स लिखने की जबरदस्त आदत है। वह आज भी अपने संदर्भ के लिए नोट्स तैयार करते हैं। पत्नी के गुरबानी और शबद लगाने पर वह चाव से सुनते हैं। लाइट म्यूजिक सुनना भी उन्हें पसंद है।

फैमिली व पर्सनल लाइफ: रिटायरमेंट के बाद मनमोहन अपना जीवन अपनेआप में सिमटा हुआ ही बिता रहे हैं। पद से हटने के बाद भी उनके निजी जीवन में रिश्तों व दोस्तों को लेकर कोई खास बदलाव नहीं आया है। सिंह के सरकारी आवास में बस वह और उनकी पत्नी गुरशरण कौर रहते हैं। उनका एक नवासा जरूर उनके साथ रहता है, जो लॉ के क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। बेटियां आती हैं और मिलकर चली जाती हैं। सिंह के दोस्तों की तादाद बेहद सीमित है। ज्यादातर दोस्त तब के हैं, जब वह विदेश में थे या फिर आरबीआई और योजना आयोग जैसी जगहों पर। रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स, डिप्लोमैट्स, शिक्षा जगत से जुड़े लोग और इकॉनमी के एक्सपर्ट्स उनके सर्किल में हैं, जिनसे मिलना उन्हें पसंद है। राजनीतिक जगत में भी उनके कुछ ही मित्र हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इनमें प्रमुख हैं। जब मित्रों या परिवार की गैदरिंग होती है तो उनकी भूमिका श्रोता की ही होती है। उन्हें फिल्म का खास शौक नहीं है। जब संसद नहीं चलती तो उनकी राजनैतिक व्यस्तता बेहद कम रहती है। राजनीतिक लोगों से मिलना-जुलना वह अवॉइड ही करते हैं।

फिटनेस मंत्रा: मनमोहन सिंह अपनी सेहत को लेकर बेहद सजग हैं। वह नियमित रूप से एक्सरसाइज और वॉक करते हैं। साइक्लिंग के अलावा वह सुबह या शाम को सुविधानुसार अपने घर के लॉन में ही वॉक भी करते हैं। सुरक्षा वजहों से वह घर के बाहर वॉक के लिए नहीं जाते। नपा-तुला खाना और नपा-तुला बोलना उनकी तंदुरुस्ती का राज है। कभी नॉन वेज के शौकीन रहे सिंह अब ज्यादातर वेज खाना ही पसंद करते हैं। रोटी, सब्जी, दाल, दो फुल्के, सलाद, दही आमतौर पर उनका भोजन होता है। दही उन्हें पसंद है तो मीठा कम खाते है। रोचक है कि जब सिंह पीएम थे तो अक्सर संसद के सेंट्रल हॉल के पास स्थित डीएमएस के बूथ में मिलने वाला मीठा दही व लस्सी पिया करते थे।

न्यूज पर नजर: लंबे समय तक खबरों में बने रहे सिंह न्यूज व मौजूदा घटनाक्रम पर पूरी नजर रखते हैं। अखबार व मैगजीन के अलावा न्यूज चैनल के जरिए वह हालिया घटनाक्रम से जुड़े रहते हैं। सिंह अंग्रेजी के अखबार व मैगजीन पढ़ते हैं। घरेलू अखबारों के साथ ही वह विदेशी प्रकाशनों को पढ़ने की कोशिश करते हैं, जिससे देश-दुनिया की खबरें मिल सकें। इसके अलावा, वह न्यूज चैलन भी देखते हैं। वह खुद कभी टीवी नहीं चलाते। अगर टीवी चल रहा होता है तो न्यूज चैनल देख लेते हैं।

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देश की 3 बेटियां, इनके कारनामे पर दुनिया दंग

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खेल के इंटरनैशनल मंच पर लड़कियों ने एक बार फिर से धूम मचाई है। साधारण परिवारों की इन बेटियों ने खेलों में असाधारण उपलब्धियां हासिल की हैं। अपनी कामयाबी से दुनिया को अचंभित कर देने वाली तीन लड़कियों की दास्तां बता रहे हैं नीरज झा...

देश ने काफी तरक्की की है। लड़कियों को लेकर पैरंट्स की मानसिकता बदल रही है, लेकिन समाज की सोच में बदलाव की रफ्तार काफी धीमी है। ऐसे में हरियाणा के झज्जर जैसे जिले की लड़की अगर इंटरनैशनल लेवल पर देश का नाम चमकाए तो हैरानी होती है। पिछले दिनों आयोजित अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में हरियाणा की मनु भाकर, पंजाब की नवजोत कौर और पश्चिम बंगाल की मेहुली घोष ने देश का परचम लहराया। साधारण परिवारों की इन लड़कियों की कहानियां इतनी सरल नहीं हैं, जितनी सरल दिखती हैं। ये लड़कियां और इनका परिवार संघर्ष के कई दौर से गुजरे और यह साबित करने में सफल रहे कि लड़कियां किसी भी मायने में कम नहीं हैं। इन्होंने विचार का एक नया मंत्र समाज को दिया है - बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और बेटी खिलाओ।

मनु भाकर: सोलह बरस की 'गोल्डन शूटर'
युवा निशानेबाज मनु भाकर खाप पंचायतों के खौफ के लिए बदनाम हरियाणा से हैं। गुआदालाजरा में आयोजित आईएसएसएफ वर्ल्ड कप में दो दिनों के अंदर उन्होंने दो गोल्ड मेडल जीते। जिस लड़की ने केवल दो साल पहले निशानेबाजी को अपनाया हो उसके लिए ऐसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में दो गोल्ड मेडल जीतना बहुत बड़ी उपलब्धि है। आपको बता दें कि मनु भाकर की उम्र महज 16 साल है और उन्होंने ये मेडल बड़े शूरमाओं को पछाड़कर जीते हैं।

जीतने के बाद उन्होंने कहा, ‘यह अविश्वसनीय है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं सीनियर वर्ल्ड कप में दो गोल्ड मेडल जीतने में सफल रहूंगी।’

उनका जीतना वाकई अविश्वसनीय है क्योंकि उन्होंने मैक्सिको के अलेजांद्रा जावाला को पछाड़ा, जो दो बार के वर्ल्ड कप फाइनल्स के विजेता हैं। ग्यारहवीं में पढ़ने वालीं मनु कहती हैं, ‘मैं व्यक्तिगत स्पर्धा में थोड़ी नर्वस थी। मैंने 17वें शॉट में 8.4 और 19वें में 8.1 अंक हासिल किए। मैं सहज नहीं थी, लेकिन अपने हौसले से मैंने वापसी की और गोल्ड जीतने में सफल रही।'

हरियाणा के झज्जर की रहने वाली इस पिस्टल निशानेबाज की निगाहें अब सिडनी में होने वाले आईएसएसएफ जूनियर वर्ल्ड कप और अगले महीने आयोजित होने जा रहे गोल्ड कोस्ट कॉमनवेल्थ गेम्स पर टिकी हैं। मनु ने कहा, ‘सीनियर वर्ल्ड कप में अपने प्रदर्शन से मैं बहुत खुश हूं और अब मेरी निगाहें आने वाले टूर्नामेंट पर टिकी हैं। हमेशा की तरह मैं अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने और अपने देश के लिए पदक जीतने की कोशिश करूंगी।’

बेटी के लिए पिता ने दी नौकरी की कुर्बानी
दिलचस्प यह है कि मनु शूटिंग से पहले 6 दूसरे खेलों में भी खुद को आजमा चुकी हैं। मनु के पिता रामकिशन भाकर बताते हैं, ‘वह तो हर साल खेल बदलती है। वह अब तक कराटे, थांग टा, टांता, स्केटिंग, स्वीमिंग और टेनिस खेल चुकी है। मनु ने तो शूटिंग 10वीं में आने के बाद शुरू की। अभी वह 11वीं की स्टूडेंट है। रामकिशन बताते हैं कि मनु को शूटिंग में जाने का आइडिया तब आया, जब वह एक दिन शूटिंग रेंज से गुजर रही थी। वहां दूसरों को प्रैक्टिस करता देख उसे लगा कि क्यों न शूटिंग में हाथ आजमाया जाए! स्कूल में आयोजित पहले ही इवेंट में उसने निशाना इतना सटीक लगाया कि स्कूल के टीचर देखकर दंग रह गए!'

इसी इवेंट के बाद शूटिंग की प्रैक्टिस और ट्रेनिंग का सिलसिला शुरू हुआ और मनु जगह-जगह आयोजित प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने लगीं। लेकिन मनु के साथ सबसे बड़ी समस्या थी लाइसेंसी पिस्टल के साथ सफर करना। सार्वजनिक परिवहन में वह सफर नहीं कर सकती थीं और चूंकि वह बालिग नहीं थी इसलिए अपनी गाड़ी चलाकर भी शूटिंग इवेंट में हिस्सा लेने नहीं जा सकती थीं। ऐसे में इस समस्या का समाधान पिता को ही निकालना पड़ा। बेटी के सपनों को साकार करने के लिए उन्होंने अपना सपना छोड़ दिया। पिछले डेढ़ साल से राम किशन नौकरी छोड़कर बेटी के साथ-साथ शूटिंग इवेंट्स में जा रहे हैं। राम किशन कहते हैं, 'शूटिंग बेहद महंगा इवेंट है। एक पिस्टल दो लाख रुपये की आती है। अब तक मनु के लिए तीन पिस्टल हम खरीद चुके हैं। साल में तकरीबन 10 लाख रुपये हम केवल मनु के गेम पर खर्च करते हैं। जाहिर है, यह बड़ी रकम है। कभी दोस्तों से तो कभी रिश्तेदारों से मदद मिल जाती है।'

मेहुली घोष: नई शूटिंग सनसनी
मेहुली घोष भारतीय शूटिंग के क्षितिज पर चमचमाता सितारा बनकर उभरी हैं। पिछले दिनों गुआदालाजरा में आयोजित आईएसएसएफ वर्ल्ड कप में 17 साल की मेहुली ने महिलाओं की 10 मीटर एयर राइफल में ब्रॉन्ज मेडल जीता तो मिक्स्ड इवेंट में भी ब्रॉन्ज जीतकर सबको चौंका दिया।

बंगाल की इस शूटर ने अपने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। जब वह 12 साल की थीं, तब लोकप्रिय हिंदी सीरियल 'सीआईडी' खूब देखा करती थीं। इसी सीरियल को देखते हुए उन्हें बंदूक और राइफल ने अपनी ओर आकर्षित किया। उनके पिता पश्चिम बंगाल सरकार के कर्मचारी थे। उनकी सैलरी बहुत ज्यादा नहीं थी। उन्होंने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसा इकठ्ठा किया और अपनी बेटी का ऐडमिशन सेरेम्पोर राइफल क्लब में करवा दिया।

इस क्लब में उन्होंने प्रैक्टिस करनी शुरू की। 2014 में उन्हें बड़ा झटका लगा जब शूटिंग स्कूल से उन्हें निलंबित कर दिया गया, वजह थी- उनके राइफल से निकली एक गोली गलती से एक दर्शक को लग गई थी। स्कूल से सस्पेंड होने के बाद कि वह महीनों डिप्रेशन में रही। बहुत कोशिशों के बाद एक साइकॉलजिस्ट की मदद से उन्हें फिर से खेल में वापस लाया गया। मेहुली की मां मिताली घोष ने रिश्तेदारों की मदद से अपनी बेटी को ओलिंपियन जॉयदीप कर्माकर की शूटिंग अकादमी में दाखिला करवाया। यहां उनकी प्रतिभा खूब निखरी। मेहुली को 61वीं राष्ट्रीय निशानेबाजी प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ निशानेबाज चुना गया।

मेहुली एक सामान्य परिवार से आती हैं। उनकी मां मिताली बताती हैं कि उनका परिवार आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हैं, लेकिन मेहुली के सपने को पूरा करने में उनके परिवार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि उन्हें लोन भी लेना पड़ा। जॉयदीप कहते हैं, 'मेहुली काफी भाग्यशाली हैं कि उन्हें ऐसे पैरंट्स मिले हैं, जो उनके सपने को पूरा करने के लिए हर कठिनाई का डटकर सामना कर रहे हैं।'

कोच कर्माकर मानते हैं कि मेहुली का मेडल जीतना एक बड़ी सफलता है, लेकिन उन्हें अभी लंबा रास्ता तय करना है।

नवजोत कौर: अभावों को हौसले की पटकनी
अगर महिला कुश्ती की बात करें तो हमेशा से लाइमलाइट में फोगाट बहनें ही रही हैं। ऐसे में लाइमलाइट से दूर नवजोत कौर ने चुपचाप अपना काम किया और अब वह भारत में महिला कुश्ती की नई स्टार बन गई हैं। नवजोत ने मिया इमाई को एकतरफा मुकाबले में 9-1 से पटखनी दी। इस जीत के साथ ही वह सीनियर एशियाई कुश्ती में गोल्ड मेडल जीतने वालीं पहली महिला पहलवान बन गई हैं। नवजोत ने एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप के सेमीफाइनल में मंगोलिया की रेसलर सेवेजमेड एनख्बायर को 2-1 से हराया था। यह सपनों सरीखी जीत है।

गोल्ड मेडल जीतने वाली नवजोत पहली भारतीय महिला बन तो गईं, लेकिन यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था। उनकी सफलता के पीछे उनके पूरे परिवार के त्याग और उनकी अथक मेहनत छिपी है। उनके पिता ने कर्ज लेकर अपनी बेटी को आगे बढ़ाया। भाई-बहन ने नवजोत के लिए अपना करियर तक दांव पर लगा दिया।

पिता ने कर्ज लिया
नवजोत के पिता सुखचैन सिंह नशे के लिए बदनाम पंजाब के जिले तरनतारन के गांव बागड़िया के एक साधारण किसान हैं। पिछले लगभग दस बरसों से लगातार वह कर्ज लेकर अपनी बेटी की ट्रेनिंग करवा रहे हैं। कर्ज का बोझ बढ़ते-बढ़ते अब करीब 13 लाख रुपये तक पहुंच गया है। लेकिन कर्ज से लदा यह पिता उस वक्त खुशियों से झूम उठा जब नवजोत के जीतने की खबर आई। पिता सुखचैन कहते हैं, 'हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। उसने देश का गौरव बढ़ाया है। अब मैं चाहता हूं कि वह देश के लिए ओलिंपिक मेडल लाए।'

खैर, आज पिता ने चैन की सांस भले ली हो, लेकिन बेटी को इस मुकाम तक पहुंचाने में उन्हें क्या-क्या दुख झेलना पड़ा है, यह वही जानते हैं। सुखचैन ने ही अपनी दोनों बेटी नवजोत और नवजीत को कुश्ती के लिए तैयार किया था। उस समय पूरा गांव इस खेल को लड़कियों के लिए सही नहीं मानता था। लोग ताने मारते थे, हंसते थे, लेकिन बहादुर बाप और बेटियों का हौसला डगमगाया नहीं। उन्होंने ऐसा काम कर दिखाया कि गांववालों के मुंह बंद हो गए। नवजोत कहती हैं, 'पापा ने मुझे और मेरी बड़ी बहन को पहलवान बनाने का फैसला किया। उन दिनों गांववाले हम पर हंसते थे। वे पापा को ताने मारते थे, पर हमने किसी की नहीं सुनी। पापा हमेशा हौसला बढ़ाते थे। उनकी वजह से ही आज मैं यहां तक पहुंची हूं।'

हैरानी नहीं कि नवजोत की ऐतिहासिक उपलब्धि पर तरनतारन के उनके पैतृक घर पर बधाई देने वालों का तांता अब तक लगा हुआ है।

मां ज्ञान कौर बताती हैं कि बचपन से ही रेसलिंग का शौक रखने वालीं नवजोत ने छठी कक्षा से ही कुश्ती खेलना शुरू कर दिया था। नवजोत की बहन नवजीत भी पहलवान हैं। नवजीत की प्रेरणा से ही नवजोत ने खेलना शुरू किया था। पिता सुखचैन ने बताया कि नवजोत के पहले कोच पुलिस में हेड कांस्टेबल पहलवान अशोक कुमार थे।

दिलचस्प यह है कि रेसलिंग का शौक बचपन से होने के बावजूद नवजोत को इस खेल में करियर बनाना पसंद नहीं था। पहली बार पंजाब स्कूल गेम्स में गोल्ड जीतने के बाद नवजोत को लगा कि उन्हें इसे गंभीरता से लेना चाहिए।

चोट के कारण नवजोत का 2016 के रियो ओलिंपिक में जाने का सपना टूट गया था। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद भी काफी समय तक उन्हें घर पर आराम करना पड़ा। पिछले साल दिसंबर में दोबारा ट्रेनिंग के लिए कुश्ती के मैदान में वह उतरीं और उसके बाद तो इतिहास ही रच डाला। नवजोत कहती हैं, 'चोट लगने के बाद मैं हिम्मत हार गई थी। लगा था कि अब कभी कुश्ती नहीं लड़ पाऊंगी, लेकिन परिवार ने मेरा हौसला बढ़ाया। अब मेरा लक्ष्य ओलिंपिक मेडल जीतना है।'

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महिलाओं के लिए बने कानूनों का दुरुपयोग

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देश में बनने वाला हर कानून नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए बनाया जाता है, ताकि हर पीड़ित को इंसाफ और उसका हक मिल सके। महिलाओं के साथ होने वाले तमाम तरह के अपराधों, शारीरिक-मानसिक शोषण, प्रताड़ना और हिंसा से उन्हें बचाने के लिए उन्हें कई कानूनी कवच दिए गए हैं। इससे उनकी स्थिति पहले से मजबूत हुई है। कई महिलाओं को काफी मदद मिली। लेकिन जैसा कि हर कानून के साथ होता रहा है, इनके अंदर की खामियां भी सामने आईं। इनके दुरुपयोग शुरू हो गए। कुछ पुरुष गलत तरीके से मामले में फंसाए गए। अक्सर ऐसे पुरुषों की दास्तां हमारी जानकारी में आ नहीं पाती। कुछ ऐसी ही कहानियों को सामने ला रहे हैं नरेन्द्र नाथ और पूनम पाण्डे...

उसकी 'छोटी-सी' गलती थी, मेरी जिंदगी तबाह हो गई
सोमदत्त, कोलकाता
किसी आम युवक की तरह लाखों के पैकेज पर जॉब करने की ख्वाहिशों के बीच मैं दिल्ली में एक बड़ी आईटी कंपनी में काम कर रहा था। कंपनी की ओर से मुझे अमेरिका भेजा जा रहा था। वहां जाने से पहले परिवार की सहमति से मैंने 2011 में अरेंज मैरिज की। मेरे पिता नहीं हैं, मां को मेरी शादी का बड़ा चाव था। मैं परिवार का इकलौता बेटा हूं। लड़की कोलकाता की थी। शादी हो गई। हम इंदिरापुरम में रहने लगे। ऑफिस नोएडा में था। कुछ हफ्ते बहुत ठीक से कटे, फिर परेशानी शुरू हुई। मेरी पत्नी अपने माता-पिता को साथ रखने या फिर कोलकाता शिफ्ट होने का दबाव बनाने लगी। मैंने कहा कि पहले अमेरिका चलते हैं। सब ठीक रहा तो बाद में इस मुद्दे को देख लेंगे।

अमेरिका जाने का समय भी आ गया। वीजा तैयार था और हम दोनों का टिकट भी। 2012 के दिसंबर में जाने की तैयारी थी। लेकिन एक दिन वह अड़ गई। कहने लगी कि मैं तो बिल्कुल नहीं जाऊंगी और आपको भी जाने नहीं दूंगी।

मुझे यह छोटी-सी प्रॉब्लम लगी। लगा कि इसे आम छोटे झगड़े की तरह ही सुलझा लेंगे, लेकिन होना कुछ और ही था। मुझे अब भी याद है 15 नवंबर 2012 का वह दिन, जब घर लौटा तो देखा वह नहीं थी। कुछ देर बाद ही इंदिरापुरम थाने से पुलिस आई और कहने लगी कि मुझ पर मेरी पत्नी ने कई आरोप लगाए हैं। मुझ पर आरोप था कि मैंने दहेज लिया और घरेलू हिंसा की है। मुझे गहरा शॉक लग गया। मेरी गिरफ्तारी हुई।

जब उसने मुझे पर केस किया था, तब वह गर्भवती थी। हमारा बच्चा हुआ। उसने एसएमएस कर जानकारी दी कि बेटा हुआ है। लेकिन मुझे यह भी बताया गया कि बच्चे से मुझे तभी मिलने दिया जाएगा जब मेरा पूरा परिवार उससे माफी मांगेगा। मैं इसके लिए तैयार था, लेकिन और शर्तें आने लगीं। मैंने कहा कि अगर नहीं साथ नहीं रहना हो तो तलाक ले लो, लेकिन इस तरह का बर्ताव क्यों? लेकिन इस बीच वह कोर्ट पहुंच गई। उसने कोर्ट में दहेज लेने का मामला दायर कर दिया। मैं मानसिक रूप से टूटने लगा। 30 साल की उम्र में मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरे साथ क्या हो रहा है। अमेरिका जाने का मेरा सपना टूट चुका था। इस लफड़े में नोएडा वाली नौकरी भी छूट गई।

मैं मां के पास कोलकाता लौट गया। नौकरी नहीं थी। पैसे खत्म हो गए थे। बीच में मुझे 50 दिन जेल में भी गुजारने पड़े। इसके बाद केस का ट्रायल शुरू हुआ। हुगली में केस हुआ था। एक साल तक सभी पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने मेरे पक्ष में फैसला दिया। मुझे न सिर्फ केस से मुक्त कर दिया गया था, बल्कि मेरे पक्ष में कोर्ट ने काफी सकारात्मक टिप्पणी भी की थी। लेकिन अभी मुझे कानूनी झंझटों से ही मुक्ति मिली थी। कई सवालों के जवाब आने अभी बाकी थे। चूंकि जिंदगी चलानी थी इसलिए मजबूर होकर मैंने कोलकोता में फोर्थ ग्रेड की एक सरकारी नौकरी कर ली, जबकि मैं इंजीनियर हूं।

अब तो सब भूल चुका हूं। 2012 से 2015 के बीच मेरी हालत देखकर मेरी मां भी सदमे में आ गई थीं। इलाज के अभाव और मानसिक तनाव से उनकी जान चली गई। अंतिम समय में तो मां ने मुझे पहचानना भी छोड़ दिया था। अब मैं तन्हा हूं। अब मेरे लिए जिंदगी बस वक्त बिताने का जरिया है। कोई दोस्त नहीं बचा। सब अपनी दुनिया में हैं और मेरी कोई दुनिया नहीं है।

मेरे दोस्तों की पत्नियों ने अपने पति को मुझसे दूर रहने को कहा था। मैं आत्महत्या नहीं कर सका, लेकिन ऐसा ख्याल कई बार आया। जब मैं अपने बेटे से अक्टूबर 2016 में मिला तो उसने मुझे अंकल बोला। पत्नी भी मिली। उसे मेरी हालात का पता चल चुका था। उसने मुझसे कहा कि उससे छोटी मिस्टेक हो गई थी, केस नहीं करना चाहिए था। उसकी उस छोटी-सी मिस्टेक ने मेरी जिंदगी को बड़े तरीके से तबाह कर दी थी। वह मेरे पास लौटना भी चाहती थी, नए सिरे से जिंदगी जीने के लिए। लेकिन अब मेरे पास जिंदगी कहां है? अब मैं वह नहीं रहा जो खुद अपनी जिंदगी के बारे में कुछ तय कर सकता है। 35 साल की उम्र में 75 साल-सा महसूस करता हूं। शरीर से बीमार हूं और मन से परेशान। इस बीमारी का इलाज शायद उन बीते पांच बरसों में था, जो कभी लौट नहीं पाएंगे। मैं बस इतना चाहता हूं कि किसी भी महिला के साथ कोई पुरुष गलत न करे और कोई महिला भी कानून का गलत तरीके से इस्तेमाल कर किसी की हालत मेरी जैसी न करे।

कानून के दुरुपयोग ने मेरे भाई की जान ले ली
नितिन कुमार, एयर इंडिया में केबिन क्रू इंजार्च
2008 का साल मेरे छोटे भाई अरविंद के लिए काफी उत्साह वाला था। फिजियोथेरपी का कोर्स करने के बाद वह जल्दी ही जॉब पाने की उम्मीद में था। लेकिन उसकी किस्मत में कुछ और ही लिखा था। एक लड़की से उसकी जबरन शादी करा दी गई। बाद में धमकी दी गई कि अगर वह इस शादी को नहीं मानेगा तो उसे और हमारे परिवार को मुकदमों में फंसा दिया जाएगा। धमकी से डरकर उसने शादी को स्वीकार लिया और पत्नी के साथ रहने लगा। कुछ दिनों तक शादीशुदा जिंदगी ठीक चली, लेकिन दो महीने बाद उस पर घरेलू हिंसा का केस कर दिया गया। मामला कोर्ट तक पहुंचा। 2013 में कड़कड़डूमा कोर्ट ने उसे मामले से बरी कर दिया। इस बीच कानूनी लड़ाई में उलझने के बाद अरविंद ने कानून की पढ़ाई कर ली। वह वकालत करने लगा। जब उसे घरेलू हिंसा केस में कोर्ट से राहत मिली तो उसने उस लड़की के साथ तलाक की प्रक्रिया शुरू की और 2016 में दोनों का कानूनी रूपी से तलाक हो गया। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। उन दोनों की एक बेटी थी, उसके जन्म दिन पर अरविंद उससे मिलने गया।

वहां से वह लौटा ही था कि उसकी एक्स-वाइफ ने उस पर रेप का केस कर दिया। अरविंद को थाने बुलाया गया। पुलिस ने समझौता कराने की कोशिश की और सुलहनामा भी करा दिया। कुछ दिनों बाद उसने अरविंद पर एक और रेप का केस किया। मुकदमों और बेइज्जती से अरविंद बुरी तह टूटने लगा। इसे देखते हुए हम लोगों ने उसे एक छोटी जॉब दिलवा दी, लेकिन लड़ने की उसकी क्षमता जवाब दे चुकी थी। उसने 13 दिसंबर 2017 को आत्महत्या कर ली। नोट में उसने इन बीते बरसों की पीड़ा लिखी। वह तो चला गया, हम अब भी दुखी हैं। मुझे लगता है कि अगर इन मामलों में साफ-साफ इंसाफ हुआ होता या सही तरीके से सभी की बात सुनी गई होती तो मेरे भाई की जान बच सकती थी। कानून का ऐसा दुरुपयोग किसी के हित में नहीं है।

बेटी देती है हौसला, झूठे केस में फंसे लोगों के साथ खड़े रहने का
चेतन कनू, सीनियर साइंटिस्ट, मुंबई
मेरी शादी 1996 में हुई थी। हमारे दो बच्चे हुए। एक बेटी और बेटा। उन्हें पाकर लगा कि जिंदगी सफल हो गई और अब लाइफ में कोई कमी नहीं रहेगी। जब 2007 में बेटी 10 साल की थी और बेटा 5 साल का तो मेरे पैरंट्स बहुत बीमार पड़े। मैं तमिलनाडु में रहता था तो पैरंट्स को अपने पास बुला लिया। इसके बाद मेरी जिंदगी में ऐसा मोड़ आया जो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। पत्नी चाहती थी कि मैं अपने बीमार पैरंट्स को अपने साथ ना रखूं। किसी भी बेटे के लिए यह तकलीफदेह होगा। दिक्कत यह थी कि मेरी पत्नी के पैरंट्स भी उसे भड़काते थे। ऐसे में एक दिन अचानक वह बच्चों को लेकर घर छोड़कर चली गई। उसने पुलिस में मेरे खिलाफ शिकायत दर्ज करा दी। मेरे परिजनों और दोस्तों ने उसे समझाया और यहां तक कि पुलिस ने भी उससे सुलह को लेकर बात की। इसके बाद उसने शिकायत वापस ले ली और फिर साथ आकर रहने लगी। लेकिन तीन महीने बाद वह फिर पैरंट्स को छोड़ने या फिर जाने की धमकी देने लगी। एक दिन वह फिर घर छोड़कर चली गई और मुझ पर दहेज प्रताड़ना निरोधक कानून के तहत केस कर दिया।

हमारे बच्चों ने उसके साथ जाने से मना कर दिया। बेटी इतनी समझदार हो गई थी कि वह अपनी मां को समझा रही थी कि वह गलत कर रही है। मेरे पैरंट्स एकदम टूट गए, लेकिन मैंने किसी तरह हिम्मत बांधे रखी। जिस दिन मुझे पुलिस अरेस्ट करने आई, उस दिन ही मैंने तय कर लिया था कि इस झूठे केस को आईना दिखाना है। करीब छह महीने पहले कोर्ट ने सारे केस खारिज कर दिए और मेरे पक्ष में फैसला दिया। मेंटनेंस का केस भी कोर्ट ने खारिज कर दिया और फैसले में साफ कहा कि महिला बिना किसी वजह के पति को छोड़कर चली गई थी। बच्चों की कस्टडी भी मुझे ही मिली। आज मेरी बेटी इंजिनियरिंग कर रही है और बेटा 10वीं में है, लेकिन करीब 10 साल कोर्ट के चक्कर काटने में मेरा पूरा बैंक बैलेंस चला गया। करीब 40 लाख की मेरी पूरी सेविंग इसकी भेंट चढ़ गई। ऑफिस से लोन भी लेना पड़ा। बच्चों को लिए जो सपने देखे थे, उस पर भी फर्क पड़ा। पैरंट्स काफी तकलीफ में रहे। मुझे अब भी इस बात का दुख है कि मेरी मां यह देखने के लिए नहीं बची कि झूठा केस खत्म हो गया है। वह अपने सीने में दर्द के साथ ही दुनिया छोड़ गई। हालांकि पिताजी इस सुकून के साथ दुनिया से विदा हुए कि केस खत्म हो गया है। मेरे बच्चे मुझे पूरा सपोर्ट करते हैं। मैं जब भी इस तरह की मीटिंग में जाता हूं, जहां 498ए केस में झूठे फंसे लोग इकट्ठे होते हैं तो मेरी बेटी मुझे और हौसला देती है। वह कहती है, 'पापा हमारे लिए वक्त कम भी मिले तो कोई बात नहीं, लेकिन जो लोग झूठे केस का दर्द झेल रहे हैं, उनकी मदद जरूर करना।'


झूठे केस का दर्द सहता रहा मैं
रोहन (बदला हुआ नाम)

शादी के 10 साल तक सबकुछ नॉर्मल चल रहा था। हम अपने दोनों बच्चों के साथ बेहद खुश थे। लेकिन एक दिन पत्नी बहुत ही मामूली-से झगड़े की वजह से दोनों बच्चों को लेकर चली गई। मेरी सारी कोशिशों के बावजूद उसने मुझसे बात तक नहीं की। चार महीने बाद मुझे उसकी ओर से मेंटनेंस का नोटिस मिला। जब मैंने इस नोटिस के खिलाफ तर्क दिया कि पत्नी बिना वजह घर छोड़कर गई है, उसे वापस आना चाहिए तो उसने मुझ पर 498ए का केस भी कर दिया। मैं और मेरे पूरे परिवार ने बहुत ही तनाव में दो साल गुजारे। हम हर डेट पर कोर्ट जाते रहे, लेकिन वह अक्सर गायब हो जाती थी ताकि केस लंबा चले। हम सामाजिक दबाव भी झेल रहे थे। लोग हमें इस नजर से देखने लगे थे कि हम अपने ही घर की महिला पर अत्याचार करते हैं, जबकि हकीकत में हम एक झूठे केस का शिकार बने थे। दो साल बाद जब इस केस में गवाही हुई तो दो घंटे की जिरह में ही कोर्ट ने केस खत्म कर दिया और मेरे पक्ष में फैसला सुनाया। मुझे इन दो बरसों में बच्चों से नहीं मिलने दिया गया और बच्चों के मन में मेरे खिलाफ जहर घोला गया। वह दो साल जिंदगी के बेहद तनाव भरे थे। किसी महिला के साथ गलत करना बुरा है, लेकिन अगर महिला ही झूठे केस में फंसाए तो उसके खिलाफ भी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। दो साल में कई बार तो मुझे खुदकुशी करने का विचार आया, लेकिन परिवार ने मुझे बचा लिया। उसकी मदद से ही मैंने वह मुश्किल वक्त गुजारा।

उभर रहा है मेन्स राइट्स मूवमेंट
भारत में महिलाओं के अधिकारों की स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे में उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं। ये तमाम कानून काफी सख्त भी हैं। महिलाओं की लड़ाई लड़ने के लिए तमाम सामाजिक संगठन भी आगे रहते हैं। लेकिन महिला अधिकारों की लड़ाई के बीच देश में 'मेन्स राइट्स मूवमेंट' भी उभर रहा है। जहां पहले पुरुष अधिकारों की बात कहीं होती नहीं दिखती थी, वहीं अब कई शहरों में हर हफ्ते मेन्स राइट्स ऐक्टिविस्ट मीटिंग भी करने लगे हैं। कई बार वे सड़कों पर उतरकर अपने हकों की बात भी करते हैं। मेन्स ऐक्टिविस्ट्स कहते हैं कि सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी पुरुषों के साथ कानून बराबरी का बर्ताव नहीं कर रहा। ऐसे में दूसरे देशों में भी लोग अब पुरुषों के हकों की लड़ाई लड़ने लगे हैं। इन संगठनों का कहना है कि हमें ऐंटी-मेल सोच से दिक्कत है। इसलिए हम पुरुषों को जागरूक कर रहे हैं कि उन्हें अपने हक की आवाज उठानी होगी। इनके मुताबिक, हमारे देश के कानून सिर्फ महिलाओं के लिए ही बने हैं, पुरुषों के लिए कुछ भी नहीं है। महिलाओं के मुकाबले तीन गुना ज्यादा शादीशुदा पुरुष आत्महत्या कर रहे हैं। इससे उनके डिस्ट्रेस लेवल का पता चलता है। इन संगठनों का हेल्पलाइन नंबर भी है जिन पर पत्नियों से पीड़ित पतियों के फोन आते हैं।

पहले स्थानीय स्तर पर पुरुष अधिकारों की बात करने वाले छोटे-छोटे संगठन थे, लेकिन करीब 10 साल पहले बड़े स्तर पर भारत में मेन्स राइट्स मूवमेंट की शुरुआत हुई। तब से‌व इंडियन फैमिली फाउंडेशन (Save Indian Family Foundation) नाम से अंब्रेला संगठन बना और फिर इस संगठन के अलग-अलग राज्यों, अलग-अलग शहरों में चैप्टर बनाए गए। यह रजिस्टर्ड संगठन है और पुरुषों के हकों की लड़ाई लड़ने की बात करता है। दिलचस्प यह है कि इस संगठन को बनाने का विचार भी जेल में ही 498ए (दहेज प्रताड़ना) के आरोप में बंद लोगों को आपस में बातचीत करके आया। सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के संस्थापक राजेश वखारिया कहते हैं कि जब 498ए केस के शिकार हम कुछ लोगों ने मेन्स हेल्पलाइन नंबर सर्च किया तो पता चला कि ऐसा कोई नंबर है ही नहीं। तब पुरुषों के अधिकारों का संगठन बनाने की शुरुआत हुई।

वह बताते हैं, 'हमने 2006 में कर्नाटक, हैदराबाद, दिल्ली और कोलकाता में प्रदर्शन किए थे। तब हम महज 60-70 लोग ही थे, लेकिन प्रदर्शनों का असर हुआ। लोगों की सोच बदलने लगी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 498ए को लीगल टेररिजम जैसा बताया। 2008 में हमने पहली नैशनल कॉन्फ्रेंस की तब तक हमारे 32 शहरों में संगठन हो गए थे। अब करीब 90 शहरों में हमारे चैप्टर हैं। हम 2011 में इंटरनैशनल फोरम 'वॉइस ऑफ मैन' से जुड़े।'

कोर्ट के फैसलों ने दिखाया है आईना
देश की अदालतें महिलाओं की सुरक्षा और अधिकार से जुड़े कानूनों के दुरुपयोग पर समय-समय पर चिंता जताती रही हैं। दहेज हत्या व प्रताड़ना के एक मामले में ससुराल वालों को दिल्ली हाई कोर्ट ने बरी करते हुए कहा था कि हाल के दिनों में ये प्रवृत्ति हो गई है कि दहेज के मामले में ससुराल के तमाम रिश्तेदारों को आरोपी बना दिया जाता है।
मोहम्मद असलम, मोहम्मद आरिफ

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सोशल मीडिया सब जानता है...

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कैंब्रिज एनालिटिका स्कैंडल के सामने आने के बाद अचानक दुनियाभर में लोग अपने डेटा की सुरक्षा को लेकर परेशान हो गए हैं। अब वे इस बात की भी सुध लेने लगे हैं कि उनका कितना डेटा किस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के पास रखा हुआ है। डेटा के बहाने कौन किस हद तक हमारी पर्सनल जानकारियां जमा कर रहा है और यह किस हद तक खतरनाक हो सकता है, जानकारी दे रहे हैं बालेन्दु शर्मा दाधीच

आयरलैंड के एक वेब डिवेलपर डाइलन करान ने फेसबुक और गूगल के पास मौजूद अपने डेटा को डाउनलोड करके देखा तो उनकी आंखें फटी रह गईं। फेसबुक के पास उनका करीब 600 मेगाबाइट डेटा मौजूद है जिससे माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के चार लाख डॉक्युमेंट बन जाएंगे। अगर 200 डॉक्युमेंट को मिलाकर एक किताब छापी जाए तो इस डेटा से 200 किताबें छप जाएंगी। यकीन नहीं होता ना! लेकिन गूगल तो फेसबुक से भी बहुत आगे है। करान ने गूगल से जो डेटा डाउनलोड किया, उसका साइज 5.5 गीगाबाइट था यानी फेसबुक की तुलना में दस गुना ज्यादा। करीब 30 लाख वर्ड डॉक्युमेंट का साइज इतना होगा। आइए, जानते हैं कि आपके बारे में मोटे तौर पर ये दोनों सोशल मीडिया दिग्गज क्या-क्या जानते हैः

गूगल


आप कहां-कहां गए हैं: अगर आपने अपने मोबाइल फोन पर लोकेशन ट्रैकिंग ऐक्टिव कर रखी है तो गूगल आपकी लोकेशन के बारे में सब कुछ जानता है। इतना ही नहीं, वह सिलसिलेवार ढंग से आपकी लोकेशंस का डेटा स्टोर करता रहता है यानी किस दिन आप किस शहर के किस इलाके में किस होटल, दफ्तर या कहीं और गए।

इंटरनेट सर्चः अपनी तमाम डिवासेज़ (मोबाइल फोन, पीसी, टैब्लेट आदि) पर आपने कब किस चीज के लिए इंटरनेट पर सर्च किया, यह गूगल के पास सहेजा हुआ है।

कौन-से ऐप इस्तेमाल करते हैं: आपके एंड्रॉयड मोबाइल फोन और क्रोम ब्राउजर में आप जिस ऐप या एक्सटेंशन का इस्तेमाल करते हैं, उन सबका ब्यौरा गूगल के पास है। आप इन ऐप्स का कब, किस तरह, कहां, किन हालात में इस्तेमाल करते हैं और किसलिए, यह भी वह जानता है।

कब जागते और सोते हैं: गूगल आपके दिन भर के रूटीन से भी परिचित है क्योंकि सुबह उठने के बाद आप जैसे ही अपना फोन खोलते हैं, कोई-न-कोई ऐप ऐक्टिव हो जाता है और रात को सोते समय भी किसी-न-किसी ऐप पर गुडनाइट बोलने की आदत आपको होगी ही!

आपका घर और दफ्तरः शायद आपने खुद ही कभी किसी-न-किसी ऐप या फिर गूगल मैप को इस बात की सूचना दी हो कि आपका घर कहां है और दफ्तर कहां? आपने अपनी लोकेशंस में इसकी जानकारी सहेजी होगी।

यू-ट्यूब पर क्या देखते हैं: यू-ट्यूब पर आप जो कुछ भी देखते हैं, गूगल के पास इसकी सारी जानकारी सेव है। आपने देखा भी होगा कि आप जिस तरह के विडियोज़ पसंद करते हैं, बाद में यू-ट्यूब आपको उसी तरह के विडियो दिखाने लगता है। जाहिर है, वह आपके डेटा का इस्तेमाल कर रहा है। इनके विश्लेषण के आधार पर वह यह भी पता लगा लेता है कि आपकी रुचियां, चिंताएं, मन:स्थिति, मानसिक स्तर आदि क्या हैं?

जीमेल का इतिहास: आपके जीमेल अकाउंट में आई तमाम मेल गूगल के पास सहेजी हुई हैं। सिर्फ सेव की गई ईमेल ही नहीं, बल्कि स्पैम और डिलीट की हुई ईमेल भी। जीमेल पर आपने कब क्या संदेश पाया या भेजा, सबका इतिहास उसे पता है।

आपकी जरूरत के प्रॉडक्टः आपने कौन-कौन से विज्ञापन देखे, किन विज्ञापनों पर क्लिक किया, इन्हें गूगल अपने एडसेंस प्रोग्राम के जरिए जानता है। वह यह भी जानता है कि आपने किसी प्रॉडक्ट की वेबसाइटों और विज्ञापनों को कितनी बार देखा, यानी आप उसे खरीदने में दिलचस्पी रख सकते हैं।

आपकी बीमारियां: अगर आपको किसी तरह की बीमारी है या ऐसा होने की आशंका है तो आपने जरूर गूगल पर कभी इसके बारे में सर्च किया होगा। यह भी हो सकता है कि यू-ट्यूब पर उससे जुड़े कुछ विडियो भी देखे हों। स्वास्थ्य बीमा योजनाओं की तलाश भी की हो। इसका डेटा गूगल को यह बताने के लिए काफी है कि आप किन दवा कंपनियों या अस्पतालों के लिए अच्छे ग्राहक हो सकते हैं।

इनकम और इनवेस्टमेंटः क्या आप इनकम टैक्स के भुगतान को लेकर परेशान हैं और पैसा बचाने की कोशिश में जुटे हैं? इनवेस्टमेंट स्कीमों को सर्च कर रहे हैं? किसी से ईमेल के जरिए इनवेस्टमेंट की राय ले रहे हैं? यह सब गूगल के लिए यह अनुमान लगाने के लिए काफी है कि आप इनकम के किस ब्रेकेट में आते हैं।

घूमने-फिरने की योजनाएं: विदेश जाने की योजना बना रहे हों या फिर भारत में ही घूमने की। आप खुद, पति/पत्नी या बच्चे कुछ अच्छी लोकेशंस के बारे में जानकारियां ढूंढ रहे हैं। हवाई टिकट कटाने के लिए अच्छे प्लान तलाश रहे हैं? होटेल्स की भी तलाश चल रही है, इनके बारे में संभव है आपने गूगल किया हो। शायद आपने गूगल प्लस पर भी किसी से पूछा हो। लीजिए, गूगल जान चुका है कि आपका इन गर्मियों में कहां और कितने दिनों के लिए जाने का इरादा है।

कुछ और डेटा होता है जमा

- गूगल कैलेंडर में दर्ज किया गया हर इवेंट
- हर फाइल और इमेज, जो आपने इंटरनेट से डाउनलोड की
- गूगल ड्राइव पर अपलोड की गई और डिलीट की गई हर फाइल
- हर फोटो, जो आपने अपने मोबाइल फोन पर खींची, जगह और समय के साथ।
- किसी भी सॉफ्टवेयर या ऐप, जिसके लिए आपने सर्च किया
- आपकी उम्र और लिंग
- नौकरी की ऐप्लिकेशन
- फिटनेस पर आपने जो काम किया

गूगल की प्राइवेसी पॉलिसी

गूगल की प्राइवेसी पॉलिसी कहती है कि कंपनी आपका निजी तौर पर पहचान न किए जाने लायक डेटा खुद तो इस्तेमाल कर ही सकती है, वह उसे अपने पार्टनरों के साथ भी साझा कर सकती है, जैसे कि पब्लिशर, ऐड देने वाले और गूगल से जुड़ी वेबसाइट्स। अब आप समझ जाइए कि आपसे जुड़ा कौन-सा डेटा कहां-कहां जा सकता है और किस-किस के काम आ सकता है।

देखें गूगल के पास मौजूद आपका डेटा
google.com/takeout

फेसबुक

आपका शहर, पता, ईमेल, फोनः शायद आपने खुद ही अपने फेसबुक प्रोफाइल में ये सूचनाएं भरी होंगी। संभव है कि आपके मित्रों या रिश्तेदारों ने ऐसी टिप्पणियां की हों जिनसे ये सारी जानकारियां जाहिर हो गई हों।

आपका परिवारः फेसबुक जानता है कि आपके परिवार और रिश्तेदारी में कौन-कौन हैं। आपके मित्रों में से कौन कितना निकट है और कौन दूर? आप सिंगल हैं या रिलेशनशिप में हैं या फिर शादीशुदा हैं तो पति या पत्नी कौन हैं और बच्चे कौन?

आपके तमाम लाइक्सः आपने अब तक फेसबुक पर जो कुछ भी लाइक किया है, इसकी जानकारी फेसबुक को है। किस तरह के विषयों में आपकी दिलचस्पी है, किस तरह के प्रॉडक्ट्स और यहां तक तक कि किन राजनैतिक दलों को आप पसंद करते हैं, वह आपके लाइक्स के आधार पर अनुमान लगा सकता है। अगर आप उसी रुचि वाले ग्रुपों के सदस्य हैं तो उसका काम और भी आसान हो जाता है।

आपके तमाम कमेंट्स: जब भी आपने जो भी कमेंट खुद अपने प्रोफाइल, पेज या दूसरों के फेसबुक प्रोफाइल या पेज पर डाला हो, सबकी जानकारी फेसबुक को है। इससे वह आपकी विचारधारा का अंदाजा लगा सकता है। आप किसी खास राजनैतिक दल की पोस्टों पर ज्यादा सक्रिय दिखते हैं? वे विश्लेषण से तय कर सकते हैं कि आपका झुकाव किधर है।

आपकी सक्रियताः फेसबुक पर आप कब-कब सक्रिय होते हैं और कब उससे दूर चले जाते हैं? हफ्ते के किन दिनों में आप ज्यादा फुर्सत में होते हैं और कौन-से दिनों में ज्यादा बिजी, इसका अंदाजा लगाना फेसबुक के लिए मुश्किल नहीं है।

आपकी लोकेशनः आपने कब किस जगह से, कितने बजे और किस डिवाइस से लॉगिन किया। आपके बरसों के लॉगिन का चार्ट बनाकर आपकी तमाम यात्राओं और गतिविधियों का अंदाजा आसानी से लग सकता है।

आपके इवेंट्सः आपने कब कौन-सा इवेंट आयोजित किया और किसमें हिस्सा लिया, इसका ब्यौरा बहुत आसानी से उपलब्ध है। शायद आपने अपने इवेंट्स में दोस्तों को इन्वाइट करने के लिए फेसबुक का इस्तेमाल किया हो। ऐसा भी न किया हो तो फोटो तो डाले ही होंगे। उसके लिए यही काफी है।

तमाम ऐप्सः आप जिन ऐप्स का इस्तेमाल करते हैं, वे सारे के सारे फेसबुक की जानकारी में हैं। इनके जरिए वे आसानी से पता लगा सकते हैं कि आपकी दिलचस्पी सिनेमा में है या राजनीति में, घूमने-फिरने में या गाने सुनने में।

आपके मेसेज, स्टिकर और इमोजी: जी हां, न सिर्फ फेसबुक मेसेंजर में भेजे या रिसीव किए गए मेसेज बल्कि फेसबुक इस बात का भी ब्यौरा रखता है कि आपने कौन-कौन से स्टिकरों का इस्तेमाल किया और कौन-से इमोजी आपको ज्यादा पसंद आते हैं। शायद आपकी मन:स्थिति का इससे अच्छा अंदाजा लगता हो कि कब आप उदास हैं और कब खुश। समझ लीजिए, फेसबुक आपको कितनी अच्छी तरह से जानता है।

कुछ और डेटा होता है जमा

1. आपके फेसबुक फ्रेंड्स और ग्रुप
2. फेसबुक पर किया गया हर वॉयस कॉल
3. आपके स्मार्टफोन में मौजूद सारे कॉन्टैक्ट्स
4. हर फाइल जो आपने पाई या भेजी
5. आपकी नौकरियों का ब्यौरा, शिक्षा का ब्यौरा।
6. अगर आपका कारोबार है तो उसकी जानकारी, आपके प्रतिद्वंद्वियों की जानकारी।
7. आने वाले इवेंट्स

फेसबुक की प्राइवेसी पॉलिसी

फेसबुक का कहना है कि वह आपकी सूचनाओं को सुरक्षित रखता है और इनका इस्तेमाल फेसबुक को आपके लिए ज्यादा आसान, सहज और मजेदार बनाने के लिए करता है। मतलब यह कि आपको कौन-सी पोस्ट ज्यादा अच्छी लगेंगी, इसका फैसला करने के लिए वह आपके डेटा का इस्तेमाल करता है। उसका दावा है कि वह अपने पार्टनरों को यूज़र्स का मूल डेटा मुहैया नहीं कराता, बल्कि उनसे पूछता है कि आपको किस कैटिगरी के यूज़र्स पर फोकस करना है। उसके बाद फेसबुक खुद ही अपने यूज़र्स की दिलचस्पियों का उनके साथ मिलान करता है और उसी लिहाज से उन्हें विज्ञापन आदि दिखाता है। फेसबुक ने यह भी इंतजाम किया है कि आप चाहें तो इस बात को कुछ हद तक खुद कंट्रोल कर सकते हैं कि आपकी कौन-सी सूचनाओं का इस्तेमाल किया जाए और कौन-सी का नहीं। इसके लिए सेटिंग्स में ऑप्शन दिए गए हैं।

देखें, फेसबुक के पास मौजूद आपका डेटा
facebook.com/help/131112897028467

ऐप्स

एंड्रॉयड, आईओएस और दूसरे प्लैटफॉर्म्स पर इस्तेमाल किए जाने वाले ऐप्स आपके उपकरण में ये सब ऐक्सेस कर सकते हैं:

1. कैमरा
2. माइक्रोफोन
3. कॉन्टैक्ट (दोस्तों के नंबर आदि)
4. ईमेल
5. कैलेंडर
6. कॉल हिस्ट्री
7. SMS
8. MSM
9. फोटो
10. विडियो
11. म्यूजिक
12. सर्च हिस्ट्री
13. इंटरनेट ब्राउजिंग हिस्ट्री
14. रेडियो स्टेशन
15. डाउनलोड्स आदि।

एक्सपर्ट्स मानते हैं कि कई बार डेटा का इस्तेमाल किया जाना यूज़र के लिए फायदेमंद भी हो सकता है, लेकिन जरूरी यह है कि यूज़र को इस बात का पता हो कि उसका डेटा ऐक्सेस किया जा रहा है। न तो उसकी नासमझी या भोलेपन की वजह से उसकी प्राइवेसी के साथ छेड़छाड़ की जानी चाहिए और न ही कैंब्रिज एनालिटिका जैसी चालाकी के कारण।

अगर करनी हो शिकायत

अगर आपको शक है कि कोई ऐप आपकी प्राइवेसी भंग कर रहा है या आपके डेटा को गैरवाजिब ढंग से ऐक्सेस कर रहा है तो उसकी शिकायत या रिपोर्ट कर सकते हैं:

एंड्रॉयड के लिएः support.google.com/legal/troubleshooter/1114905

आईओएस के लिएः reportaproblem.apple.com/

गूगल प्ले स्टोर और आईओएस ऐप स्टोर पर इंस्टॉल किए गए हर ऐप के पेज पर अलग-से इस बात का इंतजाम होता है कि आप जरूरत पड़ने पर उसकी शिकायत कर सकें। जहां ऐप स्टोर पर ‘Report’ नामक बटन होता है, वहीं प्ले स्टोर पर 'Flag Inappropriate' नामक लिंक दिखाई देगा।

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निकाह पर निगाह

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तीन तलाक के बाद सुप्रीम कोर्ट में अब सुनवाई की बारी मुस्लिम समाज में प्रचलित विभिन्न तरह के निकाहों की है। बहुविवाह और निकाह हलाला लंबे समय से आलोचकों के निशाने पर रहे हैं। तो आखिर क्या है इन प्रथाओं का सच? बता रहे हैं एम. रियाज़ हाशमी:

तीन तलाक़ के बाद अब मुसलमानों में हलाला, मुता, मिस्यार और बहुविवाह के मसले सुप्रीम अदालत में संविधान पीठ के हवाले हैं। इन्हें चुनौती देने वालीं चार याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किए हैं। एक बार में तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक घोषित कर चुकी है। अब इन मामलों की सुनवाई को उलेमा शरीयत कानून में हस्तक्षेप करार दे रहे हैं। लेकिन क्या वाकई शरीयत और कुरआन में इनका अस्तित्व है? यदि है तो साक्ष्य क्यों नहीं है और यदि साक्ष्य नहीं है तो फिर सामाजिक कुरीति को ढोने का क्या मकसद है? दरअसल 'हलाला विवाह' कुरआन और हदीस में सिद्ध नहीं है। इसी तरह मुता और मिस्यार विवाह भी कहीं से साबित नहीं हैं। वैसे, भारतीय मुस्लिम पुरुष समाज में भी ऐसी परंपरा का चलन नहीं मिलता है। अलबत्ता भारतीय मुस्लिम महिलाएं इनसे प्रभावित जरूर हैं। बहुविवाह (चार पत्नियां) भी विशेष परिस्थितियों में ही जायज़ है और कुरआन और हदीस में इसकी कड़ी शर्तें ही सबसे बड़ी रुकावट भी हैं।

हलाला विवाह का हाल

हलाला विवाह का सीधा अर्थ है विवाह में रुकावट या हस्तक्षेप। इसके तहत तलाक देने वाले पति से दोबारा विवाह करने के लिए महिला को किसी दूसरे व्यक्ति से शादी करके तलाक लेना पड़ता है। यह प्रक्रिया हलाला कहलाती है। इस प्रक्रिया का कुरआन और हदीस में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। कुरआन कहता है, '…तलाकशुदा महिलाएं जब अपनी इद्दत (3 माह 10 दिन) की अवधि पूरी कर लें, तुम उन्हें अपने पूर्व शौहर के साथ विवाह करने से मत रोको, यदि वे आपसी सहमति और समान शर्तों पर राजी हैं। ये निर्देश आप उन सब पर लागू हैं जो अल्लाह और कयामत के दिन पर विश्वास रखते हैं… ।' (II-229)

कुरआन की दूसरी प्रासांगिक आयत का सार है, 'कोई शौहर अपनी बीवी को तलाक देता है और इसके बाद वह उससे दोबारा शादी नहीं करता। वह महिला किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर लेती है और वह शौहर भी उसे तलाक दे देता है। ऐसी स्थिति में यदि दोनों पर इसके लिए कोई आरोप नहीं और उन्हें लगता है कि वे अल्लाह की ओर से निर्धारित सीमाओं में रह सकते हैं तो वे फिर एक हो सकते हैं।' (II-230) जाहिर है, इन दोनों ही जगहों पर न तो हलाला का उल्लेख है और न ही ऐसी कोई अनिवार्यता है। भारत में प्रचलित विवाह कानून, मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी हलाला का न तो कोई नियम है और न ही ऐसे किसी नियम का कोई अपवाद ही है। असल में यह महिला और इससे बढ़कर इंसानी गरिमा का अपमान है। मोहम्मडन लॉ (डीएफ मुल्ला) आर्टिकल 336 में स्पष्ट है, 'जब तलाक हो जाता है तो तलाक देने वाले (पति) और उस महिला की शादी हराम (गैरकानूनी) हो जाती है।' कुरआन के निर्देशों के मुताबिक औरत इद्दत अवधि पूरी कर चुकी हो तो दोनों सहमति से निकाह करके फिर एक हो सकते हैं। लेकिन यही वह स्थिति है, जहां हलाला की प्रक्रिया थोप दी गई।

सवाल उठता है कि फिर यह हलाला आया कहां से? इस्लामिक शरीयत कानून के विश्लेषक अनवर अली एडवोकेट कहते हैं, 'यह मनगढ़ंत व्यवस्था व्यभिचारी लोगों का बनाया हुआ एक अनैतिक उपाय है, जो सामाजिक और नैतिक रूप से मुस्लिम विवाह कानून के विपरीत है।' माना जाता है कि हलाला शब्द हिला से बना है, जो यहूदियों की भाषा से आया है। हिला यानी कानून से बचने का तरीका। दूसरी ओर, हलाल शब्द अरबी भाषा का है जिसका अर्थ है जायज या कानूनी, जिसका अपभ्रंश हलाला है। हिला के शीर्षक से यहूदियों की एक पुस्तक 'हिला-ए-तमलीक' भी प्रचलित है जिसमें कुरआन और यहूदियों की आसमानी किताब तोराह (तौरात) के सामाजिक और आर्थिक मामलों के कड़े नियमों से बचने के लिए अपनी व्यवस्थाएं निर्धारित की गई हैं। कहा जाता है कि हलाला जैसी व्यवस्थाएं यहूदी रब्बी हेल के न्यायिक संकलन से मुस्लिम वैवाहिक व्यवस्था पर थोपी गई, जिसमें तौरात के 13 मूल सिद्धांतों की सुविधानुसार उलटकर सात सिद्धांतों के रूप में व्याख्या की गई है। बेशक अब न तो वह कबीलाई दौर है, न अज्ञानता और अशिक्षा है और न ही हम उस अरब में हैं, जहां कभी कबीलाई सभ्यता होती थी, लेकिन हलाला जैसी कुप्रथा वहां भी नहीं है जिसके लिए सामाजिक या कानूनी बहस की जरूरत पड़े। विद्वानों का मानना है कि हलाला विवाह का जुगाड़ पूरी तरह से गैर-इस्लामी है, इस्लामी वैवाहिक कानून की मूल भावना और मानवीय मूल्यों के सिद्धांतों के खिलाफ है। वास्तव में तो यह उन यौन शोषकों का एक चतुर उपाय है, जो मुस्लिम समाज को सन्मार्ग से भटकाता है और दुष्कर्म या अस्थायी विवाह की तरफ ले जाता है।

मुता और मिस्यार का झोल

मुता और मिस्यार भी अस्थायी विवाह हैं जिनकी निश्चित अवधि का अनुबंध होता है। इसमें मेहर की राशि भी तय की जाती है। मेहर सामान्य तौर पर होने वाले निकाह में भी तय होते हैं जो पत्नी को पहली बार शारीरिक संबंध बनाने से पहले अदा करना अनिवार्य है। महिला या उसके परिजनों से विमर्श के बाद ही मेहर निर्धारित होते हैं। मुता और मिस्यार विवाह पहले से तय अवधि के पूरे होने पर खुद ब खुद समाप्त हो जाता है। यह एक तरह का कॉन्ट्रैक्ट ही है। मुता शिया और मिस्यार सुन्नी मुस्लिमों की प्रथा है, लेकिन यह भारतीय मुस्लिम समाज में प्रचलित नहीं है। हां, भारतीय महिलाएं इससे प्रभावित जरूर हैं। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में आने वाले खाड़ी देशों के मुस्लिम पर्यटक अपने प्रवास की अवधि के दौरान इस तरह की कॉन्ट्रैक्ट मैरिज करते हैं। मेहर के रूप में मोटी राशि का लालच और अशिक्षा इसका एक बड़ा कारण है। यह लालच कई मामलों में लड़की के गरीब परिजनों की और कई मामलों में सीधे महिला की आवश्यकता पर निर्भर करता है। लेकिन कुरआन और हदीस में इसका भी कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। मुता या मिस्यार के पैरोकार यह तर्क देकर बात घुमाने की कोशिश करते हैं कि ऐसे वैवाहिक संबंधों से उत्पन्न संतान को पिता की संपत्ति में सामान्य शादी के बाद उत्पन्न संतान की ही तरह बराबर का कानूनी हक है, लेकिन यह हक तो भारतीय कानून में विवाहेतर संबंधों से पैदा संतान को भी है। ऐसे में मुता या मिस्यार विवाह को गैर-शरई होने से नहीं बचाया जा सकता। इस्लाम में बिना निकाह के औरत से शारीरिक संबंध बनाना जिना (दुष्कर्म) है, जो सबसे बड़ा गुनाह है। दरअसल इसी से बचने के लिए शरीयत की सुविधानुसार व्याख्या की जाती है और कॉन्ट्रैक्ट मैरिज को जायज ठहराया जाता है।

बहुविवाह की बात

बहुविवाह के मामले में कुरआन और हदीस के हवाले से तर्क दिया जाता है कि इस्लाम में चार पत्नियां रखना जायज (कानूनी) है। देखा जाए तो वर्तमान भारत में इसका कहीं चलन नहीं मिलता है, लेकिन खाड़ी देशों में इसके अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। इस्लाम में चार पत्नियों की अवधारणा जिन शर्तों के साथ निर्धारित की गई, वे शर्तें ही इस अवधारणा में सबसे बड़ी बाधक हैं। इस्लाम के उदय से पहले यहूदी व्यवस्थाओं और कबीलाई सभ्यता से प्रेरित अरब के लोग सैंकड़ों महिलाओं को दासियों की तरह रखते और उनसे शारीरिक जरूरतें पूरी करते थे। औरत को जब चाहा अपना लिया, जब चाहा छोड़ दिया। इस्लाम का उदय हुआ तो कुरआन में व्यवस्थाएं अवतरित होती गईं। तलाक के नियम-कानून निर्धारित हुए, महिलाओं को जायदाद, विरासत का अधिकार और बचत का हक मिला। शौहर चुनने और मेहर तय करने की शक्तियां निर्धारित की गईं। साथ ही चार पत्नियों के साथ कुछ शर्तें भी अनिवार्य की गईं। पत्नी बीमार है या बांझ है या पति की शारीरिक जरूरत पूरा करने में सक्षम नहीं है तो ऐसी स्थिति में पति गैर औरत से हरामकारी न कर सके इसलिए पहली पत्नी की सहमति से वह दूसरी शादी कर सकता है। तीसरी और चौथी शादी पर भी ऐसी ही शर्तें लागू होंगी। फिर चारों पत्नियों में न्याय और समानता का कुरआन का आदेश भी पति को मानना अनिवार्य है। उदाहरण के तौर पर चार बीवियों वाला पति यदि घर में चार सेब लेकर आए तो वह चारों को एक-एक सेब देकर न्याय और समानता पर खरा नहीं उतर सकता है, बल्कि वह हर सेब के चार टुकड़े करके चारों बीवियों को हर सेब का एक बराबर टुकड़ा देगा। यानी हर सेब के अलग स्वाद, आकार, रंग और आकर्षण में न्याय और समानता के सिद्धांत को लागू करेगा।

इस्लामिक विद्वान मौलाना जाहिद हसन कहते हैं, 'कुरआन में हर व्यवस्था एवं सिद्धांत मौजूद है। मुसलमान कुरआन पढ़ते हैं, लेकिन उसे समझते नहीं हैं। बिना समझे किसी बात पर अमल भी नहीं किया जा सकता। मुस्लिमों में ऐसी व्यवस्थाओं को कुरआन, हदीस और शरीयत की रोशनी में समझने की जरूरत है।' सवाल यह है कि जैसा होता चला आ रहा है और जो कुरआन, हदीस व शरीयत से सिद्ध भी नहीं है, क्या वह आगे भी होते रहना चाहिए? शायद इसी सवाल की वजह से तीन तलाक के बाद अब हलाला, मुता, मिस्यार और बहुविवाह के मामले सर्वोच्च अदालत में कानूनी बहस का हिस्सा हैं। एक साथ तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करने का फैसला देने वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ में शामिल तीन न्यायाधीशों जस्टिस आर. एफ. नरीमन, जस्टिस उदय उमेश ललित और जस्टिस कुरियन जोजफ ने कहा था कि एक बार में तीन तलाक कुरआन के निर्देशों के विपरीत है और पीठ के फैसले का सार भी यही था कि कुरआन के निर्देशों का पालन करो। कुरआन की अनदेखी से ही नए मामले भी पैदा हुए हैं और अफसोस तो यह है कि कुरआन के निर्देश क्या हैं, इसे अदालतें याद दिला रही हैं। वही कुरआन जिसमें अल्लाह ने कहा, '…और हमने वास्तव में कुरआन को समझना आसान बनाया है; तो क्या कोई यह याद रखेगा और इससे सलाह लेगा?' (सूरह 54, अल-क़मर)

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दबंग दलित से सियासत दंग

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दलित राजनीति अब एक अलग मुकाम पर दिख रही है। दलित हितों की बात अब अलग तरीके से रखी जा रही है। दलित हित की बात करने वाले नए चेहरे अब लोगों के सामने हैं। किस तरह बदल रही है दलित राजनीति और नए चेहरों से क्या फर्क आया है पारंपरिक दलित राजनीति में, बता रहे हैं एम. रियाज़ हाशमी...

दलित सभी सियासी दलों की राजनीति के केंद्र में हैं। सबके सामने चुनौती है कि कैसे अपने पाले में दलितों को बचाए और बनाए रखा जाए। लेकिन क्या दलित किसी राजनैतिक विचारधारा के पिछलग्गू भर रह गए हैं? अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता और उत्पीड़न के खिलाफ इनके दबंग चेहरों का उभार क्या हलचल मात्र है? 2019 के आम चुनाव से पहले सियासी दलों के लिए दलितों को लेकर बेचैनी क्यों है? और मुख्य पार्टियां अपनी सियासी रणनीति बदलने को क्यों मजबूर हैं? क्या ऐसा कुछ नए दलित नेताओं की ओर से मिल रही सीधी चुनौती के कारण है? दमघोंटू सियासी दायरों को तोड़ते और बिना नेतृत्व के गैर-सियासी चेहरों के पीछे लामबंद होते दलित भविष्य की कौन-सी इबारत लिख रहे हैं? आखिर क्यों पैदा हुई यह स्थिति, जिसमें सियासत दंग और दलित दबंग हैं?

इन सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करते हैं। फिलहाल दो चर्चित दलितों सहारनपुर के चंद्रशेखर ‘रावण’ और गुजरात के जिग्नेश मेवाणी को जेहन में रखिए। जिग्नेश गुजरात विधानसभा में पहुंच चुके हैं और चंद्रशेखर सहारनपुर की जेल में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में बंद हैं। कुछ और भी चेहरे हैं जो इन दोनों से प्रेरित हैं और दलितों को इनसे उम्मीदें हैं।

दबंग नए चेहरे
पहले बात जिग्नेश की, जो दो साल पहले ऊना (गुजरात) में मरी गाय की चमड़ी उतारते युवकों की पिटाई की घटना के बाद सुर्खियों में आए। अपने समाज की दबंग आवाज बने और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कम पर निशाना नहीं साधते। मेवाणी ने अहमदाबाद से ऊना तक दलित अस्मिता यात्रा की। इसमें कुल 20 हजार दलितों ने मुर्दा मवेशी निस्तारण और मैला ढोने जैसे पारंपरिक हीन काम न करने की प्रतिज्ञा ली। मेवाणी ने दलितों के लिए राज्य और केंद्र सरकारों से जमीन और रोजगार की मांग की और इस मांग के तरीके ने दलितों को आरक्षण से हटकर एक नई उम्मीद जगाई।

इसी तरह चंद्रशेखर ‘रावण’ दलितों का दबंग चेहरा बनकर उभरे हैं। तीन साल पहले सहारनपुर के छोटे-से गांव घड़कौली के बाहर ‘ग्रेट राजपूत’ का बोर्ड लगा होता था, जिस पर चंद्रशेखर ने काली स्याही से क्रॉस बनाया और पास में ही ‘द ग्रेट चमार’ का बोर्ड लगा दिया। चंद्रशेखर आज दलितों की अस्मिता और मीडिया द्वारा पूरी की जाने वाली एक बड़ी खबरिया डिमांड हैं। देहरादून से कानून की पढ़ाई पूरी करने वाले इस नौजवान ने 2015 में भीम आर्मी की स्थापना की थी, जिसका मकसद दलितों में शिक्षा का प्रसार करना था। भीम आर्मी आज भी दलित बाहुल्य गांवों में 10 से अधिक शिक्षण केंद्र चला रही है। 5 मई 2017 को सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में महाराणा प्रताप जयंती को लेकर दलितों के खिलाफ हिंसा जरूर हुई, लेकिन इसमें मरने वाला युवक ठाकुर था। बदले में दलितों की बस्ती जला दी गई, लेकिन हिसाब बराबर नहीं हुआ। 9 मई को भीम आर्मी ने सहारनपुर शहर में उग्र प्रदर्शन, आगजनी और तोड़फोड़ कर सबको चौंका दिया। प्रतिशोध के इस नए तेवर ने सबका ध्यान चंद्रशेखर की ओर खींचा जो मूंछों पर ताव चंद्रशेखर आजाद की तरह देता है और दलितों के लिए सरफरोशी की तमन्ना भगत सिंह की तरह रखता है।

कुछ साल पहले सहारनपुर के छुटमलपुर स्थित एएचपी इंटर कॉलेज में दलित छात्रों को परिसर में लगे हैंडपंपों में से सिर्फ एक का पानी पीने की इजाजत थी। बुलेट मोटरसाइकल से चलने वाले रौबीले चंद्रशेखर ने यहां ठाकुरों के दबदबे को चुनौती दी और आज दलित छात्र वहां दबंग की हैसियत में हैं। 9 मई 2017 की सहारनपुर हिंसा के बाद चंद्रशेखर ने दलित राजनीति का ध्यान अपनी ओर खींचा और 23 मई को मायावती शब्बीरपुर गांव पहुंच गई। उन्होंने भीम आर्मी का नाम लिए बिना कहा था, 'अभी तक दलित समाज अपने महापुरुषों के कार्यक्रम छोटे-मोटे स्थानीय संगठनों के बैनर तले आयोजित करते रहे हैं, लेकिन यदि बीएसपी के बैनर तले ये कार्यक्रम किए जाएं तो उन्हें दबाने की किसी में हिम्मत नहीं होगी।' लेकिन उनकी बातों को तवज्जो नहीं मिली। नीली टोपी लगाए भीम आर्मी के लोगों ने मायावती का जबरदस्त विरोध किया और 21 मई 2017 को जंतर-मंतर पर दलितों की भीड़ जुटाकर चंद्रशेखर ने अपनी ताकत का अहसास करा दिया।

बदल रहे हैं तेवर भी
सहारनपुर की जातीय हिंसा के अलावा भी पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले एक साल में दलित उबलते रहे हैं। कहीं सामूहिक धर्म परिवर्तन की धमकी तो कहीं देव प्रतिमाओं का विसर्जन कर दलित अपने तेवर दिखाते आ रहे हैं। इन हालात के पीछे सियासी टीस छिपी है। हैदराबाद में रोहित वेमुला की खुदकुशी, गुजरात के ऊना में दलितों पर कथित गोरक्षकों के हमले और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में शब्बीरपुर कांड सिर्फ बहाना भर हैं, जिन्हें लेकर दलित युवाओं में बेचैनी के प्रतीक उभर रहे हैं। नए दलित चेहरे भले ही अभी दलगत राजनीति से दूर हैं, लेकिन दलित एजेंडे को नए तेवरों के साथ पेश कर रहे हैं और शायद इसी वजह से सियासी दल अपनी रणनीतियां बदलने को मजबूर हैं। चुनावी गणित ने दलित वोटों को समेटने और गंवा देने की बेचैनी को लगातार तीखा किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव और पिछले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की भारी जीत और बहुजन समाज पार्टी के सफाए ने दलितों के करवट बदलने की आशंकाओं को बल दिया।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई बार बीएसपी की सत्ता का स्वाद चख चुके दलित 2014 का लोकसभा और 2017 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भूलने को तैयार नहीं हैं। लोकसभा में बीजेपी ने सूबे की सभी 14 आरक्षित सीटें जीत ली थीं तो विधानसभा चुनाव में एससी-एसटी के लिए आरक्षित 86 में से 76 सीटों पर जीत हासिल की थी। लोकसभा में वोट हासिल करने में दूसरे नंबर पर रहने वाली बीएसपी एक भी सीट नहीं जीत पाई और विधानसभा चुनाव में 19 सीटों तक सिमट गई। अक्सर बहस होती रहती है कि बीएसपी के वोट घट गए और कुछ दलित जातियां बीजेपी के पास चली गईं, लेकिन बीएसपी को लोकसभा चुनाव में जो 20 और यूपी चुनाव में 22 फीसदी वोट मिले, वे किसके थे? जाहिर है, बीएसपी की पकड़ ढीली जरूर हुई है, लेकिन पूरी तरह छूटी नहीं है। सत्ता से दूरी भी दलितों की इस बेचैनी के पीछे है।

अपेक्षाओं और उम्मीदों का पहाड़
पिछले आम चुनाव के जनादेश में जिन दलितों के योगदान की बात बीजेपी करती है, मोदी सरकार में उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़नी लाजमी हैं, लेकिन अब सवाल पूछा जा रहा है कि क्या वे पूरी हो पाईं? फिलहाल ऐसी कोई धिकारिक रिपोर्ट सामने नहीं आई है, जो इसकी तस्दीक करे। हां, मोदी सरकार के पहले साल में दलितों के साथ हर दिन 123 अपराध घटित होने के आंकड़े नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने जारी किए थे, जो उससे पिछले साल की तुलना में 14 फीसदी ज्यादा थे। जाहिर है कि ये तमाम कारण दलितों में आक्रोश पैदा करने के लिए काफी हैं। सियासत इन्हें कभी दलित होने का अहसास कराती है तो कभी हिंदुत्व के रंग में डूबने का न्यौता देती है।

ऐसे में कांग्रेस, लेफ्ट और बीएसपी की पुरानी हो चुकी भाषा के बीच दलितों के नए चेहरों को उभार मिलने लगा है। इनके लिए बात सिर्फ सत्ता संघर्ष तक नहीं है, वे समाज को समझा रहे हैं कि आधुनिक समाज में राजनीति, न्यायपालिका, नौकरशाही, इंडस्ट्री, यूनिवर्सिटी और सिविल सोसाइटी, हर जगह दलित आबादी के अनुपात में उन्हें प्रतिनिधित्व चाहिए। दलितों को निर्णायक प्रतिनिधित्व दिए बिना बदलाव संभव नहीं है, इस बात को सत्ता प्रतिष्ठान और सियासी दल समझते भले रहे हों, लेकिन इस पर अमल में वे किंतु-परंतु करते रहे हैं। इसी स्थिति ने शायद दबंग चेहरों को दलितों का अगुवा बना दिया है जो बीजेपी को अपना एकमात्र शत्रु मानकर इसलिए निशाना बना रहे हैं कि केंद्र और अधिकांश राज्यों में सत्ता की बागडोर इसी के हाथ में है।

एससी-एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट नई व्यवस्था दे चुका है, जिससे दलितों में हिंसक उबाल आया है। दलितों के सामने अब यह सवाल भी है कि वे आखिर कहां हैं? राष्ट्रपति के सर्वोच्च आसन पर दलित रामनाथ कोविंद हैं, लेकिन यह सजावटी महत्व का पद है। जगजीवन राम उप -प्रधानमंत्री रहे, लेकिन कोई दलित प्रधानमंत्री नहीं रहा। मोदी कैबिनेट के 24 मंत्रियों में सिर्फ दो ही दलित हैं। लोकसभा की 543 सीटों में 84 सीट दलितों के लिए आरक्षित हैं और इनमें बीजेपी के 40 सांसद हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार के 63 मंत्रालयों/ विभागों में 17.55 फीसदी दलित हैं, लेकिन इनमें ग्रुप ए की नौकरियों में केवल 13.31 फीसदी ही दलित हैं। चौंकाने वाली बात सिर्फ यह है कि कुल सफाई कर्मचारियों में 42.92 फीसदी दलित हैं। नौकरियों का सीधा संबंध शिक्षा से है और 2011 की जनगणना के मुताबिक राष्ट्रीय साक्षरता दर 74 फीसदी के विपरीत दलितों में साक्षरता 66 फीसदी है। यह तब है, जब 40 फीसदी दलित कभी स्कूल नहीं गए। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुल असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसरों में सिर्फ 8.7 फीसदी ही दलित हैं। कुल नॉन-टीचिंग स्टाफ में सिर्फ 10 फीसदी दलित हैं, जबकि दोनों में सवर्ण 75 फीसदी से भी ज्यादा हैं। जाहिर है, ये आंकड़े बेचैनी बढ़ाने के लिए काफी हैं।

राजनीति की बिसात
बहरहाल, बीएसपी इसी एक बात से संतुष्ट है कि दलितों के नए चेहरे बीजेपी के खिलाफ हैं। लेकिन दलित प्रेम के बावजूद जमीन पर बीजेपी का दलित विरोध क्यों दिख रहा है? शायद इसलिए कि बीजेपी की बात दलितों तक तो पहुंच रही है, लेकिन दलितों की बात बीजेपी तक पहुंचाने के लिए उतना समृद्ध नेतृत्व नहीं है। आम दलित यह बात भी जानते हैं कि बीजेपी की रणनीति में भगवा रंग की अनिवार्यता है। दलितों को इस बात का अहसास है कि दबंग लीडरशिप उनकी क्षेत्रीय जरूरत है। एक बात जो उनके जेहन में स्पष्ट है, वह यह कि नई लीडरशिप अगर अपने सामाजिक एजेंडे को न छोड़े और अलग तरह की राजनीति करती रहे तो यह पुराने चेहरों की जगह ले सकती है। स्थापित दलित लीडरों और पार्टियों का डर भी यही है। लेकिन दलित जितने बूस्टअप हो रहे हैं, खासतौर पर यूपी में बीएसपी की सत्ता उन्हें उतनी ही याद आ रही है।

यूपी और गुजरात में दलितों और जनजातियों के उत्थान के लिए दशकों से काम कर रहे अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं, 'जिग्नेश और चंद्रशेखर ने सामंतवाद से सीधी टक्कर ली है। दोनों राज्यों में जिन दलितों का सियासी इस्तेमाल होता रहा, उन्हें इन दो चेहरों ने हीनभावना से बाहर निकाला है। कांग्रेस ने इनके सामाजिक आंदोलन में इनका साथ दिया। मुझे लगता है कि बीएसपी का डर बेवजह है क्योंकि इससे नुकसान बीजेपी का है।'

चौधरी की यह बात किसी हद तक सही लगती है। सहारनपुर की हिंसा के बाद चंद्रशेखर की घेराबंदी के खिलाफ कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष इमरान मसूद खुलकर सामने आए तो गुजरात में निर्दलीय जिग्नेश मेवाणी के चुनाव की कमान पर्दे के पीछे कांग्रेस के हाथ में रही। दलित बखूबी जान गए हैं कि कोई भी दल उन्हें घटाकर गिनती में नहीं रह सकता।

जिन दलितों को दबंग कहा जा रहा है, वह आधुनिक युवा पीढ़ी है, जिसके सोचने की प्रक्रिया में संविधान और समानता है। मूंछ रखना या कोई खास परिधान या जीवनशैली किसी जाति विशेष का पेटेंट नहीं। अगर चंद्रशेखर की मूंछ ऊपर है तो कोई ऊंची जाति वाले क्यों चिढ़े? बराबरी के असल अधिकारों की बात तो अब शुरू हुई है। नए चेहरे जो सवाल उठा रहे हैं, उन्हें दलित अपने अधिकारों से जोड़ रहे हैं। यह सच है कि ब्राह्मणवाद और आंबेडकरवाद एक साथ नहीं चल सकते क्योंकि दलित वहीं पहुंच जाएंगे, जहां से आंबेडकर इन्हें निकालकर लाए थे।
-रामकुमार, प्रदेश सचिव, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, यूपी

हालिया महत्वपूर्ण प्रदर्शनों और आंदोलनों में कथित तौर पर गैर-राजनैतिक नेतृत्व के बगैर उभार दिखा है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में खुद से जुड़े मुद्दे पर जनता का स्वत: आगे आना एक सकारात्मक कदम है, लेकिन नेतृत्व के अभाव में अक्सर आंदोलन असफल रहते हैं। डॉ़ आंबेडकर ने कहा था, 'इतिहास बताता है कि जहां नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है, वहां जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है। निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल न लगाया गया हो।'
-अविनाश चंद्र, सदस्य, सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी, नई दिल्ली

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हंटर चलेगा तो ही बचेगी धरतीः सुनीता नारायण

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बेहतर पर्यावरण पाने के लिए आज दुनिया बेचैन है। प्रदूषण हमारे देश ही नहीं, पूरी दुनिया को लील रहा है। धरती, आसमान, हवा और यहां तक कि महासागर भी इससे नहीं बच पाए हैं। अर्थ डे के मौके पर पर्यावरणविद सुनीता नारायण से प्रदूषण की समस्या और पर्यावरण की रक्षा से जुड़े तमाम मुद्दों पर बात की नरेश तनेजा ने:

मुख्य तौर पर तीन तरह के प्रदूषण से हम प्रभावित होते हैं। आम आदमी के स्तर पर उनको मैनेज करने के क्या उपाय हैं?

जल, वायु और ध्वनि तीनों तरह के प्रदूषण को पूरी तरह से मैनेज नहीं किया जा सकता। ध्वनि प्रदूषण को ही लीजिए, हम गाड़ियों के हॉर्न तेज बजाते हैं और कभी यह नहीं सोचते कि इससे न केवल ध्वनि प्रदूषण बढ़ता है बल्कि हमारी सेहत को भी नुकसान होता है। ध्वनि प्रदूषण से हमारे कानों के ईयर ड्रम्स की क्षमता पर असर होता है और मनोवैज्ञानिक तौर पर भी हम प्रभावित होते हैं। ज्यादा शोर-शराबे वाले इलाकों में रहने वाले अक्सर चिड़चिड़े और बेचैन पाए जाते हैं। कई तरह की मनोवैज्ञानिक स्तर की परेशानियां उन्हें हो सकती हैं। हम यह सोचते रहें कि सरकार ही कुछ करेगी तो फिर कुछ नहीं हो सकता। सरकार ने तो नियम बना ही रखे हैं, जमीनी स्तर पर उसे लागू करना तो हमें खुद ही पड़ेगा। हमें अनुशासन तो खुद ही लाना होगा। इंडस्ट्री में मशीनों आदि के शोर को लेकर भी नियम हैं। जरूरत है तो बस उसे सख्ती से लागू करने की। कई टेक्नॉलजी भी हैं जिन्हें अपनाकर शोर को कम किया जा सकता है।

आज तेज आवाज पैदा करने वाले वाहन भी खूब बिक रहे हैं। ज्यादा शोर करने वाली इंजन और हॉर्न से मुक्ति कैसे मिलेगी?

इस पर सरकार को सख्ती दिखानी होगी कि मैन्युफ़ैक्चर्स ऐसे वाहन न बना सकें जिनमें इंजन और हॉर्न की आवाज ज्यादा ऊंची हो।

वायु प्रदूषण से महानगरों की हवा खराब हो रही है। लोग परेशान हो रहे हैं। इससे बचने के उपाय क्या हैं?


वायु प्रदूषण के कई कारण हैं। इनमें गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण सबसे अहम है। डीजल की गाड़ियों पर लगाम लगाने की जरूरत है क्योंकि इनसे बहुत ज्यादा प्रदूषण होता है, जो बहुत जहरीला है। डीजल की कीमत कम इसलिए रखी जाती है क्योंकि वह किसान के काम आ सके, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के काम आ सके, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। डीजल से महंगी कारें चलाई जा रही हैं। हम इसके लिए सबकुछ कर चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं है। यह लॉबी बड़ी मजबूत है।

बेहतर तो यह है कि हम पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करें, लेकिन इसमें समस्या है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट अच्छी होगी तभी तो जनता उसका इस्तेमाल करेगी। सड़कों पर पर्याप्त संख्या में बसें हैं ही नहीं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट के मामले में किसी भी शहर में सरकार का काम नाकाफी है। एक समाधान यह है कि हम अपने घर के कचरे को निगम को न दें क्योंकि अगर वह निगम के जरिए लैंडफिल तक पहुंचा तो पक्का है कि उसे जलाया जाएगा। इससे तो प्रदूषण बढ़ेगा ही।

फिर प्रदूषण का एक और कारण है डस्ट। इसके लिए जहां भी सड़कें या नए घर बन रहे हैं, उनके आसपास डस्ट कंट्रोल के उपाय किए जाने चाहिए। जहां काम चल रहा हो वहां प्लास्टिक की स्क्रीन लगाई जाए और पानी का छिड़काव किया जाए। हां, यह पानी पीने वाला न हो बल्कि रीसाइकिल किया हुआ पानी इसके लिए यूज किया जाए। घरों के आसपास खाली जमीन से धूल-मिट्टी न उड़े इसके लिए कॉलोनी वाले मिलकर पेड़-पौधे और घास लगा सकते हैं।

जल को निर्मल कैसे बनाए रखें?

जहां तक जल प्रदूषण का मसला है तो देखिए, घरों व इंडस्ट्री का वेस्ट यमुना या दूसरी नदियों में जाता है। यह कोशिश की जानी चाहिए कि घरों में टॉयलेट के फ्लश और इंडस्ट्री के पानी को यमुना में डालने से पहले उसका ट्रीटमेंट करके ही छोड जाए। बेशक दिल्ली जैसे महानगरों में टॉइलट के नीचे वैसे गड्ढे तो बन नहीं सकते, जैसे गांवों में बनते हैं। इसके अलावा, बारिश के पानी की हार्वेस्टिंग की जाए तो उससे भी भूजल का स्तर धीरे-धीरे बढ़ने लगेगा क्योंकि नदियों का स्थिति तो खराब ही होती जा रही है। कायदे से हर नदी के नालों को ब्लॉक करके ट्रीटमेंट प्लांट लगाने होंगे।

कम्युनिटी और आम आदमी के लेवल पर कैसे संभव है कि कम से कम कूड़ा पैदा हो और वह भी घर में ही प्रोसेस्ड हो जाए, बाहर कम फेंकना पड़े?

कूड़े की समस्या से बचाव का यही एक तरीका है कि कम से कम कूड़ा पैदा हो। इसके लिए बहुत-से तरीके मौजूद हैं। बाजार में ऐसे डस्टबिन या बाल्टियां आ गई हैं जिनमें आप किचन के कचरे को डाल दें तो कुछ दिनों बाद वह कचरा कम्पोस्ट खाद बन जाता है, जिसे आप गमलों या गार्डन में डाल सकते हैं। आप घड़े में भी इसे बना सकते हैं। केरल में मैंने देखा कि किचन के हरे कचरे को लोग सीधे अपने गमलों और गार्डन में डाल देते हैं, जो खाद का काम करता है। कॉलोनियों और सोसायटीज के लोग भी एक जगह ऐसे डस्टबिन लगाकर कचरा इकट्ठा करके पास के पार्क या गार्डन में उसकी खाद डाल सकते हैं।

यह पैकेजिंग का जमाना है। इस वजह से घरों में कचरा पैदा ज्यादा होने लगा है। मसलन, गिफ्ट पैक या कुरियर से आई चीजों की फालतू पैकिंग का कचरा। क्या करें कि ऐसा कचरा पैदा ही कम हो?

दूसरे देशों में पैकेजिंग के ऐसे नियम हैं कि जो ऐसी पैकिजिंग देगा वही उसे वापस भी लेगा। हमारे यहां ऐसा कोई नियम नहीं है। इस पर चर्चा होनी चाहिए। हम ई-कॉमर्स की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। इसकी वजह से दो तरह से प्रदूषण बढ़ रहा है। एक तो डिलिवरी के लिए चलने वाले वाहनों की ज्यादा आवाजाही से प्रदूषण बढ़ेगा, दूसरे पैकेजिंग मटीरियल का कचरा ज्यादा पैदा होगा। इसलिए हमें इस पर क्लियर पॉलिसी की जरूरत होगी।

सफाई कर्मचारी दोपहर में खाली हो जाते हैं। एक आइडिया है कि अगर उन्हें स्पेशल ट्रेनिंग देकर कूड़े कचरे के डिस्पोजल के बेहतर तरीके सिखा दिए जाएं तो सड़कें और गलियां ज्यादा साफ होंगी और स्वच्छता अभियान सार्थक होगा। इसके लिए इन कर्मियों को अलग से इनसेंटिव्स और अवॉर्ड भी दिए जा सकते हैं ताकि उनका उत्साह बढ़े और बेहतर काम करें। बहुत अच्छा सुझाव है। हम भी इस विचार को आगे बढ़ाएंगे और सरकार को भी सुझाव देंगे। केरल में तो ऐसा हो भी रहा है। वहां सफल है यह। ऐसे कर्मचारी कचरे के निपटान के साथ-साथ रीसाइकिलिंग के काम में भी योगदान ज्यादा बेहतर तरीके से दे पाएंगे।

विश्व में कौन-सा देश ज्यादा पर्यावरण फ्रेंडली है?

अब तक जो ग्लोबल सर्वे व रेटिंग्स हुई हैं, उनके मुताबिक तो स्वीडन और नॉर्डिक देश ही इस मामले में टॉप पर हैं।

हमारे काम आ सकने वालीं उन देशों की दो-एक आदतें...?

स्वीडन में कचरे को बड़ी मात्रा में रीसाइकल किया जाता है। वहां इस मामले में इनसेंटिव्स और डेटेरेंस की व्यवस्था अच्छे-से लागू है। फिर, उनके यहां आने-जाने के लिए साइकिलिंग, वॉकिंग और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को काफी अहमियत दी गई है। ये आम लोगों की जीवन-शैली में शामिल हो गए हैं। बायोमास पर आधारित एनर्जी को लेकर भी वहां काफी काम हुआ है। जर्मनी में सोलर एनर्जी पर बहुत काम हुआ है। ऐसा नहीं है कि विकसित देशों में कचरा कम पैदा होता है, लेकिन वहां हर तरह के कचरे को घरों में ही अलग करने पर जोर दिया जाता है। वहां लोग छह-छह डस्टबिन रखते हैं। एक में आप प्लास्टिक रखेंगे, दूसरे में बॉटल्स, तीसरे में टिन, चौथे में पेपर, पांचवें में कम्पोस्ट बन सकने वाला कूड़ा और छठे में पर्यावरण के लिहाज से हानिकारक आइटम्स। इन्हें आपको खुद ही अलग करके रखना होगा। नगर निगम वाले अलग-अलग दिन अलग-अलग तरह का कचरा लेने के लिए आएंगे, जोकि पहले से ही निर्धारित होता है। अगर आपने कचरा अलग-अलग नहीं किया तो आप पर फाइन लगेगा।

पेस्टिसाइड्स भी आज एक बड़ी समस्या है। फल-सब्जियों तक में हमारे यहां इतना जहरीलापन आ गया है कि लोग खाने से डरने लगे हैं। क्या ऑर्गेनिक फल-सब्जियां इसका हल है?


ये इतनी आसानी से मिलती नहीं है। हालांकि लोगों में समझदारी बढ़ रही है। इन्हीं सब मामलों में लोगों की जागरूकता काम करती है। अगर लोग ऑर्गेनिक मांगेंगे तो मार्केट में ज्यादा आ भी जाएगा। इससे काफी फर्क पड़ेगा। अभी तो मुश्किल यह है कि ऑर्गेनिक को हम फिलहाल अमीरों के लिए मान रहे हैं। हमारी खेती की पुरानी परंपरा ही आर्गेनिक तरीके की थी। हमें इस पर जोर देना होगा।

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हमारे देश में दिक्कत यह है कि हम नियम तो बहुत बना देते हैं, पर उन्हें पूरी तरह से लागू नहीं करा पाते। सरकार में इसके लिए इच्छाशक्ति भी दिखाई नहीं देती। इस देश में सबसे बड़ी समस्या यह हो गई है कि किसी भी चीज को लागू करना हो तो हंटर घुमाना ही पड़ेगा। हालांकि हंटर घुमाने में भी समस्या यह है कि उसे थमाएं किसके हाथ में। अगर गलत हाथ में हंटर दे दिया तो उसका मकसद भी खत्म हो सकता है। तो फिर उपाय क्या है?

मैं नहीं कहती कि हर चीज में हंटर का इस्तेमाल हो, लेकिन कड़े कानूनों के अभाव में चीजें बिगड़ गई हैं हमारे यहां। कूड़े-कचरे की समस्या हमारे लिए एक बड़ा सिरदर्द है। किसी भी विकसित देश को देख लीजिए। अगर आपने घर से निकलने वाले कूड़े को अलग-अलग डस्टबिन में डालकर उसे निगम वालों को नहीं दिया तो आपको फाइन लगेगा। वहां आपको घर में हर तरह के कूड़े के लिए अलग डस्टबिन रखना पड़ता है। सड़कों पर कचरा फेंकने वालों पर दंड लगाया जाता है, लेकिन हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं है। फिर यहां दिक्कत यह है कि अगर आपने इस बात के लिए फाइन लगाया तो करप्शन बढ़ने लगेगा। ले-देकर काम चलने लगेगा। ऐसे में लोगों को अपनी तरफ से भी प्रयास करने होंगे। सिर्फ सरकार पर उंगली उठाने से काम नहीं चलने वाला।

लेकिन क्या सख्ती बरतने या हंटर चलाने से सारे काम होंगे? लोगों को एजुकेट करके, उन्हें प्रेरित करके ज्यादा अच्छे परिणाम नहीं पाए जा सकते, जैसे स्वच्छता अभियान में संभव हुआ है?

दोनों बातें साथ-साथ करनी पड़ेंगी। सख्ती का मतलब है कि आपको फाइन और पेनल्टी का सिस्टम लाना होगा, उससे भी लोग एजुकेट होते हैं। एक बार फाइन होने पर आप ध्यान रखते हैं कि अगली बार वह गलती न हो।


तीन ऐसे काम बताएं जिनसे अब तक आपको संतुष्टि मिली हो कि कुछ अच्छा किया है?

मेरी सबसे बड़ी चिंता दिल्ली की हवा है। दिल्ली की हवा को साफ करने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं हम। आने वाली सर्दियों में अगर हवा में प्रदूषण कम पाया गया तो मुझे आराम की नींद आ पाएगी। फिर बीएस-6 ईंधन आया है, पैट कोक बैन हुआ है, सीएनजी गैस का इस्तेमाल बढ़ रहा है। उम्मीद कि इन सबके नतीजे अच्छे आएंगे। दूसरा काम हमने खाने को लेकर किया है, उससे भी काफी संतोष मिला है मुझे। चिकन में एंटी-बायोटिक्स, शहद, कोक और पेस्टिसाइड पर जो काम किया था, उससे लोगों में समझ और जागरूकता काफी बढ़ी है। उन तक आवाज तो पहुंची। तीसरा, पर्यावरण की देखभाल को लेकर लोगों में समझ बढ़ाने और उनकी रुचि जगाने में भी हमारी भूमिका रही है।

प्लास्टिक पर आपने काम किया, माहौल बनवाया, लेकिन हुआ तो कुछ भी नहीं।


इसीलिए तो मैं कहती हूं कि हंटर लाना जरूरी है। अब यहां तो खाने-पीने का सामान भी प्लास्टिक की पैकिंग्स में आ रहे हैं। अमेरिका जैसे देशों में इसके लिए मोटा पेपर इस्तेमाल हो रहा है, जो रीसाइकल हो सकता है। प्लास्टिक को लेकर वहां बहुत सख्त रूल हैं। यूरोप में अगर आपने कोई बोतलबंद लिक्विड, जैसे कोल्ड ड्रिंक वगैरह खरीदा तो वे उसके लिए एडवांस डिपॉजिट ले लेते हैं। आप लिक्विड का इस्तेमाल कीजिए और बोतल वापस कंपनी को दे दीजिए, आपको अपना एडवांस वापस मिल जाएगा। ऐसे में वहां प्लास्टिक की बोतल वापस कंपनी के ही पास पहुंचती है जो उन्हें फिर यूज कर लेते हैं। इससे उनका गलत इस्तेमाल नहीं होने पाता। हमारे यहां तो पुराने वक्त में ऐसा होता था, लेकिन हमने उसे बंद कर दिया जबकि यूरोपियन्स ने इसे अपना लिया है।

हिन्दू परंपरा में उत्पत्ति से अधिक विनाश या डिस्ट्रक्शन के देवता को महत्व दिया जाता है। यानि ब्रह्मा से भी अधिक शिव को महत्व दिया जाता। अब प्लास्टिक आपने बना तो लिया, लेकिन उन्हें नष्ट करना मुश्किल हो गया है। सीएफसी केमिकल का असर लंबे समय तक पर्यावरण में बना रहता है। कार्बन डाइऑक्साइड एक बार अगर हवा में रिलीज हो गई तो एक सौ साठ सालों तक बनी रहती है। दुनिया तभी चलती रह सकती है, जब कोई ऐसी चीज नहीं बने, जिसका विनाश न हो सके। इसीलिए शायद विनाश या संहार के देवता शिव को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। हमें इसके बारे में सोचना होगा।

ओजोन लेयर को लेकर क्या इम्प्रूवमेंट हुआ है?

कुछ इम्प्रूवमेंट हुए हैं, लेकिन ये तभी कारगर होंगे जब उन उपायों को लगातार बनाए रखा जा सकें जिनकी वजह से ऐसा संभव हो पाया है। किसी चीज को लंबे समय तक बार-बार प्रैक्टिस में लाने से ही कामयाबी मिल पाती है।

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देश का कल्चर बदलने पर काम करें: शिव खेड़ा

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धार्मिक और आध्यात्मिक गुरुओं से मोहभंग के इस दौर में मोटिवेशनल और मैनेजमेंट गुरु बेहतर मालूम पड़ते हैं। दोनों तरह के लोग जिंदगी को बेहतर बनाने की शिक्षा देते हैं। पहले वाले गुरु अगले जन्म को बेहतर बनाने पर ज्यादा जोर देते हैं तो बाद वाले गुरु इसी जन्म को। बाद वालों से शोषण का खतरा नहीं दिखता। शिव खेड़ा मोटिवेशनल गुरु हैं। अपने नाम के अनुरूप कल्याणकारी। देश-दुनिया घूम-घूमकर लोगों को अपनी असल क्षमता हासिल करने की प्रेरणा देते हैं। 15 किताबें लिख चुके हैं। शुरुआत सन 1998 में 'यू कैन विन' से की थी जो आज बेस्टसेलर किताबों में शुमार है। उनके सूक्ति वाक्य इतने मशहूर हैं कि कई जगह ऑटो के पीछे और दीवारों पर स्टिकरों के रूप में दिख जाते हैं। मसलनः 'अगर आपके पड़ोसी पर अत्याचार और अन्याय हो रहा है और आपको नींद आ जाती है तो अगला नंबर आपका है।' 'जीतने वाले अलग चीजें नहीं करते, वे चीजों को अलग तरह से करते हैं।' इन्हीं शिव खेड़ा से राजेश मित्तल की बातचीत के खास हिस्से पेश हैंः

आपने अपनी नई किताब का नाम 'यू कैन अचीव मोर' रखा है यानी जिंदगी में जो है, वह पर्याप्त नहीं है, ज्यादा हासिल करो लेकिन हमारे धर्मग्रंथों में संतोष की महिमा गाई गई है।
संतोष इंसान को ढीला और लापरवाह बना देता है। उसकी जिंदगी में कोई उत्साह नहीं होता। उसे कुछ पाना नहीं है। जो चल रहा है, ठीक है। वह बैठा है। दिन गुजार रहा है। अगर आपने शादी की है, आपका जीवनसाथी है, बच्चे हैं, मां-बाप हैं तो उन्हें ठीक-ठाक पालने-पोसने के लिए आपको मेहनत करनी ही होगी। यह जिम्मेदारी बैठे-ठाले पूरी नहीं होगी। लोगों ने संतुष्टि का गलत मतलब निकाल लिया है। अगर इंसान के हाथ-पांव ठीक चलते हैं तो उसे मेहनत करनी चाहिए। मौजूदा स्थिति को बेहतर बनाने के प्रयास करने चाहिए। हमने समाज से बहुत कुछ हासिल किया है, हमें वापस भी देना है। संतोष परले दर्जे का स्वार्थ है।

क्या महत्वाकांक्षा से मन की शांति भंग नहीं होती?
महत्वाकांक्षा भी दो तरह की होती है। एक मुनासिब और एक गैर-मुनासिब। गैर-मुनासिब महत्वाकांक्षा से मन की शांति भंग होती है। मेरी औकात होंडा गाड़ी की है और मैं प्राइवेट जेट की आकांक्षा पाल लूं तो मैं अपनी बर्बादी का रास्ता बना लूंगा। गैर-मुनासिब महत्वाकांक्षा लालच है।

आपका एक बड़ा मशहूर कोट हैः 'अगर आपके पड़ोसी पर अत्याचार और अन्याय हो रहा है और आपको नींद आ जाती है, तो अगला नंबर आपका है।' लेकिन आजकल के माहौल में यह प्रैक्टिकल नहीं लगता। हमारे एक लेखक दोस्त ने बस कंडक्टर को रास्ते में खड़े होकर पेशाब करने से रोका तो उनकी बुरी तरह पिटाई कर दी गई।
आज के माहौल में बस कंडक्टर को मालूम है कि उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। इस दौर में अपराधी को सुरक्षा मिलती है और ईमानदार को सजा। आज शिक्षा, राजनीति से लेकर धर्म तक हमारा सारा समाज भ्रष्ट है। इस सिस्टम में जो भी निकलता है, भ्रष्ट ही निकलता है। मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद जब डॉक्टर निकलता है तो उसे बीमार नहीं, टारगेट नजर आता है। इंजीनियर कच्चे पुल बनाता है। पुलिसवाला खुद क्रिमिनल बन जाता है। जज सिर्फ फैसला सुनाता है, इंसाफ नहीं देता। आप यहां कितने भी कायदे-कानून बना लें, जब तक इस हिंदुस्तान का कल्चर नहीं बदलेगा, तब तक कुछ होने वाला नहीं है।

तो हम अपने देश में कल्चर कैसे बदलें?
कल्चर ऊपर से नीचे चलता है। लीडर सही तो उस परिवार की, उस संगठन की, उस देश का कल्चर ईमानदारी से काम करने का होता है। अपने देश में हमें अच्छे लीडर की आज भी तलाश है। ऐसा लीडर जो देश का हित अपने हित से ऊपर रखे, जो निस्वार्थ हो, सचाई और ईमानदारी से चले। ऐसा लीडर बड़ी जल्दी इस देश का नक्शा बदल कर रख देगा।

मौजूदा नेताओं में से किसी से उम्मीद?
अभी मुझे इनमें से किसी से उम्मीद नहीं।

नरेंद्र मोदी से भी नहीं?
लंबे अरसे बाद आशा की किरण दिखी थी लेकिन अब बहुत सारे लोग निराश हैं। ग्राउंड में बदलाव नहीं दिखाई दे रहा। रोजमर्रा की समस्याएं ज्यों की त्यों हैं बल्कि बढ़ रही हैं। अंग्रेजों ने इस देश के लोगों को हिंदू-मुस्लिम में बांटा था, बीजेपी ने तो हिंदू-हिंदू को बांटने का काम किया। सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी ने चुनाव जीतने की खातिर राजस्थान की संपन्न जाति जाटों को ओबीसी आरक्षण देने का ऐलान कर दिया। पार्टी जीत गई, देश हार गया।

राहुल गांधी से आस है?
70 साल से इस देश की जनता चुनाव से पहले नेताओं के झूठ सुनती आ रही है कि यह कर देंगे, वह कर देंगे। बाद में हुकूमत में आने पर करते कुछ नहीं। कांग्रेस हो या बीजेपी, सब एक जैसे हैं। बीजेपी 2014 में बहुत कुछ कहती थी। सत्ता में आने के बाद क्या रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ कोई कार्रवाई की? असल में सभी पार्टियों की आपस में मिलीभगत है। पावर में आने पर एक-दूसरे को परेशान नहीं करते। अभी देश में वोटिंग का जो ट्रेंड है, उसके मुताबिक देश भरोसे का वोट नहीं दे रहा, मजबूरी का वोट दे रहा है। तमिलनाडु में देखिए। एक बार अम्मा आती थीं तो दूसरी बार अन्ना। यूपी में देखिए, एक बार मायावती, दूसरी बार मुलायम। अभी जो सत्ता में है, यह ठीक नहीं है। इसे बाहर निकालो। तब दूसरा आ जाता था।

लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में तो तीन-तीन बार मुख्यमंत्री वही रहे हैं?
वहां विपक्ष मजबूत नहीं था।

2019 में क्या होगा?
कहना मुश्किल है। चुनाव बहाव या लहर पर चलते हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की लहर थी। घटिया से घटिया उम्मीदवार भी उस लहर में जीत गया। फिलहाल तो लहर नहीं दिख रही।

केजरीवाल के बारे में क्या कहेंगे?
उनसे भी बड़ी उम्मीदें थीं लेकिन उन्होंने भी अब दूसरी पार्टियों जैसे ही रंग-ढंग अपना लिए हैं। वह भी जात-पात की बात करते हैं, मजहब पर वोट लेते हैं।

तो आप खुद राजनीति में क्यों नहीं आ जाते?
कई वजहें हैं राजनीति में ना आने की।

कौन-सी वजहें?
सबसे बड़ी वजह तो सेहत ही है।

एक आम नैतिक दुविधा यह होती है कि दूसरा बंदा अच्छा हो या बुरा, सभी के साथ हम अच्छा ही बर्ताव करें यानी चाहे बिच्छू डंक मारे, उसे हर बार पानी से निकालना हमारा फर्ज है। ऐसा करें या जो अच्छे हैं, उनके साथ अच्छा और जो बुरे हैं, उनके साथ बुरा बर्ताव करें? क्या दुष्ट आदमी को उसी की भाषा में जवाब देना चाहिए, नहीं तो वह हमें कमजोर ही समझता रहेगा?
पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को 17 बार युद्ध में हराया और दरियादिली दिखाते हुए हर बार माफ कर छोड़ दिया, पर 18वीं बार मुहम्मद गोरी ने जयचंद की मदद से पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में मात दी और बंदी बना कर अपने साथ ले गया। पृथ्वीराज की दरियादिली के कारण भारत ने सैकड़ों साल की गुलामी झेली। इतिहास से हम यही सीखे हैं कि हम कुछ नहीं सीखे। कहने में तो बड़ा अच्छा लगता है कि प्यार से सबको जीत सकते हैं। क्या राम रावण को प्यार से जीत पाए? गुंडा सीता को ले गया। राम को हथियार उठाकर उसका वध करना ही पड़ा। ऐसे ही गुरु गोविंद सिंह ने भी तलवार उठाई। उनका कहना था कि जुल्म करना पाप है, जुल्म सहना उससे भी बड़ा पाप है। कोई एक गाल पर चांटा लगा दे तो दूसरा गाल आगे कर देना, लोग कहते हैं, यह गांधीगिरी है तो मैं गांधीवादी नहीं हूं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। उन्हें मुंहतोड़ जवाब देना ही पड़ता है।

यानी सीधों के साथ सीधे और कमीनों के साथ कमीना हुआ जाए?
मैं यह लफ्ज़ नहीं दूंगा। यही कहूंगा कि कहीं प्यार से काम लेना पड़ता है और कहीं लातों से।

बीजेपी कई बार जातीय समीकरणों को देखते हुए भ्रष्ट छवि वालों को भी टिकट दे देती है ताकि पार्टी चुनाव जीत सके। यह रणनीति क्या ठीक है?
मैं इससे सहमत नहीं। बीजेपी ईमानदार कैंडिडेट खड़ा करे तो वह क्लीन स्वीप करेगी। उसने भी भ्रष्ट खड़ा कर दिया तो भ्रष्ट-भ्रष्ट में फर्क क्या रहा? उधर भी भ्रष्ट, इधर भी भ्रष्ट।

लेकिन ईमानदार आदमी चुनाव में जीत नहीं पाता। लालू जैसे भ्रष्ट, शहाबुद्दीन जैसे गुंडे जीत जाते हैं और शर्मिला जैसी संघर्षशील महिला हार जाती है। आप खुद भी तो सन 2004 में दक्षिण दिल्ली से लोकसभा का चुनाव निर्दलीय के रूप में लड़े थे। आप भी कहां जीत पाए थे?
वह चुनाव मैंने बिना तैयारी के, बिना समय दिए लड़ा था। लोगों ने कहा, आपने तो किताब लिखी है 'यू कैन विन' और खुद हार गए, लेकिन लोग तो अंतिम परिणाम देखते हैं और यह ठीक ही है।

आप पॉजिटिव एटिट्यूड अपनाने पर बहुत जोर देते हैं लेकिन जिंदगी में दोनों एटिट्यूट की जरूरत होती है। आपको नेगेटिव सोचना पड़ता है। आप यह सोच कर चलते हैं कि यह नहीं होगा तो हम क्या करेंगे। इसे मैनेजमेंट में कहते हैं कि प्लान बी तैयार करो।
इसे नेगेटिव सोच नहीं कहते। पॉजिटिव ही कहते हैं। आपका कोई हॉस्पिटल है। वहां पर ऑपरेशन होते हैं। बिजली का बंदोबस्त है लेकिन फिर भी जनरेटर भी रखते हैं इसलिए कि हर ऑपरेशन सफल हो, उसमें कोई कमी ना आए। जो एक जरनल होता है, वह प्लान ए, प्लान बी, प्लान सी, प्लान डी तक तैयार रखता है। इसे तैयारी कहते हैं। फेल होने की नहीं, सफलता की तैयारी।

सेल्फ हेल्प किताब हो या कोर्स, इनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि कुछ दिन तो इंसान इन बातों को अपनाता है, धीरे-धीरे प्रेरणा फीकी पड़ती जाती है और रुटीन से बाहर हो जाती है। इस चुनौती से कैसे निपटें?
मेरे से यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि आपकी बातों को कितने लोग कितने लोग अमल में लाते हैं, मेरा जवाब होता है 10 फीसदी लोग 90 फीसदी बातों को अमल में लाते हैं और 90 फीसदी लोग 10 फीसदी बातों को ही। 10 फीसदी वाले जिंदगी में आगे बढ़ते हैं। बाकी कभी ज्योतिषी को फोन लगाएंगे, कभी कहेंगे मेरे स्टार्स अच्छे नहीं हैं।

कई बार ऐसा लगता है कि सेल्फ हेल्प किताबें मन के ऊपरी लेवल पर बदलाव लाती हैं। गहरे मन के स्तर पर बदलाव कैसे लाया जाए ताकि जो आत्मसुधार हो, वह स्थायी बन सके?
रिसर्च कहती है कि कोई इंसान अगर 31 दिन रोज किसी चीज की प्रैक्टिस करें तो वह आदत में शुमार हो जाती है। कोई 21 दिन बताता है तो कोई 61 दिन भी। मैं कहूंगा, 61 दिन कोई भी चीज रोज प्रैक्टिस में आती है तो वह आपकी जिंदगी में शुमार हो जाती है। आपको रोज अपनी अच्छाई को मजबूत करना है और कमी को कमजोर।

आजकल जो माहौल बन रहा है, छोटे बच्चों के साथ रेप की खबरें आ रही हैं, ऐसा लगता है जैसे इंसान हैवान बनता जा रहा है। ऐसे में इंसान पॉजिटिव कैसे रहे?
पहले अंतरात्मा नाम की चीज होती थी जो इंसान को गलत काम करने से रोक देती थी। समाज में आज संवेदनशीलता बची नहीं। ऐसे में निराशा तो होती है, पर आदमी को खुद को उठाना पड़ता है। हौसला रखकर चीजों को बदलने की लड़ाई जारी रखनी चाहिए।

रेप की समस्या का हल क्या है?
यह समस्या लॉ एंड ऑर्डर की है। सही कल्चर बनाने की जरूरत है। सही लीडर होगा तो सब ठीक हो सकता है।

आसाराम को सजा हुई। ऐसे गुरुओं के बारे में क्या कहेंगे? क्या गुरु जरूरी है?

जीवन में मार्गदर्शक तो होना ही चाहिए। अगर कोई कहता है कि मैं सेल्फ मेड हूं तो गलत कह रहा है। किसी ना किसी का योगदान उसकी जिंदगी में रहता ही है। गुरु तो जरूरी है लेकिन उसका चुनाव बहुत सावधानी से करना चाहिए और उसे परखते रहना चाहिए वरना धोखा खा सकते हैं।

  • जिंदगी की 3 सबसे बड़ी प्राथमिकताएं हैंः सेहत, रिश्ते और दौलत
  • कामयाब लोग कठिनाइयों के बावजूद सफलता हासिल करते हैं, न कि तब, जब कठिनाइयां नहीं होतीं।
  • जब हम अपनी हदों और सीमाओं को नहीं जानते, तो हम बड़े और ऊंचे काम करके खुद को ही हैरान कर देते हैं।
  • कोई आदमी अपने बारे में जो सोचता है, उसी से उसकी तकदीर तय होती है।
  • अनुशासन का पालन करें। आत्म-अनुशासन हमारे आनंद को खत्म नहीं करता, बल्कि बढ़ाता है।

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