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गुरुओं की सेहत के गुरु

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दूसरों को मानसिक और शारीरिक फिटनेस का पाठ पढ़ाने वाले आध्यात्मिक या योग गुरू खुद को कैसे रखते हैं फिट, जानकारी साझा कर रही हैं प्रियंका...

बाबा रामदेव
बहुत बिजी रहता है रुटीन
बाबा रामदेव तड़के 3:30 बजे उठते हैं। वह अपने दिन की शुरुआत 1-2 गिलास गरम पानी पीने के बाद आंवला और एलोवेरा जूस पीकर करते हैं। फिर 4:00 बजे योग शिविर जाने से पहले वॉर्मअप में तकरीबन आधा घंटे बिताते हैं। खासतौर पर स्ट्रेचिंग एक्सरसाइज करते हैं। कुछ पर्सनल नोट्स लिखते हैं। इसमें दिन भर के काम और अपने आगे के अजेंडे के बारे में लिखते हैं। योग शिविर तक की दूरी वह दौड़ कर पूरी करते हैं। 5:00 बजे से वह स्टेज पर जाकर लोगों को योग सिखाना और उनसे आध्यात्मिक बातें करना शुरू करते हैं। 8:00 बजे से वह करीब घंटा भर लोगों से मिलते हैं। 9:00 बजे स्नान करने से पहले आधा लीटर पानी पीते हैं। नाश्ता करने के बाद वह अखबार, मैगजीन आदि पढ़ते हैं। दोपहर में लंच के बाद वह फिर लोगों से मिलते हैं। 3 बजे आध्यात्मिक शिविर शुरू होचा है। यह वक्त योग का न होकर आध्यात्मिक प्रवचन का है। इस वक्त वह सुबह के मुकाबले कुछ शांत नजर आते हैं। यह सेशन तकरीबन 1 घंटा चलता है। शाम 7 बजे फिर उनसे मिलने लोग आते हैं। डिनर के बाद वह फिर लोगों से मिलते हैं। 10 बजे वह बिस्तर पर चले जाते हैं।

खाते हैं सिंपल खाना
सुबह 10:00 बजे वह नाश्ता करते हैं, जिसमें वह सिर्फ एक सेब लेते हैं। दोपहर में 12 बजे वह लंच करते हैं, जिसमें 1 मौसमी सब्जी, 2 रोटी और 1 छोटी कटोरी चावल लेते हैं। इसके बाद वह हर आधे घंटे में पानी पीते हैं लेकिन कुछ खाते नहीं हैं। शाम 7:30 बजे वह डिनर करते हैं, जिसमें सब्जी और 2 रोटी लेते हैं, चावल नहीं खाते। बाबा का दावा है कि वह पूरी तरह शाकाहारी खाना खाते हैं। उन्होंने जिंदगी में कभी अंडे तक का स्वाद नहीं चखा।

मानसिक सुकून के लिए
देशवासियों को योग के लिए प्रेरित करनेवाले बाबा खुद रोजाना नियमित रूप से योग के साथ-साथ प्राणायाम और ध्यान भी करते हैं। इनकी बदौलत बाबा का मन शांत रहता है। वह बमुश्किल ही गुस्सा होते हैं।

जग्गी वासुदेव
रुटीन है कुछ जुदा
पिछले लगभग 25 बरसों तक जगत गुरु जग्गी वासुदेव करीब तीन से चार घंटे ही सो रहे हैं। उनका मानना है कि शरीर को नींद की नहीं, बल्कि चैन और आराम की जरूरत होती है। अगर आप पूरे दिन अपने शरीर को बहुत आरामदायक अवस्था में रखते हैं, अगर आपका काम, योग अभ्यास और आपका जीवन खुद में एक आरामदायक प्रक्रिया बन जाए, तो आपके नींद का कोटा स्वाभाविक रूप से कम हो जाएगा। उदाहरण के लिए, अगर खाली पेट होने पर जग्गी वासुदेव की नब्ज़ देखें, तो वह 35 से 40 के बीच होगी। इसका मतलब है कि शारीरिक स्तर पर, उनका शरीर पूरी तरह आराम में रहता है। शरीर गहरी नींद में होता है, तो भी वह काम करने के लिए पूरी तरह जगे होते हैं।

ईशा योग में जो शाम्भवी महामुद्रा सिखाई जाती है, उसका अभ्यास करने के कुछ हफ्तों में आपको एक बात का अनुभव होगा कि आपकी नब्ज़ की दर में आठ से दस की कमी आ जाएगी। शाम्भवी का मतलब है संध्याकाल यानी आप सो रहे हैं, पर जगे हुए हैं और जगे हुए हैं पर सो रहे हैं। योगी बनने के लिए यह जरूरी बुनियाद है। जागते हुए आपको पूरी तरह जागृत होना चाहिए, पर शरीर के मापदण्ड ऐसे होने चाहिए, मानो शरीर सो रहा हो। सोते समय, आपके शरीर और मन को नींद में होने चाहिएं, पर आपको जगे रहना चाहिए।

तनाव को रखते हैं दूर
कुछ साल पहले, जब सदगुरु पहली बार अमेरिका गए तो देखा कि हर कोई स्ट्रेस मैनेज करने की बातें कर रहा था। वह हमेशा सोचते थे कि लोग उन चीजों को मैनेज करना चाहते हैं, जो उनके लिए मूल्यवान होती हैं। तो कोई स्ट्रेस को क्यों मैनेज करना कहेगा? यह समझने में थोड़ा वक्त लगा कि लोग स्ट्रेस को अपने जीवन का एक हिस्सा मान चुके हैं। साल के 365 दिन, वह रोजाना 20 घंटे काम करते हैं। वह कहते हैं कि इतना काम करने के बावजूद उन्हें तनाव नहीं होता। वह कहते हैं कि मैं शारीरिक थकान से मर सकता हूं, पर स्ट्रेस या तनाव की वजह से कभी नहीं मरूंगा! किसी के भी स्ट्रेस की वजह काम नहीं है। स्ट्रेस इसलिए होता है, क्योंकि आपमें अपने खुद के सिस्टम को मैनेज करने की क्षमता नहीं है। अगर आप मानव सिस्टम के काम करने के तरीके के प्रति जागरूक हैं और खुद को एक विशेष स्थिति में रखते हैं, तो आपको स्ट्रेस होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अपनी खुशहाली को अपने हाथों में लेना, हर किसी की जिम्मेदारी है। हम इसके लिए जरुरी साधन उपलब्ध कराने के लिए तैयार हैं। मेरा स्वप्न है कि रूपांतरण के ये साधन किसी गुरु या किसी संस्था के पास नहीं, बल्कि हर मनुष्य के पास होने चाहिए।

शारीरिक सेहत के लिए
जग्गी वासुदेव हर दिन कोई कसरत यानी एक्सरसाइज नहीं करते। हां, कभी-कभार गोल्फ खेलते हैं। वह अपनी क्रिया हर दिन 20 सेकंड करते हैं। आमतौर पर वह डीप ब्रीदिंग और प्राणायाम करते हैं।

बस खाते हैं एक बार
सद्‌गुरु दिन में एक बार खाते हैं और पेट भरकर खाते हैं। वह अनाज बहुत कम खाते हैं, सब्जियां बहुत ज्यादा खाते हैं। दुनिया के ज्यादातर लोग, अभी जितना खाना खाते हैं, उसका 25 या 30 फीसदी खाकर ही काम चला सकते हैं। ऐसा करते हुए वे एक अच्छा जीवन जी सकते हैं और अपना वजन उतना ही रख सकते हैं। यहां तक कि वे पहले से ज्यादा स्वस्थ और ऊर्जावान बन सकते हैं।

लोगों की सेहत बेहतर बनाने के लिए
सदगुरु मानते हैं कि मानव सिस्टम, इस धरती की सबसे जटिल मशीन है। मान लीजिए, आपने दोपहर में एक केला खाया। शाम तक वह केला आपका रूप ले लेता है। कुछ ही घंटों में आप एक केले को मनुष्य बना देने की क्षमता रखते हैं! यह कोई छोटी बात नहीं है। इसका मतलब है कि सृष्टि का स्रोत आपके भीतर काम कर रहा है। इस शरीर का सृष्टा इसके भीतर है। अगर आपको कुछ ठीक करवाना है, तो क्या आप स्थानीय मैकेनिक के पास जाना चाहेंगे, या फिर सृष्टा के पास? अगर आप सृष्टा को जानते हैं और उस तक पहुंच सकते हैं, तो आप निश्चित रूप से उसी के पास जाना चाहेंगे। योग सृष्टा तक पहुंचने के लिए मार्ग बनाने का एक साधन है, ताकि स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखना आपका नहीं, उसका काम हो जाए।

श्रीश्री रविशंकर
अलग-अलग होता है रुटीन

गुरुदेव की बहुत ज्यादा यात्राएं होती हैं इसलिए लगभग हर दिन का रुटीन अलग होता है, पर हर दिन वह सुबह 4 बजे उठ जाते हैं और थोड़ी देर व्यायाम, ध्यान आदि करते हैं। वह सुबह 6 बजे के आसपास वॉकिंग पर जाते हैं। करीब 45 मिनट वॉक करते हैं। फिर नहा धोकर ब्रेकफास्ट करते हैं। इसके बाद वह लोगों से मिलते हैं। ये अपॉइंटमेंट्स करीब 12 बजे तक चलते हैं। फिर वह आश्रम या जहां कहीं भी रहते हैं, वहीं 12 से 1 बजे तक लोगों को ध्यान कराते हैं। दिन में 1 बजे भोजन करने के बाद वह आधे से एक घंटे तक रेस्ट करते हैं। फिर शाम को 4-4:30 से 6 बजे तक वह जगह-जगह से आए लोगों से मिलते हैं। रोजाना वह करीब दो-ढाई हजार लोगों से मिलते हैं। शाम से 6:30 से रात 8 बजे तक जहां भी गुरूदेव होते हैं, वहां सत्संग होता है। इस दौरान आधा घंटे भजन, थोड़ी देर ध्यान और सवाल-जवाब चलते हैं। 8 बजे हल्का खाना खाकर वह फिर से काम में लग जाते हैं। रात में सोते-सोते करीब एक-दो बज जाते हैं। कई बार वह इंटरनैशनल कॉल या स्काइप पर रहते हैं जिसमें उनको डेढ़ भी बज जाते हैं। फिर भी सुबह 4 बजे ही उठ जाते हैं।

खाते हैं शाकाहारी खाना
हल्का फुल्का शाकाहारी खाना खाते हैं, जिसमें मुख्य रूप से सब्जियां और फल शामिल होते हैं।

मानसिक सुकून के लिए
श्रीश्री के करीबियों का दावा है कि गुरुदेव को तनाव होता ही नहीं है। योग और प्राणायाम मन को शांत रखने में काफी मददगार साबित होता है और वह इनमें कभी कटौती नहीं करते।

लगातार काम है पहचान
श्रीश्री लगातार काम में जुटे रहते हैं। कभी भी एनर्जी कम नहीं होती। टीचर मीट के दौरान श्रीश्री खुद योग कराते हैं। इसके अलावा, वह लगातार यात्रा करते हैं। कुछ समय अमेरिका में बिताते हैं तो कुछ समय जर्मनी आश्रम में। 155 देशों में आर्ट ऑफ लिविंग है और करीब 40-45 देशों की यात्रा वह हर साल करते हैं। नवरात्रि के समय श्रीश्री बेंगलुरु आश्रम में रहते हैं और पहले पांच दिन पूरे मौन व्रत में रहते हैं। आश्रम में जो विवाह होते रहते हैं, उनमें भी वह जाते हैं। वह आर्ट ऑफ लिविंग से जुड़े डिपार्टमेंट्स और प्रोजेक्ट्स (गौशाला, फार्म, आयुर्वेद फैक्ट्री आदि) में कहीं भी, कभी भी सरप्राइज विजिट करते हैं।

सेहत को बेहतर बनाने के टिप्स
श्रीश्री का कहना है कि हर शख्स को कुदरत के साथ कुछ समय देना चाहिए। रोजाना कम-से-कम आधा घंटा म्यूजिक सुनना चाहिए। म्यूजिक सुनने से लेफ्ट ब्रेन और राइट ब्रेन की एक्टिविटी में बैलेंस बनता है। सुबह एक्सरसाइज, योग-प्राणायाम और सैर करना करना अच्छा है।

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मेड रखते हुए किन बातों का रखें ध्यान...

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नोएडा के सेक्टर 76 में नौकरों की पत्थरबाजी के बाद लोग काफी डर गए हैं कि कहीं ऐसा कोई हादसा उनके साथ न हो जाए। अपने घर के लिए मेड चुनते हुए किन बातों का रखें ध्यान और मेड के साथ कैसे करें बर्ताव, ऐसे तमाम मसलों का हल जानिए...

केस 1: गुड़गांव में रहनेवालीं ज्योति मान को घर में काम करने के लिए फुलटाइम मेड की जरूरत थी। उन्होंने अखबार में छपे एक ऐड में दिए नंबर पर कॉल किया। खुद को एजेंट बताने वाले शख्स ने 30 हजार रुपये कमिशन और 6 हजार रुपये महीना सैलरी की बात की। मामला तय होने पर कथित एजेंट शाम को ही एक लड़की लेकर ज्योति के पास पहुंच गया। कमिशन के 30 हजार रुपये लेकर वह शख्स लौट गया और लड़की को वहीं छोड़ दिया। सुबह जब ज्योति की आंख खुली और उन्होंने घर से मेड को गायब देखा। साथ ही, गोल्ड की एक चेन, 2 महंगी साड़ियां, 10 हजार रुपये भी गायब थे। घबराकर ज्योति ने एजेंट के नंबर पर कॉल किया तो वह बंद मिला। वह हज्बैंड के साथ ऐड में छपे एड्रेस पर गईं तो वहां ताला लगा मिला। पुलिस में शिकायत की तो पहले तो पुलिस ने उन्हें फटकारा कि उन्होंने बिना जांच-पड़ताल के मेड क्यों रखी? फिर पुलिस ने जांच की तो पता लगा कि वह एजेंसी फ्रॉड थी। ज्योति को अपना सामान और पैसा वापस नहीं मिला।

देखें: मेड चुनते समय इन बातों का रखें ध्यान

केस 2: नोएडा के सेक्टर 35 में रहनेवालीं मालती मोहन ने सोसायटी के गेट पर गार्ड से कहकर एक लड़की पूजा को दिन भर के लिए काम पर रखा। लड़की की उम्र करीब 16 साल थी और पास की बस्ती में रहती थी। बहुत जल्दी उसने घर का सारा काम संभाल लिया और मालती का भरोसा भी जीत लिया। लेकिन धीरे-धीरे घर से चीजें गायब होने लगीं। मालती पूजा से पूछती तो वह कह देती कि घर में ही होगा, दीदी। मालती भी सोचती कि यहीं होगा लेकिन एक दिन मालती की डायमंड रिंग गायब हो गई तो उसने सख्ती से पूजा से पूछा। उसने रिंग के अलावा 15 हजार रुपये, सूट, साड़ी, बच्चे के कपड़े और न जाने क्या-क्या चुराने की बात कबूली। पूछताछ में पता लगा कि पूजा मालती से छुपाकर चीजें घर की छत पर रख आती थी और शाम को घर जाते हुए लेकर चली जाती थी। पूजा नाबालिग थी इसलिए मालती पुलिस में शिकायत भी नहीं कर पाई। किसी तरह पूजा के घरवालों से बात करके मालती को सिर्फ रिंग वापस मिली।

केस 3: राखी झारखंड से दिल्ली काम की तलाश में आई और एक प्लेसमेंट एजेंसी ने उसे लोदी कॉलोनी में निशा मोहंती के घर में काम पर लगवा दिया। निशा किराये पर रहती थीं। कुछ ही दिन बाद उन्होंने घर बदल लिया। राखी के पास फोन नहीं था। निशा के फोन पर ही एजेंसी वाले और राखी के घरवालों से बात होती थी। घर बदलने के बाद निशा ने एजेंसी वालों को न नया एड्रेस बताया और न ही फोन पर राखी की बात कराई। किसी तरह महीनों के बाद एक दिन राखी एजेंसी लौटी तो देखा कि उसके हाथों पर चोटों के कई निशान हैं। पता लगा कि निशा छोटी-छोटी बातों पर उसके साथ मारपीट करती थी और उसे ढंग से खाना भी नहीं देती थीं। राखी ने इन महीनों में काफी टॉर्चर झेला।

इन सब उदाहरणों से पता लगता है कि ऐसे तमाम मामले हैं, जिनमें लोग मेड के सताए हुए हैं, वहीं कुछ मामलों में मेड भी अपने एम्प्लॉयी की बेरहमी का शिकार होती है। इन सब मामलों के बीच मेड मैनेजमेंट सीखना बहुत जरूरी है।

मेड रखते हुए क्या देखें


- सबसे पहले देखें कि आपको कैसी मेड चाहिए, मसलन फुल टाइम यानी 24 घंटे के लिए, दिन भर यानी 12 घंटे के लिए, झाड़ू-पोछा, बर्तन मांझने या कुकिंग आदि कामों के लिए घंटे, 2 घंटे की मेड। 24 घंटे की मेड आमतौर पर लोग प्लेसमेट एजेंसी से लेते हैं, जबकि 12 घंटे या छोटे-मोटे काम के लिए लोकल, गली-मोहल्ले में एक-दूसरे से पूछकर। हालांकि कुछ लोग 12 घंटे या कुक रखते हुए भी एजेंसी की मदद लेते हैं। 24 घंटे वाली मेड में 3-4 कैटिगरी होती हैं: अनट्रेंड, सेमी ट्रेंड, फुल ट्रेंड और बेबी सिटर (आया)। इसके अलावा देखें कि आपको नौकर चाहिए या नौकरानी। अगर आप अकेली हैं, बुजुर्ग हैं या घर में छोटी बच्ची है तो नौकरानी रखना बेहतर है।

- सबसे जरूरी है कि आप जिसे काम पर रखना चाहते हैं, वह अडल्ट (18 साल या ज्यादा) होना चाहिए। उसका ऐज सर्टिफिकेट मांगें। साथ ही, उसके एड्रेस प्रूफ के लिए भी डॉक्युमेंट्स देखें। बेहतर है कि आप मेड का 'आधार' देखें। इन डॉक्युमेंट्स की कॉपी अपने पास रखें। अगर दिल्ली में आप 18 साल से कम और बाकी देश भर में 14 साल से कम उम्र के बच्चे को घरेलू काम के लिए नौकर या मेड रखते हैं तो चाइल्ड लेबर प्रोहेबिशन एंड रेग्युलेशन ऐक्ट के तहत सजा हो सकती है।

- ऐडवोकेट मनीष भदौरिया के मुताबिक अगर आपने नाबालिग मेड रखी और उसने या किसी दूसरे ने शिकायत कर दी तो आपके खिलाफ चाइल्ड लेबर ऐक्ट, जुविनाइल ऐक्ट और बॉन्डिड लेबर ऐक्ट, तीनों के तहत कार्रवाई हो सकती है। इनके तहत जुर्माना और 3 साल तक की कैद हो सकती है। ऐसे में मामले में एम्प्लॉयर के साथ-साथ मेड दिलाने वाली एजेंसी के खिलाफ भी केस दर्ज किया जाएगा।

- मेड रखने से पहले उसका पुलिस वेरिफिकेशन जरूर करा लें क्योंकि मेड के चोरी आदि करने की स्थिति में भी यह मददगार साबित होगा। वैसे भी दिल्ली में मेड या नौकर का वैरिफिकेशन अनिवार्य है। दिल्ली पुलिस के 'सुरक्षा' ऐप के जरिए भी आप वेरिफिकेशन करा सकते हैं।

- अगर किसी वजह से वेरिफिकेशन नहीं कराया है तो भी उसका फोटो खींचकर अपने पास जरूर रखें।

- एजेंसी या मेड से उन लोगों की जानकारी लें, जहां उसने पहले काम किया है। इन लोगों से मेड के बारे में फीडबैक लें। उनके फीडबैक को अहमियत दें। जैसे कि मालती को पूजा के पुराने एम्प्लॉयी ने बता दिया था कि उसने उनके घर से अंगूठी चोरी की थी, फिर भी मालती ने पूजा को रख लिया।

एजेंसी में क्या देखें

- मेड दिलानेवाली एजेंसी आमतौर पर कमिशन लेती हैं, जोकि 11 महीने के लिए मेड दिलाने के बदले में 20 से 50 हजार रुपये होता है। यह रकम वापस नहीं होती। 11 महीने बाद भी मेड चाहिए तो इतनी ही रकम दोबारा जमा करानी होती है। कुछ एजेंसी साथ में मेड की 2 महीने की सैलरी भी लेती हैं। मेड की एक महीने की सैलरी मोटे तौर पर 4 हजार से 10 हजार के बीच होती है। हालांकि सैलरी को लेकर कोई तय नियम नहीं हैं और न ही सरकार की कोई गाइडलाइंस हैं।

- दिल्ली में फिलहाल करीब 1650 एजेंसियां दिल्ली शॉप्स और एस्टेब्लिशमेंट ऐक्ट के तहत रजिस्टर्ड हैं। हालांकि अनुमान है कि करीब 3000 से ज्यादा एजेंसियां मेड मुहैया कराने का काम कर रही हैं और इनमें से करीब आधी से ज्यादा रजिस्टर्ड नहीं हैं। आप जिस एजेंसी से मेड लेना चाहते हैं, चेक करें कि वह लेबर ऐक्ट के तहत रजिस्टर्ड है या नहीं। जो एजेंसी रजिस्टर्ड नहीं है, उससे मेड न लें। एजेंसी का रजिस्ट्रेशन नंबर उसके लेटरहैड के ऊपर लिखा होता है।

- फोन पर संपर्क करने के बजाय खुद एजेंसी के ऑफिस जाएं और पेपर वर्क पूरा करें। एजेंसी की 'टर्म्स एंड कंडिशंस' में आप यह भी जोड़ने को कहें कि लड़की के चोरी आदि करने पर जिम्मेदारी एजेंसी की है।

- एजेंसी के बारे में ऑनलाइन फीडबैक के अलावा उसके पुराने क्लाइंट्स से भी फीडबैक लें। एजेंसी से दूसरे क्लाइंट्स का नंबर लेकर उनसे एजेंसी की विश्वसनीयता का पता करें। अगर वह नंबर देने से इनकार करे तो आप वहां से मेड लेने का इरादा छोड़ दें।

अपनी सुरक्षा अपने हाथ

- अपने घर में सीसीटीवी कैमरे लगवाएं ताकि आप मेड्स की हरकतों पर नजर रख सकें। अगर आप वर्किंग हैं तो सीसीटीवी को अपने मोबाइल से कनेक्ट करके रखें ताकि आप ऑफिस से ही उस पर निगाह रख सकें।

- अपनी कीमती चीजें खासकर जूलरी, लैपटॉप, कैमरा और कैश किसी अलमारी में रखें और उस पर हमेशा ताला लगाकर चाबी अपने पास रखें। मेड से सामने कीमती चीजें या सामान आदि न निकालें, न ही उसे रखने को दें। महंगी चीजों को लेकर न तो आलस ठीक है और न ही किसी पर जरूरत से ज्यादा भरोसा।

- अगर सुबह से शाम वाली मेड है तो शाम में जब वह घर लौटे तो ध्यान से देखें कि वह कोई चीज लेकर तो नहीं जा रही। ऐसा न हो कि वह जा रही हो और आप कमरे या किचन के अंदर ही बैठे रहें।

- घर में बच्चा है तो उसे पूरी तरह मेड के भरोसे न छोड़ें। ऐसा न हो कि वह उसके बिना रहने में दिक्कत करे या फिर वह बहला-फुसला कर उसे अपने साथ कहीं ले जाए। बच्चे को सिखाएं कि मेड के साथ ममा-पापा को बिना बताए कहीं न जाए। अगर बच्चा छोटा है और उसके सेहत में तेजी से गिरावट लगे या बर्ताव में कुछ अजीब लगे तो मेड से पूछताछ जरूर करें। उस पर निगाह पर रखें कि कहीं वह कुछ गड़बड़ तो नहीं कर रही।

- अगर 24 घंटे की मेड है तो रात में घर में अंदर से ताला लगाकर रखें और चाबी अपने पास रखें।

मेड भी इंसान है...

- मेड के साथ पहले से तय कर लें कि वह महीने में कितनी छुट्टियां लेगी। कभी-कभार जरूरत पड़ने पर इससे ज्यादा छुट्टी ले तो नाराज न हों। कई बार छुट्टी की जरूरत अचानक पड़ जाती है। लेकिन अगर बार-बार छुट्टी ले तो बता दें कि आप सैलरी काटेंगी।

- त्योहार पर उसे छुट्टी दें तो बेहतर है क्योंकि वह भी अपने परिवार के साथ त्योहार मनाना चाहेगी। किसी त्योहार पर बुलाना चाहती हैं तो रिक्वेस्ट कर सकती हैं। ऐसे में उसे एक्स्ट्रा पैसे या गिफ्ट आदि दे दें।

- अगर मेड बहुत कम छुट्टी लेती है तो आप हर महीने उसे अलग से कुछ रकम दे सकती हैं, जोकि उसके लिए एक तरह का इनाम होगा।

- मेड को त्योहार आदि पर नए कपड़े दिलवाएं। अगर घर में बच्चे का बर्थडे या कोई और पार्टी है तो उसे साफ और नए कपड़े पहनने को बोलें और उसे भी फंक्शन का हिस्सा बनाएं। दिन भर बच्चे को संभालने वाली मेड बच्चे के बर्थडे की पार्टी में शामिल न हो, यह अच्छी बात नहीं है।

- घर में इस्तेमाल करने के लिए जो चीजें मसलन तेल, साबुन, डिटर्जेंट आदि दे रही हैं, उन पर निगाह रखें। हालांकि थोड़ा-बहुत ज्यादा खर्च हो तो झगड़े नहीं लेकिन अगर बहुत ज्यादा चीजें गायब हो रही हैं तो उससे पूछें। अगर वह सामान चुरा रही होगी और स्वीकार नहीं करेगी तो भी आगे से संभल जाएगी।

- 24 घंटे की मेड है तो कभी-कभार उसे भी अपने साथ आउटिंग या मूवी के लिए बाहर ले जाएं। इससे उसका मन लगा रहेगा।

- अपनी मेड का बर्थडे मनाएं। इससे उसे अच्छा लगेगा।

- मेड के बच्चे के एडमिशन और इलाज आदि में मदद कर दें। उसे मोबाइल बैंकिंग, गूगल मैप आदि इस्तेमाल करना सिखाएं। इससे उसका आपके साथ भावनात्मक लगाव बढ़ेगा।

- घर का कुछ काम आप खुद भी करें। सारा बोझ उस पर न लादें। आखिरकार घर तो आपका ही है। जाहिर है, आपकी जिम्मेदारी सिर्फ हुक्म चलाने भर से पूरी नहीं हो जाएगी।

- अगर 24 घंटे की मेड है और उसके पास मोबाइल नहीं है तो अपने फोन से हफ्ते-10 दिन में एक बार उसके घर बात कराएं। अगर उसके पास अपना मोबाइल है तो उसे मोबाइल हर वक्त न देकर उसके लिए सुबह और शाम का कोई वक्त तय कर दें, जब वह मोबाइल यूज कर सकती है। हालांकि वह क्या बातचीत करती है, इस पर भी निगाह जरूर रखें।

सिर पर न चढ़ाएं

- मेड से बहुत ज्यादा घुले-मिले नहीं। अपने घर या आस-पड़ोस की बातें ज्यादा शेयर न करें। उससे पड़ोसियों के बारे में जानकारी लेने की भी कोशिश न करें। अगर दूसरों के घर की जानकारी आपको देगी तो आपके घर की बातें भी दूसरों को बताएगी। इसी तरह उसे सिर पर न चढ़ाएं, न ही उसे अपनी सास बनने दें कि वह आपको हुक्म देने लगे। मसलन आपसे कहने लगे कि साहब को प्लेट क्यों उठाने देती हैं या फिर आप इतनी देर तक क्यों सोती रहती हैं आदि।

- इसका मतलब यह नहीं है कि आप सारा दिन चुप रहें। आप उसके बारे में ज्यादा-से-ज्यादा बातें करें। इससे आपको उसके बारे में अच्छी जानकारी भी हो जाएगी। हां, वह जो जानकारी आपको दे, उसे अपने लेवल पर क्रॉस-चेक भी कर लें। मसलन अगर वह कहती है कि उसका कोई रिश्तेदार पास में रहता है तो वहां एक बार जाकर देख लें कि वह सच बोल रही है या नहीं। इससे मेड को यह भी पता लग जाएगा कि आप हर बात पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं करतीं।

- मेड को फटे-पुराने कपड़े न दें। हां, अगर वह मागे तो आप पुराने कपड़े भी दे सकती हैं लेकिन कपड़ों की हालत खराब नहीं होनी चाहिए। साफ-सुथरे और धुले कपड़े दें।

- मेड के साथ खाने में भेदभाव न करें। आप जैसा खाना खाते हैं, वही खाना उसे भी दें वरना वह चोरी करके खाने की कोशिश करेगी। वैसे भी यह इंसानियत के खिलाफ है कि आप पकवान खाएं और उसे रूखा-सूखा दें। बचा हुआ और जूठा खाना न दें।

- बीमारी में उसे काम के लिए मजबूर न करें। उसे भी आपकी तरह आराम की जरूरत होती है। इसके अलावा, रुटीन में भी उसे लगातार काम के बोझ में न लादें।

- उसे घर का सामान लाने के बार-बार ग्रॉसरी स्टोर पर न भेजें।

चोरी करते पकड़े जाने पर क्या करें

- मन को शांत रखें और उससे मारपीट न करें। पहले उससे प्यार से पूछें। कबूल नहीं करने पर सख्ती से पूछें लेकिन मारपीट न करें।

- आप जो भी पूछताछ करें, कैमरे के सामने करें और विडियो रिकॉर्डिंग कर लें। ऐसे मौके पर घर के पुरुष के साथ महिला भी हो तो बेहतर है, वरना घर के पुरुष के ऊपर कोई आरोप भी लगाया जा सकता है।

- मेड को सोसायटी या कॉलोनी के गार्ड को न सौंपे। गार्ड अगर उसके साथ मारपीट करेगा तो भी आप फंस सकते हैं। वैसे भी गार्ड के पास उसे पकड़ने या उससे पूछताछ करने की अथॉरिटी नहीं होती।

- पुलिस को कॉल करके सारे मामले की जानकारी दें। खुद कोई कदम न उठाएं।

आखिर में...

कोशिश करें कि मेड पर आपकी निर्भरता कम-से-कम हो। इसके लिए अपना काम खुद करने की आदत डालें। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों की तरह सभी मेंबर घर का काम मिलकर करें। इस तरह मेड की जरूरत ही खत्म हो जाएगी और आप ज्यादा फिट भी रहेंगे।

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कोच, कैप्टन और केमिस्ट्री

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इंडियन क्रिकेट में उथल-पुथल का दौर है। फैंस चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल में पाकिस्तान से हार को पचा नहीं पा रहे थे कि कोच और कैप्टन के बीच का विवाद खुलकर सामने आ गया। इस विवाद ने कोचिंग के अंदाज को लेकर बहस शुरू कर दी। कैप्टन और कोच के आपसी तालमेल और विवादों का जायजा ले रहे हैं नीरज झा

23 जून 2016, वह दिन था, जब कप्तान विराट कोहली ने नए कोच का टीम में दिल खोलकर स्वागत किया और टीम की तरक्की में पूरा सहयोग देने का भरोसा जताया था। 'Heartiest welcome to @anilkumble1074 Sir. Look forward to your tenure with us. Great things in store for Indian Cricket with you.' इसके बाद हाल-फिलहाल में कोहली ने कुंबले के लिए किया गया यह वेलकम ट्वीट डिलीट कर दिया। इसी से कुंबले और कोहली के बीच विवाद की कहानी का अंदाजा लगाया जा सकता है।

कहां से शुरू हुआ विवाद
2016 के कोच पद के लिए अनिल कुंबले और रवि शास्त्री आमने-सामने थे। बीसीसीआई ने कोच को चुनने के लिए क्रिकेट एडवाइजरी कमिटी का गठन किया था। इस कमिटी में सचिन तेंडुलकर, वी.वी.एस. लक्ष्मण और खासकर सौरव गांगुली का होने से कुंबले के कोच बनने की राह आसान हो गई। सौरव गांगुली और रवि शास्त्री एक-दूसरे को पसंद नहीं करते, यह बात भी अब किसी से छुपी नहीं है। जो कुंबले को जानते हैं, उन्हें पता है कि वह एक बेहतरीन इंसान हैं, उसूलों के पक्के हैं और किसी मुद्दे पर जल्दी समझौता नहीं करते। इसके बाद कोहली और कुंबले ने पहली बार वेस्टइंडीज में साथ काम किया और सीरीज़ जीत के बाद लगने लगा था कि भारतीय टीम को कोच और कप्तान के रूप में एक सही जोड़ी मिल गई है। लेकिन एक साल के अंदर ही दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला भी टूट गया। कहा गया कि दोनों के बीच छह महीने से बोलचाल बंद थी। टीम के 10 खिलाड़ियों ने भी विराट का समर्थन करते कुंबले को एक्सटेंशन देने के खिलाफ बीसीसीआई से गुहार लगाई। सबसे हास्यास्पद बात यह रही कि जब पूरे देश की नजर चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल पर टिकी थीं (जहां चिर-परचित प्रतिद्वंदी पाकिस्तान सामने था), उससे सिर्फ एक दिन पहले बीसीसीआई और कोच कमिटी कुंबले और विराट के बीच की लड़ाई को सुलझाने में लगे थे। यह मानना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि कहीं-न-कहीं इसका असर हमें फाइनल में भी देखने को मिला।

दरार की वजह
• कुंबले-कोहली विवाद की शुरुआत ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सीरीज में धर्मशाला टेस्ट के दौरान हुई। रांची टेस्ट में चोटिल हुए विराट धर्मशाला टेस्ट में खेलने के लिए फिट नहीं थे। अजिंक्य रहाणे टीम के कप्तान थे। इस मैच में चाइनामैन गेंदबाज कुलदीप यादव को मौका दिया गया। कोहली इसके खिलाफ थे। वह अमित मिश्रा को खिलाना चाहते थे।

• विराट को लगता था कि अनिल कुंबले उनके अधिकार क्षेत्र में दखल देते हैं। •टीम का मानना था कि कुंबले का कुछ पत्रकारों से साथ बेहद करीबी संपर्क है, जिनके साथ उन्होंने कोहली और दूसरे खिलाड़ियों के बारे में कई गोपनीय बातें साझा की हैं। •विराट हमेशा से रवि शास्त्री को कोच चाहते थे और यही वजह रही कि वह कुंबले को अपना नहीं पाए।

• उधर, बीसीसीआई को दी रिपोर्ट में कुंबले ने कोच की कमाई कप्तान की कमाई का 60 फीसदी होने की मांग रखी थी।• सूत्रों के मुताबिक कुंबले अहम टूर्नामेंट में पत्नी या फिर गर्लफ्रेंड को साथ रखने के भी खिलाफ थे। इस तरह की बातें खिलाड़ियों को रास नहीं आईं।

क्रिकेट के दिग्गजों की राय
इस मसले पर भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान सुनील गावस्कर ने कुंबले का खुलकर समर्थन किया और कहा कि अगर कप्तान की ही पसंद इतनी मायने रखती है तो फिर क्रिकेट एडवाइजरी कमिटी की जरूरत क्या है? कप्तान कोहली से पूछ लिया जाए कि वे किसे कोच चाहते हैं। इससे काफी लोगों का समय बचेगा। उन्होंने कहा कि पिछले एक साल से कुंबले बतौर टीम कोच अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभा रहे थे। खिलाड़ियों की मांग गलत है, उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। वहीं पूर्व क्रिकेटर बिशन सिंह बेदी ने कुंबले के कोच के पद से हटने के फैसले का समर्थन किया। बेदी मानते हैं कि कुंबले सरीखे खिलाड़ी ऐसे माहौल में अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं कर सकते और उन्होंने अच्छा किया कि इससे बाहर आ गए।

भारतीय कोच का रिपोर्ट कार्ड (2000 से )
कोच
जीत प्रतिशत
जॉन राइट 48.6
ग्रैग चैपल 49.4
गैरी कर्स्टन 58.3
डंकन फ्लेचर 53.8
रवि शास्त्री 59.1
अनिल कुंबले 62.9

कोचिंग के अलग-अलग स्टाइल
1990 के दशक के शुरुआती दिनों में बिशन सिंह बेदी को पहली बार भारतीय टीम का कोच नियुक्त किया गया था। अगर हम बिशन सिंह बेदी और अजीत वाडेकर के वक्त से, हाल के गैरी कर्स्टन और डंकन फ्लेचर की तुलना करें तो एक कोच की भूमिका और ज्यादा अहम हो गई है क्योंकि टीम ज्यादा प्रफेशनल बन गई है। जहां फुटबॉल में कोच या मैनेजर के ऊपर सारा दारोमदार होता है, वहीं क्रिकेट में कोच का रोल एक सहायक का होता है और आखिरी फैसले का हक कप्तान के पास ही होता है। लेकिन समय के साथ गेम भी बदल रहा है और कोचिंग का स्टाइल भी, मसलन जब जॉन राइट मुंबई इंडियंस के कोच थे तो नए खिलाड़ी उन्हें सर कहकर संबोधित करते थे। जॉन ने उन्हें सर के जगह नाम लेकर संबोधित करने को कहा। विदेशों में कोच का ऐसा दोस्ताना रवैया काफी पुराना रहा है लेकिन अपने देश में यह कल्चर जॉन राइट के जमाने से शुरू हुआ।

कर्स्टन का तरीका
कोच गैरी कर्स्टन के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देखा। कर्स्टन और उनकी टीम ने, जिसमें मानसिक कंडिशनिंग कोच पैडी अप्टन भी शामिल थे, मेंटल स्ट्रेंथ बढ़ाने पर काफी जोड़ दिया। कर्स्टन ने रिश्तों के बनाने रखने को भी काफी अहमियत दी। एम. एस. धोनी ने गैरी के कोच के रोल को 'भारतीय क्रिकेट के लिए सबसे अच्छी बात' कही थी।

रवि शास्त्री स्कूल ऑफ कोचिंग
शास्त्री का स्टाइल कुंबले के तरीके से बिलकुल ही अलग है। उन्हें पता है कि खिलाड़ियों के खेलने के अपने-अपने तरीके हैं और उसमें ज्यादा बदलाव नहीं किया जा सकता। मैन मैनजमेंट में वह माहिर हैं और रिश्तों के आधार पर ही बड़े-बड़े काम निकलवा लेते हैं। वह खिलाड़ियों को ज्यादा रोकने-टोकने में विश्वास नहीं रखते। मैदान के बाहर मौज-मस्ती करने की भी छूट देते हैं। शायद यही वजह है कि वह नए खिलाड़ियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं।

लंबे समय से चल रहे हैं विवाद
कुंबले-विराट विवाद कोई नया नहीं है। इससे पहले भी कोच और कप्तान में कई बार आपसी तकरार होती रही है। मार्क टेलर और माइकल क्लार्क़े के बीच ज़िम्बाब्वे से मिली हार के बाद की बहस हो या फिर दिग्गज ब्रायन लारा और क्लाइव लॉयड के बीच की लड़ाई। उपमहाद्वीप में भी ऐसी कई तकरारें हुई हैं।

सौरव गांगुली और ग्रेग चैपल
सौरव गांगुली और ग्रेग चैपल की कहानी को इतिहास में सबसे बड़ा कप्तान-कोच विवादों में से एक कहा जा सकता है। 2005 में जिम्बाब्वे टूर के दौरान चैपल ने सौरव को कप्तानी छोड़ने को कहा और यह भी कहा कि उन्हें अपनी बैटिंग पर ध्यान देना चाहिए। बात यहां तक पहुंच गई कि उन्हें 11 खिलाड़ियों में जगह बनाने के लिए जद्दोज़हद करनी पड़ी क्योंकि चैपल युवराज सिंह और मोहम्मद कैफ को टीम में रखना चाहते थे। टीम चयन में चैपल के बढ़ते दखल पर गांगुली ने सवाल उठाए तो चैपल ने बीसीसीआई को पत्र लिखकर कहा कि गांगुली टीम का नेतृत्व करने के लिए 'फिट' नहीं थे और उनका नकारात्मक रवैया टीम के लिए घातक साबित हो सकता है। बाद में गांगुली को कप्तानी से मुक्त कर दिया गया।

सचिन तेंडुलकर और कपिलदेव
सचिन तेंडुलकर और कपिलदेव के बीच भी अनबन की कई कहानियां है। सचिन ने अपनी आत्मकथा 'प्लेइंग इट माय वे' में भी इसका उल्लेख किया है। 1999 में कप्तान बने सचिन ने कपिल देव की कोचिंग तकनीक से नाखुश थे। सचिन ने लिखा, 'मैंने हमेशा कहा है कि कोच का रोल काफी अहम होता है क्योंकि टीम की रणनीति तैयार करने में उनकी भूमिका अहम होती है।' सचिन भारत के कप्तान के रूप में कामयाब नहीं हुए और 2000 में कप्तान पद से इस्तीफा दे दिया।

शाहिद अफरीदी और वकार यूनिस
2011 में वकार यूनुस पाकिस्तान टीम के कोच थे जबकि शाहिद अफरीदी के हाथों में वन-डे और टी-20 टीम की कमान थी। वेस्टइंडीज के खिलाफ खराब प्रदर्शन के बाद, वकार ने अफरीदी को एक रिपोर्ट में 'अपरिपक्व और अनुशासनहीन' कहा। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने शाहिद अफरीदी को तब कप्तान के रूप में बर्खास्त कर दिया था, जबकि वकार यूनुस ने कोच के तौर पर पहले ही इस्तीफा दे दिया था।

आखिर में
भारत ने विदेशों से ही कोच चुनने की प्रक्रिया सीखी है लेकिन भारत और दूसरे मुल्कों में एक फर्क है, कोच चुनने में वहां कप्तान का कोई भी रोल नहीं होता। एशियाई टीमों के अलावा क्रिकेट खेलनेवाले दूसरे देश जब भी कोच की तलाश करते हैं तो उनकी बेसिक डिमांड में लेवल 2 या लेवल 3 कोचिंग का अनुभव जरूरी होता है, और यहीं पर फर्क साफ देखा जा सकता है। शायद यही वजह है कि अफगानिस्तान को छोड़कर कोई भी बड़ी टीम का कोच भारत से नहीं है।

क्या कहते हैं खिलाड़ी और कोच

गैरी कर्स्टन बतौर कोच लाइमलाइट से दूर रहना पसंद करते थे। वह हर मैच से पहले टीम को जीत का भरोसा देते हुए कहते थे, 'हम जीत सकते हैं, और कहीं भी जीत सकते हैं। उन्होंने हमें दुनिया की नंबर एक टीम बनने में मदद की और 28 साल बाद वर्ल्ड कप जिताने में उनका अहम रोल रहा।'
-हरभजन सिंह, पूर्व क्रिकेटर

कर्स्टन कभी निगेटिव बातें करना पसंद नहीं करते थे। और जब भी किसी को कोई समस्या होती थी, वह हमेशा समाधान के साथ तैयार रहते थे। सबसे खास बात यह है कि उन्होंने युवा खिलाड़ियों को बताया कि जब आप एक महान खिलाड़ी बन जाते हैं, तो आपको पता होना चाहिए कि अपनी निजी जिंदगी और अपनी लोकप्रियता को कैसे संभालना है।
-सुरेश रैना, क्रिकेटर, टीम इंडिया

कोच का काम सिर्फ सुझाव देना है। अब यह खिलाड़ी पर निर्भर करता है कि वे सलाह मानते हैं या नहीं। खिलाड़ी कितना सीखते है, यह पूरी तरह से निर्भर करता है कि कोच कितनी आसानी से अपने बात को खिलाड़ियों को समझा सकता है। -
भारत अरुण, टीम इंडिया के गेंदबाजी कोच

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सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि दहेज प्रताड़ना से जुड़े मामलों में पुलिस सीधे आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती। अदालत ने कहा कि ऐसे मामले को देखने के लिए परिवार कल्याण समिति बनाई जाए और केस उसे भेजा जाए। जब तक इस समिति की रिपोर्ट न आ जाए तब तक गिरफ्तारी न की जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक व्यवस्था से पहले भी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना मामले में कई फैसले दिए हैं। अब नए सिरे से इस मामले में गाइडलाइंस जारी हुई हैं। पेश है पूरे मामले का लेखाजोखा...

मौजूदा फैसला एक नजर में
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एके गोयल और जस्टिस यूयू ललित की बेंच ने राजेश शर्मा बनाम स्टेट ऑफ यूपी के केस में दहेज प्रताड़ना मामले में छानबीन को लेकर गाइडलाइंस जारी किए हैं। याचिका में दहेज कानून के दुरुपयोग रोकने के लिए निर्देश जारी करने की मांग की गई थी।

क्या है गाइडलाइंस
- ऐसे मामले में न्याय प्रशासन को सिविल सोसायटी का सहयोग लेना चाहिए।
- देश भर के तमाम जिलों में परिवार कल्याण समिति बनाई जाए और ये समिति जिला लीगल सर्विस अथॉरिटी बनाए।
- समिति में लीगल स्वयंसेवक, सामाजिक कार्यकर्ता, रिटायर शख्स होंगे।
- जो भी केस पुलिस या मजिस्ट्रेट के सामने आएगा वह समिति को भेजा जाएगा।
- समिति तमाम पक्षों से बात करेगा और एक महीने में रिपोर्ट देगा। समिति दोनों पार्टी से फोन पर भी बात कर सकती है। उस रिपोर्ट पर पुलिस और मजिस्ट्रेट विचार के बाद ही आगे की कार्रवाई करेगी।
- जब तक रिपोर्ट नहीं आएगी तब तक किसी भी आरोपी की गिरफ्तारी नहीं होगी।
- अगर मामले में समझौता हुआ तो जिला जज द्वारा नियुक्त मजिस्ट्रेट मामले का निपटारा कराएंगे और फिर मामले को हाई कोर्ट भेजा जाएगा ताकि समझौते के आधार पर केस बंद हो।

क्या है फैसले में
अदालत ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले अरनेश कुमार बनाम बिहार स्टेट के मामले में व्यवस्था दी थी कि बिना किसी ठोस कारण के गिरफ्तारी न हो। यानी गिरफ्तारी के लिए सेफ गार्ड पहले ही दिए गए थे। लॉ कमिशन ने भी कहा था कि मामलों को समझौतावादी बनाया जाए और निर्दोष लोगों के मानवाधिकार को नजरअंदाज न किया जाए। ऐसे में न्याय प्रशासन में सहयोग के लिए सिविल सोसायटी को शामिल करना जरूरी है।

पहले भी हुए हैं कई ऐतिहासिक फैसले
- 7 साल तक की कैद वाले मामले में बिना जस्टिफिकेशन के गिरफ्तारी नहीं होगी।
- 2 जुलाई 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 7 साल तक की सजा के प्रावधान वाले मामले में पुलिस सिर्फ केस दर्ज होने के आधार पर गिरफ्तारी नहीं कर सकती। उसे गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त कारण बताना होगा।
- दहेज प्रताड़ना मामलों से लेकर 7 साल तक की सजा के प्रावधान वाले मामले में बिना पर्याप्त आधार के अगर पुलिस गिरफ्तारी करती है तो उसके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।
- सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सी. के. प्रसाद और पी. सी. घोष की बेंच ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि हमारा मानना है कि किसी की तरह की गिरफ्तारी सिर्फ इसलिए नहीं हो सकती कि मामला गैर जमानती और संज्ञेय है और पुलिस को ऐसा करने का अधिकार है। पुलिस को गिरफ्तारी को जस्टिफाई करना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा-41 में गिरफ्तारी के अधिकार बताए गए हैं। इसके तहत हम बताना चाहते हैं कि धारा-41 के तहत यह साफ है कि पुलिस को 7 साल तक की सजा वाले गैर जमानती मामले में भी गिरफ्तारी से पहले यह संतुष्ट होना होगा कि गिरफ्तारी जरूरी है। अदालत ने कहा था कि वह तमाम राज्य सरकारों को निर्देश देते हैं कि वह पुलिस अधिकारियों को निर्देश जारी करें कि दहेज प्रताड़ना यानी धारा-498 ए के केसों में मामला दर्ज होने के साथ ही आरोपी को गिरफ्तार न करें बल्कि पुलिस पहले संतुष्ट हो कि ऐसा करना जरूरी है। पुलिस जब आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करे तो वह इसके लिए कारण बताए कि गिरफ्तारी क्यों जरूरी थी। उक्त निर्देश का अगर पुलिस पालन नहीं करती तो संबंधित पुलिस कर्मी के खिलाफ डिपार्टमेंटल एक्शन के साथ-साथ अदालत की अवमानना की कार्रवाई होगी। अगर बिना कारण आरोपी को हिरासत में लिया जाता है तो संबंधित मजिस्ट्रेट के खिलाफ संबंधित हाई कोर्ट एक्शन लेगी।

कब गिरफ्तारी, कब नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सीआरपीसी की धारा-41 में गिरफ्तारी के अधिकार बताए गए हैं। ऐसे में जब भी गिरफ्तारी हो इन बातों की संतुष्टि जरूरी है:
- पुलिस जब अभियुक्त को अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने पेश करे तो बताए कि मामले में गिरफ्तारी क्यों जरूरी है।
- पुलिस को लगता है कि अभियुक्त दोबारा अपराध कर सकता है तो पुलिस गिरफ्तार कर सकती है।
- आरोपी द्वारा गवाहों को धमकाने का अंदेशा हो या फिर साक्ष्यों को प्रभावित कर सकता है तो गिरफ्तारी हो सकती है।
- अगर पुलिस को लगे कि छानबीन के लिए गिरफ्तारी करना जरूरी है तो गिरफ्तारी हो सकती है।
- अगर आरोपी की गिरफ्तारी नहीं होती है तो पुलिस दो हफ्ते में मजिस्ट्रेट को ऐसा न होने का कारण बताए।
- अगर बिना कारण आरोपी को हिरासत में रखा जाता है तो संबंधित मजिस्ट्रेट के खिलाफ हाई कोर्ट एक्शन लेगा।
- सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक अगर पुलिस इन निर्देशों का पालन नहीं करती तो उसके खिलाफ विभागीय कार्रवाई और अदालत की अवमानना का केस चलेगा।

हाई कोर्ट के अहम फैसले
धारा-498ए शादी की बुनियाद हिला रहा हैः जस्टिस कपूर
दिल्ली हाई कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जे. डी. कपूर ने 2003 में अपने फैसले में कहा था कि ऐसी आदत जन्म ले रही है, जिसमें कई बार लड़की न सिर्फ अपने पति, बल्कि उसके तमाम रिश्तेदारों को ऐसे मामले में लपेट देती है। धारा-498ए शादी की बुनियाद को हिला रहा है और समाज के लिए यह सही नहीं है। एक बार ऐसे मामले में आरोपी होने के बाद जैसे ही लड़का और उसके परिजन जेल भेजे जाते हैं, तलाक का केस दायर कर दिया जाता है। इसका असर यह हो रहा है कि तलाक के केस बढ़ रहे हैं। अदालत ने कहा था कि धारा-498 ए (दहेज प्रताड़ना) से संबंधित मामलों में अगर कोई गंभीर चोट का मामला न हो तो उसे समझौतावादी बनाया जाना चाहिए।

डीसीपी स्तर के अधिकारी से मंजूरी चाहिएः जस्टिस गंभीर
अगस्त 2008 में हाई कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस कैलाश गंभीर ने कहा था कि पुलिस दहेज प्रताड़ना मामले में लापरवाही से एफआईआर दर्ज नहीं करेगी, बल्कि उसे इसके लिए पहले इलाके के डीसीपी रैंक के अधिकारी से इजाजत लेनी होगी। दहेज प्रताड़ना और अमानत में खयानत के मामले में यह इजाजत जरूरी होगी। कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना मामले में आरोपियों की जमानत अर्जी पर सुनवाई के बाद दिए आदेश में कहा कि ऐसा कोई मामला जब वकील के पास आता है तो उन्हें पहले सामाजिक ड्यूटी निभाते हुए दोनों पक्षों में समझौता कराना चाहिए।

दहेज कानून लीगल टेररिज्म जैसा: जज कामिनी लॉ
मई 2013 में तत्कालीन अडिशनल सेशन जज कामिनी लॉ ने कहा था कि दहेज उत्पीड़न से जुड़े कानून का इन दिनों खूब बेजा इस्तेमाल हो रहा है। कई बार धारा-498ए के जरिए उगाही तक की जाती है। कोर्ट को पता है कि यह लीगल टेररिज़म की तरह है। कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इसके गलत इस्तेमाल को देखते हुए इसे लीगल टेररिजम कहा था।

क्या कहता है कानून
दहेज हत्या और दहेज प्रताड़ना मामले में पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ केस दर्ज किए जाने का प्रावधान है।

रिश्तेदार कौन-कौन
पति के उन रिश्तेदारों के खिलाफ ही दहेज हत्या के तहत मामला बन सकता है जो खून के रिश्ते, गोद लिए रिश्ते या फिर शादी के रिश्ते के दायरे में आते हों। सुप्रीम कोर्ट ने 2 जुलाई 2014 को दहेज हत्या के एक मामले में यह व्यवस्था दी।

दहेज प्रताड़ना कानून
1983 में आईपीसी के प्रावधानों में बदलाव कर धारा-498 ए (दहेज प्रताड़ऩा) का प्रावधान किया गया। इसके अलावा दहेज प्रताड़ऩा की शिकायत पर पुलिस धारा-498 ए के साथ-साथ धारा-406 (अमानत में खयानत) का भी केस दर्ज करती है। दहेज प्रताड़ना में अधिकतम 3 साल कैद की सजा का प्रावधान है। यह गैर समझौतावादी है यानी दोनों पक्ष आपसी सहमति से अगर केस खत्म भी करना चाहते हैं तो मामले में हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल करनी होगी कि समझौता हो गया है और तब हाई कोर्ट के आदेश से केस रद्द हो सकता है।

दहेज हत्या यानी 304 बी
1986 में धारा-304 बी (दहेज हत्या) का प्रावधान किया गया। शादी के 7 साल के दौरान अगर महिला की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो जाए और उससे पहले दहेज के लिए उसे प्रताड़ित किया गया हो तो दहेज प्रताड़ना के साथ-साथ दहेज हत्या का भी केस बनता है। इसमें कम-से-कम 7 साल और अधिकतम उम्रकैद की सजा हो सकती है।

कानूनी जानकारों की राय

विशेष आरोपों के बिना परिजनों को नहीं लपेटा जाना चाहिए
एडवोकेट नवीन शर्मा के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि दहेज के मामलों में खास आरोपों के बिना परिवार के दूसरे सदस्यों को नहीं लपेटा जाना चाहिए। एफआईआर में नाम हो लेकिन उसका ऐक्टिव रोल या विशेष भूमिका न हो तो यह न्यायसंगत नहीं है कि ऐसे मामले में आरोपी के खिलाफ संज्ञान लिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी हुई है कि दहेज से संबंधित केस में पति के परिवार वालों को सिर्फ इस आधार पर शामिल नहीं करना चाहिए कि उनका नाम शिकायती ने लिया है और एफआईआर में नाम हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अदालत को दहेज के मामले में संज्ञान लिए जाने के मामले में हमेशा सचेत रहना चाहिए क्योंकि कई बार ऐसे मामले भी देखने को मिलते हैं कि लड़की शादी के बाद नए माहौल में मामूली कहासुनी के कारण इस तरह के आरोप लगा देती है या मामूली घरेलू विवाद के दौरान पूरे परिवार को फंसा दिया जाता है।

तमाम वैवाहिक विवादों को घरेलू हिंसा कानून के दायरे में लाया जाए
सीनियर एडवोकेट रमेश गुप्ता के मुताबिक दहेज प्रताड़ना मामले में सबसे अहम यह है कि तमाम अलग-अलग कानूनी प्रावधानों को एक घरेलू हिंसा कानून के तहत लाया जाना चाहिए। दरअसल आईपीसी में 498 ए का प्रावधान है। साथ ही स्त्रीधन ससुरालियों के पास रखे जाने की स्थिति में 406 यानी अमानत में खयानत का केस बनता है। गुजारा भत्ता के लिए सीआरपीसी की धारा-125 का इस्तेमाल होता है। साथ ही दहेज निरोधक कानून 1961 बना हुआ है। ऐसे में बेहतर है कि तमाम वैवाहिक विवादों से संबंधित मामले को एक जगह लाया जाए। इसके लिए पहले से घरेलू हिंसा कानून है और उसमें दूसरे प्रावधान बनाकर इसे एक जगह देखा जाना चाहिए। पहले से निचली अदालत में फैमिली कोर्ट बना हुआ है और वहां इन मामलों को देखा जाना चाहिए। पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने अरनेश कुमार से संबंधित मामले में साफ कर रखा है कि गिरफ्तारी सीधे नहीं हो सकती। साथ ही जब भी दहेज प्रताड़ना का केस आता हो तो पहले महिला सेल में समझौते की कोशिश होती है। ऐसे में मध्यस्थता का रास्ता पहले से मौजूद है। सबसे जरूरी है कि तमाम मामलों को एक जगह लाया जाए और वैवाहिक मामलों के लिए घरेलू हिंसा कानून के तहत कार्रवाई हो।

कानून सही तरह से लागू कराने की जरूरत
हाई कोर्ट के रिटायर जस्टिस आर. एस. सोढ़ी का कहना है कि दहेज प्रताड़ना कानून का कई जगहों पर गलत इस्तेमाल हो रहा है। यही वजह है कि समय-समय पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में व्यवस्था देनी पड़ी है लेकिन फिर भी कई बार कानून का गलत इस्तेमाल देखने को मिलता है। इसके लिए हमारी पुलिस और कहीं-न-कहीं सिस्टम जिम्मेदार है। जो भी कानून और अदालत के फैसले हैं, उन्हें पुलिस ढंग से लागू नहीं करती। पुलिस छानबीन के दौरान मनमाना रवैया अपनाती है जिससे कानून पर सही अमल नहीं हो पा रहा। जरूरत मौजूदा कानून और अदालती फैसले को कड़ाई से लागू करने की है। अगर उसके बाद कहीं कोई कमी रह जाती है तो उसे देखना जाना चाहिए। पुलिस अगर अपनी जिम्मेदारी सही से नहीं निभाती तो उसके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।

दूरदराज इलाके में कानून पर अमल करना सुनिश्चित करना होगा
हाई कोर्ट के रिटायर जस्टिस एस. एन. ढींगड़ा बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के तमाम जजमेंट के बाद से दिल्ली जैसे महानगरों में स्थिति काफी बदल गई है। अब दहेज से संबंधित मामले में सीधे पुलिस गिरफ्तारी नहीं करती। पुलिस को इसके लिए डीसीपी लेवल के अधिकारी से इजाजत लेनी होती है और राजधानी दिल्ली समेत बड़े शहरों में सीधे गिरफ्तारी न के बराबर ही होती है। इस मामले में अदालत के फैसलों से फर्क पड़ा है। अब नए जजमेंट के बाद और ज्यादा फर्क होगा। लेकिन दूरदराज के इलाकों में अब भी कानून का सही तरीके से पालन नहीं हो रहा। कानून का ढंग से पालन हो, यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है। देखा जाए तो कानून का तो अक्सर बेजा इस्तेमाल हो सकता है। ऐसे में कानून को खारिज नहीं किया जा सकता बल्कि तंत्र को ठीक किया जाना जरूरी है।

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खूनी खेल 'ब्लू वेल' के बारे में जानिए सबकुछ

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नई दिल्ली
जल्द ही आपके पास सिर्फ एक चीज रह जाएगी और वह होगी मेरी फोटो... 7वीं मंजिल से छलांग लगाने से पहले मुंबई के मनप्रीत ने यह लिखा था। माना जाता है कि 14 साल के मनप्रीत ने ऐसा कदम 'ब्लू वेल चैलेंज' गेम के आखिरी चैलेंज को पूरा करने के लिए उठाया था। मनप्रीत ने अपने दोस्तों को बताया था कि वह ब्लू वेल गेम खेल रहा है। उसने जान देने से पहले सोशल मीडिया पर भी लिखा कि मैं खुदकुशी करने जा रहा हूं। हालांकि मनप्रीत के पैरंट्स इस हादसे के पीछे ऐसी किसी वजह से इनकार कर रहे हैं। बहरहाल, मनप्रीत की खुदकुशी की असलियत तो जांच में सामने आ जाएगी, लेकिन ब्लू वेल चैलेंज जैसे गेम्स ने इंटरनेट गेम्स की काली दुनिया पर बहस छेड़ दी है, क्योंकि इस तरह के गेम्स के शिकार ज्यादातर किशोर होते हैं जोकि मानसिक तौर पर बहुत परिपक्व नहीं होते।

खतरनाक खेलों की काली दुनिया
हाल-फिलहाल के दिनों में ब्लू वेल चैलेंज सबसे खतरनाक गेम रहा है। देश की संसद में भी इसे बैन करने की मांग उठ रही है। यह गेम 2013 में सबसे पहले रूस में सामने आया। करीब 4 साल में इसने दुनिया भर में 250 से ज्यादा लोगों की जान ले ली। अकेले रूस में 130 से ज्यादा मौतें हुईं। इसके अलावा, अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, कुल 19 देशों में इस गेम की वजह से खुदकुशी के कई मामले सामने आए हैं। सवाल है कि आखिर ऐसी जीत किस काम की, जब जीतनेवाले की जिंदगी ही न रहे? बेशक किसी भी जीत के मायने तभी हैं, जब उसे एंजॉय करने के लिए सामने वाला जिंदा हो। तो आखिर ऐसे गेम्स खेलने वालों की मानसिकता क्या होती है?

सायकॉलजिस्ट अरुणा ब्रूटा कहती हैं, 'इस तरह के गेम में फंसनेवाले बच्चों की पर्सनैलिटी कहीं-न-कहीं कमजोर होती है। वे दूसरों से ना नहीं कह पाते और परिवार से भी खुलकर अपनी बातें शेयर नहीं करते। इससे जब सामने से कोई उसे डराता है या उसे अपनी बातों से प्रभावित करने की कोशिश करता है तो वे जल्दी उसके जाल में फंस जाते हैं।'

इन खेलों के साथ दिक्कत यह भी है कि इंटरनेट पर लगाम लगाने वाला कोई नहीं है। मसलन, इंस्टाग्राम पर जब आप ब्लू वेल चैलेंज नाम डालकर सर्च करेंगे तो मेसेज आएगा कि इस शब्द से जुड़ी जानकारी जानलेवा हो सकती है, लेकिन इस मेसेज के ठीक नीचे लिखा होता है: आप चाहें तो आगे बढ़ सकते हैं। जाहिर है, साइबर स्पेस में जिम्मेदारी समझने वालों का घोर अभाव है। ऐसे में उन लोगों को चिंता करने की जरूरत है, जिनके बच्चे इन खतरनाक खेलों के संभावित शिकार हो सकते हैं। सीनियर काउंसलर गीतांजलि शर्मा का कहना है कि पैरंट्स को अपने बच्चों पर निगाह रखनी चाहिए कि वे इंटरनेट पर क्या और कितना देख रहे हैं? बच्चों की संगत का भी ख्याल रखना चाहिए कि बच्चे के दोस्त कौन-कौन हैं? इससे अगर बच्चा किसी गलत संगत में है या कोई उसे भ्रमित कर रहा है तो पैरंट्स को वक्त रहते जानकारी हो जाएगी और वे उससे निपटने के लिए कदम उठा सकेंगे।

इंटरनेट की दुनिया में खतरनाक गेम्स की कमी नहीं है। एक गेम ऐसा है जिसे खेलनेवाला अपने शरीर पर ज्वलनशील चीज डालकर खुद को आग लगा लेता है। वह इसे रिकॉर्ड करता है और फिर सोशल मीडिया पर डालता है। इस गेम का पहला शिकार साल 2012 में सामने आया था। कई युवा इस चैलेंज को करते वक्त बुरी तरह जल गए और कुछ की मौत भी हो गई। इसी तरह, एक गेम में खेलने वालों को कुछ ऐसा करना होता है कि ब्रेन को पूरा ऑक्सीजन न मिले और वह बेहोश हो जाए। इस गेम में जान-बूझकर ब्रेन तक पूरा ऑक्सिजन नहीं पहुंचने दिया जाता ताकि बेहोशी का लक्ष्य हासिल किया जा सके। एक स्टडी के अनुसार, अमेरिका में 9 से 16 साल तक के बच्चे इस गेम को ज्यादा खेलते हैं। इस गेम को खेलते हुए कई बच्चों को जान भी गंवानी पड़ी है। दूसरों को तंग करने वाले एक ऐसे ही दूसरे खतरनाक गेम में सोशल और मेंटल लेवल पर बेहद अपमानजनक और उत्पीड़न की स्थिति पैदा करने वाली स्थिति पैदा की जाती है। इसमें अभद्र संदेश भेजना, गलत अफवाहें फैलाना, गलत पोस्ट करना आदि शामिल है।

क्यों बनाए जाते हैं ऐसे गेम्स?
आखिर मासूमों की जान लेनेवाले ऐसे खतरनाक गेम्स बनाता कौन है और इसके पीछे वजहें क्या होती हैं? ब्लू वेल चैलेंज गेम डिवेलप करने वाले 22 साल के फिलिप बुदिएकिन ने एक इंटरव्यू में कहा कि हां, मैं लोगों को खुदकुशी के लिए उकसाता हूं। जो लोग अपनी जिंदगी की कद्र नहीं करते वे एक तरह से बायॉलजिकल वेस्ट यानी जैविक कचरा हैं। मैं ऐसे ही लोगों को दुनिया से बाहर भेजने का काम कर रहा हूं। जानकारों का कहना है कि इस तरह के खतरनाक गेम्स बनाने के पीछे की असली वजह पैसा और पावर दिखाने की तमन्ना है। सर गंगाराम हॉस्पिटल में कंसल्टंट सायकायट्रिस्ट डॉ. राजीव मेहता कहते हैं, 'ऐसे खतरनाक गेम्स बनाने वालों के मन में भी कहीं-न-कहीं यह भाव रहा होगा कि किस तरह गेम के जरिए कोई उसके इशारे पर नाच रहा है। ऐसे लोग नॉर्मल नहीं होते।'

कहां से आता है खतरे का यह सामान?
इस तरह के गेम्स के पीछे डार्क नेट की बड़ी भूमिका है। यह इंटरनेट का वह रूप है, जिसकी ज्यादातर चीजें और जानकारी कई तहों में छुपी होती हैं और हर किसी के लिए मुहैया नहीं होतीं। डार्क नेट खास तरह के सॉफ्टवेयर या कन्फिग्रेशन पर काम करता है। अक्सर यह कम्यूनिकेशन के लिए अमान्य और गैर-कानूनी तरीकों का इस्तेमाल करता है। डार्क नेट में सबसे कॉमन है फ्रेंड-टु-फ्रेंड (F2F) कंप्यूटर नेटवर्क। इसमें यूजर को यह जानकारी नहीं मिल पाती कि उसके अपने दोस्तों के सर्कल के बाहर और कौन उनकी बातचीत का हिस्सा बन रहा है। इससे F2F बहुत बड़े लेवल पर फैल सकता है और यूजर की पहचान भी छुपी रहती है। इसका इस्तेमाल अक्सर गलत मकसद से किया जाता है, जैसे कि हैकिंग, पोर्नोग्रफी, डेटा चोरी, ड्रग्स की बिक्री, खतरनाक गेम्स को फैलाना आदि।

किशोर ही टारगेट क्यों?
बच्चे भोले होते हैं और वे आसानी से दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं। जहां तक बात ब्लू वेल चैलेंज की है तो यह गेम 50 दिन में पूरा होता है। इस दौरान बच्चे गेम में दिखाए गए झूठ को सच समझने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि कोई भी गेम मनोरंजन और कुछ सीखने के लिए होना चाहिए न कि जान गंवाने के लिए। वे यह नहीं समझ पाते कि किसी भी जीत या रोमांच का मजा तभी है, जब जिंदगी हो। इसके अलावा किशोर अक्सर साथियों के प्रेशर में भी रहते हैं और आसानी से ना नहीं कर पाते। दूसरों से अलग दिखने और करने की चाह में भी वे इस अंधेरे में घिरते जाते हैं। कोई भी गेम, ऐसे केमिकल रिलीज़ करता है, जो खुशी और उड़ान का अहसास कराते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि फिजिकल खेल लंबे समय तक इस भाव को बरकरार रखते हैं, जबकि इस तरह के ऑनलाइन गेम तेजी से यह पैदा करते हैं और फिर तेजी से खत्म भी कर देते हैं। ये खेल किशोरों को एक नकली दुनिया में ले जाते हैं। बकौल ब्रूटा, 'मेरे पास एक लड़का आया। उसने मुझसे कहा कि मैं इंटरनैशनल प्लेयर हूं। मैंने पूछा कि किस खेल का वह प्लेयर है तो उसने कहा कि मैं कंप्यूटर पर स्नूकर खेलता हूं। मेरे साथ अमेरिका, स्पेन और फ्रांस जैसे देशों के खिलाड़ी खेलते हैं। आप सोचिए कि किस कदर वह लड़का सच्चाई से दूर खुद की बनाई दुनिया को ही सच मान रहा था!'

पैरंट्स बढ़ाएं बच्चों से नजदीकी
बच्चा अगर किसी जाल में फंस रहा है तो समय रहते पैरंट्स उसे बचा सकते हैं। अगर वे समय पर सचेत हो जाएं तो उन्हें इसकी जानकारी हो सकती है। पैरंट्स को कुछ बातों का ख्याल रखना चाहिए:
बच्चों के दोस्त बनें। बच्चों की उम्र का बनकर उनकी जिंदगी का हिस्सा बनें।
उन्हें छोटी-छोटी बात पर न टोकें। अगर आप टोकेंगे तो वे आपको अपने मन की बात नहीं बताएंगे।
उनसे बातचीत करें। उनके दोस्तों, शौक आदि के बारे में जानें, लेकिन ऐसे अंदाज में कि आप बातचीत कर रहे हैं, ना कि पूछताछ।
बच्चों को ना कहना सिखाएं। उन्हें बताएं कि उन्हें ऐसा कोई भी काम करने की जरूरत नहीं है, जो उन्हें असुरक्षित या असहज महसूस कराए।
उनके फैसलों का सम्मान करें। उनके डर को सुनें और उससे निकलने में उनकी मदद करें।
देखें कि बच्चा कितना वक्त इंटरनेट पर बिता रहा है, कैसे गेम खेलता है, कौन-से प्रोग्राम देखता है।
बच्चे के लिए गैजट इस्तेमाल करने का टाइम तय करें। अगर लगता है कि बच्चा कुछ गलत देख रहा है तो उस साइट को ब्लॉक कर दें या ऐप को डिलिट कर दें।
खुद भी मोबाइल, इंटरनेट, टीवी आदि पर ज्यादा वक्त न बिताएं। गैजट के संग और गैजट फ्री के तौर पर टाइम को बांटे, मसलन कब गैजट इस्तेमाल कर सकते हैं और कब नहीं, यह नियम बनाएं।
पैरंट्स खासकर पिता का बच्चों के साथ वक्त बिताना जरूरी है। बेहतर होगा कि दोनों साथ में खेलें।
अगर बच्चों में कुछ अजीब लक्षण नजर आएं तो उसे डाटें नहीं, बल्कि सायकॉलजिस्ट या काउंसलर की मदद लें।


क्या हैं लक्षण?
अगर बच्चा कोई खतरनाक गेम खेल रहा है या फिर किसी गलत काम में शामिल है तो कुछ लक्षणों के आधार पर आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं:
बहुत गुस्सा करना
चिड़चिड़ा रहना
ज्यादा मूड स्विंग्स होना
कमरे में बंद रहना
खाना छोड़ देना
देर रात तक जागना
किसी से बात नहीं करना
गुमसुम रहना
बहुत जिद करना
हिंसक हो जाना
पढ़ाई से मन चुराना
स्कूल जाने से बचना
क्लास में टीचर को तंग करना

क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
सही पैरंटिंग का मतलब अनुशासन और छूट के बीच संतुलन बनाना है। बच्चों पर निगाह रखी जानी जरूरी है ताकि अगर कोई उन्हें बरगला रहा है तो पैरंट्स समय रहते कोई कदम उठा सकें।
-गीतांजलि शर्मा (सीनियर काउंसलर)


खुद को दूसरों से अलग दिखाने की कोशिश में किशोर कई बार गलत राह पर चले जाते हैं। फिर दोस्तों का दबाव भी होता है। ऐसे में बच्चे को शुरू से ही सही और गलत के बीच फर्क करना सिखाएं।
-डॉ. राजीव मेहता (कंसल्टंट सायकायट्रिस्ट, सर गंगाराम हॉस्पिटल)

बच्चों का मन बेहद कच्चा होता है। वे आसानी से दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं। पैरंट्स की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें भटकने से बचाएं। पैरंट्स खासकर पिता बच्चों के साथ वक्त जरूर बिताएं।
-अरुणा ब्रूटा (सीनियर सायकॉलजिस्ट)


ऐसे ब्लॉक करें गलत वेबसाइटों को

किसी भी सिस्टम को चार तरह से ब्लॉक किया जा सकता है:

Block addresses: किसी खास यूआरएल या आईपी अड्रेस को लॉक कर सकते हैं।
Filter content: इस फिल्टर के जरिए कुछ खास कॉटेंट फिल्टर किया जा सकता है।
Manage usage: इसके जरिए इंटरनेट ऐक्सेस और टाइम को कंट्रोल किया जा सकता है।
Monitor activities: इसके जरिए जाना जा सकता है कि किस वक्त कंप्यूटर पर क्या गतिविधि की गई है।
Parent Lock: इसके लिए Start button पर जाएं। फिर Control Panel पर क्लिक करें और पहले User Accounts and Family Safety और फिर Set up parental controls for any user पर क्लिक करें। इसे आप किसी खास पासवर्ड से प्रोटेक्ट कर सकते हैं। यहां जाकर आप जिस साइट को चाहें ब्लॉक कर सकते हैं।

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टॉयलट एक सत्यकथा

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कई ऐसे युवा हैं, जो पढ़ाई के साथ समाज को वापस कुछ देने की मुहिम से जुड़कर शहरी झुग्गियों को खुले में शौच से मुक्त करने की मुहिम चला रहे हैं। अमित मिश्रा ने जायजा लिया एक ऐसी ही मुहिम का और बात की उससे जुड़े...

दिल्ली का नाम आते ही नजर के सामने तैर जाती हैं आलीशान सड़कें और बड़ी-बड़ी कोठियां। कोई शायद ही सोच सके कि दिल्ली में भी तकरीबन 5 लाख लोग हैं, जो खुले में शौच जाते हैं। बेशक इनमें से ज्यादातर झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं। दिल्ली सरकार ने 2018 तक इसे खुले में शौच से मुक्त राज्य बनाने का बीड़ा उठाया है। इतनी बड़ी चुनौती से निपटने के लिए सिर्फ सरकारी कोशिशें ही पर्याप्त नहीं हैं। ऐसे में दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स एक इनिशिएटिव 'प्रोजेक्ट राहत' की मदद से इस चुनौती से निपटने में अपना योगदान दे रहे हैं।

स्टूडेंट्स कर रहे हैं मदद
प्रोजेक्ट राहत दिल्ली के स्लम कॉलोनियों में रह रहे लोगों को खुले में शौच से रोककर इनके लिए टॉयलेट की सुविधा प्रदान करता है। यह एक बड़े प्रयास इनैक्टस (Enactus) का हिस्सा है। खास बात यह है कि इस प्रोजेक्ट को चलाने की जिम्मेदारी दिल्ली यूनिवर्सिटी के शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज़ के स्टूडेंट्स पर है। इस काम के लिए स्टूडेंट्स कॉलेज के पहले साल से ही इस प्रोजेक्ट से जुड़ जाते हैं और आने वाले बरसों में बड़ी जिम्मेदारियां संभालते हैं। जहां पहले साल में उन पर सिर्फ छोटे-मोटे कामों जैसे डेटा इकट्ठा करने और इलाकों में जाकर हालात की रिपोर्ट बनाने की जिम्मेदारी होती है, वहीं दूसरे साल में आते ही वे कोर टीम का हिस्सा बन जाते हैं। यही टीम प्रोजेक्ट के इलाके के लोगों से मिलती है और वहां पर लोकल ऑन्ट्रप्रनर की मॉनिटरिंग करती है। वे इस बात पर लगातार नजर रखते हैं कि कितने लोग रेग्युलर शौचालय आ रहे हैं और हाथ धोने जैसे बेसिक बातों का खयाल रख रहे हैं। तीसरे साल में आने पर यही स्टूडेंट्स नए स्टूडेंट्स को इस मिशन से जुड़ने में मदद करते हैं।

मैं तकरीबन 15 साल से यहां पर रहती हूं। अब तक शौच के लिए या तो पटरी के किनारे या फिर पास के जंगल का ही सहारा लेना पड़ता था। हालात बारिश में तो और भी खराब हो जाते थे। सुबह के अलावा हमारे पास किसी दूसरे वक्त शौच जाने का कोई इंतजाम भी नहीं था। इस नई शुरुआत के बाद हम पूरे परिवार के साथ वहीं जाते हैं और हमने इसके लिए महीने भर का कार्ड बनवा रखा है। - पूनम

सरकारी टॉयलेट तो हमारी झुग्गी में पहले से थे, लेकिन उनकी हालत बदतर थी। लंबी-लंबी लाइनें और उस पर गंदगी, हमारी तबीयत अक्सर खराब रहती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। यहां तक कि अब बच्चों को बाहर जाने को कहो तो वे तैयार नहीं होते। -राकेश

बड़े काम की बड़ी कोशिश
प्रोजेक्ट राहत में काम करने वाली पूर्वी कहती हैं कि लोगों को खुले में शौच जाने से रोकने में सबसे बड़ी चुनौती लोगों की आदत बदलना है। लोग बाहर शौच जाने के लिए हजार बहाने बनाते हैं। हमें न सिर्फ उन्हें समझाना पड़ता है बल्कि सोसायटी के कुछ ऐसे प्रभावशाली लोगों को भी जोड़ना पड़ता है, जिनकी बात लोग सुनते हों। प्रोजेक्ट से जुड़ी सेकंड ईयर की मुस्कान कहती हैं कि हम वक्त-वक्त पर लाउडस्पीकर पर बॉलिवुड के गानों के जरिए लोगों तक अपना मेसेज पहुंचाते हैं। जब हमने अपने प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी, तब सुबह 4 बजे से ही लोगों को बाहर में न जाकर टॉयलेट कॉम्प्लेक्स में जाने के लिए मनाते थे। तड़के अंधेरे में शुरू की गई इस कोशिश से कई लोग तो आसानी से मान गए, लेकिन कइयों को मनाना टेढ़ी खीर साबित हुआ। लोग लड़ने पर उतारू हो जाते और कुछ तो पैसे न होने का बहाना बनाने लगते। इससे जुड़े राजू बताते हैं कि कई बार नशे की हालत में लोगों ने कॉम्प्लेक्स में हंगामा भी मचाया और ऐसे में हमें पुलिस की मदद भी लेनी पड़ी।

मिलकर कर रहे बदलाव
इनैक्ट्स अमेरिका की एक ऐसी संस्था है जो समाज में बदलाव लाने के लिए ऑन्ट्रप्रनर, समाजसेवी और आम लोगों को साथ लाने का काम करती है। इस संस्था का मानना है कि सबसे बेहतर इन्वेस्टमेंट स्टूडेंट्स पर किया हुआ इन्वेस्टमेंट है, जिसके जरिए लोकल सोशल ऑन्ट्रप्रनर बनाए जा सकते हैं। इनकी मदद के लिए समाजसेवा से जुड़े लोगों को भी साथ लाया जाता है। यह संस्था दुनिया भर में अपने प्रोजेक्ट चलाती है। प्रोजेक्ट राहत इसके इंडिया चैप्टर का हिस्सा है।

स्टूडेट्स को क्या फायदा
जब हमने प्रोजेक्ट से जुड़ीं पूर्वी से पूछा कि आखिर इस तरह से काम करने से आपको क्या फायदा होता है तो उन्होंने बताया कि यह हमारे लिए फील्ड एक्सपीरिएंस का बड़ा मौका है। हालांकि आने-जाने का खर्च हमें खुद ही उठाना पड़ता है लेकिन इस काम के जरिए हम देश को इंटरनैशनल कॉम्पिटिशन में भी रिप्रेजेंट कर चुके हैं। वह बताती हैं कि पिछले साल कनाडा में पूरी दुनिया से आए बेहतरीन प्रोजेक्ट्स में प्रोजेक्ट राहत दूसरे स्थान पर रहा। एक बार फिर 'प्रोजेक्ट राहत' को ही देश की नुमाइंदगी करने के लिए चुना गया है। इस बार कॉम्पिटिशन 26-28 सितंबर को लंदन में है। वह कहती हैं कि हम जीतें या हारें लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने का मौका मिलना ही बड़ी बात है।

बच्चों पर है बड़ी जिम्मेदारी
कीर्ति नगर की झुग्गी बस्ती में मौजूद प्रोजेक्ट राहत के शौचालय को देखने पहुंचेंगे तो आसपास के बच्चे आपको खुले में शौच जाने वाले लोगों के नाम गिनाना शुरू कर देंगे। मुस्कान कहती हैं, 'जब सुबह हम लोगों को खुले में शौच न जाने से रोकने के लिए मैदान में होते हैं तो ये बच्चे हमारे साथी बन जाते हैं। उन्हें इस काम में काफी मजा आता है। एक बार बच्चों ने मिल कर बाहर शौच जाने वालों की पानी की बोतलें ही छीन लीं। हम बहुत हंसे, लेकिन लोगों तक इस बहाने मेसेज जरूर पहुंच गया।'

बॉलिवुड डायलॉग और सुपरहीरो का साथ
मिशन को परवान चढ़ाने के लिए कुछ दिलचस्प तरीके भी अपनाए जाते हैं। बॉलिवुड के डायलॉग्स को खुले में शौच जाने से रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यही नहीं, बच्चों और बड़ों को इससे जोड़ने के लिए एक खास सुपरहीरो 'राही' भी तैयार किया गया है। बानगी पेश है:
- बसंती, खुले में न जाना
- स्वच्छता में तो हम तुम्हारे बाप होते हैं, नाम है राही
- एक साफ शौचालय की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू...

पैरोडी से रिझाते हैं...
बदन पे शॉल लपेटे हुए,
अरे डब्बा लेकर भैया
किधर जा रहे हो
जरा शौचालय आओ तो
सेहत आ जाए
---
आजा आजा
मैं हूं शौचालय तेरा
वल्लाह वल्लाह स्वच्छता की पहचान
आ.. आ.. आजा..
शौचालय में आजा...

फंड जुटाना है चुनौतीपूर्ण

कीर्तिनगर स्लम में मौजूद 2 शौचालय कॉम्पलेक्स में 40 टॉयलेट्स हैं जिन्हें इस्तेमाल करने के लिए हर बार 1 रुपये का टोकन लेना होता है। पूरे महीने के लिए पास बनवाने पर 10 फीसदी तक की छूट मिलती है। इसी तरह पूरे परिवार के लिए फैमिली पास बनवाया जा सकता है। ये पैसे लोकल कम्यूनिटी से शौचालयों का संचालन करने वालों को मिलते हैं। जब हमने संजय और राजू से कमाई के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि 4-5 हजार रुपये महीने तक कमाई आराम से हो जाती है। प्रोजेक्ट राहत किसी बड़े निर्माण के लिए बड़ी फंडिंग पर ही निर्भर रहता है जो उन्हें बड़ी कंपनियां या लोग ही मुहैया कराते हैं। प्रोजेक्ट राहत से जुड़ी मुस्कान कहती हैं कि यह काफी चैलेंजिंग रहता है। हमें लगता है कि अगर फंडिंग बढ़े तो ज्यादा लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए और कॉम्पलेक्स भी बनाए जा सकते हैं।


ज्ञान भी, सफाई भी
बिहार के रहने वाले संजय मिश्रा कीर्ति नगर स्लम के चूना भट्टी कैंप में बने शौचालय को संभालने के साथ ही स्लम में पूजा-पाठ का काम भी करते हैं। हमने जब उनसे पूछा कि आपको लोग शौचालय संभालने पर ताने तो नहीं देते/ उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि पहले तो लोग बहुत कहते थे कि क्या ब्राह्मण होकर ऐसा काम करते हो। मैं उन्हें छूटते ही जवाब देता था कि इससे बढ़कर पुण्य का भी कोई काम और है क्या? उन्हें मैं सुलभ शौचालय चलाने वाले बिंदेश्वरी पाठक का नाम भी बताता हूं कि अगर वे न होते तो इतना बड़ा काम न हो पाता।

राजू भैया हैं सबके दोस्त
यहां बने एक दूसरे शौचालय की जिम्मेदारी युवा राजू की है। वह लोकल एरिया में राजू भैया के नाम से जाने जाते हैं। किसी को हड़काना हो या बच्चों को प्यार की थपकी देनी हो, राजू भैया हर काम में माहिर नजर आते हैं।

बनाते हैं पूरा सिस्टम
इस मिशन का तरीका इस लिहाज से अलग है कि इसमें काम करने का एक खास मॉडल तैयार किया गया है। इसकी चंद खासियतें हैं:
- प्रोजेक्ट को चलाने के लिए लोकल ऑन्ट्रप्रनर चुने जाते हैं।
- एक खास टारगेट, जैसे आसपास की आबादी का 40 फीसदी या सामान्य साफ-सफाई का ध्यान रखने वालों की संख्या में 50 फीसदी तक इजाफा होने पर इनैक्टस मिशन को किसी दूसरे एनजीओ या सरकारी एजेंसी को सौंप देती है।
- प्रोजेक्ट से जुड़े स्टूडेंट्स किसी भी तरह का पारिश्रमिक नहीं लेते हैं।
- प्रोजेक्ट पूरी तरह से सरकारी मानकों के आधार पर चलाया जाता है।
- लोकल एरिया में होने वाली हर ऐक्टिविटी में सरकारी एजेंसियों को शामिल करने की कोशिश की जाती है।

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मसल्स वुमनिया

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बॉडीबिल्डिंग में अभी तक पुरुषों का ही दबदबा रहा है, लेकिन महिलाएं यहां भी बाजी मारने आ गई हैं। देश की विमिन बॉडीबिल्डर इंटरनैशनल लेवल पर मेडल भी जीत रही हैं। ऐसी ही चंद टॉप बॉडी बिल्डर्स से आपको रूबरू करा रहे हैं वीरेंद्र शर्मा...

अंकिता सिंह: बॉडीबिल्डिंग ने निकाला डिप्रेशन से
अंकिता को दोस्त के यहां से निकलते-निकलते रात हो गई थी। सुनसान सड़क पर वह अकेली थीं। तभी एक कार से पांच लड़के उतरे और अंकिता को कार में खींचने की कोशिश करने लगे, लेकिन अकेली अंकिता उन पांचों से भिड़ गईं और उन पर भारी पड़ गईं। अंकिता की जान बॉडीबिल्डिंग के लिए उनके जुनून ने बचाई थी। अंकिता बॉडीबिल्डिंग की इंटरनैशनल प्लेयर हैं। वह 2014 से इस खेल में हैं। बॉडीबिल्डिंग की मॉडल कैटिगरी में वह एक जाना-माना नाम बन चुकी हैं। उन्होंने बेंगलुरु में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान 2008 में जब जिम जाना शुरू किया। इस बीच दोस्त से धोखा मिलने के बाद अंकिता डिप्रेशन में आ गईं। अंकिता के मुताबिक जिम की वजह से उनका डिप्रेशन कम हुआ और वह नॉर्मल जिंदगी में लौट पाईं। 2014 से उन्होंने बॉडी बिल्डिंग को प्रफेशनली अपनाने की सोची। उनके पिता राजनीति में हैं और वह नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी ऐसे खेल में आए जिसमें बिकिनी पहननी पड़े। बेटी के फैसले से वह इतना नाराज हुए कि उन्होंने एक साल तक अंकिता से बात तक नहीं की। उनका कहना था कि अंकिता ऐसे खेल को छोड़कर पारिवारिक काम पर ध्यान दें। ऐसे में अंकिता को अपनी ममी का साथ मिला। बाद में जब बेटी को कामयाबी मिली और खेल की बदौलत वह मीडिया में छाने लगीं तो पिता की नाराजगी भी खत्म हो गई।

अंकिता उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले से हैं और उनका परिवार लखनऊ में रहता है। उनके पिता एमएलसी हैं। अंकिता ने 12वीं तक की पढ़ाई सोनभद्र से की है। इसके बाद कंप्यूटर इंजिनियरिंग की पढ़ाई के लिए वह बेंगलुरु आ गईं और फिर यहीं की होकर रह गईं। अब अंकिता बेंगलुरू में एक एमएनसी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और साथ-साथ बॉडीबिल्डिंग भी करती हैं। हालांकि नौकरी के साथ-साथ अपने जुनून को जिंदा रखना उनके लिए बहुत मुश्किल है, लेकिन वह टाइम मैनेजमेंट के जरिए इसे बखूबी अंजाम दे रही हैं। अंकित सुबह 5 बजे उठती हैं। फिर अपना नाश्ता और खाना बनाकर ऑफिस निकल जाती हैं। उन्हें ऑफिस पहुंचने में करीब तीन घंटे लगते हैं तो इस बीच में वह बस में अपनी नींद पूरी करती हैं। दोपहर में जब ऑफिस के लोग लंच करते हैं तो अंकिता ऑफिस के जिम में कसरत करती हैं। इसके बाद जब शाम को टी टाइम होता है, तब वह अपना खाना खाती हैं। शाम को ऑफिस से आने के बाद वह अपने क्लाइंट्स को ऑनलाइन जिम ट्रेनिंग देती हैं। अंकिता बताती हैं कि बॉडीबिल्डिंग के चलते उन्हें खूब अटेंशन मिलती है। जब वह ऑफिस में दोपहर के समय जिम करती हैं तो बहुत से लड़के और लड़कियां जिम करने आ जाते हैं। इस दौरान उनसे सलाह लेना शुरू कर देते हैं। ऑफिस में तो वह सबकी जिम ट्रेनर बनी हुई हैं। अंकिता नॉर्मल दिनों में डेढ़ से 2 घंटे जिम करती हैं और चैंपियनशिप से एक महीने पहले 3 घंटे जिम में बिताती हैं।

अचीवमेंट्स: साल 2014 में फिटनेस कैटिगरी में वर्ल्ड बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप में अंकिता ने पांचवीं पोजिशन हासिल की थी। 2015 में मिस इंडिया बॉडीबिल्डिंग कॉन्टेस्ट में वह तीसरे और 2016 में चौथे स्थान पर रहीं। अब वह अगस्त में साउथ कोरिया में होने वाली एशियन बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप की तैयारियों में जुटी हुई हैं।



भूमिका शर्मा: शूटिंग छोड़ दिल की सुनी
ममी का मन रखने के लिए भूमिका कई साल से निशानेबाजी सीख रही थीं लेकिन उनका मन किसी दूसरे खेल में था। भूमिका फिट रहने के लिए जिम भी करती थीं। जिम में एक दिन ट्रेनर ने एक महिला बॉडीबिल्डर का विडियो दिखाया तो भूमिका को लगा कि यही वह खेल है, जिसकी उन्हें तलाश है। उत्तराखंड के देहरादून की रहने वाली भूमिका के लिए ममी-पापा को मनाना इतना भी आसान नहीं था। पड़ोसी कहने लगे कि इसमें कोई फ्यूचर नहीं है। लड़कों जैसी मसल्स हो जाती हैं लेकिन भूमिका के जुनून के आगे सबने हार मान ली। वैसे, भूमिका को इस खेल में ममी हंसा शर्मा से बहुत मदद मिली। हंसा देश की महिला वेटलिफ्टिंग टीम की कोच हैं। किसी भी टूर्नामेंट के शुरू होने से तीन महीने पहले भूमिका रोजाना जिम में करीब 6 घंटे बिताती हैं, जबकि बाकी दिनों में करीब 2 से 3 घंटे जिम करती हैं। इसमें हर दिन 20 किमी की रनिंग, हेवी वेट ट्रेनिंग शामिल है। भूमिका दिल्ली बॉडीबिल्डिंग असोसिएशन की तरफ से खेलती हैं। भूमिका बताती हैं कि इस खेल में आने के बाद आत्मविश्वास काफी बढ़ा है। लोग कुछ भी उलटा-सीधा कहने से पहले सोचते हैं। इस खेल में लड़कियों के कम आने पर उनका कहना है कि एक तो इसके लिए बहुता सारा पैसा चाहिए। डाइट, जिम और दूसरी चीजों पर काफी पैसा खर्च होता है। दूसरे, लोगों की सोच है कि लड़कियां नाजुक ही ठीक हैं। उन्हें सिर्फ घर संभालना चाहिए। इन्हीं सब वजहों से लड़कियां इस खेल में कम हैं। हालांकि अब धीरे-धीरे संख्या बढ़ रही है।

अचीवमेंट्स: भूमिका ने पिछले दिनों वेनिस में मिस वर्ल्ड बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप जीती। उन्होंने दुनिया भर से आई 50 महिलाओं को हरा कर यह खिताब जीता। इस चैंपियनशिप में उन्हें बॉडी पोजिंग में सबसे ज्यादा नंबर मिले थे। अब उनकी निगाहें दिसंबर में होने वाली मिस यूनिवर्स बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप पर हैं। इससे पहले वह साल 2016 में मिस दिल्ली बॉडिबिल्डिंग चैंपियन रह चुकी हैं।



सोनाली स्वामी: वजन घटाने के जुनून से जीत ली दुनिया
42 साल की यह महिला दो बच्चों की मां हैं और इनका नाम भारत की टॉप बॉडीबिल्डरों में आता है। पिछले साल भूटान में हुई एशियन चैंपियनशिप में सोनाली ने फिटनेस कैटिगरी में ब्रॉन्ज मेडल जीता था। इस बार अगस्त में साउथ कोरिया में होने वाली इस चैंपियनशिप में वह गोल्ड मेडल जीतने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही हैं। उनकी 13 साल की बेटी है और 7 साल का बेटा है। होटल मैनेजमेंट कोर्स कर चुकीं कथक डांसर सोनाली 4 साल पहले ही बॉडीबिल्डिंग में आई हैं। इनके पिता सेना से बतौर मेजर जनरल रिटायर हुए हैं। ऐसे में घर में शुरू से ही अनुशासन और खेलों का माहौल था। ग्वालियर की सोनाली शादी के बाद बेंगलुरु आ गईं। बेटे के जन्म के बाद वजन कम करने के लिए सोनाली ने साल 2012 में जिम जॉइन कर लिया। इसके बाद सोनाली ने वेट ट्रेनिंग लेनी शुरू की। इसके बाद सोनाली ने 2014 से बॉडीबिल्डिंग कॉम्पिटिशन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। सोनाली को बॉडीबिल्डिंग में आने के दौरान पति का बहुत सपोर्ट मिला। टूर्नामेंट के दौरान पति ही उनके फोटो खींचते हैं और खाने का ध्यान रखते हैं। उनका कॉन्फिडेंस भी बढ़ा है कि शादी और बच्चों के बाद भी महिलाएं बहुत कुछ कर सकती हैं। हालांकि इस सबके बीच सोनाली छोले-भठूरे, कचौड़ी और समोसे बहुत मिस करती हैं। वह सुबह 5 बजे उठकर करीब 45 मिनट जिम करती हैं। इसके बाद बच्चों का नाश्ता तैयार कर उन्हें स्कूल भेजती हैं। 7 से 11 बजे तक अपने ऑनलाइन क्लाइंट्स को ट्रेनिंग देती हैं। 11 से 12 वह फिर जिम करती हैं। सोनाली को तब अच्छा लगता है, जब सड़क पर लोग रुककर या मुड़कर उन्हें देखते हैं।

अचीवमेंट्स: 2014 में मुंबई में फिट फैक्टर शो जीता। 2015 में मसलमेनिया टूर्नामेंट में 2 गोल्ड जीते। इसी साल थाइलैंड में हुई वर्ल्ड बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप में टॉप टेन में रहीं।

मोनिका गुप्ता: दर्द से छुटकारे ने बना दिया बॉडीबिल्डर
जम्मू निवासी 42 साल की मोनिका गुप्ता काफी पैर और शरीर के दूसरे हिस्सों में दर्द से पीड़ित थी। इसके अलावा फैट भी ज्यादा था। घर पर खाली पड़े-पड़े वह जिम ट्रेनिंग के विडियो देखती रहती थीं। उन्होंने 2014 में जिम जाना शुरू किया। तीन साल तक मेहनत करने के बाद मोनिका ने इसी साल कॉम्पिटिशन में हिस्सा लेना शु्रू किया। मोनिका ने जब जिम में वेट उठाना शुरू किया तो वह ऐसा करने वाली जम्मू की पहली लड़की थीं। जिम में जब वह वेट ट्रेनिंग करती थीं, तब लड़कों को बड़ा अजीब लगता था। बाद में उन्हें आदत हो गई। मोनिका को जिम करते देखकर करीब 30-40 और लड़कियों ने भी जिम जाना शुरू कर दिया।

इस दौरान उन्हें पति और बच्चों का खूब सपोर्ट मिला। जब कभी मोनिका कहती हैं कि अब जिम नहीं करना है तो 20 साल का बेटा और 10 साल की बेटी धमकी देते हैं कि अगर ऐसा किया तो हम पढ़ाई छोड़ देंगे। वैसे, शुरू में आस-पड़ोस के लोग तरह-तरह की बातें बनाते थे लेकिन जब वह पहला स्टेट टूर्नामेंट जीतकर आईं तो वही पड़ोसी उनके साथ सेल्फी लेने में सबसे आगे थे। एथलीट कैटिगरी में खेलने वाली मोनिका फिलहाल सुबह-शाम मिलाकर 3 घंटे जिम करती हैं। इस कैटिगरी में मॉडल कैटिगरी से ज्यादा और बॉडीबिल्डिंग से कम मसल्स बनाने होते हैं। एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट में काम करने वाले मोनिका के पति भी पत्नी की राह पर चलते हुए बॉडी बनाने में जुटे हुए हैं और वह इस साल सितंबर में पहला टूर्नामेंट खेलेंगे।

अचीवमेंट्स: 2017 में मिस जम्मू एंड कश्मीर बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप में खिताब जीता। इसी साल लुधियाना में हुई मिस नॉर्थ इंडिया बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप का टाइटल और चैंपियन ऑफ चैंपियन का खिताब जीता। मिस इंडिया बॉडीबिल्डिंग कॉम्पिटिशन में टॉप 15 में रहीं।



सरिता देवी: 2 बच्चों की मां का जुनून
बॉक्सर मैरीकॉम ने मणिपुर को एक नई पहचान दिलाई है। ऐसा ही काम वहां की बॉडीबिल्डर सरिता देवी कर रही हैं। सरिता देवी ने साल 2010 में शादी के बाद यह खेल शुरू किया। 2 बच्चे होने के बाद भी उनका खेल जारी है। अब वह अगस्त में एशियन चैंपियनशिप और अक्टूबर में मंगोलिया में होने वाली वर्ल्ड बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप में हिस्सा लेंगी। 55 किलो वेट कैटिगरी की बॉडीबिल्डर सरिता दिन में 3 घंटे जिम करती हैं। उन्हें खेल के साथ अपने घर और बच्चों का भी ध्यान रखना होता है। सरिता के दो बेटे हैं, उनके पति डेंटल क्लिीनिक चलाते हैं। सरिता महीने में डाइट और जिम पर करीब 15 हजार रुपये खर्च करती हैं। उनका कहना है कि अगर मणिपुर सरकार से नौकरी मिल जाए तो उनकी स्थिति कुछ बेहतर हो जाएगी।

अचीवमेंट्स: साल 2015 में वर्ल्ड बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज मेडल जीता। 2015 और 2016 की एशियन बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल हासिल किया। 2016 की वर्ल्ड बॉडीबिल्डिंग चैंपियनशिप में चौथी पोजिशन हासिल की।

श्वेता भाटिया: नई लड़कियों को कर रहीं ट्रेन्ड
साल 2015 में स्टेट और नैशनल लेवल पर फिटनेस कैटिगरी में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली मुंबई की श्वेता भाटिया फिलहाल इंडियन बॉडीबिल्डिंग फेडरेशन (आईबीबीएफ) की जज हैं। आईबीबीएफ ने इन्हें गोवा में महिला बॉडीबिल्डरों को उभारने की जिम्मेदारी दी है। पणजी में इनका अपना जिम है। 10 साल से जिम करने वाली श्वेता ने जब इस खेल को बतौर करिअर चुना तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं आई और परिवार से पूरा समर्थन मिला। श्वेता का कहना है कि इस फील्ड में लड़कियां आ रही हैं लेकिन संख्या अभी कम है। इसके लिए वह लड़कियों को खुद का उदाहरण देकर उन्हें मोटिवेट करती हैं।

बॉडीबिल्डिंग की 4 कैटिगरी होती हैं
1. बॉडीबिल्डिंग : इसमें खिलाड़ी को बहुत ज्यादा मसल्स बनाने होते हैं।
2. एथलेटिक : इसमें बॉडीबिल्डिंग के मुकाबले कम मसल्स बनाने पड़ते हैं।
3. फिटनेस या स्पोर्ट्स : इसमें खिलाड़ी को एथलीट लेवल की बॉडी बनानी होती है।
4. मॉडल : इसमें मॉडल की तरह बॉडी को फिट रखना होता है और ऐब्स पर खास ध्यान देना होता है।

बॉडीबिल्डिंग की देश में 2 मुख्य फेडरेशन हैं:
1. इंडियन बॉडीबिल्डर्स फेडरेशन: इसकी स्थापना साल 2009 में हुई। इसके प्रेजिडेंट पदमश्री और अर्जुन अवॉर्डी प्रेमचंद डोगरा हैं। इसका मुख्यालय मुंबई में है। इसके महासचिव चेतन पठारे के मुताबिक आईबीबीएफ से करीब 38 असोसिएशन जुड़ी हुई हैं। इनमें राज्य, केंद्र शासित राज्य, रेलवे, सिविल सर्विसेज, बैंक और इंटर सिविल सर्विस की असोसिएशन शामिल हैं। इनके मुताबिक इन्हें 2012 में सरकार, स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया और नाडा से मान्यता मिली हुई है। चेतन का कहना है कि इंटरनैशनल लेवल पर बॉडीबिल्डिंग की 7 संस्थाएं हैं। भारत की तीनों फेडरेशन इनसे जुड़ी हुई हैं। इंटरनेशनल लेवल पर यह वर्ल्ड बॉडीबिल्डिंग एंड फिजीक स्पोर्ट्स फेडरेशन यानी WBPF से जुड़े हैं।
2. इंडियन बॉडीबिल्डिंग एंड फिटनेस फेडरेशन: यानी IBBFF। यह भारत की पुरानी संस्था है। इसके महासचिव संजय मोर ने बताया कि हम अब तक 57 बार मिस्टर इंडिया प्रतियोगिता करा चुके हैं। इसका मुख्यालय औरंगाबाद में है और यह इंटरनेशनल लेवल पर इंटरनैशनल फेडरेशन ऑफ बॉडीबिल्डिंग एंड फिटनेस यानी IFBB से जुड़ी है।

अहम इंटरनैशनल टूर्नामेंट हैं:
1. मिस्टर औऱ मिस एशिया
2. मिस्टर और मिस वर्ल्ड
3. अर्नाल्ड क्लासिक
4. मिस्टर और मिस ओलंपिया

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ये डिलिवरी गर्ल्स...

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कंपनियों ने जहां घर बैठे शॉपिंग को आसान बनाया है, वहीं बड़ी तादाद में युवाओं को नौकरी भी मुहैया कराई है, जिसमें सबसे खास है सामान की डिलिवरी। घर-घर सामान पहुंचाने का काम जहां पहले सिर्फ लड़के कर रहे थे, वहीं अब लड़कियां भी इसमें तेजी से पैठ बना रही हैं। लड़कियों के साथ-साथ कंपनियों को यह ट्रेंड कितना बढ़ रहा है, जानने की कोशिश की प्रियंका सिंह ने:

भाई की बाइक से शुरू सफर
नाजरीन (22 साल)
मदनगीर, दिल्ली
दिल्ली के सावित्री नगर इलाके में स्कूटी को स्टार्ट करने की कोशिश कर रही हैं नाजरीन। पास में खड़े लड़कों में से एक आगे बढ़कर उनकी मदद करता है। नाजरीन थैंक्स कहकर स्कूटी पर फटाफट आगे बढ़ जाती हैं। वजह, उन्हें अपने कस्टमर के पास पैकेट की डिलिवरी टाइम से करनी है ताकि वह अपने आज के सारे टारगेट पूरे कर सकें। नाजरीन की तरह ही कई दूसरी लड़कियां भी बतौर डिलिवरी गर्ल काम कर रही हैं और कंपनियां भी उनके काम से खुश हैं। नाजरीन काम के साथ-साथ ओपन स्कूल से पढ़ाई भी कर रही हैं। फिलहाल वह सेकंड ईयर ग्रैजुएशन में हैं। नाजरीन का कहना है, ‘मुझे इस काम में बहुत मजा आ रहा है। पहले मैं एक कपड़ा फैक्ट्री में सुपरवाइजर थी। भाई पित्जा हट में डिलिवरी बॉय था। कभी-कभी वह घर पर स्कूटर लेकर आता था तो उसी से मैंने भी स्कूटर चलाना सीख लिया। बाकी ट्रैफिक के नियम आदि कंपनी ने सिखा दिए।’ नाजरीन 'इवन कार्गो' के साथ काम करती हैं। बकौल, नाजरीन जब इस काम का मौका मिला तो सोचा कि ट्राई करके देखती हूं। फिर मजा आने लगा। जब भी कहीं सामान देने जाती हूं तो ज्यादातर लोग सम्मान देते हैं कि लड़कियां भी वह काम कर रही हैं, जिसे अब तक सिर्फ लड़के कर रहे थे।

ठाना और कर दिखाया



सीमा (20 साल)
करोलबाग, दिल्ली

नाजरीन के साथ ही काम करती हैं सीमा, जोकि दिल्ली के करोल बाग में रहती हैं और 10वीं पास हैं। सीमा जब ट्रेनिंग पूरी कर पहले दिन एमजॉन के वेयर हाउस पहुंचीं तो उन्हें देखकर कुछ डिलिवरी बॉय आपस में कहने लगे, 'लड़कों से काम नहीं हो रहा था क्या, जो लड़कियों को ले आए?' यह सुनकर सीमा ने ठान ली कि अब वह यही काम करेंगी और ज्यादा मन लगाकर करेंगी। डिलिवरी का काम शुरू किए हुए सीमा को करीब महीना भर ही हुआ है, लेकिन यह उन्हें काफी पसंद आ रहा है। वह बताती हैं कि दिन भर में करीब 25-30 पैकेट डिलिवर करने होते हैं, जोकि कभी-कभी 50 तक भी हो जाते हैं क्योंकि टाइम के साथ इलाके की अच्छी समझ हो जाती है तो फटाफट काम होने लगता है। सीमा बताती हैं कि लड़कियां अपनी पसंद के मुताबिक पिन कोड के आधार पर एरिया चुन सकती हैं। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर डिलिवरी 3 किमी एरिया के अंदर ही होती हैं। इससे ज्यादा दूर स्कूटी चलाने से बच जाते हैं। सीमा को फिलहाल कंपनी की ओर से सेल्फ डिफेंस कोर्स नहीं कराया गया है, लेकिन जल्द ही उन्हें सेल्फ डिफेंस तकनीक सिखाई जाएंगी। वैसे, वह खुद भी अपनी सुरक्षा का काफी ख्याल रखती हैं और 5 बजे तक सारे काम निपटाकर घर लौट जाती हैं। वह बताती हैं कि जब वह घरों में सामान देने जाती हैं तो ज्यादातर लोगों का रिएक्शन काफी पॉजिटिव होता है और हां, लोग हैरानी से देखते हैं। नाजरीन और सीमा को 10 हजार रुपये महीना सैलरी के अलावा रोजाना 100 रुपये का पेट्रोल दिया जाता है।

डर के आगे जीत है



प्रीति जितेंद्र हम्बीर (26 साल)
प्रभादेवी, मुंबई

10वीं क्लास तक पढ़ीं प्रीति पिछले 2 महीने से ‘Hey Dee Dee’ के साथ काम कर रही हैं, जोकि पार्सल डिलिवरी कंपनी है और यहां सिर्फ लड़कियां ही डिलिवरी का काम करती हैं। प्रीति सुबह 11 से रात 8 बजे तक या फिर सुबह 7 से शाम 4 बजे तक की शिफ्ट में काम करती हैं। वह ज्यादातर बांद्रा, हिल रोड, जुहू इलाके में ही सामान डिलिवर करती हैं। वह बताती हैं कि जहां भी जाती हूं, लोग बड़ी हैरानी से देखते हैं। शुरू में पापा-ममी को डर लगता था। बोलते रहते थे कि अपना ध्यान रखना, स्कूटी धीरे चलाना, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें सब सही लगने लगा और मुझे भी मजा आने लगा। वैसे भी मुझे स्कूटी चलाना बहुत पसंद है। हालांकि कभी-कभार स्कूटी खराब हो जाती है या पेट्रोल खत्म हो जाता है तो थोड़ी दिक्कत हो जाती है लेकिन छोटी-मोटी समस्याएं तो हर काम में होती हैं। जहां तक सिक्यॉरिटी की बात है तो हमें सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग तो नहीं दी गई लेकिन अभी तक कोई समस्या भी सामने नहीं आई। हां, बांद्रा में थोड़े रिक्शे ज्यादा चलते हैं तो वहां थोड़ा ज्यादा सावधानी बरतती हूं। वैसे, मेरी कोशिश है कि कुछ पैसे जमा कर अपनी पढ़ाई पूरी करूं। अगर कुछ और बेहतर काम मिला तो ठीक, वरना इसे तो एंजॉय कर ही रही हूं।

सेफ्टी सूत्र
- अपने साथ रखती हैं पेपर स्प्रे
- किसी के साथ पर्सनल नंबर शेयर नहीं करतीं, न ही नाम बताती हैं
- किसी के घर के भीतर नहीं जातीं
- अगर कोई कुछ खाने या पीने को देता है तो उससे मना कर देती हैं
- अंधेरे या सुनसान इलाकों में नहीं जातीं

कंपनियां भी कर रही हैं स्वागत
हाल तक सामान लाने, ले जाने का काम लड़कों के जिम्मे ही था, लेकिन अब धीरे-धीरे लड़कियों ने इस फील्ड में भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी है। दिल्ली से लेकर लखनऊ, मुंबई और बेंगलुरू तक, लड़कियां अब डिलिवरी गर्ल बन रही है। दरअसल, ई-कॉमर्स कंपनी ऐमजॉन, ऑनलाइन लॉन्जरी ब्रैंड क्लोविया, डोमिनोज, पिज्जा हट, सबवे जैसी कंपनियों के अलावा डिलिवरी कंपनियां 'हे दी दी' और 'इवन कार्गो' आदि भी महिलाओं पर भरोसा जताने लगी हैं। अच्छी सर्विस के अलावा लंबे वक्त तक टिके रहना भी लड़कियों के पक्ष में जा रहा है, क्योंकि इस सेक्टर में नौकरियां छोड़ने की दर 50 फीसदी से भी ज्यादा है।

दिल्ली में डिलिवरी सर्विस कंपनी ‘इवन कार्गो’ सिर्फ लड़कियों को ही बतौर डिलिवरी गर्ल काम पर रखती है। यह कंपनी मई 2016 में शुरू हुई। कंपनी कमजोर और पिछड़े तबके की 19 से 24 साल की लड़कियों को पहले ट्रेंड करती है, फिर उन्हें नौकरी पर रखती है। इनमें से ज्यादातर लड़कियां हाई स्कूल से आगे पढ़ाई नहीं कर पाती हैं। अब तक कंपनी 19 से 24 साल की करीब 100 युवतियों को ट्रेनिंग दे चुकी है। कंपनी की ट्रेनिंग के चार चरण होते हैं:

1. टू-वीलर चलाने की ट्रेनिंग
2. सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग
3. सॉफ्ट स्किल्स वर्कशॉप्स
4. लॉजिस्टिक्स इंडस्ट्री संबंधी ट्रेनिंग।
हालांकि जितनी युवतियों को ट्रेंड किया गया था, उनमें से 20 ने ही चारों चरण की ट्रेनिंग पूरी की और 10 ने ही फाइनली ऑर्गनाइजेशन जॉइन किया। इनमें से भी 6 ही फिलहाल फुल टाइम काम कर रही हैं।

इवन कार्गो के फाउंडर योगेश कुमार (29) इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं। उन्होंने मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से भी पढ़ाई की। बाद में नौकरी छोड़कर बिजनेस शुरू किया। बकौल योगेश, शुरू में हमारी कंपनी महिलाओं के सामान की डिलिवरी का काम ही करती थी ताकि लड़कियों का आत्मविश्वास बढ़े और उनके परिवार वालों को भी भरोसा बने। इस महीने से ये लड़कियां एमजॉन का सामान भी डिलिवर करने लगी हैं। हम कोशिश करते हैं कि लड़कियां फिर से पढ़ाई शुरू करें ताकि आगे जाकर ये दूसरे करियर भी अपना सकें। वैसे, इस लाइन में भी आगे और ऑप्शन होते हैं। कंपनी लड़कियों का पूरा ख्याल रखती है जैसे कि यहां काम करनेवाली प्रियंका सचदेव (19) का काम पर जाते हुए एक्सीडेंट हो गया। कंपनी ने इंश्योरेंस कराया हुआ था इसलिए प्रियंका पर इलाज का बोझ नहीं पड़ा।

बड़े लेवल पर डिलिवरी गर्ल्स को ट्रेंड करने और नौकरी दिलाने वालों में बड़ा नाम है हे दी दी (Hey Dee Dee) कंपनी का। मार्च 2016 में शुरू हुई कंपनी का हेड ऑफिस मुंबई में है, लेकिन यह बेंगलुरू और नागपुर तक सर्विस मुहैया कराती है। कंपनी की को-फाउंडर रेवती रॉय का कहना है कि फिलहाल हमारे पास 2830 लड़कियां रजिस्टर्ड हैं, जो अलग-अलग लेवल पर ट्रेनिंग ले रही हैं। ट्रेनिंग पूरी करके कुल 100 लड़कियों को हम काम पर लगा चुके हैं। इनमें से ज्यादातर लड़कियां गरीब परिवारों की हैं। फिलहाल ये एमजॉन, पित्जा हट, ब्रजवासी, सबवे, शॉप हॉप, करी ब्रदर्स, ईजीके जैसी कंपनियों के लिए सामान डिलिवर कर रही हैं। बकौल रेवती, 'हम लड़कियों को ट्रेंड कर उन्हें बैंक से लोन दिलाकर टू-वीलर खरीदने में मदद करते हैं। फिर वे हमारे साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन करती हैं। हमारी कोशिश है कि इस साल के आखिर तक 10 हजार लड़कियों को इस काम के लिए तैयार करें।' हालांकि अभी थोड़ी दिक्कत भी है जैसे कि ज्यादातर लड़कियों का कहना है कि उन्हें सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग नहीं दी गई। साथ ही सेफ्टी ऐप आदि के बारे में भी नहीं बताया गया है। अगर इस दिशा में काम कर लिया जाए तो और बेहतर होगा।

कंपनियों को भी डिलिवरी गर्ल्स रास आ रही हैं। एमजॉन ने तिरुअनंतपुरम और चेन्नै में दो विमिन ओनली डिलिवरी स्टेशन खोले हैं और अगला कोच्चि में खोलने वाले हैं। कंपनी ने सुरक्षा को ध्यान में रखकर डिलिवरी गर्ल्स के लिए सुबह 7 बजे से शाम 7 बजे का टाइम भी फिक्स कर दिया है। साथ ही, इनके लिए एक हेल्पलाइन नंबर भी लॉन्च किया है। कंपनी ने 20 लड़कियों को ट्रेंड किया और हर महीने और 3-4 लड़कियों को ट्रेंड करने की योजना है। इसके लिए कंपनी की शर्त है कि इच्छुक लड़कियों को टू वीलर चलाने के अलावा इंग्लिश पढ़ने और लिखने की समझ होनी चाहिए। डायरेक्टर ऑफ ट्रांसपोर्टेशन, एमजॉन इंडिया सैमुअल थॉमस का कहना है कि अगर डिलिवरी गर्ल्स अपना काम सही से करती हैं तो उन्हें नौकरी में ना रखने की कोई वजह नहीं है।

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​ LED की लीड

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एक साधारण-सी जरूरत के मिशन बन जाने की कहानी है LED रेवलूशन। उजाला यानी उन्नत ज्योति बाय अफर्डेबल फॉर ऑल योजना वाकई लोगों के घरों में उजाला भर रही है। इसके तहत देश में 77 करोड़ एलईडी बल्ब लगाने की योजना है और अब तक करीब 26 करोड़ से ज्यादा बल्ब लगाए भी जा चुके हैं। इस मिशन ने बिजली और पैसों की बचत के साथ-साथ प्रदूषण भी कम किया है। देश में हो रहे LED रेवलूशन का जायजा ले रहे हैं लोकेश के. भारती

जब उजाला योजना पर काम शुरू हुआ था तो इससे जुड़े लोग सफलता को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे। एलईडी रेवलूशन की राह इतनी आसान भी नहीं थी क्योंकि इस योजना की जब शुरुआत हुई थी तो एलईडी बल्ब की कीमत सामान्य बल्ब से 30-35 गुना ज्यादा थी। करीब 3 साल पहले जब कोई एक एलईडी बल्ब खरीदना चाहता था तो उसे 300 रुपये से भी ज्यादा खर्च करने पड़ते थे, जबकि सामान्य बल्ब की कीमत बमुश्किल 10 से 12 रुपये थी। ज्यादा दाम इसकी कामयाबी में बड़ी रुकावट थी। इसकी वजह थी कि उस वक्त एलईडी बल्बों का उत्पादन लाखों के बजाय हजारों में होता था। इससे लागत ज्यादा आती थी। इस समस्या से निबटने का इकलौता तरीका था ज्यादा से ज्यादा एलईडी बल्ब का प्रॉडक्शन ताकि इनकी कीमत कम हो सके। ऐसे में ऊर्जा मंत्रालय के तहत एनटीपीसी, पावर फाइनैंस कॉरपोरेशन जैसे पीएसयूज़ ने मिलकर EESL का गठन किया ताकि एलईडी रेवलूशन को अंजाम तक पहुंचाया जा सके।

योजना की सफलता ऐसी कि दूर देश के लोग भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। टैक्सस में रहनेवालीं 13 साल की मीरा वशिष्ठ को जब उजाला योजना के बारे में पता चला तो उन्होंने दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के घरों में एलईडी बल्ब लगवाने के लिए पैसे जुटाना शुरू कर दिया। पैरंट्स की मदद से करीब एक साल में मीरा ने करीब 1 लाख 40 हजार रुपये जुटा लिए। इस रकम से एलईडी बल्ब खरीदकर झुग्गियों में बांटे गए। ऐसी शानदार कोशिशें मिशन में अहम पड़ाव साबित हुईं।

कीमतें हुईं कम, तो बढ़ी दिलचस्पी
एलईडी की कीमतें जब बाजार में कम होने लगीं तो धीरे-धीरे लोगों ने इसमें दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया। लोग एक-दूसरे को एलईडी बल्ब के फायदे बताने लगे। सारी कोशिशों के बाद इसकी कीमतें करीब 88 फीसदी तक कम हो गईं। इसके बाद घरों के इतर स्ट्रीट लाइट और दूसरी जगहों पर भी बड़ी संख्या में एलईडी बल्ब लगने लगे। असम के बिलसाईपाड़ा की एसडीएम डॉ. एम. एस. लक्ष्मीप्रिया ने उजाला योजना के तहत 50,000 एलईडी बल्ब खरीदे और सरकारी स्कूल के बच्चों के बीच बंटवा दिए। दिल्ली-चंडीगढ़ हाइवे पर काफी ढाबे हैं, वहां की सजावट में बल्बों का यूज होता था और काफी बिजली खर्च होती थी। इनमें से करीब 30 ढाबों में एलईडी लाइटिंग शुरू करने में ईईएसएल ने मदद की। इसका सीधा फायदा इन ढाबा मालिकों को हुआ। जेनरेटर का इस्तेमाल कम हो गया और ओवरलोडिंग की समस्या से भी छुटकारा मिल गया। जब ये बातें दूसरे ढाबे वालों को पता चलीं तो उन्होंने भी अपने यहां एलईडी बल्ब लगवाए। इससे जहां बिजली का बिल कम हुआ, वहीं काफी बिजली भी बची, जो दूसरे अंधेरे घरों के काम आई। इस मिशन को कामयाब बनाने में पूर्व ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने काफी मेहनत की थी। राजनीतिक विश्लेषक इस बात की तस्दीक करते हैं कि ऊर्जा मंत्री को रेलवे मंत्रालय की जिम्मेदारी मिलने में इस मिशन की कामयाबी ने अहम भूमिका निभाई।

दरअसल, पहली बार एलईडी रेवलूशन के लिए जो सूत्र तैयार किया गया, उसका पहला प्रयोग पुदुचेरी में किया गया। 2014 में सिर्फ 6 महीने के अंदर 7 वाट के 60 लाख एलईडी बल्ब बेचे गए। उसी साल के आखिर में आंध्र प्रदेश से 60 लाख बल्ब की मांग आ गई। इतनी ज्यादा मांग का नतीजा यह रहा कि 2014 खत्म होते होते एक एलईडी बल्ब की कीमत 310 रुपये से घटकर 149 रुपये हो गई। हालांकि खुशी के बड़े लम्हे आने अभी बाकी थे। 2015 के शुरुआती महीनों में ही दिल्ली से 1.60 करोड़ एलईडी बल्बों की डिमांड आई और कीमत घटकर 82 रुपये पर पहुंच गई। जल्द ही 5 करोड़ नए बल्ब के ऑर्डर और पहुंची तो बल्ब की कीमत 70 रुपये पर आ गई।

सफलता बड़ी है!
जब किसी देश में पावर की डिमांड में 3.6 फीसदी की गिरावट आए तो इसे बहुत नहीं कहा जाएगा, लेकिन भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए यह बड़ी बात है, जहां पावर कट बेहद आम है। एलईडी बल्ब के इस्तेमाल ने ही यह करिश्मा किया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार महज 32 महीनों के अंदर 25.79 करोड़ से ज्यादा सामान्य बल्बों को एलईडी बल्बों से बदला जा चुका है। यह संख्या हर दिन बढ़ रही है। सरकार का मकसद 77 करोड़ एलईडी बल्ब लगाने का है। इसके अलावा लाखों एलईडी ट्यूब लाइट्स और पंखे भी लगाए गए हैं।

ईईएसएल के मैनेजिंग डायरेक्टर सौरव कुमार कहते हैं, 'चुनौती एलईडी बल्ब बेचने की नहीं थी, बल्कि राज्य सरकारों और लोगों को विश्वास दिलाने की थी कि यह उनके लिए फायदे का सौदा है। दरअसल, जब एलईडी को मार्केट में उतारा गया था तो लोग कीमत सुनकर ही मन बदल लेते थे और इसकी खासियतों के बारे में जानना भी नहीं चाहते थे। इसी तरह तमाम राज्य सरकार को यह यकीन दिलाना कि अगर वे एलईडी रेवलूशन को प्रमोट करेंगे तो पैसा बचाने के साथ ही पावर डिमांड और पलूशन में भी कमी आएगी, भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था।'

यह आर्थिक फायदे की ही बात है कि ब्रिटेन और मलयेशिया जैसे देश भी उजाला मिशन में खासी दिलचस्पी दिखा रहे हैं।

इन्वाइरनमेंट और जेब को फायदा
पहले 100 वॉट का एक बल्ब 10 घंटे तक इस्तेमाल करने पर एक यूनिट बिजली की खपत करता था। अब 9 वॉट का एक एलईडी बल्ब 111 घंटे तक इस्तेमाल करने पर एक यूनिट बिजली की खपत करता है। इससे साफ है कि यह कितनी बिजली बचाता है। यह इन्वाइरनमेंट के लिए भी बहुत फायदेमंद है। एलईडी रेवलूशन के बाद 2,71,36,152 टन प्रतिवर्ष कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में कमी आई है और यह लगातार जारी है। मर्करी न होने से ये पर्यावरण के अनुकूल भी हैं।
एलईडी के यूज से जहां आम लोगों के बिजली बिल में कमी आई है, वहीं सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कुछ कम हुआ है। बिजली की खपत कम होने से अब ज्यादा घरों के रोशन होने का रास्ता भी साफ हो गया है। मिशन उजाला की सफलता का यह भी एक बड़ा कारण है।

सबको फायदे का मौका
देश का कोई भी नागरिक जिसने बिजली का कनेक्शन लिया हुआ है, उजाला योजना के तहत सस्ते एलईडी खरीद का फायदा उठा सकता है। यही नहीं, वे ईएमआई पर भी बल्ब खरीद सकते हैं। जाहिर है, लोअर इनकम ग्रूप भी इस वजह से इसका फायदा उठा पाया है। इसके लिए बिजली का बिल और सरकारी पहचान-पत्र देना होगा और अगर एक बार पेमेंट करके खरीदना चाहते हैं तो सरकारी पहचान-पत्र ही काफी है। ज्यादातर शहरों में इसके वितरण केंद्र हैं। यह रिटेल स्टोर पर नहीं मिलता। वितरण केंद्रों की पूरी जानकारी ujala.gov.in पर उपलब्ध है। खास बात यह है कि अगर एलईडी बल्ब खराब हो गया हो, लेकिन वह टूटा न हो तो तीन साल के अंदर ईईएसएल इसे मुफ्त में बदल देती है।

शिकायतें भी हैं
मार्केट में ऐसे एलईडी बल्ब भी उपलब्ध हैं, जो इससे भी कम दाम पर मिल जाएंगे। हालांकि ये जल्दी फ्यूज भी हो जाते हैं। बाजार के सूत्र कहते हैं कि ये ज्यादातर चाइनीज़ हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि लोग उन सेंटरों से ही LED की खरीदारी करें, जो रजिस्टर्ड हैं। कुछ शिकायतें LED बल्ब के फ्यूज होने पर बदलने में देरी होने को लेकर भी रही हैं। हालांकि सौरव कुमार इससे इनकार करते हैं। वह कहते हैं कि हमारे हेल्पलाइन नंबर हमेशा चालू करते हैं। अगर किसी को कोई समस्या है तो हेल्पलाइन नंबर, ईमेल या वेबसाइट पर जाकर शिकायत दर्ज करा सकता है। उस पर तुरंत सुनवाई होगी।

सामान्य बल्ब, CFL और LED बल्ब
- सामान्य बल्ब की पीली रोशनी से निजात दिलाने के लिए सबसे पहले CFL बल्ब लाया गया। लोगों ने इसे खूब सराहा, लेकिन जल्द ही इसकी चमक LED बल्ब ने कम कर दी।
- एक सामान्य बल्ब तब रोशनी पैदा करता है, जब फिलामेंट गर्म करता है यानी यह बल्ब 90 फीसदी बिजली का इस्तेमाल फिलामेंट गर्म करने के लिए ही करता है।
-CFL बल्ब तब रोशनी उत्पन्न करता है, जब बिजली ट्यूब से भरी गैसों के बीच से पारित होती हैं। इसमें सामान्य बल्ब से कम लेकिन LED के मुकाबले ज्यादा बिजली खपत होती है।
-CFL बल्ब का ऊपरी भाग यानी रोशनी करने वाला हिस्सा शीशे का बना हुआ होता है। ऐसे में इसके टूटने का खतरा हमेशा बना रहता है।
-CFL बल्ब की गारंटी 6 महीने से 1 साल की होती है।
-LED बल्ब हल्के होते हैं और इनकी गारंटी 2 से 3 साल की होती है।
-LED के बाहर सिर्फ एक गोल और मजबूत प्लास्टिक ही निकला रहता है जोकि कभी फूटता नहीं। अगर फूट भी जाए तो भी अपना काम बखूबी करता है।
-15 वाट वाले CFL बल्ब की जगह पर 9 वाट का ही LED बल्ब इस्तेमाल करने की जरूरत पड़ती है, यानी बिजली बिल में बल्ब से होने वाले खर्च में से 35% से भी ज्यादा की बचत होगी।

LED बल्ब की कीमत
उजाला के तहत मिलने वाली चीजों की कीमत है:
LED बल्ब: 70 रुपये
LED ट्यूबलाइट: 220 रुपये
LED पंखा: 1200 रुपये

अब तक लगाए गए हैं
25,79,68,000 बल्ब
31,60,725 ट्यूबलाइट
11,85,467 पंखे
3,000,000 स्ट्रीट लाइट

LED बल्ब लगाने से
33,501 मिलियन किलोवाट बिजली की बचत हर साल
13,401 करोड़ रुपये की बचत सरकार को हर साल
6,707 मेगावाट बिजली की मांग हुई कम

ईईएसएल की भूमिका
पेट्रोल पंप और गैस स्टेशनों पर भी उपलब्ध
EESL ने पावर मिनिस्ट्री के साथ मिलकर पेट्रोलियम और नेचरल गैस मंत्रालय के साथ एमओयू भी साइन किया है जिसके तहत ऑयल मार्केटिंग कंपनियां (आईओसीएल, बीपीसीएल और एचपीसीएल) अब उजाला कार्यक्रम को बढ़ावाा देंगी। इसके तहत अब LED बल्ब, ट्यूब और बिजली बचाने वाले पंखे आदि के रिटेल आउटलेट पेट्रोल पंपों और नेचरल गैस स्टेशनों पर भी मिला करेंगे। इसे फेज के अनुसार लागू किया जाएगा। पहले फेज में यूपी और महाराष्ट्र को शामिल किया गया है।
कहां करें शिकायत
टि्वटर: @EESL_India पर ट्वीट कर सकते हैं।
ईमेल: info@eesl.co.in पर शिकायत भेज सकते हैं।
वेबसाइट: ujala.gov.in साइट पर ऊपर दाईं तरफ शिकायत दर्ज कराने के लिए रेजॉल्यूशन टैब दिया गया है।
हेल्पलाइन नंबर: 1800-180-3580

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इजरायल: जहां घर-घर है फौजी

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इजरायल मिसाल है स्वाभिमान की, आत्मसम्मान की और आत्मविश्वास की! चारों तरफ दुश्मन देशों से घिरे होने और न के बराबर प्राकृतिक संसाधन के बावजूद इस देश ने अपनी अलग पहचान कायम की है। इजरायल की खूबियों-खामियों से रूबरू करा रहे हैं, हाल में वहां का दौरा कर लौटे सतीश मिश्र:

यहां महिलाएं भी सेना में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दुश्मन से लड़ती हैं। बेहद खूबसूरत दिखने वालीं ये महिला सैनिक इतनी मजबूत हैं कि सन 2000 में नियम बदलकर महिलाओं और पुरुषों की यूनिटें आपस में मिला दी गईं। हम बात कर रहे हैं इजरायल की, जो दुनिया के उन मुट्ठी भर देशों में से है, जहां महिलाओं के लिए भी सैन्य सेवा अनिवार्य है। यहां कुल सैनिकों में एक-तिहाई और अधिकारी लेवल पर करीब आधी महिलाएं हैं। महिला सैनिकों को भी पुरुषों के बराबर कड़ी ट्रेनिंग दी जाती है। उन्हें भी हर तरह के हथियार चलाने और किसी भी हालात से निपटने के लिए इतना मजबूत बनाया जाता है कि वे हर मौके पर खुद को साबित कर सकें। शायद आपको ऐसी महिला ब्रिगेड दुनिया में कहीं देखने को न मिले क्योंकि ये जितनी खूबसूरत दिखती हैं, उतनी ही बहादुर और मजबूत भी हैं। यहां अनिवार्य सैन्य सेवा से शादीशुदा महिलाओं, मांओं और इस्राइली-अरब महिलाओं को छूट है। वैसे, कड़ी जिंदगी के बावजूद यहां अक्सर महिला सैनिकों के यौन उत्पीड़न की शिकायतें सामने आती हैं। आंकड़े बताते हैं कि सेना में काम करने वाली 20% महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं।

इजरायल सरकार की मुख्य प्रवक्ता शैली एशकोली के मुताबिक पहले महिला सैनिकों को हमेशा फ्रंट से दूर बैक ऑफिस के काम पर लगाया जाता था लेकिन 1967 में अरब-इस्राइल युद्ध में एक महिला अफसर ने इस नियम को तोड़ा और वह जॉर्डन के मोर्चे पर चली गईं। वहां उन्होंने जिस तरह जोश के साथ पुरुष साथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लोहा लिया, उसका जिक्र आज तक किया जाता है। हालांकि उन्होंने चूंकि सेना के नियमों की अनदेखी की थी इसलिए उन्हें चार हफ्ते की सजा भुगतनी पड़ी। आधिकारिक रूप से 2006 में दूसरे लेबनान युद्ध के दौरान महिलाओं ने पहली बार लड़ाई में हिस्सा लिया।

अनिवार्य सैन्य सेवा के फायदे
इजरायल में 18 साल से ज्यादा उम्र के नागरिकों (इजरायल के अरब नागरिकों को छोड़कर) को अनिवार्य रूप से सैन्य सेवा करनी पड़ती है। सिर्फ धार्मिक सेवारत, विकलांग या मनोरोगियों को इससे छूट है। पुरुषों के लिए सामान्यत: यह अवधि दो साल आठ महीने की और महिलाओं के लिए दो साल की होती है। इजरायल सरकार की प्रवक्ता शैली एशकोली ने साफ किया, 'प्रशिक्षण हासिल करनेवाले हर शख्स को सेना की जरूरत के मुताबिक सेवा देने के लिए तैयार रहना होता है। ओलिंपिक खेलों के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों, डांसरों और संगीतकारों को अपनी प्रतिभा विकसित करने के लिए सेवा अवधि में 75% तक की छूट मिलती है।' हालांकि एक सच यह भी है कि हाल के बरसों में अनिवार्य सेवा से छूट मांगनेवालों का प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है। ज्यादातर रईस अपने बच्चों को 18 साल का होने से पहले दूसरे देशो में पढ़ने भेज देते हैं। कई बार लोग लाइलाज बीमारी या विकलांगता का फर्जी सर्टिफिकेट देकर खुद को अनिवार्य सैन्य भर्ती से बचा लेते हैं। कई तो इससे बचने के लिए दूसरे देश में जाकर बस जाते हैं।

वैसे सिर्फ सैन्य सेवा ही क्यों, इजरायल और भी कई चीजों में अनोखा है। सिर्फ 87 लाख जनसंख्या वाले इस देश के साथ ईश्वर ने इंसाफ नहीं किया। देश का 75% हिस्सा रेगिस्तान में है लेकिन यहां एक गैलन तेल नहीं निकलता जबकि सटी हुई सीमा के सभी देश मसलन सऊदी अरब, जॉर्डन, मिस्र, सीरिया में तेल के लबालब भंडार हैं। राजनीतिक तौर पर संपूर्ण अस्थिरता वाला ऐसा देश है यह जिसमें किसी दल को आज तक बहुमत नहीं मिला लेकिन जब बात देशहित, राष्ट्रीय सुरक्षा, सम्मान और स्वाभिमान की होती है, सभी की आवाज हमेशा एक रही है। आज प्रधानमंत्री नेतनियाहू और उनकी पत्नी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों में जांच विरोधियों की मांग पर हो रही है लेकिन जैसे ही अरब मुद्दे की बात होगी, इन सब की एक आवाज होगी। यही होता है देश का सच्चा चरित्र।

एक देश, एक भाषा
14 मई 1948 को इस्राइल बना था। तब दुनिया के कोने-कोने से आकर यहूदी यहां बसे। वे अपने साथ अलग-अलग जीवन-शैलियां और भाषाएं लेकर आए लेकिन कोई एक संपर्क भाषा न होने के कारण इनके बीच बहुत बड़ी खाईं थी। ऐसे में इनकी मूल भाषा हिब्रू को फिर से जिंदा करने का फैसला लिया गया लेकिन बहुत कम लोग ही हिब्रू जानते थे। सरकार ने हिब्रू सिखाने के लिए एक नायाब पंचवर्षीय भाषा अभियान चलाया। इसके तहत पूरे देश में जो भी शख्स हिब्रू जानता था, वह दिन में 11 बजे से 1 बजे तक अपने इलाके के स्कूल में जाकर हिब्रू पढ़ाता था। स्कूल में यह भाषा सीखनेवाले बच्चे रोजाना शाम को अपने माता-पिता और बाकी उम्रदराज लोगों को हिब्रू पढ़ाते थे। सरकार ने अगस्त 1948 से अगले पांच साल तक रोजाना हिब्रू की मूल और शुरुआती शिक्षा का ज्ञान रेडियो से प्रसारित करना शुरू किया। पांच साल खत्म होने तक पूरा देश हिब्रू सीख चुका था। आज तो यहां इंजीनियरिंग और मेडिकल से लेकर सारी उच्च शिक्षा भी हिब्रू में होती है। इस देश में अपनी जड़ को जीवित रखने का ऐसा जज्बा दिखाकर एक मिसाल पेश की हो, उसे कौन पछाड़ सकता है?

पढ़ाई और सेहत पर जोर
इजरायल की शिक्षा प्रणाली अनूठी है। चूंकि 18 साल का होने के बाद सभी को इजरायल सैन्य सेवा में शामिल होना अनिवार्य है इसलिए सारे पाठ्यक्रम इस तरह बनाए गए हैं कि पढ़ाई पूरी करते ही स्टूडेंट्स मिलिटरी में शामिल हो सकें। यहां 18 साल की उम्र तक पढ़ाई मुफ्त है। इजरायल की 8 यूनिवर्सिटियों में मेडिकल और विज्ञान की पढ़ाई पर खासा जोर है। प्राथमिक विद्यालय में किताबी पढ़ाई के साथ-साथ संगीत, कला, फैशन डिजाइनिंग और फिजिकल एजुकेशन की स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है। इजरायल में इस बात पर ज्यादा जोर रहता है कि छात्रों के रुझान को विकसित कर उसे लोकतंत्र, पर्यावरण संरक्षण, हिब्रू भाषा और शांति के मूल्यों में दक्ष बनाया जाए। इसी तरह, यहां की चिकित्सा प्रणाली काफी उन्नत है। यहां के असुटा अस्पताल में जब हमने कुछ चीजें जानने की कोशिश की तो डॉक्टर से लेकर बाकी सभी इस बात से चिंतित दिखे कि इन जानकारियों का कहां और किस तरह इस्तेमाल किया जाएगा। यह भी पता चला कि वे सभी एक ऐसे प्रोटीन की खोज के अंतिम चरण में हैं, जो जेनेटिक वजहों से होनेवाले मांसपेशियों के दर्द के जोखिम को लगभग खत्म कर देगा। असुटा अस्पताल की अधिकारी दीना ओरेनबाच के मुताबिक, 'इजरायल कभी भी दुनिया में अपनी रिसर्च का ढिंढोरा नहीं पीटता। वैसे दुनिया बिना कहे इस सच को जानती है कि हमारे देश में सर्जरी और इलाज बहुत बेहतर है। हम जानकारियों और रिसर्च का आपस में लेन-देन भी करते हैं जिससे दुनिया में हर किसी को इसका फायदा मिल सके।'

शतरंज है खासा पॉप्युलर
इजरायल में सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल और बास्केटबॉल हैं। शतरंज भी यहां खासा पॉप्युलर है। विंड सर्फिंग के राष्ट्रीय खिलाड़ी इडो कात्ज कहते हैं कि हमें पूरा ध्यान शतरंज के विकास पर लगाना चाहिए क्योंकि हम इसमें हमेशा से अव्वल रहे हैं। मैं देश की खेल प्रतिभा विकास कार्यक्रम से जुड़ा रहा हूं और मानता हूं कि अगर बहुमुखी प्रयास करने के बदले शतरंज पर सबसे ज्यादा फोकस किया जाए तो इजरायल इसका बादशाह बन सकता है। दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा खेल आयोजन मकाबी (इजरायल) में होता है, जो दुनिया भर के सिर्फ यहूदियों के लिए होता है। 2005 में वर्ल्ड टीम चेस चैंपियनशिप की मेजबानी भी इस्राइल कर चुका है। 1992 में पहली जीत के बाद से अब तक इजरायल ने कुल 9 ओलिंपिक पदक जीते हैं।

रेगिस्तान में लहलहाती खेती का अजूबा
कृषि जगत में क्रांति का उदाहरण है इजरायल। देश का ज्यादातर हिस्सा रेगिस्तान में होने और न के बराबर बारिश होने के बावजूद ‘ड्रिप इरिगेशन’ तकनीक के सहारे इजरायल रोजाना हजारों टन फूल और सब्जियां यूरोप को भेज रहा है। सिर्फ ठंडे माहौल (करीब 9 डिग्री) और समुद्र तल से दूर उगनेवाले अंगूर को रेगिस्तान के भीतर और वह 45 डिग्री तापमान में उगाकर आज वह वाइन का बड़ा निर्यातक देश बन गया है।

1. इस्राइल की सड़कों पर भारतीय सैनिक?
यरुशलम के टॉवर ऑफ डेविड्स के सामने अरब मार्केट की ओर जानेवाले रास्ते पर एक साथ परेड में कदमताल करते भारतीय सैनिकों को देखकर एकबारगी तो अचंभा हुआ कि आखिर इतने सैनिक यहां क्या कर रहे हैं? उनके साथ चलते हुए काफी जानकारी ली। इत्तफाक यह हुआ कि देश लौटते हुए विमान में भी वे मिल गए। पता चला कि वे सैनिक नहीं, 2015 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अफसर थे जो इजरायल में एंटी-टेररिस्ट ट्रेनिंग लेने आए थे।

2. मोदी की घोषणा से नया विवाद
हाल में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन दिवसीय यात्रा पर इजरायल गए थे। वहां उन्होंने एक ऐसी घोषणा कर डाली है जिसे लेकर रक्षा विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है। मोदी ने घोषणा की कि इजरायल में भारतीय मूल के उन लोगों को भी प्रवासी नागरिक (ओसीआई) का कार्ड मिलेगा, जिन्होंने इजरायल की सेना में अनिवार्य सैन्य सेवा दी हो। यह दुनिया के किसी भी देश में नहीं हुआ। बताते हैं कि इसे लेकर सेना के उच्चाधिकारी चिंतित हैं क्योंकि दोहरी नागरिकता वाला सैन्य शिक्षा में दक्ष शख्स जाने-अनजाने में कई संवेदनशील क्षेत्रों में जा सकता है या ऐसे दस्तावेज हासिल कर सकता है, जो देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हैं।

क्या कहते हैं जानकार
मामूली-सी बारिश के पानी को भी जमा कर ड्रिप इरिगेशन के जरिए उगाई गए अंगूर की नस्ल अब जल्द ही इजरायल वाइन को विश्व स्तर पर ले जा रही है। रेगिस्तान में उपलब्ध सौर ऊर्जा का भी बेहतरीन इस्तेमाल इजरायल ने किया है।
-इत्साक येजबर्ग, कई किस्मों के फल पैदा करनेवाले किसान

हम अपने छात्रों को इतना सक्षम बना देना चाहते हैं कि सारी दुनिया उनकी तरफ एक आदर्श के रूप में देखे। मेडिकल के क्षेत्र में हमारे यहां कई ऐसी रिसर्च हो रही हैं, जो दुनिया को पूरी तरह से बदल देने की क्षमता रखती हैं। हमारी यूनिवर्सिटियों में भारत समेत कई देशों के स्टूडेंट पढ़ाई कर रहे हैं।
-इमा कोवजाई, तेल अवीव यूनिवर्सिटी की प्रवक्ता

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बदलाव की ‘उड़ान’

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पिछली बार टोरंटो में आयोजित सोशल ऑन्ट्रप्रनर प्रोजेक्ट्स की प्रतियोगिता में शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ बिजनस स्टडीज के स्टूडेंट्स दूसरे पायदान पर आए थे। अब लंदन में 28 सितंबर को होने वाली प्रतियोगिता में देश की नुमाइंदगी करने के लिए एक बार फिर से वे कमर कस रहे हैं। इन प्रोजेक्ट्स में एक नाम है ‘उड़ान’ जो गांवों के युवाओं को कंप्यूटर एजुकेशन के जरिए लंबी उड़ान भरने के लिए तैयार कर रहा है। जानते हैं, इस खास सोशल ऑन्ट्रप्रनर मिशन के बारे में:

क्या है मिशन
'इनैक्टस' के एनजीओ उड़ान का पहला मिशन यह है कि कंप्यूटर और इंटरनेट को ज्यादा से ज्यादा गांवों तक पहुंचाया जाए। ऐसा करने में सबसे बड़ी बाधा है फंड और गांवों में काम का स्कोप न देखने वाली मानसिकता। इससे पार पाने का बीड़ा उठाया है उड़ान चलाने वाली संस्था इनैक्टस ने। पूरे मिशन के लिए पैसा और सुविधाएं क्राउड फंडिंग और बड़े स्पॉन्सरों के जरिए जुटाई जाती है। इसके लिए स्टूडेंट्स गांव के सरपंच से लेकर कंप्यूटर बनाने वाली कंपनियों तक के साथ मीटिंग करते हैं ताकि इंस्टिट्यूट खोलने के लिए जमीन से लेकर कंप्यूटर तक की व्यवस्था की जा सके। इस प्रोजेक्ट की शुरुआत 2015 में हुई थी। इसके जरिए तकरीबन 50 हजार बच्चों को अब तक कंप्यूटर एजुकेशन से जोड़ा जा चुका है। बड़ी उपलब्धि यह है कि कंप्यूटर एजुकेशन के लिए यूपी और हरियाणा के गांवों में चलाए जाने वाले 6 सेंटरों को गांवों की महिलाएं ही चला रही हैं।

क्या है मॉडल
उड़ान मिशन का पायलट प्रोजेक्ट इस लिहाज से खास है कि इसे हरियाणा के एक ऐसे शहर झज्जर में शुरू किया गया है, जहां सेक्स रेशियो देश में सबसे कम है। यह न सिर्फ इस इलाके में एजुकेशन के हालात के बारे में बताता है बल्कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को भी बयां करता है। यहां पर महिलाओं के बीच कंप्यूटर एजुकेशन तो छोड़िए स्कूली एजुकेशन की हालत भी बेहद खराब है। ऐसे में गांव में कोई कंप्यूटर सेंटर खोलना और उसे चलाना एक चुनौती भरा काम है।

कौन चलाता है सेंटर
वैसे तो प्रोजेक्ट में काम करने वाले स्टूडेंट्स दिल्ली के शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ बिजनस स्टडीज से आते हैं, लेकिन इनका काम सिर्फ एक मॉडल तैयार करना भर है। इसे चलाने की जिम्मेदारी गांव के ही किसी ऐसी शख्स को सौंपी जाती है जो इसे अच्छी तरह से न सिर्फ चला सके बल्कि गांव के बाकी लोगों को कंप्यूटर एजुकेशन के बारे में अच्छी तरह से समझा भी सके।

कौन करता है क्या काम
कॉलेज के 25 स्टूडेंटस की टीम फाइनैंस, सिलेबस, बिजनस डिवेलपमेंट और एक्पेंशन जैसे विषयों पर काम करती है और सेंटर को बेहतर तरीके से चलाने के सुझाव देती है। इस प्रोजेक्ट में फर्स्ट इयर और सेकंड इयर के स्टूडेंट्स भाग लेते हैं और थर्ड इयर के स्टूडेंट्स सलाहकार की भूमिका निभाते हैं।

सबसे बड़ी चुनौती
प्रोजेक्ट से शुरुआत से ही जुड़े भव्य बताते हैं कि इस पूरे प्रोजेक्ट में सबसे मुश्किल काम एक ऐसे सोशल ऑन्ट्रप्रनर की खोज थी जो इस पूरे सेंटर को अच्छी तरह से चला सके। 'उड़ान' ने इस काम के लिए एक महिला को चुना। ऐसा करने का सबसे बड़ा कारण यह था कि महिलाओं के जरिए बच्चों को आसानी से कंप्यूटर एजुकेशन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। हालांकि किसी महिला को एक ऐसे गांव में सेंटर का हेड बनाना काफी मुश्किल था जहां महिलाओं को पढ़ने के लिए भी नहीं भेजा जाता। जिस महिला से संपर्क किया गया, वह भी शुरुआत में अपने परिवार की इच्छा के खिलाफ जाकर ऐसा कोई काम करने को राजी नहीं थी। स्टूडेंट्स ने महिला के परिवार से संपर्क किया और उन्हें मनाया। उन्हें बताया गया कि कैसे ग्रेजुएशन के बाद भी घर पर बैठी बेटी घर के आसपास के लोगों के लिए अच्छा काम करके पैसे कमा सकेगी। बात उन्हें समझ में आई और मिशन की शुरुआत हुई। अब आने वाले दिनों में सेंटर इस महिला ऑन्ट्रप्रनर को सौंप दिया जाएगा। इसके बाद ‘उड़ान’ फिर से उड़ चलेगा किसी दूसरे गांव में कंप्यूटर एजुकेशन की रोशनी पहुंचाने।

सेवा के साथ पहचान भी
उड़ान प्रोजेक्ट से जुड़े भव्य भाटिया हरियाणा के झज्जर जिले के कलोई गांव हफ्ते में औसतन 3 दिन जाते हैं। आने-जाने में तकरीबन 4 घंटे का वक्त लगता है और यह सब कॉलेज की पढ़ाई के साथ चलता है। भव्य भाटिया से हमारा अगला सवाल यही था कि इतना वक्त इन कामों में लगता है तो गर्लफ्रेंड के लिए समय कैसे मिलता है? भव्य मुस्कुराते हुए जवाब देते हैं कि गर्लफ्रेंड भी प्रोजेक्ट में मेरे साथ काम कर रही है। ऐसे में उसके लिए अलग से वक्त नहीं निकालना पड़ता। यह एक बानगी है, उन जुनूनी युवाओं की जो दुनिया को बदलने की शुरुआत अपने आसपास को बदलने से कर रहे हैं। ये स्टूडेंट्स गांवों के युवाओं को कंप्यूटर एजुकेशन के नजदीक ला रहे हैं और इसके लिए उन्हें पहचान भी मिल रही है।

क्या है मिशन का असर
- कुछ 6 सेंटरों के आसपास के तकरीबन 50 हजार लोगों तक कंप्यूटर एजुकेशन पहुंची है।
- इन्हें चलाने वाली महिलाओं को हर महीने 6-7 हजार रुपये की आमदनी होने लगी है।
- जो बच्चे कंप्यूटर सीख चुके हैं, उनमें अपने सब्जेक्ट की बेहतर समझ देखी गई।

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1 ऑफिस में 20 देश

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ग्लोबल विलेज के इस जमाने में दुनिया का एक छत के नीचे आ जाना खासा दिलचस्प है। वनप्लस मोबाइल का चीन के शेनजेन स्थित मुख्यालय इस मामले में बेहद खास है। यहां एक छत के नीचे 20 देशों के लोग काम करते हैं। अलग-अलग संस्कृति से आए इतने देशों के लोग एक साथ कैसे काम करते हैं, बता रहे हैं अमित जो हाल में शेनजेन का दौरा करके लौटे हैं...

वनप्लस के शेनजेन स्थित मुख्यालय में जाकर आप कन्फ्यूज हो सकते हैं। आपको लगेगा ही नहीं कि आप चीन के किसी ऑफिस में हैं। यह कहीं से भी चाइनीज ऑफिस नजर नहीं आता। कारण यह कि यहां पर दिखने वाला हर दूसरा चेहरा चीन के बाहर का है। यहां 20 देशों के लोग साथ काम करते हैं। यूके, यूएस, भारत, स्पेन, ताइवान, फिनलैंड, साउथ कोरिया, फ्रांस, नीदरलैंड जैसे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के लोगों को एक साथ काम करते देखना वाकई दिलचस्प है। हो सकता है कि भारतीय के बगल में काम कर रहा शख्स फ्रांस या आर्मीनिया का हो या फिर साउथ कोरिया या ताइवान का।

यहां के लोग किस तरह के ग्लोबल माहौल में काम कर रहे हैं, कंपनी के टॉप के कुछ लोगों को देखकर इसे समझना आसान है। कार्ल पाई कंपनी के को-फाउंडर हैं। वह चीन में पैदा हुए, स्वीडन में पले-बढ़े और अमेरिका में पढ़ाई करके चीन आ गए। चीफ मार्केटिंग ऑफिसर कायल कियांग अमेरिकी नागरिक हैं तो डिजाइन डायरेक्टर ब्रायन यून साउथ कोरिया के हैं। ऑपरेटिंग सिस्टम के प्रमुख ओमेगा सू ताइवान से हैं तो प्रॉडक्ट मैनेजर सायमॉन ओपेक पोलैंड के हैं।

इमेज की मजबूरी
इतनी विविधता के पीछे भी एक कारण है। मोबाइल बनाने वाली किसी भी चीनी कंपनी के लिए सबसे बड़ा चैलेंज होता है ‘मेड इन चाइना’ की छाया से बाहर आना। इसी छाया से बाहर आने के लिए यहां भी अलग-अलग देशों को लोगों को हायर किया गया है। कंपनी के सीईओ और फाउंडर पीट लाऊ कहते हैं कि हम शुरुआत से ही एक ग्लोबल मोबाइल ब्रैंड खड़ा करना चाहते थे और ऐसा तभी हो सकता था जब इसे बनाने में दुनिया भर के लोग जुटें। हमने इसके लिए दुनिया भर से ऐसे लोगों को हायर किया जो किसी भी भौगोलिक सीमा में बंधकर काम नहीं करना चाहते। असल में यहां काम करने वाले वर्ल्ड सिटिजन हैं, न कि किसी खास देश के। यह अहसास ही लोगों को एक ग्लोबल प्रॉडक्ट बनाने के लिए प्रेरित करता है।

आदतें अलग, दुनिया एक
पूरा ऑफिस भले ही अलग-अलग देशों के लोगों का एक कुनबा नजर आता है, लेकिन अगर कुछ कॉमन नजर आता है तो वह है काम करने का स्टाइल। किसी के ऑफिस आने या जाने का कोई वक्त तय नहीं है। सबको एक जगह इकट्ठा करने का काम करता है किचन एरिया। किचन में जाकर सब अपने मन का खाना खुद बना सकते हैं। किचन में सबकुछ सबके लिए खुला है। यह किचन सही मायने में ग्लोबल किचन बन चुका है। यूरोप से लेकर अमेरिका तक और एशिया से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक का खाना आपको यहां बनता दिख जाएगा।

सहूलियत या चुनौती?
इस ग्लोबल कल्चर को बनाए रखने की कवायद ऑफिस में भर्ती के वक्त से ही शुरू हो जाती है। इसके लिए बनी एचआर टीम में कंपनी के को-फाउंडर सीधे तौर पर हिस्सा लेते हैं। उनका कहना है कि मैं शुरू में ही इस बात को जानने की कोशिश करता हूं कि कंपनी में काम करने की चाह रखने वाला आदमी ऐसे माहौल में काम करने के लिए कितना तैयार है, जहां देश और कल्चर को लेकर खींचतान नहीं है। वाकई खाने-पीने से लेकर काम करने के लचीले मापदंड इनके लिए सबसे बड़ा आकर्षण है। कंपनी में काम करने वालों के लिए सबसे बड़ी चुनौती और आनंद ही यही है कि सब एक ऐसे प्रॉडक्ट पर काम कर रहे हैं जो दुनिया भर के लोग इस्तेमाल करते हैं। ऑफिस में भर्ती प्रक्रिया को इस बात से भी समझा जा सकता है कि कंपनी के चीफ मार्केटिंग ऑफिसर कायल कियांग किसी ऐसे व्यक्ति को भर्ती करने की तैयारी कर रहे हैं, जो बाकी जरूरी काम के अलावा ड्रम बजाना भी जानता हो।

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कानून की लाठी

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बच्चों के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर देने वाले पैरंट्स उम्र के अंतिम पड़ाव पर अपने ही बच्चों की उपेक्षा से परेशान हैं। ऐसे में असम विधानसभा ने बुजुर्गों के हित में एक नया बिल पास कर उन्हें राहत देने की कोशिश की है। बुजुर्गों की हालत और इस बिल की जरूरत पर पढ़िए प्रिय रंजन झा की रिपोर्ट:

असम विधानसभा ने हाल में एक बिल 'असम एम्प्लॉयीज पैरंट्स रेस्पॉन्सिबिलिटी ऐंड नॉर्म्स फॉर अकाउंटैबिलिटी ऐंड मॉनिटरिंग बिल-2017' पास किया है। इसे असम एम्पलॉयीज प्रणाम बिल भी कहा जाता है। इसके अनुसार अगर कोई नौकरीपेशा व्यक्ति अपने पैरंट्स की देखभाल सही तरीके से नहीं करता तो हर महीने एक तय रकम उसकी सैलरी से काटकर बुजुर्ग मां-बाप को दे दी जाएगी ताकि उनका गुजारा हो सके। फिलहाल यह कानून सिर्फ सरकारी कर्मचारियों के लिए है, लेकिन असम के वित्त मंत्री हेमंत विस्वा शर्मा का कहना है कि जल्दी ही इसे प्राइवेट सेक्टर के कर्मचारियों पर भी लागू किया जाएगा।

असम सरकार के अनुसार, यह कदम ओल्ड ऐज होम से मिल रही बड़ी संख्या में उन शिकायतों के बाद किया गया है, जिनके अनुसार अच्छा खासा कमाने वाले लोग भी अपने मां-बाप को ओल्ड ऐज होम में छोड़कर चले जाते हैं। असम सरकार के इस फैसले ने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है। जहां एक बड़ा तबका सरकार के इस फैसले का समर्थन कर रहा है, वहीं कुछ लोग ऐसे भी जो इसकी आलोचना कर रहे हैं।

बड़ी उम्र की बड़ी जरूरतें
बुजुर्गों की हालत वाकई बेहद गंभीर है। अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने में अपना जीवन होम कर देने के बाद जब उनको देखभाल की जरूरत पड़ती है तो उनके पास कोई नहीं होता। कुछ स्टडीज का पिछले साल का औसत आंकड़ा यह है कि देश 10 में से 6 बुजुर्गों को उनके बच्चों ने अलग रहने पर मजबूर किया हुआ है। 37 प्रतिशत बुजुर्गों ने बताया कि उनके बच्चे ही उनके साथ बदसलूकी करते हैं तो 20 फीसदी ने कहा कि उनकी स्थिति लगभग बंधकों जैसी है और उनके बच्चे उन्हें लोगों से मिलने-जुलने नहीं देते। 13 प्रतिशत बुजुर्ग तो ऐसे थे, जिन्हें उनके बच्चे बुनियादी जरूरत की चीजें भी नहीं मुहैये कराते। इतने ही फीसदी बुजुर्गों ने शिकायत की कि उनका जिगर का टुकड़ा गाली गलौच और टॉर्चर करता है।

दुखद यह है कि बुजुर्गों के साथ बदसलूकी की सीमा सामाजिक या आर्थिक आधारों से बंधी हुई नहीं है। ऐसा नहीं है कि गरीब बुजुर्गों के साथ ही समस्या हो, अमीर बुजुर्गों की भी शिकायत है कि उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता है। हाल ही में मशहूर उद्योगपति विजयपत सिंहानिया ने एक इंटरव्यू में यह कहकर लोगों को हैरान कर दिया कि बेटे ने उनके पास गुजारे लायक भी पैसा नहीं छोड़ा है और यह कि वह सड़क पर आ गए हैं। देश में बुजुर्गों की क्या हालत है, सिंहानिया इसके मिसाल हैं।

समस्या पैसे से अलग भी है
जाहिर है कि बुजुर्गों की समस्या सिर्फ आर्थिक नहीं है। अगर सरकार बच्चों की सैलरी काटकर बुजुर्गों को दे देती है तो भी बुजुर्गों की हालत बहुत सुधरने वाली नहीं। सरकार मेंटनेंस दिला सकती है, लेकिन यह समस्या के मात्र एक पहलू का समाधान है। दूसरे और बड़े पहलू भी हैं। बुजुर्गों की समस्या मुख्य रूप से चार तरह की है:

बदसलूकी: हमने जितने भी बुजुर्गों से बात की ज्यादातर इस बात से बेहद दुखी थे कि उनके अपने ही बच्चे उनका तिरस्कार करते हैं, गाली-गलौच करते हैं और मेंटल टॉर्चर करते हैं। उनका मानना है कि भूखे रह सकते हैं, बीमारी का दर्द सह सकते हैं, लेकिन अपनों का दिया दर्द सहना मुश्किल होता है।

पैसे की तंगी: यह बड़ी समस्या है। जो नौकरी में थे, उनके लिए स्थिति थोड़ी ठीक है। पेंशन से उनका काम किसी तरह चल जाता है। लेकिन जिन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिलती या वे सरकार से मिलने वाली वृद्धावस्था पेंशन के भरोसे हैं, उनकी स्थिति खराब है। एक तो पेंशन कम है, ऊपर से वह अनियमित भी है। ऐसे में उनकी स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

सुरक्षा: नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के अनुसार एक लाख बुजुर्गों की आबादी वाली दिल्ली में 2015 में बुजुर्गों के साथ अपराध के 1248 मामले दायर हुए। इनमें हत्या, लूटपाट, मारपीट के मामले अधिक हैं। जाहिर है, ये वे मामले हैं जो थाने तक पहुंच पाए। थाने तक न पहुंचने वाले मामले का कोई रेकॉर्ड नहीं है और ये रेकॉर्ड में आए मामलों से कई गुना ज्यादा हैं। दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में औसतन छह बुजुर्गों की हत्या रोज होती है और इसका कोई ठोस समाधान नहीं है। दिल्ली पुलिस का बुज़ुर्गों की सुरक्षा के लिए बना सीनियर सिटिजन सेल नाकाम साबित हो रहा है। अपराधियों के लिए अकेले रह रहे बुजुर्ग आसान शिकार हैं। यहां तक कि अपने नाते-रिश्तेदारों से भी वे सुरक्षित नहीं हैं। जाहिर है, वे लचर कानून व्यवस्था की भेंट चढ़ रहे हैं। पैसा होने के बावजूद वे नौकर-चाकर नहीं रख सकते क्योंकि उन्हें रखना खतरे से खाली नहीं है।

सेहत: बेतहाशा बढ़ रहा मेडिकल बिल और लाइलाज बीमारियां बुजुर्गों की हालत खराब कर रही हैं। यहां एक्सपर्ट पूरी तरह से सरकार की नाकामी को इसकी वजह मानते हैं। भारी भीड़ और सुविधाओं के अभाव की वजह से सरकारी अस्पताल किसी काम के नहीं हैं, तो प्राइवेट अस्पतालों का बिल किसी के काबू में नहीं है। ऐसे में बच्चे भी पैरंट्स को समुचित इलाज करवाने में असमर्थ रहते हैं।

दिल्ली के अकेले रहने वाले तमाम बुजुर्ग ऐसे हैं जो घर-बार छोड़कर ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट हो गए हैं, क्योंकि घर में वे खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक ओल्ड एज होम के केयर टेकर कहते हैं, 'यहां रह रहे ज्यादातर बुजुर्ग गजेटेड अफसर रह चुके हैं। बच्चे उन्हें अपने साथ नहीं रखते या फिर उन्होंने अपने को बच्चों से दूर कर लिया है। तमाम लोगों के घर दिल्ली की पॉश कॉलोनियों में हैं, लेकिन उनके नसीब में वृद्धाश्रम ही लिखा है। वे यहां इसलिए हैं क्योंकि यहां समय पर सुरक्षा के साथ-साथ खाने-पीने और जरूरत पड़ने पर मेडिकल केयर की गारंटी है।'

क्या कानून समाधान है?
सवाल है कि अगर बेटे अपने पैरंट्स की देखभाल नहीं करते तो उनकी सैलरी में से मेंटनेंस काटना समस्या का समाधान है‌? एक्सपर्ट इसे लेकर बंटे हुए नजर आते हैं। कुछ मानते हैं कि इससे बच्चों पर प्रेशर होगा कि वे अपने बुजुर्ग और लाचार पैरंट्स की देखभाल करें। यह एक तरह से सामाजिक धिक्कार की तरह भी होगा कि फलाने की सैलरी इसलिए काट ली गई कि वह अपने पैरंट्स की देखभाल नहीं करता है। ऐसे में इस स्थिति से बचने के लिए लोग अपने पैरंट्स की केयर करेंगे और पैरंट्स को कानूनी मदद की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

दिल्ली के समाज कल्याण मंत्री नरेंद्र गौतम कहते हैं, ‘अपने पैरंट्स की देखभाल करना बच्चों का फर्ज है। एक बेहतर समाज के लिए यह जरूरी है। दिल्ली में डीएम के लेवल पर ही बुजुर्गों को मदद देने की पूरी व्यवस्था है। यहां ट्राइब्यूनल है जिसमें अपने बच्चों के हाथों किसी भी तरह से प्रताड़ित बुजुर्गों को इंसाफ दिलाया जाता है। दिल्ली सरकार की कोशिश है कि बुजुर्गों को पूरी सुरक्षा और संरक्षा मिले। हम असम के बिल का ड्राफ्ट भी मंगाएंगे और ऐसे किसी कानून पर विचार करेंगे।'

दिल्ली में ओल्ड ऐज होम 'गोधूलि' चलाने वाले रिटायर्ड कर्नल गुलवीर सिंह कहते हैं, 'कानून तो अभी भी है। मां-बाप को मेंटनेंस देने के लिए बाध्य हैं बच्चे, लेकिन कहां पालन हो रहा? फिर बड़ी बात यह है कि अगर कोई बेटा नौकरी की कमाई से अपने बीवी-बच्चों का पेट ठीक से नहीं पाल पा रहा तो भला सरकार उसे पैरंट्स की देखभाल के लिए कैसे मजबूर कर पाएगी? बेहतर होगा इन कानूनों के बजाय सरकार बुजुर्गों के रहने, खाने-पीने और इलाज की पुख्ता व्यवस्था करे। वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल सरकार की भी जिम्मेदारी है और इससे उसे भागना नहीं चाहिए।'

पिछले साल भर से अपने पैतृक संपत्ति में हिस्सा पाने के लिए विनोद सिंह अपने पिता के खिलाफ केस लड़ रहे हैं। इस बिल को लेकर वह कहते हैं, 'मेरे पैरंट्स ने सारा पैसा बेटियों पर उड़ा दिया। हमारा पैतृक घर है, लेकिन मैं अपने परिवार के साथ किराए पर रहने को मजबूर हूं। अब मेरे पैरंट्स बीमार और लाचार हो गए हैं तो बहनों ने कन्नी काट ली और वे उम्मीद कर रहे हैं कि मैं उनकी देखभाल करूं। आखिर मैं क्यों देखभाल करूं? कोई कानून अगर मुझे उनकी देखभाल के लिए मजबूर करेगा तो यह मेरे साथ अन्याय होगा। कानून बनाने से पहले सरकार को यह भी देखना चाहिए कि उससे प्रभावित पक्ष के साथ नाइंसाफी न हो।'

समाज सेवा से जुड़े कुछ अनुभवी लोग यह स्वीकार करते हैं कि दिक्कत बुजुर्गों की तरफ से भी है। उनकी मानें तो सीन कुछ ऐसा है कि बुजुर्ग परिस्थितियों से समझौते को जरा भी तैयार नहीं होते। जनरेशन गैप और बदलती दुनिया से वे कदम नहीं मिला पाते या यों कहें कि मिलाना ही नहीं चाहते। ऐसे में बच्चों पर वे बोझ बन रहे हैं। हालत यह है कि घर से ज्यादा पैसा खर्च कर सक्षम बच्चे मां-बाप को ओल्ड ऐज होम में छोड़ आते हैं। इसमें उनकी ज्यादा गलती भी नहीं है। रोज-रोज की किचकिच से अच्छा है कि ऐसा रास्ता निकाला जाए जिसमें बुजुर्ग पैरंट्स की पूरी देखभाल हो और बच्चे भी सुकून से रहे।

फिर लोगों की चिंता बुजुर्गों की मानसिक स्थिति और उसके दुरुपयोग की भी है। कांति चौधरी एक सरकारी महकमे में संयुक्त सचिव स्तर की अधिकारी हैं। परिजनों के बीच वह सास-ससुर के बेहतर देखभाल के लिए जानी जाती हैं। उनका मानना है कि ऐसे नाजुक संबंधों के बीच कानून के लिए कोई जगह नहीं है। यह रिश्ता इमोशनल है और इसे इमोशन से ही चलने देना चाहिए, किसी कानून से नहीं। वह कहती हैं, 'मेरे सास-ससुर 80 साल से ज्यादा उम्र के हैं। दिमाग अब थकने लगा है उनका। इतनी सेवा करने के बावजूद वे हर आने-जाने वाले को बताते हैं कि हम उनकी देखभाल नहीं करते। ऐसे में कानून अगर मुझे परेशान करेगा तो यह इंसानियत से भरोसा उठने जैसा होगा। मुझे नहीं लगता कि कानून को हस्तक्षेप करने की जरूरत है। इससे नुकसान ही होगा।'

समाजशास्त्री बद्री नारायण इस बिल से सहमत हैं। वह कहते हैं, 'जरूरत पड़ने पर ही कानून बनाए जाते हैं। आज के जमाने में ऐसे कानून की जरूरत है भी। अगर कोई कहता है कि ऐसे कानून से संबंधों की मिठास खत्म होगी तो मेरा कहना है कि इससे क्या फर्क पड़ता है? बेटे से भले ही संबंध खत्म हो जाएंगे, लेकिन बुजुर्गों की जिंदगी तो सुकून वाली हो जाएगी।'

बहरहाल, फैसले का समर्थन कर रहे लोगों का तर्क है कि सोशल सिक्युरिटी के घोर अभाव वाले इस देश में बुजुर्गों को इस कानून से बड़ी राहत मिलेगी। दूसरी ओर, जो लोग इस बिल का विरोध कर रहे हैं, उनका तर्क है कि सिर्फ पैसा दे देने से बुजुर्गों का कल्याण नहीं होगा। कानून का डंडा पैसा दिला सकता है, प्रॉपर केयर नहीं। बुजुर्गों को पैसे से ज्यादा अपनों के प्यार और सेवा की जरूरत होती है और वह कानून से संभव नहीं है। इसलिए ऐसे मामलों में कानून को बीच में नहीं पड़ना चाहिए।

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बुलेट की गोली और मेट्रो की मिस्री?

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देश की पहली बुलेट ट्रेन की नींव अहमदाबाद और मुंबई के बीच रखी जा चुकी है। इसे बड़ी उपलब्धि बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जापान ने जितनी सस्ती ब्याज दर पर इसके लिए लोन दिया है, उससे यह प्रोजेक्ट लगभग मुफ्त में तैयार हो जाएगा।देश की पहली बुलेट ट्रेन की नींव अहमदाबाद और मुंबई के बीच रखी जा चुकी है। इसे बड़ी उपलब्धि बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जापान ने जितनी सस्ती ब्याज दर पर इसके लिए लोन दिया है, उससे यह प्रोजेक्ट लगभग मुफ्त में तैयार हो जाएगा।

फुटबॉल के फ्यूचर स्टार्स

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धीरज सिंह, जैक्सन सिंह, कोमल थाटल, अनवर अली, अमरजीत सिंह कियाम... चंद रोज पहले तक ये नाम किसी के लिए भी अनजान ही होते, लेकिन अब नहीं हैं। फुटबॉल के इन फ्यूचर स्टार्स में दो बातें कॉमन हैं: एक, ये सभी फीफा अंडर-17 वर्ल्ड कप में अपने खेल से फुटबॉल के दिग्गजों का दिल जीत रहे हैं और दूसरी, इन सभी ने गरीबी को मात देकर मंजिल हासिल की है। इन होनहारों के संघर्ष की दास्तां बयां कर रहे हैं संजीव कुमार

जैक्सन सिंह थोउनाओजम
उम्र: 16 साल
राज्य: मणिपुर
पोजिशन: मिडफील्डर


मणिपुर के थोबाल जिले के छोटे-से गांव हाओखा ममांग के देबेन सिंह ने छुटपन में फुटबॉल के मैदान पर गजब की फुर्ती से सबका ध्यान खींचा था। उनका जुनून उन्हें एक लोकल टीम से मणिपुर पुलिस फुटबॉल क्लब तक ले गया। फुटबॉल ने थोड़ा नाम और काम तो दिलाया लेकिन उन्हें मनमाफिक दाम नहीं मिल सका। शादी के बाद भी फुटबॉल से उनकी मोहब्बत जारी रही। पत्नी बिलाशिणी देवी पति को तो फुटबॉल से दूर नहीं कर सकीं लेकिन एक बात ठान ली कि बच्चों को उस खेल से दूर रखेंगी, जो घर चलाने लायक पैसे न दिला सके। पति की कमाई नाकाफी थी इसलिए बिलाशिणी अपनी मां के साथ घर से 25 किमी दूर इंफाल के ख्वैरामबंद बाजार में सब्जी बेचने लगीं। न चाहते हुए भी बड़ा बेटा जोनिचंद फुटबॉलर बन गया लेकिन बिलाशिणी के लिए यह सुकून की बात थी कि उनका छोटा लाडला जैक्सन पढ़ने में दिलचस्पी ले रहा है। मगर एक दिन उनको यह जानकर झटका लगा कि जैक्सन भी फुटबॉल में दिलचस्पी लेने लगा है। बस, क्या था। बेटे को डांट पिला दी, 'खबरदार, जो फुटबॉल खेला तो!' जैक्सन भी जिद पर अड़ गया। दो दिनों तक न कुछ खाया, न पीया। मां को मजबूरन अपना फैसला बदलना पड़ा।

पिता ने सलाह दी कि जब इसे फुटबॉलर बनना ही है तो चंडीगढ़ फुटबॉल अकैडमी भेजते हैं। मां के लिए यह और भी असहनीय था कि 11 साल के बेटे को घर से 2700 किमी दूर भेजा जाए। इससे भी बड़ी चिंता थी कि वह पंजाबियों के बीच कैसे अजस्ट करेगा? मगर, उन्होंने बेटे के जूनुन के आगे एक बार फिर कलेजे पर पत्थर रखा और उसे चंडीगढ़ रवाना कर दिया। इधर, घर पर एक और दुख का पहाड़ टूट पड़ा। पिता को लकवा मार गया। मगर मां ने हिम्मत नहीं हारी। दोगुनी मेहनत कर बेटे को चंडीगढ़ में बनाए रखा। शुरुआती दौर में रिजेक्ट होने के बावजूद जैक्सन ने उम्मीद नहीं खोई और आखिरकार उन्होंने वह मुकाम हासिल कर लिया जिसके सपने वह देखा करते थे। वह न केवल अंडर-17 नैशनल टीम में शामिल हुए, बल्कि वर्ल्ड फुटबॉल में देश के लिए गोल करने वाले पहले फुटबॉलर भी बन गए। बेटा सुर्खियों में है तो जाहिर है, पिता फूले नहीं समा रहे। जो सपना उन्होंने देखा था, बेटे ने साकार कर दिया। मां को इस बात का संतोष है कि बेटे को अब वह कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा, जो उसके पिता ने फुटबॉल से ‘प्रेम’ करके उठाया।

धीरज सिंह मोइरंगथम
उम्र: 17 साल
राज्य: मणिपुर
पोजिशन: गोलकीपर


अमेरिकी अंडर-17 टीम के कप्तान हैं जोश सार्जेंट। उन्हीं की टीम में हैं टिमोथी विया। इन्हें फुटबॉल का उभरता सितारा माना जाता है। टिमोथी महान फुटबॉलर जॉर्ज विया के बेटे हैं। पिछले 10 दिनों में जोश और टिमोथी जिस एक फुटबॉलर की प्रतिभा से हैरान हैं, वह हैं भारतीय अंडर-17 टीम के गोलकीपर धीरज सिंह। अंडर-17 वर्ल्ड कप के पहले मैच में अमेरिका का सामना अपेक्षाकृत कमजोर समझी जा रही भारतीय टीम से हुआ। पहले 30 मिनट तक अमेरिका ने भारतीय गोल पर हमलों की बौछार कर दी। दो मौके तो ऐसे आए, जब जोश के सामने सिर्फ धीरज थे। मगर धीरज की जांबाजी के आगे जोश की एक न चली। अमेरिका और कोलंबिया के खिलाफ धीरज ने जिस तरह भारतीय गोल की रक्षा की, उसके बाद से यूरोप के कुछ मशहूर क्लब उन पर निगाहें जमाए हुए हैं।

मणिपुर के बिष्णुपुर जिले के मोइरंग के रोमित सिंह की एक ही तमन्ना थी कि वह अपने तीन बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला सकें। उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि घर और बच्चों की पढ़ाई का खर्चा निकालने के बाद वह उन्हें किसी दूसरे शौक पूरे करने के लिए सपोर्ट कर सकें। बचपन में धीरज क्लास टॉपर थे तो पिता ने कोशिश करके उन्हें घर से 20 किमी दूर जवाहर नवोदय विद्यालय में एडमिशन दिलाया। यहीं पर धीरज को एक साथ कई चीजों में दिलचस्पी पैदा हुई। वह पेंटिंग, ड्रामा और भजन गायन में हिस्सा लेने लगे। उनका दिल करता कि फुटबॉल भी खेलूं। उनके मोहल्ले में 80 के दशक के मशहूर फुटबॉलर सुरेंद्रो सिंह भी रहते थे। सुरेंद्रो की मदद से धीरज फुटबॉल खेलने लगे। उनके माता-पिता इसके बिल्कुल खिलाफ थे। वे नहीं चाहते थे कि पढ़ाई में अच्छा कर रहा उनका बेटा फुटबॉल के मैदान का रुख करे। उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वह किट, ट्रेनिंग और ट्रैवल पर खर्च कर सकें। धीरज की नानी ने उनके लिए बूट और फुटबॉल किट खरीदने में मदद की। धीरज की लंबाई, शांत स्वभाव और लचीले शरीर को देखते हुए उन्हें गोलकीपर बनने की सलाह दी गई। एक साल के भीतर वह स्टेट टीम में खेलने लगे। आज उन पर दुनिया की निगाहें हैं। क्या पता, धीरज कल किसी मशहूर क्लब के लिए खेलते हुए अपना और देश का नाम रोशन करें।

कोमल थाटल
उम्र: 17 साल
राज्य: सिक्किम
पोजिशन: मिडफील्डर


अब से ठीक एक साल पहले ब्रिक्स अंडर-17 फुटबॉल टूर्नामेंट में भारत का सामना ब्राजील से था। पांच देशों के इस टूर्नामेंट के उस आखिरी लीग मैच से पहले भारत अपने तीन मैच गंवा चुका था। तीन बार के अंडर-17 वर्ल्ड चैंपियन ब्राजील ने दूसरे मिनट में गोल दाग दिया तो ऐसा लगा कि इस मैच में भारत की बुरी हार होगी। मगर मैच के 19वें मिनट में वह पल आया, जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो। मिडफील्डर कोमल थाटल ने बराबरी का गोल दागकर ब्राजील को चौंका दिया। हालांकि, इंडिया वह मैच हार गया लेकिन कोमल के रूप में भारतीय फुटबॉल के एक राइजिंग स्टार का जन्म हो चुका था। जुदा अंदाज के हेयरस्टाइल से सबका ध्यान खींचता रहा यह युवा आज मशहूर क्लब मैनचेस्टर यूनाइटेड के रेडार पर है।

कोमल का परिवार पश्चिम सिक्किम के सोरेंग सब-डिविजन के तिनबरबंग गांव का रहने वाला है। उनके पिता अरुण कुमार थाटल स्कूल के दिनों में अच्छे फुटबॉलर थे। जब वह 12वीं में थे तो सुमित्रा से उनको प्यार हो गया और उन्होंने फटाफट शादी कर ली। दोनों ने आजीविका के लिए सिलाई का काम शुरू किया। बेटे को दिन-रात फुटबॉल की बातें करता देख अरुण और सुमित्रा ने उसको सपोर्ट करने का फैसला किया। दोनों की राय थी कि अगर हम बड़ा दिल दिखाएंगे, तभी बेटा बड़े सपने को साकार कर पाएगा। फिर, सिलाई-कढ़ाई से पैसे जोड़-जोड़कर दोनों ने कोमल को अच्छे बूट और जर्सी दिलाई। देखते ही देखते कोमल तिनबरबंग गवर्नमेंट स्कूल के सबसे अच्छे फुटबॉलर बन गए। मगर, आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया उनके एक पूर्व हेडमास्टर ने। हर साल 15 अगस्त को होने वाले स्कूल स्तर के एक टूर्नामेंट में उन्होंने कोमल को सानडंग गर्वनमेंट स्कूल से उतारा। हेडमास्टर का तबादला उसी स्कूल में हो गया था। कोमल के नौ गोलों की मदद से उस स्कूल ने सेमीफाइनल तक सफर तय किया। इसके बाद उन्हें अलग-अलग टूर्नामेंट्स में खेलने के लिए बुलाया जाने लगा और आखिरकार उन्हें सिक्किम सरकार के नामची स्पोर्ट्स हॉस्टल के लिए चुन लिया गया। यहीं से उनके सपनों को नई उड़ान मिली।

अमरजीत सिंह कियाम
उम्र: 16 साल
राज्य: मणिपुर
पोजिशन: मिडफील्डर


अमरजीत सिंह और उनके टीममेट जैक्सन सिंह चचेरे भाई हैं। दोनों लगभग एक ही उम्र के हैं। एक ही स्कूल और एक ही क्लास में उन्होंने साथ में पढ़ना शुरू किया था। जैक्सन क्लास में फर्स्ट आते तो अमरजीत दूसरी पोजिशन पर रहते। घरवालों को लगता कि इन दोनों के बीच पढ़ाई में होड़ चल रही है और दोनों बड़े अफसर बनकर खानदान का नाम रोशन करेंगे। मगर परिवार वालों को नहीं पता था कि दोनों के दिलों में फुटबॉल भी कुलांचे मार रहा है। पांचवीं क्लास में आकर दोनों का फुटबॉल-प्रेम जगजाहिर था।

अमरजीत के पिता चंद्रमणि सिंह कियाम घर चलाने के लिए खेतों में काम करते और बतौर बढ़ई भी कुछ कमा लेते थे। इतने से काम नहीं चल रहा था तो मां अशंगबी देवी ने मछली बेचना शुरू किया। इसके लिए वह रोज सवेरे 3 बजे उठतीं। चंद्रमणि उन्हें साइकिल से गांव के पास वाले बस स्टॉप पर छोड़ते। ऐसा वह हर रोज 40 रुपये ट्रांसपोर्ट का खर्चा बचाने के लिए करते थे। वहां से बस पकड़कर वह 30 किमी दूर इंफाल आतीं, जहां सेंट्रल मार्केट से मछली खरीदकर शहर में घूम-घूमकर बेचतीं। ऐसे ही पांच सदस्यों के परिवार की गुजर-बसर चल रही थी।

भाई जैक्सन के चंडीगढ़ फुटबॉल अकैडमी जाने के बाद अमरजीत ने भी उन्हें जाने की मांग की। अमरजीत के माता-पिता ने हमेशा बेटे को सपोर्ट किया। मां ने कहा कि वह कुछ दिन रुक जाए ताकि पैसे जमाकर उसे फ्लाइट से चंडीगढ़ भेज सकें। उनका मानना था कि ऐसे में ट्रायल के लिए उतरते समय अमरजीत पर ट्रेन यात्रा की थकान हावी नहीं होगी। अशंगबी ने खर्चों में कटौती कर 6 हजार रुपये जमा किए और बेटे को हवाई जहाज से चंडीगढ़ भेजा। ट्रायल में उनकी प्रतिभा को देखते हुए अकैडमी ने उनके रहने, खाने और पढ़ने का खर्चा उठाने का फैसला लिया। अमरजीत शानदार खिलाड़ी तो हैं ही, अपने अच्छे स्वभाव से सबके प्रिय भी हैं। अंडर-17 वर्ल्ड कप टीम के कैप्टन चुनने की बात आई तो कोच लुईस नोर्टन डी मातोस ने खिलाड़ियों से उनके पसंदीदा प्लेयर का नाम एक पर्ची में लिखकर देने को कहा। बेशक सबसे ज्यादा वोट अमरजीत को मिले।

अनवर अली
उम्र: 17 साल
राज्य: पंजाब
पोजिशन : डिफेंडर


6.1 फुट लंबे और पोनी-टेल वाले डिफेंडर अनवर अली दूर से ही सबका ध्यान खींचते हैं। 17 साल के अनवर उन खुशनसीब बच्चों में से हैं, जिनके पिता ने खुद ही उनसे कहा कि तुम खिलाड़ी बनो। पंजाब के जालंधर जिले के आदमपुर तहसील से तकरीबन 100 किमी दूर चोमोन गांव है। यहीं के रज्जाक फुटबॉलर बनना चाहते थे लेकिन चरवाहों और दूधियों के परिवार से आने वाले रज्जाक के लिए अपना सपना पूरा बेहद मुश्किल था। बचपन में कुछ दिन खेलने के बाद वह दूध बेचने का काम करने लगे। मिट्टी के घर (जिसमें टॉयलट भी नहीं है) में खाट पर सोए रज्जाक बेटे को बड़ा फुटबॉलर बनाने का सपना देखते। उनकी पत्नी जतून की समस्या थी कि अगर अनवर खेलेगा तो गाय-भैंसों को चराएगा कौन? अनवर को जिम्मेदारी दी गई कि खेलने जाते वक्त वह पशुओं को खेतों तक ले जाएं। मगर मां को हमेशा डर रहता कि अगर उनकी भैंसें दूसरों के खेत में चली गईं तो शामत आ जाएगी लेकिन अनवर ने शायद ही कभी ऐसा होने दिया। ‌वह भारतीय टीम के डिफेंस की रक्षा उसी तन्मयता से करते हैं, जितनी तन्मयता से बचपन में खेलते वक्त मां के दिए काम को करते थे।

पिता ने सपने तो दिखा दिए लेकिन उनके पास अच्छे बूट खरीदने के पैसे नहीं थे। अनवर के टैलंट को देखते हुए दशमेश स्पोर्ट्स क्लब ने उनको सपोर्ट किया। उनकी किस्मत तब पलटी, जब उनके स्कूल के पास एक स्टेडियम बना। स्थानीय एमएलए पवन कुमार टीनू को गांव के दौरे पर पता लगा कि वहां अनवर और उनके जैसे कई प्रतिभावान खिलाड़ी हैं, जिन्हें अच्छे कोच की जरूरत है। टीनू ने उनके लिए कोच और किट की व्यवस्था कराई। बस फिर क्या था! देखते ही देखते अनवर जिले, राज्य और फिर नैशनल टीम तक पहुंच गए। वह उन चुनिंदा उभरते फुटबॉलरों में से हैं, जिन्हें दोनों पैरों से एकसमान ताकत से शॉट्स खेलने में महारत हासिल है।

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FB के डॉक्टर बाबू... क्या खूब!

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जब भी फेसबुक पर जाओ, वह एक ही बात पूछता है 'Whats on your mind!' मतलब आपके मन में क्या है? कुछ लोग तो अपने मन की कह कर आगे बढ़ जाते हैं लेकिन कुछ ने इसे दूसरों तक जरूरी जानकारी पहुंचाने का जरिया बना लिया है। इनमें कुछ डॉक्टर भी हैं जो हिंदी में सेहत के सूत्र लोगों को थमा रहे हैं। ऐसे ही चंद डॉक्टरों से मिलवा रहे हैं अमित मिश्रा

फेसबुक से पहले नफरत, फिर हो गई मोहब्बत
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल (43 साल)
MD, बाल रोग विशेषज्ञ, जबलपुर मेडिकल कॉलेज
फेसबुक अकाउंट का नाम: Avyact Agrawal
फॉलोअर्स: 12,285
फेसबुक फ्रेंड: 5000
क्या है खासियत: अलग-अलग फील्ड के एक्सपर्ट, डॉक्टरों और सब्जेक्ट पर लेख पढ़ने और विडियो देखने की सुविधा। इनका Dr Avyact Agrawal नाम से यूट्यूब चैनल भी काफी जानकारी से भरा है।
कब शुरू किया: तकरीबन 2 साल पहले

क्यों शुरू किया
'मुझे शुरुआत से ही फेसबुक एक शोऑफ की चीज लगती थी इसलिए अकाउंट होने के बावजूद मैं कम ही ऐक्टिव था। एक बार मैंने क्लिनिक में एक गरीब महिला को गलत तरह से अपने बच्चे को बोतल से दूध पिलाते देखा। मैंने उसके बारे में एक पोस्ट फेसबुक पर लिखा। इसे लोगों ने काफी सराहा और फिर सिलसिला चल पड़ा।'

यादगार लम्हा
'कई बार मुझे दूर-दूर से लोगों के फोन और मेसेज आते हैं जैसे डेंगू पर जानकारी को लेकर ऑस्ट्रेलिया से एक फेसबुक फ्रेंड का फोन मुझे आया। इसी तरह से पंजाब और देश के अलग-अलग हिस्सों से मिलने वाले धन्यवाद के मेसेज मुझे हमेशा खुशी देते हैं।'

पत्नी भी हैं साथ
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल की पत्नी डॉ. श्रुति अग्रवाल न सिर्फ एक गाइनी डॉक्टर हैं बल्कि मिसेज इंडिया की फाइनलिस्ट भी हैं। इस साल मार्च से वह भी फेसबुक और यूट्यूब पर सेहत से जुड़ी जानकारी से भरे पोस्ट और विडियो शेयर कर रही हैं।

इनकी एक फेसबुक पोस्ट:
हम इतने चटोरे क्यों हैं!
आज़ पोषण से सबंधित कुछ रोचक जानकारियां दे रहा हूं, जोकि शायद आपको गूगल सर्च पर नहीं मिलेंगी। हमारे पोषण में निम्न तीन चीज़ों की अधिकता हमारी उम्र को 10 वर्ष तक कम कर सकती हैं। शर्करा, नमक, सैचुरेटेड फैट दरअसल यह तीनों चीजें ज्यादा मात्रा में बरसों तक लेना धीमे ज़हर की तरह है। लेकिन रोचक बात अब शुरू होती है जो आपको नहीं पता होगी। वह यह कि क्या कभी सोचा है कि मीठी, नमकीन या तली हुई, वसा, चीज़, घी, मक्खन युक्त चीज़ें हममें से अधिकांश को कहीं ज़्यादा पसंद होती हैं इन चीज़ों के बिना खाने की तुलना में। बच्चों को देखिए चिप्स,चॉकलेट, बर्गर, मिठाई उन्हें बहुत पसंद होती है। अब सवाल यह उठता है कि जब शक्कर या फैट शरीर के लिए हानिकारक है तो फ़िर हमें पसंद क्यों है? प्रकृति के सटीक निर्माण से क्या गलती हो गई है कि जो चीज़ नुकसानदायक हैं वही इंसान को पसंद भी है। तो इसका उत्तर है: नहीं। इन स्वादों के पसंद होने में नेचर की गलती नहीं थी बल्कि मनुष्य के जीवन के लिए मीठा या फैट खाना ज़रूरी था।

क्योंकि विकासक्रम में मनुष्य को कुछ दिनों तक भूखा रहना होता था, जंगलों में खाना नियमित रूप से नहीं मिलता था। बहुत ठंडे इलाकों में। बहुत गर्म इलाकों में। ऐसे में शक्कर वाले मीठे पदार्थ या वसा युक्त पदार्थ खाने से यह शरीर में ग्लाइकोजन या चर्बी के रूप में जमा हो जाते थे। और खाना न मिलने की स्थिति में ऊर्ज़ा देने का काम करते थे। ग्लाइकोजन और चर्बी के भण्डारण की प्रक्रिया आज़ भी वही है किन्तु भूखे रहने और भूख के दौरान खपत के मौके ही नहीं आते। साथ ही मनुष्य चलने और दौड़ने की जगह बैठा रहने लगा।

सेहत की गुत्थियां सुलझाते हैं आम आदमी की जुबान में
डॉ. स्कंद शुक्ल (39 साल)
MD, DM, गठिया विशेषज्ञ, लखनऊ
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क्या है खासियत: मेडिकल साइंस को लेकर बहुत आसान भाषा में पोस्ट। इन्हें कोई भी आम इंसान आसानी से समझ सकता है।
कब शुरू किया: तकरीबन 2 साल पहले

क्यों शुरू किया
'फेसबुक की असली ताकत का अंदाजा मुझे तब लगा जब मैंने अपने एक नॉवल का हिस्सा वहां पर पोस्ट किया। यह नॉवल एक ऐसी लड़की के बारे में है जो एक खास जेनेटिक डिस्ऑर्डर से ग्रसित है। इसे लेकर लोगों का रिस्पॉन्स काफी अच्छा रहा।'

यादगार लम्हा
'एक बार मेरे पास महाराष्ट्र के शोलापुर से एक ऐसे लड़के का फोन आया जो सही से हिंदी भी नहीं जानता था और बड़ी मेहनत से मेरी पोस्ट को समझने की कोशिश करता था। उसने मुझे फोन करके न सिर्फ कई चीजों के बारे में पूछा बल्कि आगे भी समझाने का वादा भी लिया।

नोबेल तक
डॉ. स्कंद देश को साइंस में उस लेवल पर ले जाने की बात करते हैं जिससे नोबेल प्राइज जीता जा सके। इसका उनके पास सिर्फ एक ही फॉर्म्यूला है- खूब सवाल पूछो और बेहिचक, बेशर्म होकर सवाल पूछो।

इनकी एक फेसबुक पोस्ट:
तेरे बिन विटामिन
मैडम मल्टी-विटामिन की गोलियां प्रतिदिन लेती हैं। बिना यह जाने-समझे कि इन गोलियों को खाने से होता क्या है।
'क्यों खाती हैं आप इन्हें? वह भी रोज़-रोज़? आपको पता है कि विटामिन क्या हैं और उनका शरीर में क्या रोल है?'
'नॉट श्योर... बट दे बूस्ट ऑर इम्यून सिस्टम, इज़ंट इट? अभी स्नेहिल को ज़ुकाम हुआ था तो मैंने उसे खूब सारा ऑरेन्ज जूस पिलाया। ही इम्प्रूव्ड फ़ास्ट।' वह नफ़ासत के साथ बताती हैं।
मैं उन्हें एकटक देख रहा हूं और मुझे लिनस पाउलिंग याद आ रहे हैं। प्रख्यात वैज्ञानिक, रसायनविद् जिन्हें दो-दो नोबेल पुरस्कार मिले थे, एक केमिस्ट्री में और दूसरा शान्ति के लिए। उन्होंने बेसिरपैर का यह सिद्धान्त दे दिया कि विटामिन सी प्रचुर मात्रा में खाने से ज़ुकाम ही नहीं, कई बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं।
'आपको लगता है कि स्नेहिल का ज़ुकाम विटामिन सी ने ठीक क्या होगा? आपको इसका इतना यकीन कैसे है?' मैं उनसे पूछता हूं।
'आइ रेड इट समवेयर। ग़लत बात है?' वह फिर पूछती हैं।
'जी, बिलकुल ग़लत बात है। आप भी लाखों अमेरिकियों की तरह विटामिन-भक्ति का शिकार हुई हैं। लिनस पाउलिंग नाम के एक विश्वविख्यात केमिस्ट थे। यह मायाजाल उनका फैलाया हुआ है जो आज तक चला आ रहा है कि विटामिन सी में जादू है। वह विटामिन सी से ऐसे ऑब्सेज़्ड हुए कि 1970 में एक पुस्तक तक लिखी 'विटामिन सी एंड द कॉमन कोल्ड' के नाम से। उसमें उन्होंने तीन ग्राम तक विटामिन सी खाने की बात कह डाली। बस फिर क्या था? पूरे अमेरिका में विटामिन सी की गोलियों की सेल आसमान छूने लगी। जहाँ देखो, बस विटामिन सी, विटामिन सी, विटामिन सी।'
'पाउलिंग का तब बड़ा नाम था और उनकी कही बात पर लोग कैसे न विश्वास करते? वह तो कहते थे, विटामिन सी खाओगे तो बीस से पच्चीस साल ज़्यादा जियोगे।


एक दबंग, बिंदास, हंसमुख और दोस्ताना सलाहकार
डॉ. कविता सिंह, बेंगलुरु
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क्या है खासियत: खानपान से लेकर रोजमर्रा की बीमारियों तक पर इनके पेज पर काफी अच्छी पोस्ट पढ़ने को मिल सकती हैं। अपनी फ्रेंड लिस्ट में शामिल लोगों की परेशानियों पर काफी ऐक्टिव रहती हैं। कब शुरू किया: तकरीबन 2 साल पहले

जवाब देने का लाजवाब सब्र
बेंगलुरु में प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर कविता मूलत: लखनऊ से हैं। फेसबुक पर बेकार की बातों से दूर रहती हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत है, कमेंट बॉक्स में लोगों को जवाब देने का धैर्य। वह जवाब देती हैं तो लोग परेशानी की और गहराई में जाते हैं, वह फिर जवाब देती हैं तो पूछने वाला दूसरी परेशानी लेकर हाजिर हो जाता है। लेकिन शायद ही कभी उन्होंने किसी को झिड़का हो। वह काफी सीरियस, लेकिन बेहतरीन दोस्त डॉक्टर का रोल बखूबी निभा रही हैं। इनकी पोस्ट पढ़ने के बाद आप एक बात तो मान लेंगे कि डॉक्टर का सेंस ऑफ ह्यूमर भी कमाल का हो सकता है।

इनकी एक फेसबुक पोस्ट:
इस बीमारी को भी जानो
Atherosclerosis के बारे में एक सज्जन ने इनबॉक्स में सवाल पूछा है। जानें इसके बारे में।
एथेरोस्क्लेरोसिस आर्टरीज की समस्या है। इसमें आर्टरीज में कड़ापन आ जाता है या फिर वे पतली होकर बंद हो जाती हैं। दिल की दूसरी बीमारियों की तरह यह भी हार्ट अटैक के लिए जिम्मेदार है, लेकिन इसका असर ज्यादा बड़ा है। यह दिमाग की नसों में भी हो सकता है जिससे ब्रेन स्ट्रोक और पैरालाइसिस जैसी समस्या हो सकती है।

लक्षण: इसे ऐसे समझिए कि हमारी आर्टरीज सेल्स की लेयर्स से बनती हैं, जिनके अंदरूनी हिस्से को एंडोथेलियम कहते हैं। इसे चिकना और फ्लेक्सिबल होना जरूरी है। अगर इसमें कड़ापन आ गया तो उस जगह प्लाक इकट्ठा होने लगेगा। ऐसे समझिए कि जब हम मार्केट प्लास्टिक की लूज़ पाइप लेने जाते हैं तो हम देखते है कि पाइप की सतह पर तेल लगा हुआ होता है। दुकानदार आपको बातएगा कि अगर तेल नहीं लगाएंगे तो पाइप फट जाएगी। कुछ वैसा ही यहां भी होता है। इसमें सीने में दर्द और घबराहट जैसी दिक्कत होती है। यह दर्द कंधों, बाजुओं और पीठ के ऊपरी हिस्से में भी हो सकता है। मरीज की सांस बहुत तेजी से फूलने लगती है, लेकिन ब्रेन स्ट्रोक या पैरालसिस जैसे पहले से कोई लक्षण तो होता नहीं, जब भी होगा तो अचानक से होगा।
कारण: कारण सिंपल हैं- एक्सरसाइज न करना, मोटापा, सिगरेट-तम्बाकू का सेवन, ज्यादा शराब पीना, कॉलेस्ट्रॉल का बढ़ना, बेकाबू डायबीटीज, तनाव और चिंता में रहना।

डिप्रेशन के खिलाफ जंग सोशल मीडिया पर
डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी (32 साल)
MBBS, DPM, मनोरोग विशेषज्ञ, भोपाल
फेसबुक अकाउंट का नाम: Psychiatrist DrTrivedi
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क्या है खासियत: मेंटल हेल्थ को समझने के लिए बेहतरीन पोस्ट के साथ ही विडियो भी अपलोड करते हैं।
कब शुरू किया: तकरीबन 4 साल पहले
क्यों शुरू किया
'मैं पहले भी अखबारों में मेंटल हेल्थ को लेकर लिखता रहता था लेकिन मुझे इस बात को लेकर हमेशा आशंका रहती थी कि पता नहीं कोई इसे पढ़ भी रहा है या नहीं। इसी ऊहापोह में मैंने फेसबुक पर पोस्ट लिखना शुरू किया। जल्दी ही मुझे इस बात का आभास हो गया कि इसकी पहुंच काफी गहरी है।'

यादगार लम्हा
'एक बार मुझे एक आर्मी के जवान का फोन आया जो मानसिक रूप से काफी परेशान था। वह फेसबुक पर मेरी एक पोस्ट पढ़ कर मुझे खोजते हुए मुझ तक पहुंचा। वह काफी तनाव में था। मैंने फोन पर सलाह दी और वह अब सामान्य जीवन जी रहा है।'

कैंपेन में तब्दील
डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी का कहना है कि इस मिशन को लोगों तक ले जाने के लिए सभी को साथ आने का आह्वान किया है और डायरेक्टर महेश भट्ट मिशन का हिस्सा हैं। महेश भट्ट सड़क 2 नाम की फिल्म प्लान कर रहे हैं जो पूरी तरह से डिप्रेशन आधारित है।

इनकी एक फेसबुक पोस्ट:
डॉक्टर पहले सुनें, फिर इलाज करें
आए दिन डॉक्टरों के साथ मारपीट की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इस ओर समाज के हर तबके का सोचना जरूरी है ताकि इस तरह की घटनाओं को रोका जा सके।
- स्टडीज़ में ऐसा पाया गया है कि 98 फीसदी मरीज़ या उनके परिजन यह चाहते हैं कि डॉक्टर उनकी बातों को ध्यानपूर्वक सुनें। साथ ही इलाज के तरीके और प्रक्रिया को आसान भाषा में उन्हें बताएं। मुझे लगता है कि डॉक्टर-पेशंट रिलेशनशिप का यह बेहद महत्वपूर्ण भाग है जिसे डॉक्टरों को अच्छी तरह समझना चाहिए। कई बार मरीजों की संख्या ज्यादा होने के कारण डॉक्टरों के पास वक्त कम हो सकता है तो आप अपनी बातें दूसरे अपॉइंटमेंट या अलग से समय लेकर भी कर सकते हैं।
- डॉक्टर भी एक इंसान है कई बार बीमारी की गंभीरता के कारण मरीज़ को बचाना मुमकिन नहीं हो पाता। सारा दोष डॉक्टर के सर मढ़कर हिंसा पर उतारू होना सही नहीं है। यकीन मानिए दुनिया का हर डॉक्टर अपने मरीज़ को ठीक ही करना चाहता है।
- आप जिस डॉक्टर के पास जाएं उस पर पूरा भरोसा करें। इंटरनेट पर बीमारी के बारे में पढ़ कर डॉक्टर पर शंका न करें। इस बात को समझें कि 'जानकारी' और 'ज्ञान' में फर्क होता है। डॉक्टर अपने ज्ञान के आधार पर अच्छा इलाज़ करने की कोशिश करता है।

योग और घरेलू इलाज के गुर बांटता एक गुरु
योग गुरु सुनील सिंह (53 साल)
अपर्णा आश्रम से प्रशिक्षित, अब दिल्ली में
फेसबुक अकाउंट का नाम: Yoga Guru Suneel Singh
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क्या है खासियत: फेसबुक पर योग से जुड़ी बेहतरीन जानकारी देने वाला सबसे पुराना पेज (2006), यूट्यूब पर योग से जुड़े बेहतरीन विडियो
कब शुरू किया: तकरीबन 10 साल पहले

क्यों शुरू किया
'विदेशों में रहने की वजह से तकनीक की ताकत को काफी पहले ही समझ लिया था। फेसबुक जब ज्यादा कॉमन नहीं था, मैं तब से नियमित रोज एक पोस्ट लिख रहा हूं। यूट्यूब पर योग पर मैंने अपने विडियो बाबा रामदेव से पहले अपलोड करना शुरू किए थे।

योग ही पहचान
'मैंने कभी भी योग के अलावा कुछ नहीं सोचा। योग पर टीवी, अखबार और यूट्यूब पर हिंदी, अंग्रेजी और भोजपुरी में हजारों लेख, विडियोज और टॉकशोज में हिस्सा लिया। जब मुफ्त योग शिविर करता हूं तो मुझे लगता है कि असली कमाई कर रहा हूं। लोग जब थैंक्यू बोलते हैं तो दिन बन जाता है।'

यादगार लम्हा
एक बार एक मुस्लिम महिला का फोन दुबई से आया। वह काफी इलाज के बाद भी निसंतान थीं। मैंने उन्हें कुछ आसन और उपाय सुझाए। उन्हें जब संतान हुई तो उन्होंने उसका नाम रखा सलीम सुनील सुल्तान खां। इससे ज्यादा खुशी का लम्हा नहीं हो सकता कि मेरी सलाह से किसी की जिंदगी में खुशियां आ गईं।

इनकी एक फेसबुक पोस्ट:
इस घरेलू उपाय से बढ़े हुए यूरिक एसिड को कम करे
जब घुटनों, पैरों की उंगलियों और एड़ियों में अक्सर दर्द रहने लगे तो समझ जाना चाहिए कि शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ गई है। शरीर में जब यूरिक एसिड बहुत बढ़ जाए तो जोड़ों में बहुत तेज दर्द होने लगता है और इससे गुर्दे में पथरी और घुटनों की समस्या भी हो सकती है।
1. रोजाना सुबह खाली पेट 2-3 अखरोट खाने से बढ़ा हुआ यूरिक एसिड कम हो जाता है।
2. एक चम्मच अश्वगंधा पाउडर में एक चम्मच शहद मिलाएं और उसे हल्के गर्म दूध के साथ लेने से भी यूरिक एसिड कम होता है। गर्मी के मौसम में अश्वगंधा की कम मात्रा का सेवन करें।
3. दिन में 1 बार भोजन के बाद आधा चम्मच अलसी के बीज चबाकर खाने से भी फायदा होता है।
4. यूरिक एसिड बढ़ने के कारण यह शरीर में गांठ की तरह जमा होने लगता है और तेजी से दूसरे अंगों में भी फैल जाता है। ऐसे में 1 चम्मच बेकिंग सोडा को 1 गिलास पानी में मिलाकर पीने से गांठ घुलने लगती है और यूरिक एसिड कम हो जाता है।
5. एलोवेरा जूस में आंवले का रस मिलाकर पीने से भी फायदा होता है।
6. यूरिक एसिड बढ़ने की वजह से लोगों को गठिए की समस्या हो जाती है। ऐसे में रोज सुबह खाली पेट बथुए के पत्तों का जूस निकाल कर पीएं और इसके 2 घंटों तक कुछ न खाएं।
7. रोजाना नारियल पानी पीने से भी यूरिक एसिड कम होता है।
8. खाने में अजवाइन का इस्तेमाल करने से भी यूरिक एसिड कम होता है। इसका पानी के साथ भी सेवन कर सकते हैं।

इन Podcast से कम होगी तकलीफ
इंटरनेट पर इन बेहतरीन डॉक्टरों के ठिकाने के बाद अगर आपको लगे कि कोई ऐसा ठिकाना हो जहां रेग्युलर आपको मेडिकल और हेल्थ से जुड़े अपडेट्स मिलते रहें तो इन पॉडकास्ट को सुन सकते हैं:
क्या है पॉडकास्ट यह एक तरह की ऑडियो-विडियो फाइल है जिन्हें चुनिंदा वेबसाट्स से डाउनलोड करके या स्ट्रीमिंग के जरिए सुना जा सकता है। इसे मुफ्त में सब्स्क्राइब करके रेग्युलर शोज खुद-ब-खुद डाउनलोड किए जा सकते हैं। इन्हें ऐप्स के जरिए भी सुना जा सकता है।

5 हेल्थ पॉडकास्ट
The Real Food Podcast: इसे एक भारतीय फूड एक्सपर्ट विक्रम डॉक्टर चलाते हैं। इसमें खाने का शरीर पर पड़ने वाले असर को लेकर बेहतरीन जानकारी मिल सकती है। इसे goo.gl/WMyrLL पर सुनें
TEDTalks Science and Medicine: दुनिया भर से हेल्थ से जुड़े बेहतरीन लेक्चर सुनने के लिए इस पॉडकास्ट को goo.gl/oEHNwc पर जाकर सुनें।
60 Second Health: क्या आपके पास एक मिनट है? अगर हां, तो इस एक मिनट के हेल्थ पॉडकास्ट को goo.gl/shkDEF पर सुनें और जानकारी बढ़ाएं।
Hidden Brain: अगर दिमाग की गुत्थियों को सुलझाना चाहते हैं तो इस पॉडकास्ट को podbay.fm/show/1028908750 पर सुनें।
The Body of Knowledge: इसके जरिए एक्सरसाइज के साइंस को समझने का बेहतरीन मौका मिलता है। इसे podbay.fm/show/1220297654 पर जाकर सुना जा सकता है।

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फिरंग के देसी रंग

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​पिछले दिनों पूर्व क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग और न्यूजीलैंड के बैट्समैन रॉस टेलर के बीच ट्विटर पर संवाद सुर्खियों में रहा। चुटीले अंदाज में वीरू ने रॉस टेलर को दर्जी कहते हुए उन्हें उनकी शानदार पारी के लिए बधाई दी तो टेलर ने वीरू को हिंदी में जवाब देते हुए उनके भी खूब मजे लिए। बेशक भारतीय संस्कृति और भाषा से विदेशी खिलाड़ियों का लगाव बढ़ रहा है और इसकी वजह कहीं-न-कहीं खेलों में भारत का बढ़ता प्रभाव है। खिलाड़ियों, खासकर क्रिकेटर्स के इस बढ़ते लगाव पर संजीव कुमार की स्पेशल रिपोर्ट:

दशक भर पहले तक भारतीय क्रिकेट या यूं कहें कि वर्ल्ड क्रिकेट का बड़े से बड़ा स्टार भी इंग्लिश काउंटी में खेलना चाहता था। ऐसा वह पैसों के लिए भी करता था और इससे उसको अपनी स्किल्स सुधारने में भी मदद मिलती थी। अब दुनिया भर के क्रिकेटर्स के लिए इंडिया ड्रीम डेस्टिनेशन बन गया है। मशहूर खिलाड़ियों के अलावा ज्यादातर उभरते खिलाड़ी भी चाहते हैं कि उनकी प्रतिभा की जानकारी आईपीएल की टीमों तक पहुंचे। क्रिकेट ही क्यों, फुटबॉल, बैडमिंटन, हॉकी, रेसलिंग में भी भारत में ऐसी लीग शुरू हुई हैं जहां खिलाड़ी करोड़ों रुपये बना रहे हैं। ऐसे में विदेशी खिलाड़ियों के लिए भारत और भारतीयता को समझना उसी तरह जरूरी है, जैसे कि खेल और खेल की बारीकियों को। पिछले सीजन के खत्म होने के बाद डफ ऐंड फेल्प्स ने इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) की ब्रैंड वैल्यू 5.3 बिलियन डॉलर (करीब 3.4 खरब रुपये) आंकी थी। फुटबॉल की इंडियन सुपर लीग (आईएसएल) में इटली के पूर्व सुपरस्टार एलेसांद्रो डेल पीयरो को 16.9 लाख डॉलर (करीब 10.99 करोड़ रुपये) की रकम देकर साइन किया गया था। 40 साल की उम्र में इस फॉरवर्ड को आईपीएल में खेलने वाले कई सुपरस्टार्स से भी ज्यादा रकम देकर जब एक भारतीय फुटबॉल टीम (दिल्ली डायनमोज) खरीदती है तो वह क्यों ना ‘नमस्ते इंडिया’ कहे!

कभी ऐसा भी था
अपने जमाने में चीते जैसी फुर्ती से फील्डिंग के लिए दुनिया भर में मशहूर एकनाथ सोलकर का मजाक उनकी कमजोर अंग्रेजी के लिए उड़ाया जाता था। भारतीय ड्रेसिंग रूम में भी अंग्रेजी जानने और नहीं जानने वालों की अपनी-अपनी टोली होती थी। एकी भाई के नाम से मशहूर एकनाथ ने एक बार मैदान पर ज्यॉफ्री बॉयकॉट को कह दिया था, ‘आई विल आउट यू।’काफी समय तक इसका मखौल उड़ाया जाता रहा। इसी तरह कपिलदेव को जब टीम का कप्तान बनाया गया तो इसकी खूब चर्चा हुई कि इन्हें तो अंग्रेजी आती नहीं, फिर वह कप्तान कैसे हो सकते हैं! इस पर कपिल की प्रतिक्रिया थी, ‘जिन्हें दिक्कत है, वे अंग्रेजी में बात करने के लिए किसी को ऑक्सफर्ड से लेकर आएं। मेरा काम है क्रिकेट खेलना और मैं तो खेलता रहूंगा।'
लेकिन आज अंग्रेजी कोई बाधा नहीं है। यहां तक कि अंग्रेज हिंदी सीखना चाह रहे हैं। रॉस टेलर एक उदाहरण भर हैं, हिंदी सीखने की चाह रखने वाले तमाम हैं। इसी तरह

हां मैं तुम्हारा हूं...
अपनी आत्मकथा ‘माई लाइफ’ में ब्रेट ली ने लिखा है, ‘जब मैं एक जूनियर क्रिकेटर के तौर पर पहली बार भारत आया था तो उस वक्त की एक घटना मैं कभी नहीं भूल सकता। मैं प्रैक्टिस के लिए एक ऑटोरिक्शा में जा रहा था। ड्राइवर एक गाना बजा रहा था। उसकी धुन मुझे अच्छी लगी। मैंने ड्राइवर से गाने के बोल पूछे तो उसने कई दफा दोहराया और मुझे पता लगा कि यह गाना ‘मुकाबला, मुकाबला’ है। उसने मुझे बताया कि वह गाना इन दिनों काफी लोकप्रिय है। मैंने उससे डील करते हुए वह कैसेट 10 रुपये में खरीद लिया।’

भारतीय संगीत के प्रति ब्रेट के प्यार का वह सिलसिला शुरू हुआ तो उन्हें नहीं मालूम था कि एक दिन वह मशहूर सिंगर आशा भोसले के साथ एक गाना भी रेकॉर्ड करेंगे। 2006 में आए एक म्यूजिक विडियो ‘हां मैं तुम्हारा हूं और तुम्हारा ही रहूंगा...’ में ब्रेट नजर आए थे। उन्होंने 'अनइंडियन' नाम की फिल्म में काम भी किया है, जिसमें वह भारतीय मूल की एक लड़की से प्यार करते, होली खेलते और शेरवानी पहने दूल्हे के रूप में दिखते हैं। भारत से उनका ‘लगाव’ ही है कि वह यहां आधा दर्जन मशहूर ब्रैंड्स के लिए ऐड कैंपेन करते हैं, रिऐलिटी शोज़ में बुलाए जाते हैं और बाकी समय में कॉमेंट्री बॉक्स की शोभा बढ़ाते हैं।

रोड्स की ‘इंडिया’
फील्डिंग की कला को नई ऊंचाइयों तक ले जाने वाले जोंटी रोड्स इंटरनैशनल क्रिकेट से रिटायरमेंट के बाद ज्यादातर समय भारत में बिताते हैं। इसकी दो वजहें हैं। एक तो उनकी रोजी-रोटी यहीं से चलती है और दूसरे, वह इस देश की सांस्कृतिक विविधता के कायल हैं। रोड्स मुंबई इंडियंस टीम से सपोर्ट स्टाफ के तौर पर जुड़े हैं और साल में आधा समय मुंबई में ही बिताते हैं। वह आए दिन मुंबई के अपने पसंदीदा रेस्तरां में इडली या उत्तपम खाते तस्वीरें इंस्टाग्राम पर पोस्ट करते रहते हैं। वह योग करते हैं और सप्ताह में कुछ दिन पूरी तरह शाकाहारी भारतीय भोजन का आनंद उठाते हैं। भारत से उनके बेइंतहा प्यार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने दो साल पहले मुंबई में जन्मी अपनी बेटी का नाम 'इंडिया' रख दिया।

एक दफा उनसे भारत से उनके लगाव की वजह पूछा तो उन्होंने बड़ी खूबसूरती से इसको बयां किया, ‘मुझे यहां के गुलमर्ग से लेकर गुलाबजामुन तक, सब कुछ पसंद है। आप आज गुलमर्ग में स्नोबोर्डिंग कर सकते हैं और दो दिन बाद केरल में हाउसबोटिंग। आप बटर चिकन का लुत्फ उठा सकते हैं तो इडली और उत्तपम खाने का आनंद भी कम नहीं है। मैं घुमक्कड़ और खाने-पीने का शौकीन हूं। मेरे जैसे इंसान के लिए भारत जैसी विविधता कहां मिलेगी? एक बात और, यहां के लोगों का क्रिकेट के प्रति जुनून देखकर हमें क्रिकेटर होने पर गर्व होता है।' जोंटी ने कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर अपनी बेटी की तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा था: यह हमारी राजकुमारी नहीं है, हमारी छोटी इंडिया है। दिलचस्प यह कि न्यूजीलैंड के पूर्व पेस बोलर डियोन नैश ने भी अपनी बेटी का नाम 'इंडिया' रखा है।
बेशक, विदेशी खिलाड़ी आईपीएल के बहाने एक लंबा समय भारत में बिताते हैं। इस दौरान प्राय: उनका परिवार भी उनके साथ होता है। ऐसे में उनका भारतीयता के रंग में रंगना कोई अजूबा भी नहीं है।

स्टीव का उदयन
ऐसा नहीं है कि विदेशी खिलाड़ियों के भारत और भारतीयता से लगाव की वजहें सिर्फ आर्थिक हैं। ऑस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ उन चुनिंदा विदेशी खिलाड़ियों में से हैं, जो भारत में चैरिटी से भी जुड़े हैं। कोलकाता के उदयन फाउंडेशन से जुड़े स्टीव यहां हर साल आते हैं। कॉज के लिए काम करने वाली संस्था के लिए काम करते हुए स्टीव खुद को धन्य समझते हैं। इस साल भारत आने पर वह एक और वजह से चर्चा में रहे। वह सिडनी में बूट पॉलिश करने वाले अपने एक दोस्त ब्रायन रड्ड की अस्थियां लेकर आए थे। स्टीव ने बताया कि ब्रायन ने शादी नहीं की थी और उसकी आखिरी इच्छा थी कि उसकी अस्थियों को वाराणसी में गंगा में प्रवाहित किया जाए। पिछले तीन दशकों में अनगिनत बार भारत आए स्टीव भी अब इसे अपना ‘सेकेंड होम’ मानते हैं।

वीरू-रॉस संवाद
सहवाग: अच्छा खेले रॉस टेलर दर्जी जी। दिवाली पर मिले ऑर्डर्स का प्रेशर झेलने के बाद यह शानदार प्रयास है।
टेलर: थैंक्स वीरेंद्र सहवाग भाई। अगली बार अपना ऑर्डर टाइम पर भेज देना ताकि मैं आपको अगली दिवाली के पहले डिलिवर कर दूंगा। हैपी दिवाली।
सहवाग: हा..हा...हा... मास्टरजी, इस साल वाली पतलून ही एक बिलांग छोटी करके देना अगली दिवाली पर। रॉस द बॉस, बेहद स्पोर्टिंग।
टेलर: इस दिवाली पर क्या आपके दर्जी ने अच्छा काम नहीं किया?
सहवाग: सिलाई के काम में आपके ऊंचे स्तर की बराबरी कोई नहीं कर सकता दर्जी जी... चाहे वह पैंट हो या पार्टनरशिप...।

दूसरी भाषा सीखने के अपने फायदे हैं: वीरेंद्र सहवाग
रॉस टेलर को दर्जी शब्द के बारे में तबसे पता है, जब वह मेरे साथ दिल्ली डेयरडेविल्स में खेलते थे। वह बहुत मजाकिया हैं और उन्हें हिंदी के ढेर सारे शब्द आते हैं। डेविड वॉर्नर, ब्रेट ली, जोंटी रोड्स भी वैसे खिलाड़ियों में हैं, जिन्हें हिंदी के प्रचलित शब्दों की समझ है। मुझे लगता है कि स्मार्ट खिलाड़ी वही है, जो सामने वाले की भाषा समझ जाए। जब हम घरेलू क्रिकेट खेलते थे और तमिलनाडु या बंगाल जाते थे तो वहां की भाषा के कुछ शब्द सीखने की कोशिश करते थे। एक बैट्समैन के तौर पर इसके फायदे ही फायदे हैं। भारतीय टीम में महेंद्र सिंह धोनी विकेट के पीछे से बोलर या फील्डर्स को ज्यादातर हिदायतें हिंदी में ही देते रहे हैं। ऐसे में किसी विदेशी बैट्समैन को हिंदी की थोड़ी-बहुत समझ होती है तो उसको खेल में फायदा ही होगा!

उनकी तो मौजां ही मौजां हैं: मदन लाल
अगर विदेशी खिलाड़ी भारतीय रंग में रंग रहे हैं तो एक भारतीय के तौर पर हमें इस पर गर्व होना चाहिए। वैसे देखा जाए तो इसके पीछे इकॉनमी भी है। आईपीएल में खेलने वाली हर टीम में कम-से-कम चार-पांच विदेशी खिलाड़ी शामिल हैं। उन्हें पता है कि मार्केट यहां है? पैसे यहां से मिलने हैं? तो वह तो भारतीय कपड़े पहनेंगे ही। हिंदी भी सीखेंगे और बोलेंगे भी। वैसे भी फिरंगी खिलाड़ी खुले दिमाग से सोचते हैं। उन्हें जिस चीज से फायदा होता है, वे उसे अपनाने में हिचकते नहीं हैं। भारत से जुड़ने और भारतीयता अपनाने में तो उनका फायदा ही फायदा है। दूसरी तरह से कहें तो मौजां ही मौजां है।

मुझसे बेहतर कौन समझेगा: अशोक मल्होत्रा
मैं पंजाब से हूं। पहले हरियाणा से खेला और फिर बंगाल रणजी टीम की भी कप्तानी की। मेरी पत्नी बंगाल से ही हैं। मेरे लिए तो वहां की भाषा और संस्कृति को अपनाने के सिवाय कोई चारा ही नहीं था। मैं जब बंगाल रणजी टीम का कैप्टन बना तो शुरू-शुरू में साथी खिलाड़ियों की बातें भी नहीं समझ पाता था। जब तक आप साथी खिलाड़ियों के साथ घुलमिल नहीं जाते, टीम को अच्छी तरह लीड नहीं कर सकते इसलिए मैंने बंगला सीखने की ठानी। पहले तो मेरा मजाक उड़ाया जाता था, लेकिन अब धड़ल्ले से बंगाली बोल लेता हूं। यहां तक कि बांग्ला टीवी चैनल पर एक्सपर्ट के तौर पर भी मुझे बुलाया जाता है। आज अपनी तुलना विदेशी प्लेयर्स से करूं तो कह सकता हूं कि यहां की भाषा और संस्कृति को समझना उनकी जरूरत है। वह आईपीएल के दौरान भारतीय खिलाड़ियों के साथ दो-तीन महीने तक एक ही ड्रेसिंग रूम शेयर करते हैं। ऐसे में उन्हें यहां की लैंग्वेज या कल्चर की थोड़ी-बहुत समझ होना लाजिमी है, तभी वे टीम के साथ अच्छी तरह तालमेल बिठा पाएंगे।

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ड्रोनाचार्य की नई उड़ान

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मोबाइल पर अलर्ट आया है कि कुछ ही देर में आपके गेट पर ड्रोनजी पिज्जा डिलिवर करने वाले हैं। बाहर आकर रिसीव कर लें। शहर के नामी क्रिमिनल का चेहरा आकाश में उड़ते ड्रोन ने स्कैन कर लिया है और उसकी लोकेशन से लगातार ड्रोन कंट्रोल रूम को आगाह कर रहा है। जी नहीं, हम किसी हॉलिवुड की फिल्म की कहानी नहीं बता रहे बल्कि आने वाले वक्त की तस्वीर खींच रहे हैं। सरकार ने ड्रोन्स को रेग्युलेट करने के लिए पॉलिसी का पहला ड्राफ्ट तैयार कर लिया है। ड्रोन की दुनिया और उससे जुड़ी चुनौतियों बारे में विस्तार से बता रहे हैं अमित मिश्रा...


विदेश में ड्रोन के नियम कानूनों को लेकर एक पैरा चाहिए
ड्रोन को जब बनाया गया था तो यह महज एक खिलौना था। वक्त के साथ इसकी जरूरतें बदलने लगीं। जो कभी खिलौना था, अब उसका इस्तेमाल निगरानी रखने से लेकर युद्ध के मैदान में भी शुरू हो गया है। जैसे-जैसे कंप्यूटर स्मार्ट होते जा रहे हैं, ड्रोन भी स्मार्टनेस की तरफ बढ़ रहे हैं। एक्सपर्ट बताते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब इंसानी कंट्रोल की दरकार धीरे-धीरे कम हो जाएगी और एक खास कमांड देकर सारा काम ड्रोन पर ही छोड़ा जा सकेगा। मिसाल के तौर पर फ्रांस की कंपनी हार्दिस ग्रुप ने सामान की गिनती करने वाला ड्रोन बनाया है। इसका नाम है-आईसी। एंड्रॉयड से चलने वाले इस ड्रोन में आप को उड़ने का डेटा भर फीड करना होता है, इसके बाद सारा काम यह खुद करता है।

दुनिया भर में ड्रोन का बोलबाला
ड्रोन की डिमांड की बात करें तो आज यह बिलियन डॉलर इंडस्ट्री में तब्दील हो चुकी है। सर्वे से लेकर वेयर हाउस मैनेजमेंट से लेकर सीमा की निगरानी और बम गिराने तक में इसका उपयोग हो रहा है। ई-कॉमर्स, ऑनलाइन शॉपिंग और रिटेल सेक्टर की ज्यादातर कंपनियां रख-रखाव यानी लॉजिस्टिक्स के लिए ड्रोन और रोबॉट का इस्तेमाल कर रही हैं। वे पैकिंग करते हैं, सामान को सलीके से रखते हैं और हर सामान का हिसाब भी रखते हैं। अमेरिकी रिटेल कंपनी वॉलमार्ट के देश भर में ढाई लाख से ज्यादा गोदाम हैं। इनमें छोटे-से-छोटा गोदाम भी 17 फुटबॉल के मैदान के बराबर होता है। ऐसे विशाल वेयरहाउस में आजकल रोबॉट और ड्रोन ही बड़ी जिम्मेदारियां निपटाते हैं। दुनिया भर में इन कामों को अंजाम दे रहे हैं ड्रोन:
- पुलिस और आर्मी के लिए सर्विलांस
- वेयर हाउस में सामान की गिनती और टैगिंग
- जमीन का सर्वे और अतिक्रमण के बारे में जानकारी जुटाना
- सामान की डिलिवरी का काम
- ऊंचे टावर और गहरी सुरंग के भीतर जाकर हालात का पता लगाना
- खदानों के भीतर जाकर जहरीली गैस आदि के बारे में बता लगाना
- फोटोग्राफी और मूवीज की शूटिंग के लिए
- खिलौने के तौर पर
- युद्ध में बम बरसाने वाले हथियार के तौर पर


क्या है ड्रोन
इसे आप एक ऐसा रोबॉट कह सकते हैं, जो उड़ सकता है। अमूमन चार पंखों से लैस ड्रोन बैटरी के चार्ज होने पर लंबी उड़ान भर सकते हैं। इन्हें एक रिमोट या खासतौर पर बनाए गए कंट्रोल रूम से उड़ाया जा सकता है। ड्रोन का मतलब है नर मधुमक्खी। असल में यह नाम उड़ने के कारण ही इसे मिला है। यह बिल्कुल मधुमक्खी की तरह उड़ता है और एक जगह पर स्थिर रहकर मंडरा भी सकता है। ड्रोन का इस्तेमाल पहली बार पहले विश्व युद्ध में ऑस्ट्रिया ने वेनिस पर बम बरसाने के लिए किया था। तब इन्हें 'फ्लाइंग बम' कहा गया था।

हमारे लिए नया है ड्रोन
भारत के लिए ड्रोन और ड्रोन का उपयोग दोनों ही शुरुआती अवस्था में है। यहां ड्रोन बनाने वाली ज्यादातर कंपनियां मुश्किल से 5 साल पुरानी हैं और सभी में एक बात कॉमन है कि उनके पास ज्यादातर काम सरकारी एजेंसियों का है। यह प्रोफाइल भी इन्हें दुनिया की बाकी मार्केट से अलग बनाता है। जहां यूरोप और अमेरिका में ड्रोन का इस्तेमाल प्राइवेट इंडस्ट्री धड़ल्ले से कर रही है, वहीं भारत में बिजनेस का बड़ा हिस्सा सरकारी एजेंसियों से आता है। ज्यादातर काम सर्वे का है। मिसाल के तौर पर रेलवे इससे अपने ट्रैक के आसपास की जमीन का सर्वे करवाती है। राज्य सरकारों की एजेंसियां जंगलों और हरियाली का सर्वे करवाती हैं। किसी आपदा के वक्त ड्रोन से नजर रखने का काम लिया जाता है।
मुंबई की एयरपिक्स नाम की ड्रोन बनाने वाली कंपनी के को-फाउंडर शिनिल शेखर का कहते हैं, 'ज्यादातर काम सर्वे का ही है। इसलिए ड्रोन निर्माता इस सेक्टर में ही ड्रोन को लेकर आते हैं क्योंकि पैसा इसी में है। हालांकि काम के लिहाज से अब भी इस सेग्मेंट में काफी जगह है।' बेंगलुरु स्थित ड्रोन बनाने वाली कंपनी स्काईलार्क के फाउंडर मुगिलान रामास्वामी ने का कहना है कि ड्रोन के उपयोग को लेकर देश में ज्ञान का अभाव है। ढेर सारा काम ऐसा है जो ड्रोन के सहारे बहुत आसानी से और कम कीमत पर इंसानी जान को खतरे में डाले बिना किया जा सकता है, लेकिन जानकारी की कमी की वजह से ऐसा नहीं हो पाता। अब भी हमें किसी नए कस्टमर को समझाने में काफी वक्त देने पड़ता है।

लॉ ने किया लिमिट
ड्रोन बड़े काम की चीज है तो इसके खतरे भी कम नहीं है। सुरक्षा के लिए इसे हमेशा से बड़ा खतरा माना जाता रहा है। ऐसे में इसके निर्माण और उपयोग को कानूनी दायरे में लाना जरूरी था। इसके लिए रूल्स और रेग्लुशंस की पहल करके सरकार ने जता दिया है कि वह सही रास्ते पर है। सरकार ने ड्रोन को रेग्युलेट करने के लिए उसे 5 सेग्मेंट में बांटा है और हरेक के उड़ान के लिए नियम बनाने का प्रस्ताव रखा है। पांच सेग्मेंट ये हैं - नैनो, माइक्रो, मिनी, स्मॉल और लार्ज
- नैनो में 250 ग्राम वजन से लेकर 150 किलो तक के ड्रोन शामिल हैं।
- माइक्रो (250 ग्राम से ज्यादा, लेकिन 2 किलोग्राम से कम) से उड़ान की सुविधा मुहैया कराने वालों को एक बार के लिए रजिस्ट्रेशन करना होगा होगा और विशिष्ट पहचान भी लेनी होगी। स्थानीय पुलिस को उड़ान की सूचना भी देनी होगी। ये ड्रोन 200 फीट की ऊंचाई तक उड़ान भर सकते हैं। ज्यादातर ड्रोन कंपनियां फिलहाल इस सेग्मेंट में काम कर रही हैं।
- मिनी या उससे ऊपर (2 किलोग्राम से लेकर 150 किलोग्राम या उससे ज्यादा वजन) के ड्रोन के लिए रजिस्ट्रेशन और विशिष्ट पहचान तो जरूरी है ही, साथ ही उन्हें हर उड़ान के लिए एयर ट्रैफिक कंट्रोलर से अनुमति भी लेनी होगी। ये 200 फीट की ऊंचाई तक उड़ान भर सकते है।
- 2 किलोग्राम से कम वजन वाले मॉडल एयरक्राफ्ट शैक्षणिक उद्देश्यों से 200 फीट की ऊंचाई भर सकते हैं।

यहां रहेगी ड्रोन पर रोक
- चालू हवाई अड्डे के पांच किलोमीटर के दायरे में ड्रोन नहीं उड़ाए जा सकेंगे।
- अंतरराष्ट्रीय सीमा या नियंत्रण रेखा से 50 किलोमीटर के दायरे में ड्रोन उड़ाने की इजाजत नहीं होगी।
- सेंट्रल दिल्ली के विजय चौक (जिसके आसपास राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, संसद भवन, रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय वगैरह स्थित हैं) के 5 किलोमीटर के दायरे और गृह मंत्रालय की ओर से अधिसूचित क्षेत्र के आधे किलोमीटर के दायरे में ड्रोन उड़ाने की इजाजत नहीं होगी।
- चलती गाड़ी या जहाज से ड्रोन नहीं उड़ाया जा सकता है। साथ ही सैंक्चुरी वगैरह इलाकों में विशेष अनुमति लेने के बाद ही ड्रोन का इस्तेमाल किया जा सकेगा। ऐसा भी प्रावधान है कि अगर कोई ड्रोन रास्ता भटककर नो-ड्रोन जोन में जाता है तो उसे नष्ट किया जा सकेगा।
- ड्रोन के कमर्शल इस्तेमाल जैसे सामान की डिलिवरी आदि की भी अनुमति दी जा सकती है। ऐसा होने पर भारी भीड़ वाले इलाकों में सामान की डिलिवरी या जरूरत पड़ने पर मेडिकल से जुड़ी मदद, मसलन एक जगह से दूसरे जगह पर ब्लड पहुंचाना जैसे कामों में आसानी होगी और वक्त भी कम लगेगा।

कब पिज्जा और मोबाइल की ड्रोन से डिलिवरी
ड्रोन इंडस्ट्री में काम करने वाले तकरीबन हर एक्सपर्ट का मानना है कि भारत जैसे देश में यह दूर की कौड़ी है। अमेरिका में भी इसका इस्तेमाल बहुत सीमित स्तर पर ही हो रहा है। स्काई लार्क के मुगिलान रामास्वामी कहते हैं कि हमारे देश में रास्तों की मैपिंग से लेकर सिटी प्लानिंग तक, कुछ भी व्यवस्थित नहीं है। ऐसे में ड्रोन से डिलिवरी फिलहाल मुमकिन नहीं है। हो सकता है कि किसी खास कैंपस के भीतर इसे किया जा सके, लेकिन पूरे शहर या इलाके में ड्रोन से डिलिवरी करना बहुत मुश्किल होगा। इसके अलावा खुले आकाश में डिलिवरी का सामान लेकर निकले ड्रोन अपने यहां कई तरह की दिक्कतों का सबब भी बन सकते हैं। इसके लिए रूल्स क्या होंगे, इन पर भी काम करने की अभी जरूरत है।

दिक्कतें अभी तमाम हैं
- ड्रोन को इंपोर्ट करने और बनाने को लेकर अभी स्पष्ट गाइडलाइंस नहीं हैं।
- माइक्रो सेग्मेंट के ड्रोन का रजिस्ट्रेशन न होने पर दिक्कत हो सकती है। अगर कभी वह नो फ्लाई जोन में जाते हैं तो इसे उड़ाने वाले की पहचान कैसे होगी? पुलिस से जुड़े अधिकारियों का भी मानना है कि इसका फायदा शरारती तत्व उठा सकते हैं।
- ई-कॉमर्स साइट्स के इस्तेमाल किए जाने पर ड्रोन का ट्रैफिक कौन कंट्रोल करेगा। हवा में दो ड्रोन के टकराने, किसी पर गिर जाने जैसी स्थितियों पर भी ड्राफ्ट खामोश है।
- पूरे ड्राफ्ट में किसी भी तरह के दंड का कोई प्रावधान नहीं है।
- अगर कोई ड्रोन से विडियो बनाता है तो प्राइवेसी में दखल का मामला बनता है। इससे डील करने के बारे में ड्राफ्ट खामोश है।
- होम मिनिस्ट्री और डिफेंस मिनिस्ट्री पहले ही ड्रोन को लेकर काफी सख्त हैं। ऐसे में पॉलिसी बनाने में उनका दखल कितना होगा, इस बारे में स्थिति साफ नहीं है।
- राज्य सरकारों से फिलहाल ड्रोन पॉलिसी के बारे में कोई बात नहीं हुई है, जबकि कानून-व्यवस्था और नियमों को लागू करवाने की जिम्मेदारी उन पर ही होगी।

अमेरिका में क्या है रेग्युलेशन का हाल
ड्रोन के रेग्युलेशन को लेकर अमेरिका हमसे कुछ ज्यादा आगे नहीं गया है। प्रेजिडंट ट्रंप ने दो दिन पहले ही अनमैन्ड एयरक्राफ्ट यानी बिना पायलट वाले हवाई जहाजों को हवाई ट्रैफिक रेग्युलेट करने वाली संस्था एफएए यानी फैडरल एविएशन एडिमिस्ट्रेशन के दायरे में लाने की बात कही है। एफएए ने जो नियम कायदे ड्रोन्स के लिए बनाए हैं वे 21 दिसंबर से देश भर में लागू हो जाएंगे। फिलहाल अमेरिका में कुछ मोटे-मोटे नियम हैं जिनको ड्रोन उड़ाने वालों को मानना होता है।
- कोई भी इंसान या एजेंसी बिना परमिशन के ऐसे ड्रोन नहीं उड़ा सकती, जो इतनी दूर तक उड़ें कि कंट्रोल करने वाले को दिखाई ही न दें।
- रात में ड्रोन बिना अथॉरिटी की परमिशन के नहीं उड़ाए जा सकते।
- चूंकि एमजॉन जैसी कंपनियां लंबी दूरी तक ड्रोन से डिलिवरी करना चाहती हैं, ऐसे में वहेसरकार से एक खास पायलट प्रोजेक्ट के तहत परमिशन ले रही हैं।
- एमजॉन अमेरिका ड्रोन के जरिए आधे घंटे के भीतर सामान डिलिवर करने के वादे के साथ इस तरह की परमिशन मांग रहा है।
- एफएए वेब आधारित ड्रोन रजिस्ट्रेशन प्रोसेस शुरू करने के बारे में सोच रहा है, जिसमें कोई भी ड्रोन को इस्तेमाल करने से पहले 5 डॉलर या तकरीबन 400 रुपये फीस भर कर रजिस्ट्रेशन करा सकता है।
- अपने ड्राफ्ट में एफएए ने कहा है कि वह रजिस्ट्रेशन के पूरे प्रोसेस को 5 मिनट का रखना चाहता है।
- अमेरिकी सरकार एयर ट्रैफिक कंट्रोल को प्राइवेट हाथों में देने पर काफी तेजी से काम कर रही है। ऐसा होने के बाद ड्रोन को रास्ता दिखाने का काम भी इसके जिम्मे आ सकता है।
- नए ड्राफ्ट में ड्रोन के आपस में एक्सिडेंट या किसी पर गिर जाने को लेकर भी नियम हैं।
- बिना रजिस्ट्रेशन के ड्रोन उड़ाने पर 17 लाख रुपये से डेढ करोड़ रुपये तक की पेनल्टी और 1 साल तक की सजा का प्रावधान किए जाने का प्रस्ताव है।

क्या कहते हैं एक्सपर्ट
हमने होम मिनिस्ट्री से डिस्कस करने के बाद ही ड्रोन को लेकर ऐसा ड्राफ्ट तैयार किया है जिससे ड्रोन इंडस्ट्री में बिजनस करने की सहूलियत तो बढ़े और इसके गलत इस्तेमाल की कोई आशंका भी न रहे। -आर.एन. चौबे, सिविल ऐविएशन सेक्रेटरी

ड्रोन को लेकर सरकार की जल्दबाजी समझ से बाहर है। ड्राफ्ट इतना ढीला-ढाला है कि इसमें सेफ्टी, सिक्यॉरिटी और प्राइवेसी के मूल मामलों पर चर्चा तक नहीं की गई है। -विराग गुप्ता, ऐडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट

साइबर सिक्यॉरिटी पहले ही काफी पेचींदा मामला है ऐसे में ड्रोन को खुली छूट देना परेशानी का सबब बन सकता है। इस पर एक व्यापक पॉलिसी बनाने की जरूरत है न कि तुरत-फुरत में कोई फैसला लेने की। -पवन दुग्गल, साइबर कानून एक्सपर्ट

स्ट्रैटजिक लोकेशन हर शहर में होती है और इस तरह से बिना रजिस्ट्रेशन के किसी भी तरह के ड्रोन को ऑपरेट करने की छूट देना नैशनल सिक्यॉरिटी के लिए खतरा साबित हो सकता है। - एक पुलिस अधिकारी

शुरुआती तौर पर देखने से ड्राफ्ट काफी अच्छा है। इससे इंडस्ट्री को काफी फायदा होगा। हालांकि देश में बनने वाले ड्रोन और बाहर से आयात होने वाले ड्रोन पर पॉलिसी में सुधार की जरूरत है। हम फिलहाल इतने सक्षम नहीं कि खुद ही हर तरह के ड्रोन बना सकें। -मुघिलान थिरु रामास्वामी फाउंडर, सीईओ, स्काईलार्क ड्रोन

छोटे ड्रोन का इस्तेमाल संख्या के लिहाज से ज्यादा होता है, लेकिन ज्यादा कमाई वाले काम बड़े ड्रोन ही करते हैं। ऐसे में तगड़े रेग्युलेशन से इस सेग्मेंट के ड्रोन पर पड़ने वाले असर को वक्त के हिसाब से देख कर बदलाव करना चाहिए। रेग्युलेशन का वक्त-वक्त पर रिव्यू भी जरूरी है। -शिनिल शेखर, को-फाउंडर, एयर पिक्स

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क्यों बिगड़ रहा है बचपन!

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करीब 2 महीने पहले मासूम प्रद्युम्न की हत्या ने देशभर को हिला कर रख दिया था। अब सीबीआई का कहना है कि स्कूल के एक सीनियर बच्चे ने ही उसकी हत्या की थी। यह बताता है कि स्कूल और कॉलेज कैंपस के अंदर बात बुलिंग से काफी आगे निकल गई है। क्या है हकीकत और क्यों है ऐसा, बता रहे हैं प्रिय रंजन झा...

एस. के. सिंह (बदला हुआ नाम) दिल्ली के एक नामी स्कूल के हॉस्टल के वॉर्डन थे। भले-चंगे डॉ़ सिंह अपनी जिम्मेदारी से इतने परेशान हुए कि दो साल के अंदर बीपी-शुगर के मरीज हो गए। हालत यह हो गई कि उन्होंने स्कूल ही छोड़ दिया। उनकी तकलीफ यह थी कि कुछ बच्चे इतने बदमाश थे कि उनसे दूसरे बच्चों को बचाने में उनका चैन छिन जाता था। तमाम शिकायतों के बाद भी बदमाश बच्चों के पैरंट्स कुछ ध्यान नहीं देते थे तो स्कूल मैनेजमेंट की उम्मीद यह रहती थी कि तमाम परेशानियों के बावजूद शरारती बच्चों के साथ सख्ती से पेश न आया जाए। मैनेजमेंट का डर यह था कि इससे जहां उन्हें पैसे का नुकसान होगा, वहीं रसूखदार लोगों के बच्चे हुए तो उनकी नाराजगी भी भारी पड़ेगी। परेशान होकर सिंह ने नौकरी ही छोड़ दी।

स्नेह (बदला हुआ नाम) जर्नलिस्ट थीं, टीचिंग से प्यार था इसलिए एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में प्रफेसर बन गईं। दो-तीन महीनों में उन्हें इल्म हो गया कि टीचिंग उनके वश की बात नहीं है। वजह, क्लास में लापरवाह और खुराफाती बच्चों की फौज और यूनिवर्सिटी प्रशासन का ढुलमुल रवैया। बच्चे क्लास से गायब रहते थे, लेकिन बच्चों पर ऐक्शन लेने के बजाय यूनिवर्सिटी उम्मीद करती थी कि क्लास से गायब रहने वाले बच्चों के प्रोजेक्ट भी जरूर जमा हों। जाहिर है, प्रोजेक्ट के लिए सारी मेहनत स्नेहा जैसे प्रफेसरों के जिम्मे ही आती थी। स्नेह की परेशानी यह रही कि न तो यूनिवर्सिटी उसकी दिक्कत समझ रही है और न ही बच्चों के पैरंट्स। यूनिवर्सिटी को सिर्फ लाखों की फीस से मतलब है तो पैरंट्स को डिग्री से। ऐसे में कोई यह नहीं देख रहा कि बच्चे आखिर कर क्या रहे हैं? बच्चे इसी स्थिति का फायदा उठाते हैं। वे क्लास और क्लास टीचर के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं!

अक्सर जब हम बुलिंग की बात करते हैं तो इसमें मासूम बच्चों की परेशानी ही शामिल होती है, लेकिन सच यह है कि शरारती और लापरवाह बच्चों की वजह से टीचर्स भी कम हलकान नहीं हैं। अफसोस इस बात का है कि ऊपर की दोनों कहानियां बहुत-से एजुकेशनल इंस्टिट्यूट की हैं। बिगड़ैल बच्चों से शिक्षा संस्थानों का माहौल बिगड़ रहा है। बुलिंग चरम पर है (देखें बॉक्स)। टीचरों की शिकायत आम होने लगी है कि चंद बदमाश बच्चों, उनके पैरंट्स और स्कूल मैनेजमेंट के बीच वे फुटबॉल बनकर रह जाते हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक प्राइवेट स्कूल में पीजीटी टीचर दर्द बयान करती हैं, 'स्कूल मैनेजमेंट बच्चों की परफॉर्मेंस और अनुशासन के लिए टीचर को जिम्मेदारी देकर निश्चिंत हो जाते हैं। लेकिन टीचर के साथ दिक्कत यह है कि वह बच्चों को डांट भी दे तो बच्चे और पैरंट्स पीछे पड़ जाते हैं। चंद बच्चों के चलते पूरी क्लास डिस्टर्ब रहती है, लेकिन हम ज्यादा-से-ज्यादा उन्हें वॉर्निंग ही दे सकते हैं या पैरंट्स और स्कूल मैनेजमेंट के पास शिकायत कर सकते हैं। अधिकतर मामलों में पैरंट्स का रवैया सकारात्मक नहीं रहता, जबकि मैनेजमेंट मामले में दखल देने से पहले यह देखता है कि उस बच्चे के पैरंट्स रसूखदार तो नहीं हैं! ऐसे में बेपरवाह बदमाश बच्चे दुस्साहसी बन जाते हैं और कुछ भी कर गुजरते हैं। प्रद्युम्न मामले में भी यही कुछ हुआ है।'

ऐसे हालात क्यों
एक्सपर्ट बताते हैं कि स्थिति के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार शिक्षा का कारोबार बन जाना है। सरकारी शिक्षा संस्थाओं की बुरी स्थिति की वजह से प्राइवेट स्कूल मशरूम की तरह उग आए हैं। इनका इकलौता मकसद पैसा कमाना है। वे छोटी क्लास में एडमिशन के लिए भी लाखों रुपये डोनेशन लेते हैं। ऐसे में वे बच्चे भी स्कूल-कॉलेजों में खूब पहुंच रहे हैं, जिनकी पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं होती। वे बस वहां समय काट रहे होते हैं। जाहिर है, वे खुराफात में आगे रहते हैं। इस स्थिति के लिए एक्सपर्ट जिन कुछ बातों को जिम्मेदार मानते हैं, वे हैं...

- शिक्षा संस्थानों को कमाई से मतलब है। वे यह नहीं देखते कि उनकी कमाई के लालच का बुरा असर मासूम बच्चों और टीचरों को किस रूप में भुगतना पड़ रहा है!
- कानून ने टीचरों के हाथ बांध दिए हैं। बदमाशी करने पर वे ठीक से डांट भी नहीं सकते।
- पैरंट्स की जिद रहती है कि बच्चों को हर हाल में पढ़ना ही चाहिए। वे पढ़ेंगे नहीं तो करेंगे क्या?
- बच्चों का मन पढ़ाई में न लगने के बावजूद रसूखदार या पैसे वाले पैरंट्स उन्हें जबर्दस्ती स्कूल भेजते हैं ताकि समाज में उनकी नाक ऊंची रहे कि उनके बच्चे सबसे महंगे और अच्छे स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे हैं। उत्तर भारत में यह कुछ ज्यादा है।

- पैरंट्स की उदासीनता इस मामले में सबसे ज्यादा घातक है। एक्सपर्ट मानते हैं कि अधिकतर पैरंट्स कमाने या दूसरे कामों में इतने बिजी हैं कि बच्चों को लेकर वे उदासीन हैं। उनकी उदासीनता खुद उन पर और उनके बच्चों पर तो भारी पड़ती ही है, दूसरों पर भी भारी पड़ रही है।
- मेंटल हेल्थ को लेकर लोगों की अज्ञानता भी इसके लिए जिम्मेदार है। अक्सर पैरंट्स बच्चों के असामान्य व्यवहार को बचपना या किशोरवय की चंचलता मानकर उसे इग्नोर करते रहते हैं। उन्हें तक तक अपनी इस गलती का अहसास नहीं होता है, जब तक कि बच्चा किसी बड़ी गलती को अंजाम नहीं दे देता।
- लोगों की यह सोच भी कम जिम्मेदार नहीं कि हर बच्चे को पढ़ना ही चाहिए। और पढ़ना ही नहीं चाहिए बल्कि नंबर भी बढ़िया आना चाहिए। यह मासूमों पर अतिरिक्त दबाव पैदा कर रहा है और वे गलत राह पर चल रहे हैं।

पैरंट्स और इंस्टिट्यूट, दोनों दोषी
एक्सपर्ट मानते हैं कि भविष्य में प्रद्युम्न मर्डर जैसे कांड को रोकने के लिए सबसे बड़ी भूमिका पैरंट्स को निभानी होगी। एस. के. सिंह कहते हैं, 'पैरंट्स की जिम्मेदारी सबसे अहम है। आमतौर पर बदमाश बच्चे भी स्कूल के माहौल में बदमाशी नहीं कर पाते। उन्हें पता होता है कि उन्हें अनुशासन में रहना है, लेकिन दिक्कत उन मामलों में होती है, जब पैरंट्स पावर या पैसे के गुरूर में चूर हों या फिर बच्चों के वर्तमान और भविष्य को लेकर आला दर्जे के उदासीन हों। दोनों ही स्थितियों में आशंका रहती है कि ऐसे पैरंट्स के बच्चे स्कूल में समस्या खड़ी करने वाले होंगे। मेरा अनुभव कहता है कि कई बार बच्चों को पता ही नहीं होता कि जो वे कर रहे हैं, वह गलत है और दूसरों को तकलीफ पहुंचाने वाला है। ऐसे में पैरंट्स की ड्यूटी बनती है कि वे बच्चे को सही-गलत के बारे में बताएं और अगर वे अपनी यह जिम्मेदारी नहीं निभा सकते तो बच्चे को स्कूल से दूर रखें।'


स्नेह का भी मानना है कि यह स्थिति तभी सुधरेगी जब शैक्षणिक संस्थान 'पैसा ही सब कुछ है' वाली मानसिकता से बाहर आएंगे। वह कहती हैं, 'पैरंट्स अपने बच्चों की गलतियों पर पर्दा डालने के लिए तमाम जतन करते हैं, लेकिन बच्चे अनुशासन में रहे, यह स्कूल-कॉलेज की भी जिम्मेदारी है। एक दिन मैं अपने एक स्टूडेंट का पिछला रेकॉर्ड चेक कर रही थी। मैंने देखा कि वह एक ऐसे मिशनरी स्कूल में पढ़ा था जिसका नाम हिंदू देवता गणेश के नाम पर था। मैंने जब उसकी हकीकत पूछी तो वह सकपका गया। वास्तव में उसे भी यह पता नहीं था कि उसके पैरंट्स ने प्रफेशनल कोर्स में उसे एडमिशन दिलाने के लिए जिस फर्जी सर्टिफिकेट का जुगाड़ किया था, उसमें इतनी बड़ी गलती थी। असल में उस लड़के की पढ़ने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन उसका पिता हरियाणा का रसूखदार आदमी था, इसलिए उसका अच्छे कॉलेज में एडमिशन करा दिया। सवाल है कि क्या कॉलेज को पिछले सर्टिफिकेट की सत्यता परखने के बाद ही एडमिशन नहीं देना चाहिए? और कोई भी मुंह उठाए ऐसे ही प्रफेशनल डिग्री लेने आ जाएगा तो कैंपस की स्थिति अराजक होगी ही।'

एजुकेशन प्रफेशन से जुड़ीं आलोकपर्णा दास कहती हैं, 'बच्चे भी अब बच्चे नहीं रहे। ऐसे में उन्हें बार-बार यह याद दिलाना जरूरी है कि स्कूल या कॉलेज वे पढ़ने जा रहे हैं, कुछ और करने नहीं। पैरंट्स को भी दिखावे से बचना चाहिए। अगर बच्चा पढ़ने में रुचि नहीं ले रहा तो जबर्दस्ती उसे स्कूल या कॉलेज अटेंड करने के लिए न कहें। अब जमाना वह नहीं रहा कि सिर्फ पढ़ने वाले ही काबिल माने जाते हैं। अगर आपका बच्चा कुछ अलग करना चाह रहा है तो उसे करने दें, न कि पढ़ने के लिए मजबूर करें। बच्चे की रुचि यानी हॉबी पर भी ध्यान दें। कोशिश कर बचपन से ही बच्चों में किसी-न-किसी हॉबी के लिए प्यार पैदा करें, इससे वे बुराइयों से दूर रहेंगे।बच्चा अगर जबरन और मन मारकर पढ़ेगा तो उसकी खीज हिंसा में तब्दील हो सकती है।'

सायकायट्रिस्ट डॉ. समीर पारीख इस स्थिति को दूसरे ही नजरिए से देखते हैं। वह कहते हैं, 'नाबालिग बच्चे द्वारा एक मासूम का कत्ल कोई सामान्य बात नहीं है। ऐसे खौफनाक क्राइम के लिए बहुत हिम्मत और प्लानिंग की जरूरत होती है। यह काम वही कर सकता है जो मानसिक रूप से दुरुस्त न हो। दिक्कत यह है कि हम भारतीय मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम पर ध्यान बिल्कुल नहीं देते। लगभग 14 प्रतिशत भारतीय आबादी मेंटल डिस्ऑर्डर की शिकार है और इनमें से लगभग 11 फीसदी को हर हाल में फौरन इलाज की जरूरत है, लेकिन हम भारतीय इसे लेकर उदासीन हैं। अगर पैरंट्स और समाज बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या को शुरुआती स्तर पर पहचान लें और सही से गाइड करें तो गुरुग्राम के स्कूल जैसी घटनाएं नहीं होंगी।'

कुछ समय पहले सायकायट्रिस्ट डॉ. समीर पारीख और उनकी टीम ने बच्चों के बीच एक स्टडी की थी, जिसमें कई अहम तथ्य सामने आए। इनमें सबसे अहम बात यह रही कि बच्चे खुद यह मानते हैं कि अगर पैरंट्स और टीचर सही से निगाह रखेंगे तो बच्चे गलत काम नहीं करेंगे...

69% बच्चों को यह लगता है कि दूसरे बच्चों को तंग करना महज फन है, उन्हें परेशान करना नहीं।
40% टीचरों को लगता है कि दूसरे बच्चों को तंग करना या उनसे लड़ना टीनएज में नेचरल है।
66% बच्चों ने कहा कि वे स्कूल में बुलिंग के शिकार होते हैं।
77% बच्चों ने कहा कि फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा उन्हें हिंसा के लिए उकसाती है।
60% टीनएजर्स मानते हैं कि नियम बनते ही तोड़ने के लिए हैं।
70% टीनएजर्स ने कहा कि रिस्क लेना और एडवेंचरस होना, उन्हें बहादुर बनाता है।
79% टीनएजर्स ने माना कि पैरंट्स और टीचर बच्चों पर निगरानी रखें तो बच्चों के गलत बर्ताव को बदला जा सकता है।

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आधार भारत में जीवन का आधार बनता जा रहा है। पढ़ाई, राशन, मोबाइल, बैंकिंग आदि तमाम जगह अब इसकी जरूरत पड़ने लगी है। ऐसे में डेटा की प्राइवेसी और कुछ दूसरे विवाद भी उठने लगे हैं। इन्हीं मुद्दों पर राजेश मित्तल और अमित मिश्रा ने बातचीत की UIDAI के सीईओ अजय भूषण पाण्डे से...

सवाल: लोगों को लगता है कि बैंक अकाउंट से लेकर पीडीएस और प्रॉपर्टी की खरीद से लेकर सिम कार्ड तक, हर जगह आधार नंबर अटैच करवा कर केंद्र सरकार अपना शिकंजा नागरिकों पर कसने की कोशिश कर रही है। किसी सरकार-विरोधी शख्स को निपटाने के लिए सरकार आधार के जरिए उसका सारा कच्चा चिट्ठा खुलवा सकती है।
जवाब: यह सोचना कतई गलत है। इसे आप ऐसे समझिए कि हर जानकारी अलग-अलग ब्लॉक में सुरक्षित है। उसका एक-दूसरे से कोई लिंक नहीं है। प्रॉपर्टी, बैंक अकाउंट, मोबाइल आदि से जुड़ा सारा डेटा एक जगह इकट्ठा नहीं है। बैंकों का खांचा अलग है, टेलिकॉम कंपनियों का अलग। इन अलग-अलग खांचों में भी कोई संवेदनशील जानकारी नहीं है। मिसाल के तौर पर अगर आपने पैन को आधार से लिंक करवाया है तो हमारे पास यूजर के पैन डिटेल्स नहीं पहुंचते और न ही पैन अथॉरिटी के पास हमारे पास स्टोर जानकारी ही पहुंचती है। हम सिर्फ केवाईसी करते हैं। मतलब अगर कोई अथॉरिटी किसी शख्स के फिंगरप्रिंट लेकर हमसे इस बात को वेरिफाई करती है कि क्या अमुक शख्स वही है जिसका वह दावा कर रहा है तो हम यह जानकारी सिर्फ ‘हां’ या ‘नहीं’ में देते हैं। साथ में 5 जानकारियां: नाम, जन्मतिथि, लिगं, पता और फोटो।

सवाल: यह तो ठीक है कि बैंकों का खांचा अलग है, टेलिकॉम कंपनियों का अलग है लेकिन यह भी तो हो सकता है कि कोई एक मकसद के लिए हमसे E-KYC ले और दूसरे मकसद से इसका इस्तेमाल कर ले।
जवाब: इस खतरे से निपटने के लिए आप पहले जरूर पता कर लें कि किस काम के लिए आपके आधार नंबर और फिंगरप्रिंट या आइरिस या E-KYC मांगा जा रहा है। कहां और किस वक्त पर उसका इस्तेमाल हुआ है, इस बारे में ईमेल आपके पास आ जाता है, अगर आपने आधार नंबर लेते वक्त ईमेल दिया हो। हम कुछ ही वक्त में एम-आधार मोबाइल ऐप में ऐसी सुविधा उपलब्ध करवाने वाले हैं, जहां आप पिछले 6 महीने में अपने इस्तेमाल किए हुए बायोमीट्रिक डेटा को ट्रेस कर सकेंगे। आपको ऐप के जरिए यह पता चल जाएगा कि आपने कहां और किस वक्त अपना बायोमीट्रिक डेटा इस्तेमाल किया था। अगर आपको लगे कि बेजा इस्तेमाल हुआ है तो आप हमसे संपर्क करें। हम जांच करेंगे।

सवाल: एक डर यह है कि किसी के पास करोड़ों की प्रॉपर्टी है, लाखों का बैंक बैलेंस है। कोई बंदा उसके आधार से उसकी नेटवर्थ जान सकता है।
जवाब: आधार के बारे में ऐसे आरोप निराधार हैं। ऐसा वे लोग कहते हैं, जिन्हें न तो इसके बारे में कोई जानकारी है और न ही उन्होंने कभी आधार ऐक्ट को ढंग से पढ़ा है। ऐक्ट में साफ लिखा है कि आधार के लिए इकट्टठा की गई कोई भी जानकारी आधार अथॉरिटी किसी के साथ भी नहीं शेयर करेगी।

सवाल: इसका मतलब सरकार के साथ भी नहीं?
जवाब: जी नहीं, सरकार के साथ भी नहीं। हमने इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा भी दिया है। ऐसा करना अपराध है। हम सरकार या किसी जांच एजेंसी को कोई जानकारी तभी उपलब्ध करवाते हैं, जब कोर्ट हमें ऐसा करने के लिए निर्देश देता है। इससे एक कदम आगे जाकर हमने इस बात की ताकीद दी है कि हम कभी भी किसी शख्स का पर्सनल डेटा किसी के साथ शेयर नहीं करेंगे।

सवाल: इसका मतलब यह कि अगर पुलिस या सीबीआई या इनकम टैक्स डिपार्टमेंट आपसे कोई जानकारी मांगे तो आप उसे मुहैया नहीं कराएंगे?
जवाब: हम तब तक कोई जानकारी नहीं मुहैया नहीं कराएंगे, जब तक कोर्ट से हमें इसके ऑर्डर नहीं मिलते। हम कोई भी डेटा जांच एजेंसी के सिर्फ मांग देने भर से उससे नहीं शेयर करते। अगर किसी जांच एजेंसी को कोई जानकारी चाहिए तो उसे पहले कोर्ट से इसका आदेश हासिल करना होगा।

सवाल: पर मैं प्रॉपर्टी, बैंक अकाउंट आदि आधार से लिंक करवाने के झंझट में क्यों पड़ूं? मुझे इसका क्या फायदा?
जवाब: आधार से लिंक करवाना सबके लिए फायदे का सौदा है। अभी आपने प्रॉपर्टी रजिस्ट्रेशन के वक्त आधार नंबर देने और बायोमीट्रिक वेरिफिकेशन की बात की थी। हालांकि हर राज्य में ऐसा नहीं हो रहा, लेकिन जहां यह हो रहा है, वहां किसी भी तरह के फर्जीवाड़े की गुंजाइश नहीं रहती। हमारी अदालतें ऐसे सैकड़ों मुकदमों से लदी पड़ी हैं, जहां किसी ने फर्जी कागजात और सरकारी अधिकारियों से मिलीभगत करके प्रॉपर्टी बेच दी। आधार से लिंक हो जाने के दूरगामी नतीजे हैं। इससे क्राइम में भी काफी कमी आएगी। फालतू की मुकदमेबाजी कम होगी। इसी तरह बदमाश फर्जी आईडी से बैंक अकाउंट खोलकर नौकरी देने के नाम पर या दूसरे झांसे देकर भोले-बाले लोगों से पैसे जमा करते हैं और पैसे बटोरकर चंपत हो जाते हैं। अगर हर बैंक अकाउंट आधार से लिंक होगा तो ऐसे फ्रॉड बैंक बंद हो जाएंगे।

सवाल: हाल में खबर आई भी कि आधार न लिंक न होने की वजह से झारखंड में एक परिवार को राशन का सामान महीनों तक नहीं मिला। एक बच्ची की मौत हो गई। इस तरह की घटनाओं पर आपका क्या कहना है?
जवाब: सबसे पहली बात तो यह जानें कि आधार ऐक्ट में यह दर्ज है कि आधार न होने पर किसी को भी सुविधा से वंचित नहीं किया जा सकता। राज्यों के पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम में इसे एक नए बहाने की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। राशन की दुकान पर गरीब को सिर्फ आधार लिंक न होने का बहाना बना कर अनाज न देना सरासर गलत है और ऐसे लोगों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। राज्य सरकार की मशीनरी को भी इस तरह की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए सख्त कदम उठाने चाहिए। यह अपनी गलती का आधार के सिर पर ठीकरा फोड़ने वाली बात है।

सवाल: अगर किसी का आधार डेटा मैच न करे या उसके पास आधार न हो तो वह सरकारी सुविधा कैसे ले सकता है?
जवाब: इसके लिए भी सिस्टम है। अगर मैचिंग में किसी तरह की परेशानी है या आधार नहीं है तो दूसरी आईडी से फिजिकल वेरिफिकेशन करने के बाद सुविधा दे दी जाए। वह भी न हो तो एक रजिस्टर में उसे दर्ज करके बाद में वेरिफाई कराया जा सकता है। इसकी वजह से सुविधा में रुकावट का कोई सवाल ही नहीं है। यह कोरी बहानेबाजी है। हमने या सरकार ने कभी नहीं कहा कि आधार न होने की वजह से किसी को मूलभूत सुविधाओं से वंचित किया जाए।

सवाल: अक्सर देखा गया है कि बुजुर्गों के फिंगरप्रिंट लेने में दिक्कत आती है। इसी वजह से उनका आधार जेनरेट करने से ही मना कर दिया जाता है।
जवाब: आधार नंबर पाना हर देशवासी का हक है और इसे कोई मना नहीं कर सकता। अगर किसी का बायोमीट्रिक डेटा लेने में दिक्कत है तो उसके लिए तस्वीर के साथ खास तरह का आधार कार्ड बना कर दिया जाता है। अगर बाद में वेरिफिकेशन के वक्त कोई दिक्कत आती है तो फोटो से मिलान करके पहचान सुनिश्चित की जा सकती है।

सवाल: हाल में पहले लखनऊ में एसटीएफ ने एक मामले में फर्जी आधार बनाने में कई लोगों को पकड़ने का खुलासा किया था। इस तरह के मामले काफी गंभीर हैं। आपका क्या कहना है?
जवाब: इस मामले में हमने ही रिपोर्ट करवाई थी। किसी भी तरह का डेटा इस केस में लीक नहीं हुआ था। ऐसे में खुलासे का दावा करना ही समझ से बाहर है। इतने बड़े सिस्टम में हमें जब भी किसी भी तरह की छेड़छाड़ का अलर्ट मिलता है तो हम संबंधित राज्य की पुलिस को संपर्क करते हैं और जरूरी कार्रवाई करने के लिए कहते हैं। ऐसा ही हमने इस केस में भी किया।

सवाल: पिछले दिनों ऐसी भी खबर आई थी कि अथॉरिटी ने हजारों आधार कार्ड कैंसल कर दिए। क्या यह सही है?
जवाब: हम साल में कई बार ऐसा करते हैं। आधार का किसी वजह से कैंसल हो जाना आम बात है।

सवाल: तो क्या वे सारे आधार कार्ड बोगस थे?
जवाब: आधार कार्ड बोगस होने की वजह से कैंसल नहीं हुए। हम किसी भी शख्स द्वारा उपलब्ध कराए गए आईडी प्रूफ और अड्रेस प्रूफ के आधार पर आधार जेनरेट कर देते हैं। इसके बाद सभी कागजात की बारीकी से जांच होती है। कई बार इनमें कमी पाई जाती है। तब हम उससे जुड़े आधार को कैंसल कर देते हैं।

सवाल: अगर आईडी के तौर पर आधार कार्ड को इस्तेमाल करना हो तो क्या ऑरिजिनल आधार कार्ड पास में होना जरूरी है?
जवाब: नहीं। अगर ऑरिजिनल कार्ड हर वक्त जेब या बैग में न रखना हो तो आप अपने मोबाइल में एमआधार (mAadhaar) डाउनलोड कर लें। जरूरत के वक्त इसे दिखाकर आपका काम चल जाएगा। यहां तक कि एयरपोर्ट में एंट्री के वक्त भी इसे दिखा सकते हैं।

सवाल: इस ऐप में अपने आधार कार्ड को खोलने के लिए कई बार पासवर्ड डालना पड़ता है जोकि काफी झंझट भरा है। इसे सुधारने के बारे में सोच रहे हैं?
जवाब: हमें भी इस तरह की शिकायतें मिली हैं। हम इसे बेहतर बनाने के लिए लगातार काम कर रहे हैं। जल्द ही एम-आधार में कई नए फीचर जोड़े जाएंगे और फिलहाल आने वाली परेशानी को कम किया जाएगा। वैसे, आप ऐप की Settings में जाकर Password का ऑप्शन हटा भी सकते हैं।

सवाल: सोशल मीडिया भी अब अफवाहें फैलाने के कारण कानून-व्यवस्था और यहां तक कि नैशनल सेक्युरिटी के लिए चुनौती बन कर उभरा है। क्या अगर भविष्य में फेसबुक या ट्विटर जैसी कंपनी आधार केवाईसी के लिए आपसे संपर्क करती है तो क्या आप सहयोग करेंगे?
जवाब: (मुस्कुराते हुए) किसी भी चीज को आधार से जोड़ने पर लोग हल्ला-हंगामा मचाने लगते हैं और आप इसे सोशल मीडिया जैसी पर्सनल चीज से जोड़ने की बात कर रहे हैं। सोशल मीडिया का माध्यम बड़ा ही पर्सनल है। फिलहाल न हमने इस बारे में कभी सोचा है और न ही हमारे पास ऐसे कोई कोई प्लान आया है।

सवाल: हमारे देश में फर्जी ‌वोटर, फर्जी वोटिंग भी होती है। क्या वोटर आईकार्ड को भी आधार से जोड़ने की योजना है?
जवाब: इस बारे में फैसला चुनाव आयोग को करना है।

सवाल: अमेरिका जैसा हाई-टेक देश भी बायोमीट्रिक आइडेंटिफिकेशन को लेकर आशंकित रहता है और सिर्फ सोशल सिक्यॉरिटी नंबर के भरोसे है। ऐसे में हमने इसे क्यों अपनाया?
जवाब: जब उन्होंने यूनिक आइडेंटिफिकेशन पर काम करना शुरू किया था, तब यह तकनीक इतनी अडवांस नहीं थी। अब है तो इसे अपनाने में क्या बुराई है? फिर भारत जैसे बड़े देश में हर इंसान के लिए एक यूनिक नंबर बनाने के लिए किसी सिस्टम को तो अपनाना ही था। अगर हम इसे न अपनाते तो हर शख्स कई आधार बनवा कर फर्जीवाड़ा कर रहा होता।

सवाल: आधार विरोधियों का कहना है कि सिस्टम में काफी कमियां हैं और सरकार डेटा सिक्यॉरिटी को लेकर गंभीर नहीं है। आपका क्या कहना है?
जवाब: विरोध करने वाले जो चाहें, कहें। हमारा सिस्टम पूरी तरह से मुस्तैद हैं और हम इसे लगातार बेहतर बना रहे हैं। तकनीक में हमेशा बेहतरी की गुंजाइश रहती है और हम इसे लगातार बेहतर बनाते जा रहे हैं।

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