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मदर्स डे: तीन मांओं की लाजवाब कहानियां

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कहते हैं कि जिंदगी आपके हौसलों को आजमाती है। आखिरी लम्हों तक राहों से भटकाती है। लेकिन जिनके पास भरोसे और आशीर्वाद का संबल होता है तो हर बार वह उठ खड़े होते हैं। चार अलग-अलग किरदार और उनकी अपनी-अपनी कहानियां लेकिन मर्म एक जैसा। चुनौतियों से लोहा लेती और अपने दम पर जिंदगी जीने का माद्दा रखने वाली तीन मांओं की लाजवाब कहानियों को सुना रही हैं दर्शनी प्रिय।

'मां बस से नहीं चलती थीं, हमारे खाने के लिए पैसे बचा लेती थीं'
तीन भाई-बहनों में सबसे छोटे अजीत आज जो कुछ भी है, इसका श्रेय वह अपनी मां को देते हैं। उन दिनों को याद कर कई बार अजीत की आंखें भर आती हैं। मुफलिसी के उस दौर में भी उन्होंने तब हिम्मत नहीं हारी थी क्योंकि मां संबल बनकर हमेशा घनी छाया देती रहीं। अजीत अपना अनुभव साझा करते हुए आगे बताते हैं, ‘मां ने भले ही नाम किस्मती पाया हो, पर किस्मत ने हमेशा उनके साथ धोखा किया। पापा छोटा-मोटा काम करते और मां जैसे-तैसे घर चलातीं। कुछ बरसों तक यूं ही चलता रहा। इस बीच हम तीन भाई-बहनों का जन्म हो चुका था। अचानक कुछ बरसों बाद नियति ने ऐसी पलटी खाई कि सब कुछ खत्म हो गया। पापा ने बिस्तर पकड़ लिया था। उन्हें लकवे का अटैक हुआ था। इसी बीच एक और बड़े हादसे ने मां को भीतर तक झकझोर दिया। जब मैं छह साल का था तब किसी दवा के रिऐक्शन ने मेरी आंखों की रोशनी छीन ली। एक तरफ पापा बिस्तर पर थे, दूसरी ओर मां मुझे लिए अस्पताल-दर-अस्पताल चक्कर काट रही थीं। आंखों की रोशनी वापस लाने के लिए डॉक्टरों ने 6 लाख का खर्च बताया था। मां पैसे जोड़ने की जद्दोजहद में थीं कि किसी तरह मेरी आंखें वापस आ जाएं लेकिन वह कर भी क्या पातीं। पैसे हो तब न। मां ने सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया और दीदी की शादी कर दी। मेरी जिंदगी में रोशनी की कोई किरण नहीं बची थी। सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी थीं। मैं तो लगभग हार चुका था, लेकिन मां अब भी हालात से लड़ रही थीं। कई बार तो घर में फांके होते। हालात इतने बुरे थे कि अस्पतालों में आने-जाने या कहीं बाहर आने-जाने के लिए हमें कई-कई किलोमीटर धूप में पैदल चलना पड़ता। पैसों को बस किराए में इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि पीने को पानी और कुछ खाने को नहीं बचता। तंगी के कारण तबला सीखने का शौक भी छोड़ना पड़ा। मैं हिम्मत हारकर रोने लगता। मां मुझे हौसला बंधाती। आगे बढ़ने को प्रेरित करती। 2008 में पापा इस दुनिया से चले गए। मैं कॉलेज की फीस नहीं भर सकता था। मां ने मुझे आगे बढ़ने का भरोसा दिया। मेरा दाखिला एक दृष्टिहीनों के स्पेशल कॉलेज में करवाया। मां के अदम्य साहस और कभी न हारने वाले माद्दे ने मेरे भीतर एक नई जान डाल दी थी। मैंने ठान लिया था कि अब मुझे लड़ना है, हारना नहीं है। फिर मेरा चयन एक सरकारी महकमे में अच्छे पद पर हो गया।


'किसी भी त्योहार में मां को नए कपड़े पहने नहीं देखा'
तनु अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहती हैं, ‘आसमान में कितने तारे पर चांद जैसा कोई नहीं। इस धरती पर कितने चेहरे, पर मां जैसा कोई नहीं।’हम दोनों भाई-बहन तब बहुत छोटे थे। जब सबने निराश किया, उन्होंने हमें तब उठने का साहस दिया। उस वक्त पूरे परिवार ने हिम्मत खो दी, जब पापा का ऐक्सिडेंट हो गया था। लगा, सब कुछ खत्म हो गया, लेकिन मां के भरोसे ने चुनौतियों से लड़ने का साहस दिया। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। ऑपरेशन के लिए पैसे नहीं थे। मां को अपने सारे गहने बेचने पड़े। सारी जिम्मेदारी अचानक ही मां के कंधों पर आ गई। पापा बिस्तर पर और मां सड़कों की खाक छानतीं। मां ने ग्रैजुएशन तक अपनी पढ़ाई पूरी तो की थी, लेकिन वह कभी बाहर नहीं गई थीं। बाहर निकलने से घबराती थीं। उन्होंने मामाओं के पास बहुत हाथ-पैर जोड़े ताकि कुछ मदद मिल जाए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब मम्मी के पास हम दोनों भाई-बहनों को पालने का कोई जरिया नहीं था। वह सारी रात जागकर पापा की तीमारदारी करतीं और दिन में काम की तलाश में निकल जातीं। कई बरसों तक ऐसी ही स्थिति रही। पापा की दवाइयों और हमारी जरूरतों के कारण मां को क्लीनर का काम करना पड़ा। हालात इतने बुरे थे कि मां अक्सर हमें खिलाकर खुद भूखी सो जातीं। इन्हीं हालात में हम धीरे-धीरे बड़े होते रहे। मां ने हमें अच्छी शिक्षा देने के लिए बहुत जतन किए। कपड़े सिले, दुकानों पर काम किया, भूखे पेट रहकर हमें खिलाया। मैंने कभी मां को किसी त्योहार पर नए कपड़े पहने नहीं देखा। कुछ न कर पाने का मलाल मुझे भीतर से खाए जाता। आज जब मैं मां के बूते एक अच्छे मुकाम पर पहुंच गई हूं तो लगता है कि अगर मां हमें न संभालतीं तो आज हम कहां होते। आज जब मां को भरपेट खाते देखती हूं तो मन खुश होता है।

'तब मां को हम लोगों की परवरिश के लिए अपना मकान बेचना पड़ा था'

वुमन कैब ड्राइबर बनकर नाम करने वाली नीलम अपनी उपलब्धियों का श्रेय अपनी मां को देती हैं। मां के बारे में बात करते ही उनकी आंखों में एक खास तरह की चमक आ जाती है। दिल्ली की सड़कों पर फर्राटे से कैब चलाती नीलम के लिए यह सब इतना आसान नहीं था। आज वह पूरी कॉलोनी के लिए प्रेरणा की स्रोत बन गई हैं। एक वक्त था जब उनके पास सिर छुपाने तक की जगह नहीं थी और आज उनके पास अपना घर है।

वह कहती हैं कि मेरी मां मेरे लिए भगवान हैं। उन्होंने मेरी जिन्दगी ही बदल दी। 18 साल की छोटी सी उम्र में शादी और परिवार संभालना उनके लिए आसान नहीं था। 20 साल में पहली बार प्रेगनेंट हुईं, लेकिन पैसों की तंगी ने उनसे उनके बच्चे को छीन लिया। वहीं पापा को शराब की लत थी। सारा काम मां को ही संभालना पड़ता था। लगातार बेटियां जनने के कारण पिताजी भी अक्सर मां से नाराज रहने लगे। एक दिन बिना कुछ कहे वह घर छोड़कर कहीं चले गए। मां ने उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की लेकिन वह नहीं मिले। इसी बीच हम दो भाई-बहनों की परवरिश की सारी जिम्मेदारी मां के कंधों पर आ गई। मां को मकान बेचना पड़ा। इसके बाद हम लोग जे.जे. कॉलोनी में शिफ्ट हो गए। हम सबका पेट पालना उनके लिए भारी पड़ रहा था। मां ने हार नहीं मानी। उन्होंने आसपास की कोठियों में छोटे-मोटे काम करने शुरू कर दिए। वह दूसरों के जूठे बर्तन धोतीं, साफ-सफाई का काम करतीं। तब कहीं जाकर हमें एक वक्त का खाना नसीब हो पाता। मुश्किल के लम्हों में मां हमेशा हौसला बंधातीं। हम सबके बीच एक मां ही थी जो बदकिस्मती के आगे तनकर खड़ी हो गईं। हमें अच्छी परवरिश और शिक्षा देने के लिए वह दिन में कोठियों में काम करतीं और शाम को सिलाई करतीं। वक्त धीरे-धीरे पंख लगाकर उड़ता रहा। मैंने एक एनजीओ में काम सीखा और नौकरी लग गई। इससे हमारी हालत कुछ सुधर गई है। मैंने हेवी वीइकल चलाने की ट्रेनिंग ली और एक स्कूल में बस चलाती हूं।

'घर में फाके होते तो मां गुरुद्वारे में लंगर खिलाने ले जातीं'

एक छोटे-से कमरे से बाहर निकलते ही सोनी बेगम को आस-पड़ोस के लोग घेर लेते हैं और अपनी छोटी-मोटी समस्याएं बताने लगते हैं। सोनी बेगम सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। वह अपने बुते ही आसपास के लोगों की मदद करती हैं। उनसे जब इस दरियादिली और नेक नीयति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने तपाक से कहा, मां और कौन?

वह बताती हैं कि तब मैं बहुत छोटी थी तो देखा करती थी कि मां किस तरह हालातों से जूझती रहती थी। पापा जॉब में नहीं थे। वह सब्ज़ी का ठेला लगाते और कमाए पैसों को शराब में बहा देते। मां की शादी महज 9 साल में ही हो गई थी। 13 साल की उम्र में ही पहली बार प्रेगनेंट हो गईं। जानकारी के अभाव में साल-दर-साल वह बच्चे जनती रहीं और हर बार उन्हें बेटियां ही पैदा होतीं। दादी को पोता चाहिए था, इसलिए वह मां को दिन-रात ताने देती। ससुरालवालों ने मां का जीना हराम कर दिया था। पैसों के अभाव में एक के बाद सभी बच्चों की मौत हो गई। मां के पास तो खाने के भी पैसे नहीं थे, बच्चों का इलाज कहां से करवातीं। पापा भी साथ नहीं देते थे। एक दिन पापा बिना बताए कहीं चले गए। मां ने उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की लेकिन कोई पता न चल सका।

पापा के जाने बाद मां की असल परीक्षा शुरू हुई। दादी ने मां को घर से बहार निकाल दिया। उन्होंने छोटी पूंजी के साथ साप्ताहिक हाट में फलों का ठेला लगाना शुरू किया। इससे जो थोड़ी आमदनी होती, उसे वह हमारी ट्यूशन और पढ़ाई में लगा देती। मां ने कोठियों में सफाई और आया का काम शुरू किया। उन्होंने फुटपाथ पर ही हम चार बहनों और एक भाई को लेकर अपना डेरा जमा लिया। मुझे याद है मां कभी भी ईद पर हमें ईदी देना नहीं भूलती थीं। वह हमारा दाखिला किसी अच्छे स्कूल में करवाना चाहती थीं। मेरा दाखिला करवाने के लिए उन्होंने अपनी जोड़ी हुई पाई-पाई खर्च कर दी, पर बाद में फीस भरनी मुश्किल हो गई। इसलिए मां को मुझे स्कूल से बाहर निकालना पड़ा। उस दिन मां की आंखों में मैंने बेबसी के आंसू देखे थे। हम सब धीरे-धीरे बड़े हो गए। जब कभी घर में फाके होते तो मां हमें गुरुद्वारे में लंगर खिलाने ले जातीं। मैं कई एनजीओ से भी जुड़ी हूं और दूसरों की मदद करने का यह ज़ज़्बा मुझे अपनी मां से ही मिला।

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AB ना जाओ छोड़कर कि दिल अभी...

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शायद अब बॉलर्स राहत की सांस लेंगे क्योंकि एबी डिविलियर्स ने संन्यास ले लिया है। 22 गज की पिच पर तांडव करने वाले बल्लेबाज एबी डिविलियर्स के नाम इतने रेकॉर्ड हैं और वह इतने तरह के शॉट्स खेलते रहे हैं कि सिर्फ उन्हें ही बल्लेबाजी करते हुए देखने का दिल करता है। डिविलियर्स के दिल जीतने की कहानी बता रहे हैं गीत चतुर्वेदी।

विध्वंस कितना रचनात्मक हो सकता है? यक़ीनन, डिविलियर्स की बल्लेबाज़ी जितना। वह विध्वंस करते थे, गेंदबाज़ी, गेंदबाज़ों और विपक्षी टीम के मनोबल का, तेज़ी के तमाम रेकॉर्ड्स का, लेकिन उस विध्वंस में खास क्या है? ऐसा तो क्रिस गेल भी करते हैं, डेविड वॉर्नर और जॉस बटलर भी करते हैं, ‘अपना दिन’ होने पर कोई भी अच्छा बल्लेबाज़ कर लेता है, लेकिन डिविलियर्स इन सबसे खास हैं, क्योंकि जब वह ऐसा करते थे, तो उसमें एक अभूतपूर्व रचनात्मकता होती थी, महज़ ताकत नहीं, महज़ किताबी शॉट्स नहीं, बल्कि ऐसे शॉट्स की शृंखला होती थी, जिनके बारे में 10-15 साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, जिन शॉट्स को कोई कोच सिखाता नहीं था और जिन शॉट्स का प्रयास करने पर चौतरफा डांट पड़ती थी।

बहुत कम बल्लेबाज़ ऐसे रहे हैं, जिनके खेल ने बल्लेबाज़ी की पूरी कला को ही फिर से परिभाषित कर दिया। किसी ज़माने में यह बात विव रिचर्ड्स के बारे में कही जाती थी। इस ज़माने में यह बदलाव डिविलियर्स के कारण आया है। जिन शॉट्स को टेलएंडर्स का तुक्के में लगाया गया शॉट माना जाता था, डिविलियर्स ने उन शॉट्स को बाकायदा कला में तब्दील करते हुए एक आश्चर्यजनक गरिमा प्रदान कर दी है। आज हर दूसरा बल्लेबाज़ बॉल के नीचे जाकर, ऑफ स्टंप के बाहर से, आठवें स्टंप के पास आधा बैठकर, डीप फाइन लेग के ऊपर से छक्का मारने का अभ्यास करता है। क्रिकेट अकादमियों में कोच मजबूर हो गए हैं कि वह बच्चों को ऐसे शॉट्स सिखाएं।


360 डिग्री की बल्लेबाजी

सीधा बल्ला अब पुरानी बात हो गई, आड़ा बल्ला अब हमेशा खराब आदत नहीं रहा। 360 अब गणित से निकलकर क्रिकेट का अंक बन गया है। झुककर गेंद को उठा देना फील्डिंग का नहीं, बैटिंग का हुनर बन गया है। अपने चरम पर पहुंचकर डिविलियर्स ने बल्लेबाज़ी को ही बदलकर रख दिया। यही उनकी विध्वंसात्मक रचनात्मकता है। भविष्य के हर अच्छे बल्लेबाज़ में हमको अब डिविलियर्स की कला का कोई न कोई पहलू ज़रूर दिखाई देगा, यही उनके द्वारा इस खेल को दिया गया सबसे बड़ा योगदान है।

एक गांव से निकला सुपरमैन
उन्हें सुपरमैन माना जाता है। उनमें अपने से पहले के बल्लेबाज़ों के लगभग सभी गुण हैं और उनके अलावा कई नए गुण भी। उनके पास एक करिश्माई व्यक्तित्व है, ब्रायन लारा जैसी चपलता है, तो गैरी कर्स्टन जैसी तकनीकी सक्षमता भी। सचिन तेंडुलकर जैसा टेंपरामेंट, राहुल द्रविड़ जैसी नज़ाकत, तो वीरेंद्र सहवाग जैसा हैंड-आई कोऑर्डिनेशन भी, अलबत्ता क्रीज़ पर उनके पैर सबसे अधिक डांस करते हैं। उनके हाथों की पहुंच वाइड की रेखा से भी बाहर तक जाती है। उनके पास वेस्टइंडीज़ के बल्लेबाज़ों जैसी दानवीय काया नहीं, लेकिन पूरे शरीर का संतुलन बनाकर वैसा बल पैदा कर लेने की एक सहज बुद्धि है और इम्प्रोवाइज़ करते हुए इनोवेट कर लेने की चतुराई भी।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इम्प्रोवाइज़ और इनोवेट करने की उनकी इस कोशिशों में तब और बढ़ोतरी हुई, जब उन्होंने भारत आकर आईपीएल खेलना शुरू किया। इस टूर्नामेंट ने उनके खेल और उनके खेल ने इस टूर्नामेंट को परिभाषित किया। कैसा अद्भुत है कि सुदूर दक्षिण अफ्रीका के एक छोटे-से गांव में पैदा हुआ एक व्यक्ति भारत के जिस भी शहर में जाकर मैच खेलता हो, वहीं उसके नाम के नारे इस कदर लगते हों जैसे वह स्थानीय नायक हो, जैसे कि वही शहर उसका घरेलू मैदान हो। महेंद्र सिंह धोनी के बाद भारत में इतना प्यार एबी डिविलियर्स को ही मिला है, जबकि वह विदेशी खिलाड़ी हैं। अगर क्रिकेट नामक खेल के पास किसी को राष्ट्रीय नागरिकता देने का अधिकार होता, तो डीविलियर्स का दूसरा पासपोर्ट यकीनन भारतीय होता।


उनमें यह चकाचौंध हमशा से रही हो, ऐसा नहीं है। उनकी शुरुआती पारियां देखकर वह अचरज नहीं होता जो सचिन तेंडुलकर की आरंभिक पारियों को देखकर होता है। डिविलियर्स की शुरुआत साधारण ही थी। वह अच्छे बल्लेबाज़ थे, लेकिन विलक्षण नहीं।

बेहतर होने के लिए खुद को बदला
इंटरनैशनल क्रिकेट में आ जाने के बाद भी डिविलियर्स में महज़ एक प्रतिभाशाली चमक थी, महानता का पूरा वादा नहीं था। उनकी कहानी इच्छाशक्ति और प्रदर्शन के ज़रिए, साधारण से महान में बदल जाने की कहानी है। 2007 के आसपास उनमें एक बड़ा स्वप्न जगा। उन्होंने ख़ुद से कहा, ‘मुझे रन बना लेने वाला महज़ एक अच्छा बल्लेबाज़ नहीं बने रहना, जिसका औसत 30 के आसपास हो, बल्कि मुझे अपने समय का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज़ बनना है।’ इस इच्छाशक्ति ने उनके खेल को बदल दिया। उन्होंने अपने लिए एक सपोर्ट स्टाफ रखा और अपनी आदतें बदल लीं। पार्टियों में मशगूल रहने वाला खिलाड़ी, लगातार ट्रेनिंग करने वाला साधक बन गया।

बेहतर करने के लिए संयम और ट्रेनिंग के साथ मानसिक दृढ़ता चाहिए होती है। वह भीतर ही होती है। बस, सही तरीके से उसका आह्वान करना होता है। बचपन में जब वह अपने भाइयों और दोस्तों के साथ खेलते थे तो उन्हें बैटिंग नहीं मिलती थी। सारा समय फील्डिंग या दूसरों को पानी पिलाने का काम मिलता था। दिन के अंत में वह रो देते थे। जीवन में यही मुकाम होता है, जब मन को मज़बूती मिलती है। धैर्य मिलता है। संघर्ष की स्मृतियां भी मज़बूत बनाती हैं।

रेकार्ड्स का बादशाह
डिविलियर्स की कहानी जन्मजात महानता की नहीं, बल्कि मेहनत, संयम, मनोबल, नए प्रयोगों और ट्रेनिंग से पाई गई महानता की कहानी है। स्थिति के अनुसार खुद को ढाल लेने की विवेकवान कहानी है। अगर सबसे तेज़ शतक, अर्धशतक और डेढ़ शतक के रेकॉर्ड उनके नाम हैं, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि टेस्ट क्रिकेट में उन्होंने वैसी ही क्लासिकल पारियां खेली हैं, जैसा कि टेस्ट क्रिकेट उनसे उम्मीद करता रहा हो। 2012 के ऑस्ट्रेलियाई दौरे में जब दक्षिण अफ्रीका पर हार मंडरा रही थी, डिविलियर्स ने दूसरी पारी में 220 गेंदों पर 33 रन बनाकर टेस्ट मैच ड्रॉ करवा दिया था। इस पूरी पारी के दौरान एक भी चौका या छक्का नहीं मारा। दोहरे रन के जोखिम तक न उठाए और अगले ही मैच में ताबड़तोड़ 169 रन बनाकर अपनी टीम को मैच जिता दिया।

इसी साल की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया के ही खिलाफ उनका निर्णायक प्रदर्शन और 2015 में वांडरर्स में 44 गेंदों पर 149 रनों की पारी को कौन भूल सकता है? वह 39वें ओवर में बैटिंग करने आए, जबकि आना नहीं चाहते थे। उनका सुझाव था कि डेविड मिलर को भेजा जाए, ताकि वह तेज़ी से रन बना दें। लेकिन कोच ने उन्हें भेजा। उन्होंने सबसे तेज़ शतक (31 गेंद) का रिकॉर्ड बना दिया। इससे पहले वह रेकॉर्ड कोरी एंडरसन (36 गेंद) और शाहिद अफ्रीदी (37 गेंद) के पास था। ये दोनों सिर्फ हिटर हैं। अंधाधुंध बैट घुमाने वाले साधारण बल्लेबाज़, जो हमेशा “अपने दिन” का इंतज़ार करते हैं। लेकिन डिविलियर्स की वह पारी रचनात्मक व कलात्मक शॉट्स से भरी हुई थी।

ताकत से ज्यादा नए कोणों और तकनीक के आविष्कार से भरी हुई। क्रिकेट में आमतौर पर माना जाता है कि गेंदबाज़ तय करेगा कि बल्लेबाज़ किस दिशा में शॉट खेले, लेकिन डीविलियर्स की ऐसी तमाम पारियों के बाद कई बल्लेबाज़ों को वह हुनर मिल गया कि खुद बल्लेबाज़ तय करे कि वह गेंदबाज़ को कहां मारेगा। ‘वी’ में खेलना श्रेष्ठ कलात्मकता है, लेकिन पैर चलाकर, पूरे मैदान को अपने लिए ‘वी’ में तब्दील कर देना महान कलात्मकता है।

शरीफों के खेल का शरीफ बल्लेबाज
22 गज की इस जमीन पर 10 साल तक तांडव मचाने के बाद भी, देखिए, हर पारी, हर बड़े शॉट के बाद उनकी आंखें नीची ही रहती हैं। किसी अतिरिक्त आक्रामकता का प्रदर्शन नहीं। आंखों या देह-भाषा में श्रेष्ठता का कोई ज्वलंत दावा नहीं, हल्की-सी सहज मुस्कान और अगली गेंद या अगली पारी की प्रतीक्षा। ऐसे समय में जब बिलकुल एक नौसिखिया गेंदबाज़ विकेट लेने के बाद स्क्रीन पर गालियां बकता दिखाई दे जाए, साधारण स्ट्रोक्स वाला एक बल्लेबाज़ शतक के बाद हवा में घूंसे दागते हुए गालियां बके, बड़े से बड़ा रिकॉर्ड तोड़ देने के बावजूद डिविलियर्स में मैदान के भीतर और बाहर जो विनम्रता बनी रहती है, वह उनके खेल जितनी ही अनुकरणीय है। यह उनकी चारित्रिक मज़बूती को दर्शाता है। बल्ले से उत्पात मचाने के बावजूद शरीफों के खेल को शराफ़त से खेलना एक बड़ी ज़िम्मेदारी है और यह याद दिलाने का उपक्रम भी कि ‘स्वैग’ और ‘ऐटिट्यूड’ फैशनेबल हो सकते हैं, चारित्रिक मूल्य कभी नहीं हो सकते।

बौनी है विराट तुलना
हमारे समय के दो महान बल्लेबाज़ों डिविलियर्स और विराट कोहली की तुलना बार-बार होती है। कोई अचरज नहीं कि जब भी उनसे पूछा गया, उन्होंने कोहली को अपने से बेहतर बताया। यही सवाल कोहली से पूछा गया, तो उन्होंने डिविलियर्स को बेहतर कहा। कोहली के भीतर इस नवविकसित विनम्रता के पीछे कुछ योगदान एमएस धोनी का होगा, तो यक़ीनन कुछ डिविलियर्स के संग-साथ का भी। दोनों का खेल एकदम जुदा है। कोहली ने क्रिकेटिंग शॉट्स की सीमाओं के भीतर रहकर श्रेष्ठता अर्जित की तो डिविलियर्स ने उन सीमाओं का अतिक्रमण कर बल्लेबाज़ी का एक नया व्याकरण बना दिया। आने वाले बरसों में कोहली संभवत: सबसे ज्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाज़ों में शामिल होंगे, लेकिन नये व्याकरण की रचना का सेहरा हमेशा डिविलियर्स के माथे ही बंधेगा।


एक हूक रह गई सीने में
डिविलियर्स अभी महज़ 34 साल के हैं। हर देश में इस उम्र के कई खिलाड़ी अपनी-अपनी राष्ट्रीय टीमों में प्रवेश करने या खोई हुई जगह वापस पा लेने के लिए प्रयासरत हैं, लेकिन डिविलियर्स ने इस उम्र में संन्यास ले लिया। उनके प्रिय दक्षिण अफ्रीकी कप्तान ग्रैम स्मिथ ने भी 33 की उम्र में विदाई ले ली थी। 'मैं अब थक गया हूं'- अपने संन्यास-वीडियो में डिविलियर्स की कही यह पंक्ति तमाम कयासों पर एक पूर्णविराम की तरह लगाती है। यह लीक से हटकर किए गए श्रम की थकान है, जो निश्चित ही सामान्य थकान से गाढ़ी होती है। उनके संन्यास ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को वैसे ही आश्चर्यजनक झटके दिए हैं, जैसे कि उनकी महान पारियां, जिन्हें हम बार-बार याद करते रहेंगे, लेकिन इसके साथ ही 2015 विश्वकप के सेमीफाइनल से हारकर लौटते डिविलियर्स की पनीली आंखें भी याद आती रहेंगी- भरी हुई आंखों वाले इस सुपरमैन का वह सपना कभी पूरा नहीं हो सका। यह उनके करोड़ों प्रशंसकों को भी दुखता रहेगा। 2019 वह मौक़ा हो सकता था, लेकिन उन्होंने उसके लिए रुके रहने की परवाह नहीं की। यह भी उनके चरित्र की एक मज़बूती ही है।

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कहीं बिजली ना गिर जाए...

बात दिसंबर 2006 की है। मैं एक रिपोर्टर के तौर पर साउथ अफ्रीका में क्रिकेट सीरीज कवर कर रहा था। जोहानिसबर्ग, डरबन, केपटाउन, पोर्ट एलिजाबेथ होते हुए हम सेंचुरियन पहुंचे थे जहां सीरीज का पांचवां और आखिरी वनडे होना था। जोहानिसबर्ग में खेला गया पहला वनडे बारिश की भेंट चढ़ गया था, जबकि बाकी के तीन में टीम इंडिया बुरी तरह हार चुकी थी। सेंचुरियन के मैच में भी बारिश से बाधा पहुंचने का पूर्वानुमान था।

मैच की पूर्वसंध्या पर दोनों टीमों ने सुपरस्पॉर्ट पार्क में प्रैक्टिस की। इससे जुड़ी विडियो क्लिप्स को अपने न्यूजरूम तक भेजने की कवायद में प्रेस बॉक्स पहुंचा तो कनेक्टिविटी की समस्या आ गई। लिंक जोड़ने की कोशिश में मैंने कई जगहें बदलीं और आखिरकार मैदान पर बाउंड्री लाइन के पास में मुझे सफलता हासिल लगी। वहीं बैठा अपने काम में तल्लीन था कि अचानक बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे और आसमानी बिजली चमकने लगी। कई दफा बादलों गरजे भी। इन सबसे बेफिक्र मैं इस बात से खुश था कि मुझे स्ट्रॉन्ग नेटवर्क मिल रहा है और मेरी क्लिप्स ट्रांसफर हो रही हैं।


मौसम का रुख बदलते देख मैदान के एक हिस्से में प्रैक्टिस करते साउथ अफ्रीका के कुछ प्लेयर्स ने ड्रेसिंग रूम का रुख किया। कुछ ने तो अपना सामान समेटकर तेजी से दौड़ लगाई। वैसे बादल जरूर गरज रहे थे, लेकिन बारिश का कोई सीन नहीं दिख रहा था। तभी मैंने देखा कि साउथ अफ्रीका के दो खिलाड़ी तेज कदमों से मेरी ओर आ रहे हैं। उनमें से एक जाना-पहचाना चेहरा मार्क बाउचर का था। बाउचर ने हड़बड़ाते हुए मुझसे कहा कि आप जल्दी से सामान समेटकर प्रेस बॉक्स में चले जाएं। आपके ऊपर कभी भी बिजली गिर सकती है। मुझे लगा कि मार्क मजाक कर रहे हैं। मैंने उनसे सिर्फ इतना कहा-ओके। तभी वहां मौजूद दूसरे साउथ अफ्रीकी प्लेयर ने चेताया, ' 'मार्क सीरियस हैं। इस इलाके में आए दिन आसमानी बिजली गिरती है और उसकी चपेट में कोई भी आ सकता है। चूंकि मैं इसी इलाके से हूं इसलिए मैं इसको बेहतर जानता हूं।' मुझे इस तरह आगाह करने वाले और कोई नहीं बल्कि एबी डिविलियर्स थे। एबी की सलाह मानते हुए मैंने उन्हें थैंक्यू कहा और अपनी जगह बदल ली।

एबी उन दिनों इतने लोकप्रिय खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने तकरीबन दो साल पहले डेब्यू किया था और टेस्ट में कुछ अच्छी इनिंग्स उनके नाम थीं। हालांकि, उस 2006 वाली सीरीज के शुरुआती तीन वनडे या उससे पहले खेले तकरीबन दो दर्जन वनडे मैचों उन्होंने कोई धमाल नहीं किया था। एबी तब 21-22 साल के युवा और इंटरनैशनल क्रिकेट के लिए नए थे। अगले दिन भारत के खिलाफ सीरीज के आखिरी वनडे में टीम इंडिया ने 50 ओवर में बड़ी मुश्किल से 200 रन बनाए। साउथ अफ्रीका की ओर से ग्रीम स्मिथ के साथ डिविलियर्स ने ओपनिंग की। इन दोनों ने जहीर खान, एस श्रीशांत, इरफान पठान, अनिल कुंबले और हरभजन सिंह की जमकर धुनाई की।

दोनों के बीच 173 रन की पार्टनरशिप हुई और मेजबान टीम ने तकरीबन 18 ओ‌वर बाकी रहते सिर्फ स्मिथ का विकेट खोकर लक्ष्य हासिल कर लिया। एबी ने नॉटआउट 92 रन की आतिशी पारी खेली। यह उनके तब तक के वनडे करियर की सबसे अच्छी पारी थी। पोस्ट मैच प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मैंने एबी को बधाई दी और कहा, 'आज तो सेंचुरियन पर आपकी बिजली चमक गई।' एबी मुस्कराए, थैंक्यू कहा और बाय बोलकर ड्रेसिंग रूम की ओर चले गए। उस इनिंग्स के बाद एबी का करियर वाकई आसमानी बिजली की तरह चमकता और गरजता रहा।

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आखिर कौन लिखता है, राहुल और मोदी के स्पीच!

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओजस्वी वक्ता माने जाते हैं तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के भाषण का भी अपना अंदाज है। अक्सर लोग सवाल करते हैं कि क्या ये दोनों नेता क्या भाषण के लिए पहले से तैयारी करते हैं? अगर हां तो तैयारी कैसे करते हैं? क्या इनके भाषण तैयार करने में कोई मदद भी करता है? ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब दे रहे हैं विवेक शुक्ला और नरेंद्र नाथ

कौन लिखता है मोदी के 'मन की बात'!
20 अगस्त 2014 था। डिफेंस रिसर्च डिवेलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) का राजधानी में एक कार्यक्रम। उम्मीद थी कि परंपरा के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सरकारी रक्षा संस्थान की उपलब्धियों का बखान ही करेंगे, पर उन्होंने अपने तल्ख भाषण में डीआरडीओ से अपने प्रोजेक्ट समय से पूरा करने को कहा। वह कहीं-न-कहीं इस बात से खफा थे कि डीआरडीओ अपनी अहम परियोजनाओं को पूरा करने में भी देरी कर रहा है। जाहिर है, मोदी अपने ‘मन की बात’ कहने से पीछे नहीं हटते। वह अपने भाषणों से सबको खुश करने के मूड में भी नहीं होते। अब सवाल यह है कि क्या बिना लिखित भाषण के बोलने वाले मोदी बिना किसी प्लान के भाषण देते हैं? आखिर, स्पीच राइटर के दौर में नरेंद्र मोदी जैसे प्रखर वक्ता के भाषण कौन तैयार करता है?

अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी की स्पीच टेड सोर्नेसन लिखा करते थे। एक्सपर्ट कहते हैं कि अगर कैनेडी महान राष्ट्रपति के रूप में अब भी अमेरिकियों के दिलों में बसते हैं, तो इसका कुछ श्रेय टेड को भी जाता है। अमेरिका में सिविल राइट्स और अमेरिका के चंद्रमा पर कदम रखने की जरूरत पर दिए गए कैनेडी के कालजयी भाषणों को टेड ने ही तैयार किया था, पर मोदी के पास टेड जैसा कोई स्पीच राइटर नहीं है। हां, वह किसी जगह भाषण देने से पहले एक्सपर्ट्स से इनपुट्स जरूर ले लेते हैं।

नरेंद्र मोदी की जीवनी ‘मैचलेस मोदी’ पर काम कर रहे सुधीर बिष्ट मानते हैं कि फाइनैंस और कानून संबंधी विषयों पर वह केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली से इनपुट जरूर लेते हैं। मोदी जेटली पर बहुत भरोसा करते हैं। दोनों के बीच इमरजेंसी के दौर से संबंध हैं। बीजेपी के एक सांसद ने बताया कि अगर बात रक्षा और आतंरिक सुरक्षा जैसे मसलों की हो, तो मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से बात जरूर करते हैं। आईटी और टेलिकॉम जैसे मसलों पर किसी अहम मंच से भाषण देने से पहले वह प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्र से इनपुट लेना पसंद करते हैं।

जहां तक चुनावी रैलियों में भाषण की बात है कि तो मोदी किसी भी रैली को संबोधित करने से पहले सिर्फ इनपुट लेते हैं। वह किसी का लिखा भाषण नहीं पढ़ते। उन्हें धाराप्रवाह बोलना पसंद है। वह देश के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं। पार्टी संगठन में काम करते हुए मोदी ने सारे देश को नापा हुआ है इसलिए वह अपने सुनने वालों से सीधा रिश्ता कायम करने में देर नहीं करते। मोदी को मालूम है कि हरियाणा में उनके भाषणों में पूर्व सैनिकों से जुड़े मसले रहने चाहिए। कारण यह है कि सेना में हरियाणा के जवान भरे हुए हैं। वह महाराष्ट्र में जाकर गन्ना किसानों के सामने आ रही कमरतोड़ चुनौतियों की अनदेखी नहीं करते तो तमिलनाडु के तटवर्ती इलाकों में जाकर मछुआरों से जुड़े मसलों को हल करने का वादा करते हैं।

अब सवाल यह कि सफल वक्ता कौन और कैसे होता है? सुधीर बिष्ट कहते हैं कि सफल वक्ता में दो गुण होने जरूरी हैं। पहला, उसे मालूम हो कि उसके भाषण को सुनने वाले किस पृष्ठभूमि से हैं? दूसरा, उसे यह भी पता हो कि श्रोता उससे क्या उम्मीद रखते हैं? इन दोनों मोर्चों पर मोदी कमोबेश कामयाब रहते हैं।

मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर अक्सर लोग सवाल उठाते हैं लेकिन ज्यादातर लोग मानते हैं कि मोदी ओजस्वी वक्ता हैं। आप उन्हें पसंद करें या नहीं, लेकिन वह जब बोलते हैं, तब उन्हें नजरअंदाज करना बहुत मुश्किल है!
मोदी के भाषण की खासियतें

पीएम मोदी का भाषण चार स्तर पर होता है
1. चुनावी रैलियां: इस तरह की रैलियों में पीएम मोदी अमूमन बिना लिखा भाषण पढ़ते हैं। लेकिन ऐसे भाषणों से पहले अपनी टीम से कुछ जानकारियां लेते हैं, जैसे कि जहां वे जा रहे होते हैं, उस जगह की खासियतों से जुड़े पॉइंट बनाए जाते हैं। इसके अलावा, वह रैली से ठीक 15 मिनट पहले अपनी टीम से लेटेस्ट अपडेट लेते हैं। उनकी कोशिश होती है कि वे अपने भाषण में सबसे ताजा सूचना तक मिली जानकारी को भी शामिल करें। इसके साथ वह इन रैलियों में जाने से पहले सोशल मीडिया में पिछले तीन-चार दिन की तमाम सूचनाओं की जानकारी भी लेते हैं। इन सबको समेट कर वह राजनीतिक रैलियों का भाषण तैयार करते हैं।

2. सरकारी भाषण:
अगर बतौर पीएम किसी मंत्रालय से जुड़े कार्यक्रम में भाग लेने जाते हैं तो पहले वह उससे जुड़े तमाम बिंदुओं को मांगते हैं। फिर उनकी टीम अहम हिस्सों को पीएम के सामने रखती है। इनमें से किन बातों का इस्तेमाल किया जाए, यह पीएम खुद तय करते हैं।

3. विदेश में भाषण:
इसके लिए विदेश मंत्रालय बाकी मंत्रालयों से मिलकर अहम पॉइंट्स तैयार करता है। जिस देश में पीएम का भाषण होता है, उससे जुड़ी तमाम सूचनाएं पीएम को दी जाती हैं। फाइनल भाषण वह खुद तय करते हैं।

4. अहम मौकों पर भाषण:
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भाषण हो या संसद सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर होने वाला भाषण, इसकी तैयारी काफी पहले होती है। इसके लिए तीन-चार केंद्रीय मंत्रियों की टीम बनती है जो पीएम को सरकार से जुड़ी तमाम सूचनाएं देती है।
इसके अलावा सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के लिए एक अलग टीम रहती है जो पीएम के बयान, कार्यक्रम से जुड़ी सूचनाएं पोस्ट करती है। यह तीन लोगों की टीम है। कोई भी ट्वीट करने से पहले पीएम खुद उसका कंटेट और सूचनाएं देखते हैं। मोदी के पर्सनल अकाउंट से राजनीतिक और दूसरी चीजें भी पोस्ट होती हैं लेकिन पीएमओ के अकांउट से सिर्फ सरकारी स्तर पर हुए डिवेलपमेंट या सरकार से जुड़ी बातें पोस्ट होती हैं। मोदी का खास निर्देश रहता है कि दोनों अकाउंट्स के नेचर का ख्याल रखा जाए।

'पप्पू' की इमेज से निकल चुके हैं राहुल
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी जेब में एक डायरी रखना नहीं भूलते। कई बार डायरी की जगह कागज के कुछ टुकड़े भी उनके कुर्ते की जेब में होते हैं। वह किसी खास मौके पर भाषण देने से पहले जयराम रमेश, जर्नादन द्विवेदी या मृणाल पांडे से बात कर लेते हैं। राजनीतिक रैली में भाषण देने से पहले वह राज्य कांग्रेस के नेताओं से बात करना नहीं भूलते ताकि उनके भाषण में लोकल टच रहे। राहुल अपना भाषण पहले से तैयार करके या किसी से लिखवा कर नहीं बोलते। वक्ता के तौर पर उनका आत्मविश्वास इधर काफी बढ़ा है। याद कीजिए जब राहुल गांधी 2013 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के जयपुर सम्मेलन में वाइस प्रेज़िडेंट बने थे। तब उन्होंने लिखा हुआ भाषण पढ़ा था। भाषण अंग्रेजी से शुरू करके वह हिंदी में शिफ्ट हुए थे। लेकिन अब वह अपने भाषण का श्रीगणेश हिंदी से ही करते हैं। भाषण धाराप्रवाह रहता है। हां, एक बात तय है कि वह प्रधानमंत्री मोदी पर वार जरूर करते हैं। सोनिया गांधी की जीवनी लिखने वाले और राहुल गांधी को करीब से जानने वाले वरिष्ठ लेखक रशीद किदवई कहते हैं, 'सोनिया और राहुल के भाषणों में एक बड़ा फर्क मिलता है। सोनिया वाजपेयी या आडवाणी पर बड़े हमले करने से बचती थीं, जबकि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी पर हल्ला बोलने का कोई मौका नहीं छोड़ते। इस लिहाज से वह अपनी मां की तुलना में अपनी दादी इंदिरा गांधी के करीब हैं। इंदिरा अपने भाषणों में राजनीतिक विरोधियों की कसकर खबर लेती थीं।'

राहुल गांधी के हालिया भाषणों को यू-ट्यूब पर सुन लीजिए। समझ आ जाएगा कि वह अपनी 'पप्पू' वाली इमेज से कहीं आगे निकल चुके हैं। उनके भाषणों में दम होता है। उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। हां, उनके भाषणों में कभी-कभी तारतम्यता की कमी जरूर खटकती है। एक उदाहरण लीजिए। बीती 23 अप्रैल को राजधानी के तालकटोरा स्टेडियम में पार्टी कार्यकर्ताओं के सम्मेलन को संबोधित करते हुए राहुल गांधी लगभग पहले वाक्य से ही मोदी जी पर पिल पड़ते हैं। 30 मिनट के भाषण में 17 बार मोदी बोलते हैं। वह कहते हैं, 'वाल्मिकी समाज के लोग जो गंदगी उठाते हैं, वे अपनी स्प्रिचुएलिटी के लिए यह करते हैं।' इस उदाहरण के जरिए वह साबित करने की कोशिश करते हैं कि मोदी जी दलित विरोधी हैं। हालांकि उनके भाषण से किसी को यह बात समझ नहीं आती। उनके नए-पुराने भाषणों को देखकर लगता है कि गुस्सा अब राहुल गांधी के भाषणों का स्थायी भाव है। शायद इसलिए वह अपनी भावनाएं और विचार कभी-कभी सही तरह से व्यक्त नहीं कर पाते।

राहुल अपने लगभग हर भाषण का आगाज करने से पहले मंच पर आसीन तमाम नेताओं का उल्लेख करते हैं। कांग्रेस के मंच पर तो नेताओं की लगभग भीड़ रहती है, पर आमतौर पर वह सभी का नाम लेते हैं। प्रेस वालों पर भी नजरें करम करते हैं। इस लिहाज से वह बाकी नेताओं से अलग हैं। वैसे राहुल जब अंग्रेजी में बोलते हैं, तो उनके वाक्य बिखरते नहीं हैं। चूंकि वह मूलत: अंग्रेजी वाले हैं इसलिए मुमकिन है कि वह अंग्रेजी में सोचकर हिंदी में बोलते हों। पिछले साल 16 अगस्त को बेंगलुरु में 'इंदिरा किचन' का उद्घाटन करते हुए राहुल गांधी ने बेहतरीन भाषण दिया। वह अंग्रेजी में बोले। कहीं झोल नहीं दिखा। वह लगातार बोले, बढ़िया बोले। अब सिर्फ उनसे निजी खुन्नस रखने वाले ही कह सकते हैं कि राहुल के भाषण बेकार होते हैं।

टीम करती है मदद
राहुल गांधी भाषण देने से पहले न सिर्फ इनपुट रखते हैं बल्कि कई वाक्य लिख कर भी ले जाते हैं। इसके लिए वह अपनी कोर टीम पर ही ज्यादा निर्भर रहते हैं। शुरू में चर्चा रहती थी कि उनके भाषण को कांग्रेस के सीनियर नेता जयराम रमेश तैयार करते हैं, लेकिन 2014 के बाद जबसे राहुल ने अपनी शैली बदली, तबसे इसकी चर्चा काफी हुई कि इसके पीछे कौन है? चर्चा के अनुसार एक सीनियर नेता ने राहुल से कहा कि वह कम-से-कम 30 मिनट का भाषण जरूर दें। पहले वह 10-15 मिनट में अपनी स्पीच खत्म कर देते थे। इसके बाद गुजरात चुनाव से उनकी स्पीच की खासियत वन-लाइनर बनी, चाहे गब्बर सिंह टैक्स का मामला हो या सूट-बूट की सरकार, ये पॉपुलर पंचलाइन बने। माना जाता है कि वन-लाइनर हो या फिर ह्यूमर वाला ट्वीट, इसके लिए रिसर्च टीम राहुल के ऑफिस में ही बनी है।

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वतन पर मरनेवालों का बाकी यही निशां होगा?

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वतन पर हम हजार बार मर मिटेंगे, कोई अफसोस न होगा, लेकिन क्या वतन वाले हमें एक बार भी याद नहीं करेंगे? देश पर शहीद होने वाले जवानों की रूह जन्नत से शायद यही सवाल करती होगी। शहादत के बाद नेता और अधिकारी शहीदों के परिजनों से थोक में वायदे करते हैं, लेकिन पूरा एक भी नहीं होता। प्रखर राष्ट्रवाद के इस दौर में क्या हाल है शहीदों के परिजनों का, जानने की कोशिश की दिनेश चंद्र मिश्र ने:

मजबूरी में एक कमरे में रहते हैं 10 लोगः
जम्मू-कश्मीर में घुसपैठियों से लड़ते हुए 20 सितंबर 2017 को रामप्रवेश यादव शहीद हो गए थे। बागी बलिया के इस लाल का पार्थिव शरीर पहुंचा तो जनप्रतिनिधियों, अफसरों के साथ जनता की भारी भीड़ उमड़ी। जब तक सूरज-चांद रहेगा रामप्रवेश तुम्हारा नाम रहेगा सहित देशभक्ति के नारों से बेल्थरारोड इलाके का टंगुनिया गांव का चप्पा-चप्पा गूंज रहा था। सरकार ने तमाम आश्वासन दिए थे। लेकिन आठ माह बाद सरहद की हिफाजत के लिए कुर्बानी देने वाले शहीद रामप्रवेश के बीबी-बच्चे किस हाल में हैं? उनसे हुए वादों का क्या हुआ? इन सवालों के जवाब जानकर किसी का भी दिल दुख सकता है।

रामप्रवेश की शहादत के बाद उनके गांव पहुंचे प्रदेश सरकार में राज्यमंत्री उपेंद्र तिवारी ने 5 लाख का चेक शहीद के पिता और 20 लाख का चेक शहीद की पत्नी को दिया। अंतिम यात्रा में शामिल प्रदेश के राज्यमंत्री उपेंद्र तिवारी, सलेमपुर सांसद रवींद्र कुशवाहा, बेल्थरा रोड विधायक धनंजय कनौजिया और सिकंदरपुर विधायक संजय यादव ने बड़े-बड़े वादे किए थे। शहीद की पत्नी चिंता देवी का कहना है कि वादे केवल जुबानी थे, धरातल पर एक भी काम नहीं हुआ है।

वादे अधूरे, घोषणाएं अधर में
प्रदेश के राज्यमंत्री उपेंद्र तिवारी ने घोषणा की थी कि शहीद के नाम पर स्मारक बनेगा जो आज तक अधूरा है। गांव के प्राथमिक विद्यालय का नाम बदलकर शहीद रामप्रवेश यादव के नाम पर रखने का आश्वासन मिला था, जो अभी तक नहीं हुआ है। गांव तक पहुंचने वाली सड़क बनवाने की बात की गई थी, लेकिन अभी भी कार्य अधूरा है। परिवार को घर देने की जो घोषणा की गई थी, वह भी पूरी नहीं हुई। स्मृति द्वार तो आधा-अधूरा बना है, लेकिन शहीद की मूर्ति आज भी नहीं लगी है। शहीद की मूर्ति के लिए जो जमीन मिली थी, उस पर आज भी दबंगों का कब्जा है। विधवा को पेंशन नहीं, बच्चों की पढ़ाई मुश्किलसबसे बड़ी बात यह है कि आज तक शहीद की विधवा की पेंशन नहीं चालू हुई और न ही कहीं नौकरी मिली। आंसू पोछते हुए कहती हैं, 'घर सरकार से मिले कुछ पैसों में से ही चल रहा है। खेती न होने के कारण गुजर-बसर करना मुश्किल हो गया है। एक कमरे में ही किसी तरह 10 लोगों का गुजर-बसर होता है, घर में कमाने वाले वह इकलौते व्यक्ति थे।

परिवार पर टूटा दुखों का पहाड़ः
'पिछले साल 14 सितंबर की बात है। वह जम्मू-कश्मीर में तैनात थे। वहीं से फोन किया। एक-दूसरे की आवाज सुन ही पाए थे कि नेटवर्क प्रॉब्लम से आवाज कटने लगी। बोले फायरिंग हो रही हैं, बाद में फोन करेंगे। रातभर सो नहीं पाई। भगवान से प्रार्थना करती रही। अगले दिन मनहूस खबर मिली कि वह शहीद हो गए। इसके बाद जो पूरे परिवार पर दुखों का पहाड़ टूटा वह कम होने का नाम नहीं ले रहा है।' यह दर्द है पाक गोलीबारी में शहीद हुए बिजेंद्र बहादुर सिंह की विधवा सुष्मिता सिंह का।

बलिया जिले के बांसडीह इलाके के नारायणपुर गांव के बिजेंद्र के शहीद होने की खबर मिलने के बाद घर पर उस समय शोक-संवेदना के लिए स्थानीय ग्रामीणों के साथ अफसर और नेताओं की भीड़ लग गई थी। इस जवान की अंतिम यात्रा में प्रदेश के ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा शामिल होने पहुंचे थे। शहीद की पत्नी को 20 लाख रुपये और पिता को 5 लाख रुपये का चेक देने के साथ तमाम घोषणाएं हुई थीं। ऊर्जा मंत्री ने प्रदेश सरकार की तरफ से घोषणा की थी कि गांव में शहीद के नाम पर स्मारक, स्टेडियम, शहीद द्वार बनाए जाएंगे और पत्नी को नौकरी दी जाएगी। इन घोषणाओं का क्या हुआ?

इस सवाल पर शहीद की पत्नी सुष्मिता का कहना है कि कि इनमें से एक भी काम पूरा नहीं हुआ। सुष्मिता कहती हैं, 'यहां तक कि हमारी पेंशन भी शुरू नहीं हुई। जो पैसा तब मिला था, उसी में जिंदगी की गाड़ी किसी तरह चल रही है। घर के इकलौते बेटे होने के कारण उनकी कमाई पर ही सब कुछ निर्भर था। अचानक परिवार को वह अकेला छोड़कर चले गए। उसके बाद तो जिंदगी ही सूनी हो गई। सरकार की तरफ से घोषणाओं का ढेर लग गया, लेकिन कुछ हुआ नहीं अभी तक। मेरी सरकार से गुजारिश है कि शहादत की बरसी तक कम से कम उनकी मूर्ति तो गांव में स्थापित कर दें। इससे हम लोगों को सुकून मिलेगा। यह आग्रह हम प्रशासनिक अफसरों से भी कर चुके हैं, लेकिन जिले के अधिकारी हाथ खड़े कर रहे हैं। दो बच्चे हैं। बड़ा लड़का तो समझ गया है कि मेरा पिता अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन छोटा लड़का संतराज कहता है कि मैं बड़ा होकर वर्दी पहनकर देश की सेवा करूंगा। पापा जम्मू-कश्मीर में हैं, वहीं मेरी भी वर्दी रखी हुई है। मैं बड़ा होकर उस वर्दी को पापा के साथ पहनकर देश की रक्षा करूंगा।

आश्वासन बहुत मिले, पूरा एक भी नहीं हुआः
मंगल पांडेय की धरती बागी बलिया के थे राजेश यादव। सरहद पर जान न्योछावर करने वाले जवानों की सूची में दुबहर थानाक्षेत्र के डेरा के रहने वाले इस वीर का नाम भी है। जम्मू-कश्मीर के उड़ी सेक्टर में आतंकी हमले में 18 सितंबर 2016 को वह शहीद हो गए थे। इस शहादत के साथ वे सपने भी टूट गए जो उनके घर-परिवार और गांव वालों ने देखे थे। राजेश की शहादत की खबर मिलते ही गांव में अंतिम विदाई देने के लिए जहां हजारों का हुजूम उमड़ा, वहीं अंतिम यात्रा में प्रदेश की पिछली सरकार में कैबिनेट मंत्री रामगोविंद चौधरी भी पहुंचे थे। उन्होंने सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता की राशि के रूप में 20 लाख रुपये का चेक शहीद की पत्नी पार्वती को देने के साथ घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। शहीद की पत्नी को सरकारी नौकरी के साथ पेट्रोल पंप या गैस एजेंसी देने और गांव में शहीद के नाम पर द्वार व शहीद की मूर्ति स्थापित करने का ऐलान भी किया गया था। लगभग दो साल होने को है, लेकिन इनमें से एक भी घोषणा पूरी नहीं हुई। यहां तक कि उस दिन के बाद से कोई जनप्रतिनिधि या अधिकारी उस परिवार का हाल-चाल लेने भी नहीं आया।

बेटियों को पढ़ा रही सेना में भेजने के लिए
शहीद राजेश यादव की विधवा पार्वती कहती हैं, 'हमारी तीन बेटियां हैं। इन बेटियों को हमारे पति ने बेटों की तरह पढ़ा-लिखाकर सेना में भेजने का सपना देखा था। पति का सपना पूरा करने के लिए मैं तीनों लड़कियों को पढ़ा रही हूं ताकि वे सेना में नौकरी कर सकें। उनको तिरंगे से बहुत लगाव था इसलिए हमने अपने घर को भी तिरंगे के रंग से रंगवाया है। शहादत के बाद घर पर नेताओं की भीड़ उमड़ी थी। वे दिलासा देकर चले गए। फिर कभी कोई यह जानने भी नहीं आया कि किया हुआ वादा पूरा हुआ कि नहीं। कम से कम शहीद के सपनों को पूरा करने में सरकार मदद करती तो शहीद की विधवाओं की जिंदगी इतनी खराब नहीं होती।'

भुला दी गई बंशीधर की शहादतः
बेशक देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले शहीदों की आत्माएं हुक्मरानों का रवैया देख शायद यही कह रही होंगी कि 'हम भी बच सकते थे अपने घरों में रहकर। हमको भी मां-बाप ने पाला था दुख सहकर।।'
शहीदों के घर शहादत के दिन से तेरहवीं तक दिलासा देने आने वाले नेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों का रेला लगा रहता है। मगर तेरहवीं के बाद कोई झांकने तक नहीं आता। सरकार द्वारा की गई घोषणाएं भी हवा-हवाई साबित होती हैं। शहीदों के परिजनों को इस बात का मलाल तो रहता है, लेकिन अपना दर्द वह कहे तो किससे। कुछ ऐसा ही हुआ है दंतेवाड़ा में 13 अप्रैल 2015 को शहीद हुए बंशीधर नायक के परिजनों के साथ। उनकी शहादत के तीन वर्ष बाद भी न तो सरकारी स्तर पर की गई घोषणाएं ही पूरी हुईं और न ही शहीद के घर जाने की किसी जिम्मेदार अधिकारी या मंत्री ने जहमत ही उठाई।

देवरिया जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर दूर तिवई गांव में मजदूर के घर जन्में थे बंशीधर। उनके जन्म के कुछ सालों बाद ही उनके पिताजी का बीमारी के चलते निधन हो गया था। चार बहनों और दो भाइयों में सबसे बड़े बंशीधर घर की माली हालत सुधारने और देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा लेकर इंटर पास करने बाद छत्तीसगढ़ आर्म्स फोर्स की 17वीं बटालियन में सिपाही के पद पर भर्ती हो गए। इनकी पहली पोस्टिंग नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिला में हुई। नायक के यूनिट की ड्यूटी जगदलपुर तहसील के किरन्दुल इलाके की पेट्रोलिंग में लगी थी। 13 अप्रैल 2015 को इनकी यूनिट सुबह इलाके में गश्त के लिए निकली। पेट्रोलिंग से कैंप लौटते समय रास्ते में नक्सलियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंग फटने से ट्रक के चिथड़े उड़ गए। इस हमले में नायक के साथ 5 और जवान शहीद हुए थे।

बंशीधर की शहादत पर ढाढस बंधाने जिले के अधिकारी और नेता सभी पहुंचे थे। इस दौरान कई घोषणाएं भी हुईं थी। तेरहवीं तक इनके दरवाजे पर अधिकारियों और नेताओं का तांता लगा रहा। लेकिन उसके बाद से अब तक इस शहीद के परिवार का कोई हाल जानने वाला नहीं है। परिजनों को सरकार से 20 लाख रुपये का चेक और बंशीधर के छोटे भाई मुरलीधर को छत्तीसगढ़ पुलिस में नौकरी तो मिल गई, लेकिन बाकी घोषणाएं अभी तक अधूरी हैं। शहीद बंशीधर की मूर्ति गांव में लगाने की घोषणा हुई थी। आज भी उनके घर के बरामदे में कपड़े में लिपटी उनकी मूर्ति धूल फांक रही है। जगह के अभाव में कहीं वह स्थापित नही हो पा रही। परिजनों ने बताया कि अपने पैसे से मूर्ति मंगवाकर स्थापना के लिए क्षेत्रीय विधायक, सांसद से लेकर अधिकारियों तक के पास कई बार फरियाद की गई, लेकिन हुआ कुछ नहीं।

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पत्थलगड़ी: जंगल-जमीन के लिए नया आंदोलन

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नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद देश के लाल गलियारे से एक और आंदोलन जोर पकड़ता नजर आ रहा है। इसे पत्थलगड़ी कहा जा रहा है। हाल के कुछ महीनों में झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में इसने जोर पकड़ा है। पत्थलगड़ी के तहत सरकारी संस्थानों और सुविधाओं के बहिष्कार की बात की जा रही है तो स्थानीय शासन की मांग भी। आनंद दत्त बता रहे हैं इसी के बारे में:

पत्थलगड़ी आदिवासी बहुल इलाकों में तेजी से फैल रहा है। आदिवासी महासभा नामक संगठन के बैनर तले ग्रामीण गांव के प्रवेश द्वार पर इस आशय की सूचना पत्थर पर खुदवा रहे हैं कि यहां ग्रामसभा का शासन है और यह भी कि सरकारी आदेशों और सरकारी संस्थानों की यहां कोई मान्यता नहीं है। इसे ही पत्थलगड़ी नाम दिया गया है। इसके समर्थकों का कहना है कि वही देश के असली मालिक हैं, उन पर कोई शासन नहीं कर सकता। भारत सरकार उनसे है, न कि वह भारत सरकार से। उनका नारा है: न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊपर ग्रामसभा। और इसके लिए वे संविधान के अनुच्छेद 13 (3) क का हवाला दे रहे हैं। पत्थलगड़ी चर्चा में तब आया जब पिछले साल अगस्त में रांची से 40 किमी दूर खूंटी जिले के कुछ गांवों में स्थानीय शासन पर जोर देने की सूचनावाले पत्थर गाड़े गए। ग्रामीणों ने कहा कि अब इन इलाकों में दीकू यानी किसी गैर आदिवासी को बिना अनुमति घुसने नहीं दिया जाएगा, सरकारी मुलाजिमों को तो कतई नहीं। इस आंदोलन के समर्थक इन इलाकों में सरकारी सुविधाओं जैसे राशन कार्ड, आधार कार्ड, इलेक्शन कार्ड, सरकारी स्कूल, अस्पताल आदि का बहिष्कार करने पर जोर दे रहे हैं। जाहिर है, नक्सल प्रभावित इन इलाकों में सरकार के खिलाफ इस तरह के विद्रोह ने देश की सुरक्षा एजेंसियों, केंद्रीय गृह मंत्रालयों और राज्य सरकारों की नींद उड़ा दी है।

क्या है पत्थलगड़ी

पत्थलगड़ी का चलन आदिवासियों में सदियों से रहा है। वे गांव और जमीन का सीमांकन के लिए, मृत व्यक्ति की याद में, किसी की शहादत की याद में, खास घटनाओं को याद रखने के लिए पत्थर गाड़ते हैं। वे इसे जमीन की रजिस्ट्री के पेपर से भी ज्यादा अहम मानते हैं। इसके साथ ही किसी खास निर्णय को सार्वजनिक करना, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने के लिए भी पत्थलगड़ी किया जाता है। यह मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदिवासियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है।

झारखंड में बना मुद्दा

बीते साल अगस्त माह में खूंटी जिले में पत्थलगड़ी की सूचना पाकर कुछ पुलिसकर्मी वहां पहुंचे। वहां ग्रामीणों ने बैरिकेडिंग कर रखी थी। थानेदार जब कुछ पुलिसबल के साथ वहां पहुंचे तो उन्हें बंधक बना लिया गया। सूचना पाकर जिले के एसपी अश्विनी कुमार लगभग 300 पुलिसकर्मियों को लेकर उन्हें छुड़ाने पहुंचे तो उन्हें भी वहां बंधक बना लिया गया। लगभग रातभर उन्हें बिठाए रखा, सुबह जब खूंटी के जिलाधिकारी वहां पहुंचे तब लंबी बातचीत के बाद गांववालों ने उन्हें छोड़ा। इसके बाद यह मामला तूल पकड़ता गया।

गुजरात कनेक्शन

देशभर में चल रहे पत्थलगड़ी का केंद्र गुजरात के तापी जिला का कटास्वान नामक जगह है। यह गुजरात और महाराष्ट्र के बॉर्डर का भील आदिवासी बहुत इलाका है। यहां के निवासी रहे कुंवर केसरी सिंह को पत्थलगड़ी का प्रेरणास्त्रोत माना जा रहा है। वह एक वकील थे। उन्होंने आदिवासियों के स्वशासन की मांग की थी। उनकी कार पर नंबर प्लेट की जगह 'आवर लाइट, हेवेन्स गाइड’ लिखा रहता था। उन्होंने देश में विभिन्न जगहों पर काम कर रही आदिवासी स्वशासन की संस्थाओं को भारत सरकार घोषित किया। फिर इन कथित ‘भारत सरकारों का संघ भारत सरकार कुटुंब परिवार’ नाम से बनाकर खुद को इसका मुखिया घोषित किया। अब उनकी जगह उनका बेटा राजेंद्र केसरी इसे नियंत्रित कर रहा है।

किन जगहों पर पत्थलगड़ी

झारखंड: झारखंड के 90 से ज्यादा गांवों में पत्थलगड़ी हो चुका है और यह लगातार जारी है। इन इलाकों में सरकारी अधिकारियों का घुसना वर्जित है। यहां इस आंदोलन का नेतृत्व युसूफ पुर्ती कर रहे हैं।

छत्तीसगढ़:
यहां इसका नेतृत्व बलदेव सिंह धुड़बे कर रहे हैं। यहां बीते साल नवंबर में पत्थलगड़ी शुरू हुआ। यही नहीं, दुर्ग जिले के बालोद जिले में कंगलामांझी सरकार आज भी चल रही है। इनके पास अपनी सेना है, वे परेड करते हैं, साल में एक बार राजसभा का आयोजन होता है। देशभर के कई आदिवासी नेता इसमें शामिल होते हैं। ये भी भारत सरकार को नहीं मानते।

गुजरात: कुंवर केसरी सिंह के बेटे राजेंद्र केसरी इसका संचालन कर रहे हैं।

ओडिशा:
यहां इसका नेतृत्व बीरमित्रापुर के एमएलए जॉर्ज तिर्की कर रहे हैं। उनका नारा है न हिन्दुस्तान न पाकिस्तान, हमें चाहिए आदिवासिस्तान। वह एक ट्राइबल कॉरिडोर बनाने की मंशा भी रखते हैं।

अब तक क्या हुआ

- अब तक 50 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। साथ ही नेतृत्वकर्ताओं में एक कृष्णा हांसदा, बबीता कच्छप सहित लगभग 1500 लोगों पर एफआईआर किया गया है। इन पर आरोप है कि इन्होंने लोगों को संविधान के खिलाफ भड़काया है।
- 3 जून को खूंटी जिले के उदबुरू गांव में समानांतर सरकार की नींव रखी गई। इसके तहत आंदोलकारियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य और रक्षा मंत्रालय खोलने का दावा किया है। बैंक ऑफ ग्रामसभा की स्थापना की गई है। लोग खाता खुलवा रहे हैं। पारंपरिक हथियार जैसे तीर, धनुष, भाला से लैस नौजवानों को सुरक्षा व्यवस्था में लगाया गया है।
- जितनी उग्रता के साथ झारखंड में यह सब हो रहा है, उतनी उग्रता से बाकी राज्यों में नहीं हो रहा। वहां सिर्फ पत्थलगड़ी चल रहा है, सरकार या सरकारी सेवाओं का बहिष्कार नहीं।

क्या है कानूनी पक्ष

आंदोलन के नेताओं का कहना है कि आदिवासी इलाके अनुसूचित क्षेत्र हैं। यहां संसद या विधानमंडल से पारित कानूनों को सीधे लागू नहीं किया जा सकता। उनका कहना है कि संविधान अनुच्छेद 13(3) के तहत रूढ़ि और प्रथा ही विधि का बल है और आदिवासी समाज रूढ़ि और प्रथा के हिसाब से ही चलता है। वैसे हकीकत यह है कि किस प्रथा को नियम माना जाए, इसकी व्याख्या संविधान के अनुसार होती है। हर प्रथा को कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती। वन अधिकार कानून 2006 और नियमगिरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि ग्रामसभा को गांव की संस्कृति, परंपरा, रूढ़ि, विश्वास, प्राकृतिक संसाधन आदि की सुरक्षा का संपूर्ण अधिकार है। इसका अर्थ है कि अगर ग्रामसभा को लगता है कि बाहरी लोगों के प्रवेश से उसके इन चीजों को खतरा है तो वह उनके प्रवेश पर रोक लगा सकती है।

आंदोलनकर्ताओं का तर्क यह भी है कि सरकारी ऑफिसों से लेकर शहरों के अपार्टमेंट में यह साफ लिखा रहता है कि बिना प्रवेश अनुमति वर्जित है, भला ग्रामसभा ऐसा कर रही है तो किसी को आपत्ति क्यों हो रही है? आंदोलन कर रहे लोगों की मांग है कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 को लागू किया जाए। इसके मुताबिक, अधिसूचित क्षेत्र में मानकी मुंडा ही टैक्स वसूलेंगे, नियम बनाएंगे, सरकार चलाएंगे। आदिवासी अंग्रेजी राज के इस कानून को फिर से इसे लागू करने की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार का कहना है कि भारत का संविधान बनने के साथ ही अंग्रेजों के बनाए कानून खुद-ब-खुद निरस्त हो चुके हैं। लेकिन झारखंड के आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के अध्यक्ष प्रेमचंद मुर्मू कहते हैं, 'पत्थलगड़ी झारखंडी परंपरा है, लेकिन इन दिनों जिस तरह से इसकी व्याख्या की जा रही है, वह गलत है। अगर पांचवीं अनुसूची के तहत पेसा कानून को लागू कर दिया जाता तो शायद ये परिस्थितियां नहीं बनतीं और नक्सली समस्याओं से भी नहीं जूझना पड़ता।' पेसा (पंचायती राज एक्सटेंशन टु शेड्यूल एरिया एक्ट, 1996) के मुताबिक, हर जिले में जिला स्वायत्तशासी परिषद बनेगा। यह अनुसूचित क्षेत्रों के विकास का काम देखेगा। किसी सरकारी या औद्योगिक परियोजना के लिए जमीन का अधिग्रहण ग्रामसभा की अनुमति के बगैर नहीं होगा। बालू, पत्थर समेत लघु खनिजों का पट्टा ग्रामसभा ही देगी। वन उत्पाद पर पूरा नियंत्रण ग्रामसभा का होगा। पारंपरिक ग्रामसभा और उसके ग्राम प्रधान ही शासन संभालेंगे।

क्या सोच रही है सरकार

झारखंड में सीएम रघुवर दास, पूर्व सीएम हेमंत सोरेन और छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह पत्थलगड़ी का खुलकर विरोध कर रहे हैं। रघुवर दास का मानना है कि इसके पीछे नक्सलियों, ईसाई मिशनरियों का हाथ है और यह आदिवासियों को विकास से दूर करने, इन इलाकों के खनिजों पर कब्जा करने के लिए हो रहा है। वह चेतावनी दे चुके हैं कि कानून को हाथ में लेनेवालों को कुचल दिया जाएगा। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह का कहना है कि उनके राज्य में पत्थलगड़ी नहीं, विकासगड़ी ही चलेगी। वहीं मध्यप्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना में विपक्षी पार्टियां पत्थलगड़ी का इस्तेमाल सत्तापक्ष पर हमला करने के लिए कर रही है।

क्या कहते हैं आंदोलनकारी नेता

यूनिसेफ में काम कर चुके और हिंदी प्रफेसर रहे युसूफ पूर्ति इस आंदोलन को गलत ठहरानेवालों को ही गलत बता रहे हैं। उनका कहना है कि भारत आदिवासियों का देश है। वह भी इस देश के हिस्सा हैं। इन इलाकों में जो बैंक स्थापित हुए हैं, वे बिना ग्राम पंचायत के आदेश के हैं। राज्यपाल का आदेश भी उनके पास नहीं है। ऐसे में ये बैंक अवैध हैं। हमें चुनाव से लेना देना नहीं है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे वोट दें। आम आदमी तय करेगा पीएम, सीएम कौन बनेगा। हम तो मालिक हैं इस देश के। हमें हमारा अधिकार सरकार नहीं दे रही है। ऐसे में हम नहीं, वे देशद्रोही हैं।

अब आगे क्या?

आनेवाले चुनावों में आदिवासी इलाकों में पक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस मुद्दे को भुनाने की भरपूर कोशिश करेगी। सरकार इसलिए भी निश्चिंत है कि एक तरह से ये लोग व्यवस्था और सरकार से नाराज हैं और वे वोट नहीं भी करते हैं तो उन्हें किसी तरह का नुकसान नहीं होगा। जिन इलाकों में पत्थलगड़ी हो रहे हैं, वे सब खनिज प्रधान इलाके हैं। खूंटी में अवैध रूप से अफीम की खेती भी जोरों पर है। ऐसे में यह उद्योगपतियों, सरकार और आंदोलनकारियों तीनों के लिए यह हॉट केक है। हालांकि अब सवाल पूछे जा रहे हैं कि आखिर राज्य सरकारें इस आंदोलन के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रही है? बहरहाल, डर बस इस बात का है कि नाराज आदिवासियों का यह आंदोलन कहीं नक्सलवाद की तरह बड़ा रूप न ले ले।

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उम्र क्या चीज है!

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ये कुछ नहीं कहते, इनकी परफॉर्मेंस बोलती है। कुछ लोग इन्हें रिटायरमेंट की सलाह देते हैं, लेकिन वे इनके जज्बात और हौसलों से अनजान हैं। ये 40 के करीब हैं या उसके पार, लेकिन इनका हौसला अब भी कायम है। आज लिएंडर पेस के जन्मदिन के मौके पर मिलते हैं कुछ ऐसे ही 'वेटरन प्लेयर्स' से। बेशक ये ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने उम्र को उसकी हैसियत याद दिलाई है, बता रहे हैं नीरज झा:


'पेस' कायम है

खेल में उम्र का बहुत अहम रोल होता है। कहते हैं कि उम्र एक संख्या है जो एहसास दिलाती है कि आप ढल रहे हैं। आपकी परफॉर्मेंस प्रभावित होती है, लेकिन तमाम लोगों के लिए यह संख्या बिलकुल भी मायने नहीं रखती। अगर आप किसी ऐसे खिलाड़ी का नाम सोचें जो पिछले तीन दशक से दुनियाभर में भारत का परचम लहरा रहा है तो सबसे पहले दिमाग में सिर्फ एक ही नाम आता है लिएंडर पेस। खेल की दुनिया में 'ऐजलेस वंडर' के नाम से भी जाने जाते हैं पेस। जिस उम्र में खिलाड़ी आमतौर पर रिटायरमेंट लेकर कोच या फिर टीवी एक्सपर्ट बनने की सोचते है, उस उम्र में लिएंडर पेस इतिहास रच रहे हैं। वर्ल्ड रेकॉर्ड बना रहे हैं। टेनिस जैसे फर्राटेदार खेल में अपनी जबरदस्त ऊर्जा से उन्होंने कामयाबी की कई कहानियां लिखी हैं।

किस चक्की का आटा खाते हैं यह

1991 में पेस ने जूनियर यूएस और जूनियर विम्बलडन का खिताब जीतकर प्रफेशनल टेनिस की दुनिया में कदम रखा था। आज करीब 28 साल बाद लिएंडर कहते हैं, 'मैं 45 साल का होने जा रहा हूं। ऐसे में मेरा सबसे बड़ा लक्ष्य यह है कि टोक्यो ओलिंपिक 2020 तक मैं अपनी फिटनेस बरकरार रख सकूं, ताकि इस बड़े खेल के आयोजन में टीम इंडिया का हिस्सा बन देश के लिए पदक जीत सकूं।' बेशक अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि लिएंडर किस मिट्टी के बने हैं। आज से आठ बरस पहले 2010 से ही लोगों को लगने लगा था कि शायद अब लिएंडर खेल को अलविदा कह देंगे, लेकिन बार-बार वह कोई न कोई ग्रैंडस्लैम जीतकर आ जाते हैं और आलोचकों की बोलती अपने आप बंद हो जाती है।

इसी साल अप्रैल महीने की बात है, जब वह डेविस कप के डबल्स में 43वीं जीत दर्ज कर इस टूर्नामेंट में सफल खिलाड़ियों की सूची में सबसे ऊपर पहुंच गए। अपनी जीत के बाद पेस ने कहा, 'मैं अपनी उम्र को देखता हूं और मुस्करा देता हूं। पत्रकार हमें इस बारे में छेड़ते हैं, जो अच्छी बात है। मैं इस पर गंभीरता से सोचता हूं और फिर मेरा प्रदर्शन पहले से बेहतर हो जाता है।' आश्चर्य नहीं कि पेस के डबल्स के साथी बदलते रहे, लेकिन उनकी जीत की रफ्तार वैसी ही बनी रही। और इसका पूरा श्रेय उन्हीं को जाता है। अपने करियर में पेस करीब 130 अलग-अलग पार्टनर्स के साथ खेले हैं। शायद यह भी एक रेकॉर्ड ही होगा। पेस फिलहाल इंडोनेशिया के जकार्ता में होनेवाले एशियाई गेम्स की तैयारी कर रहे हैं। इसमें उनका कौन जोड़ीदार होगा इसके बारे में अभी तय नहीं है, लेकिन एशियन गेम्स में आठ बार पदक जीतने के बावजूद वह इसमें हिस्सा लेने के लिए उतने ही उत्साहित हैं, जितने पहली बार थे। उन्हें पूरा विश्वास है कि इस बार भी वह पदक जीतकर देशवासियों को जश्न का मौका देंगे।

विद्रोही पेस

पेस ने पांच साल की उम्र में ही रैकेट थाम लिया था। हालांकि टेनिस लिएंडर की पहली पसंद नहीं था। बचपन से ही वह फुटबॉल के दीवाने थे। उनके पैरंट्स कहते हैं कि पेस अक्सर बिस्तर पर अपने साथ फुटबॉल बूट लेकर सोया करते थे। दिलचस्प यह कि उन्होंने 19 साल की उम्र में टेनिस छोड़ने का फैसला कर लिया था। उस वक्त उनके पास स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में स्कॉलरशिप का ऑप्शन था। पेस ने अपने पिता से जब टेनिस छोड़ने की बात शेयर की तो पिता ने उन्हें ऐसा करने से रोका नहीं। पेस कहते हैं कि अगर उस वक्त उनके पिता ने उन्हें टेनिस छोड़ने से रोका होता तो वह जरूर इस खेल को छोड़ देते क्योंकि शुरुआत से ही वह थोड़े विद्रोही किस्म के इंसान रहे हैं। इस वाकिये के चार महीने बाद ही उन्होंने फिर से रैकेट थाम लिया उसके बाद से आज तक रैकेट से उनका रिश्ता कायम है। पेस का परिवार स्पोर्ट्स से ही जुड़ा हुआ है। पेस की मां जेनिफर पेस अपने जमाने की जानी-मानी बास्केटबॉल खिलाड़ी थीं। उनकी अगुवाई में भारत ने 1980 में एशियन बास्केटबॉल चैंपियनशिप में हिस्सा लिया था, जबकि पिता वेस पेस म्यूनिख ओलिंपिक में कांस्य विजेता हॉकी टीम के मेंबर रह चुके हैं। जाहिर है, उनके लिए खेल से दूर रहना आसान वैसे भी नहीं था।

समय के साथ बेहतर पेस

1992 बार्सिलोना से 2016 रिओ तक, हर ओलिंपिक में हिस्सा ले चुके लिएंडर सात ओलिंपिक खेलनेवाले पहले खिलाड़ी हैं। 1996 अटलांटा ओलिंपिक्स में वह के. डी. जाधव के बाद भारत को व्यक्तिगत मेडल दिलाने वाले पहले खिलाड़ी बने। पेस का मानना है कि उनके लिए उम्र कोई मसला ही नहीं है और वह तब तक खेलते रहेंगे जब तक उनका दिल और दिमाग चाहेगा। वह कहते हैं, 'अगर मैं लगातार 31 दिन सुबह उठकर महसूस करता हूं कि खेल में मजा नहीं आ रहा तो 32वें दिन खेलना छोड़ दूंगा।' करीब 25 साल से भी ज्यादा समय से पेस के अमेरिकी ट्रेनर डेव हरमन कहते हैं, 'उनकी मांसपेशियां फाइबर से भरी हुई हैं जिनसे उन्हें काफी फुर्ती मिलती है। पेस के हाथ और आंखों के बीच गजब का तालमेल है जो उम्र के साथ और भी बेहतर हो रहा है। वह स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह तेलों और तली हुई खाने की चीजों से दूर रहते हैं। इसके अलावा वे नियमित रूप से प्राणायाम भी करते हैं। योग की इस विधि से वह अपने दिमाग को कंट्रोल कर पाने में सक्षम हैं और खेलने के दौरान इसका फायदा उन्हें खूब मिलता है।' उम्र की जगह हम अगर प्रदर्शन पर सवाल करें तो वाजिब होगा। फिलहाल लिएंडर पेस को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और हमें उम्मीद है की वह इसी तरह अपने प्रदर्शन से देश का झंडा बुलंद करते रहेंगे।

धाकड़ धोनी


7 जुलाई को महेंद्र सिंह धोनी 37 साल के हो जाएंगे, लेकिन फिटनेस के मामले में वह तमाम युवा क्रिकेटरों को मात देते हैं। क्रिकेट के मैदान में वह युवा हार्दिक पंड्या तक को सौ मीटर की दौड़ में हरा देते हैं। क्रिकेट पंडित जब भी धोनी के रिटायरमेंट की भविष्यवाणी करने लगते हैं, धुरंधर धोनी अपनी परफॉर्मेंस से उसकी ऐसी-तैसी कर देते हैं। इस साल आईपीएल में जब धोनी की अगुवाई में चेन्नै सुपर किंग्स मैदान पर दो साल बाद वापसी कर रही थी तो सोशल मीडिया पर तरह-तरह के चुटकुले आ रहे थे, कोई इस टीम को बूढ़ों की टीम कह रहा था तो कोई इसे वेटरन इलेवन। लेकिन धोनी की लीडरशिप में इस टीम ने तीसरी बार आईपीएल के ख़िताब पर कब्ज़ा कर लिया। जीत के बाद धोनी ने कहा कि यह इसलिए पॉसिबल हुआ क्योंकि उम्र से ज्यादा फिटनेस अहम है। कप्तानी का कमाल दिखाते हुए धोनी ने चेन्नै सुपर किंग्स को अब तक तीन ख़िताब दिलाए हैं। वह एक चतुर कप्तान के साथ-साथ एक बेहतरीन विकेटकीपर और विस्फोटक बल्लेबाज भी हैं। एक विकेट कीपर बल्लेबाज के तौर पर धोनी भारतीय क्रिकेट के लिए अभी भी सबसे जरूरी खिलाड़ी हैं तो और भारतीय क्रिकेट के अब तक के सफलतम कप्तान भी रहे हैं। वनडे क्रिकेट में धोनी का औसत 51.37 है, जो साबित करता है कि अगर धोनी विकेट कीपर नहीं होते तो भी एक विशेषज्ञ बल्लेबाज के रूप में टीम में वह अपनी जगह बना लेते। कप्तान के तौर पर धोनी टी-20 और वनडे क्रिकेट का विश्व कप भारत को दिला चुके हैं, तो चैंपियंस ट्रॉफी का पहला खिताब भी। इसके अलावा वह जब से टेस्ट कप्तान बने हैं, उन्होंने कोई सीरीज नहीं हारी और टीम को टेस्ट में नंबर एक की पायदान तक पहुंचा दिया। बेशक जो खिलाड़ी इतना चुस्त-दुरुस्त हो और टीम की जीत में हमेशा अहम योगदान देता रहा हो, उसे सिर्फ उम्र की वजह से दरकिनार नहीं किया जा सकता।


फेडरर: कभी नहीं रुकने का नाम

टेनिस की दुनिया में एक और एवरग्रीन सितारा हैं रोजर फेडरर। वह थकने का नाम नहीं ले रहे। छठी बार ऑस्ट्रेलियाई ओपन जीतने के बाद भी 36 साल के फेडरर ऐसा खेल रहे हैं, जैसे कोई 18 साल का युवा खिलाड़ी। वही चुस्ती, वही फुर्ती, लेकिन इसके साथ एक अनुभवी दिमाग! क्या इस तालमेल को और नहीं खेलना चाहिए या फिर ढलती उम्र की वजह से रिटायरमेंट ले लेना चाहिए? हर किसी का जवाब होगा खेलना चाहिए। तभी तो फेडरर खेल रहे हैं और इस उम्र में भी पिछले एक साल में तीन ग्रैंड स्लैम जीत चुके हैं। ऑस्ट्रेलियाई ओपन जीतने के बाद रैंकिंग्स में वह नंबर वन पर पहुंच गए थे। ऑस्ट्रेलियाई ओपन के फाइनल में भी पहुंचनेवाले वह दूसरे सबसे उम्रदराज़ खिलाड़ी बन गए। फेडरर अपने करियर में अब तक दुनिया में सबसे ज्यादा 20 ग्रैंड स्लैम का खिताब जीत चुके हैं। यही नहीं वह रेकॉर्ड 309 हफ्ते तक एटीपी रैंकिंग में नंबर एक पर रहे हैं।

सुशील ने किया उम्र को चित

35 साल के रेसलर सुशील कुमार पर भी बढ़ती उम्र का दबाब है, लेकिन उन्होंने कभी भी इसका असर अपने प्रदर्शन पर नहीं पड़ने दिया। पिछले कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीतकर उन्होंने आलोचकों का मुंह एक बार फिर से बंद कर दिया। सुशील पहली बार सुर्खियों में तब आए थे जब उन्होंने 2008 ओलिंपिक्स में कांस्य पदक जीता था। उसके बाद वह 2012 लंदन ओलिंपिक्स में रजत पदक जीतकर फिर से खेल की दुनिया में छा गए। हालांकि रिओ ओलिंपिक्स में उन्हें मौका नहीं मिला, लेकिन कॉमनवेल्थ में गोल्ड मेडल जीतने के बाद उनके हौसले बुलंद हैं और वह 2020 में होनेवाले टोक्यो ओलिंपिक्स पर नजर लगाए हुए हैं। फिलहाल वह अगस्त में होनेवाले जकार्ता एशियाई गेम्स की तैयारियों में व्यस्त हैं।

गजब हैं अल-हैदरी

फुटबॉल के खेल में उम्र के साथ-साथ फिटनेस भी अहमियत रखती है, लेकिन मिस्र के गोलकीपर और कप्तान एसम अल-हैदरी की बात ही कुछ और है। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने उम्र को मात दे दी है। 15 जून को विश्व कप फुटबॉल मुकाबले में उरुग्वे के खिलाफ उतरकर उन्होंने सबसे ज्यादा उम्र के खिलाड़ी का रेकॉर्ड अपने नाम कर लिया। हैदरी की उम्र साढ़े 45 साल है। इससे पहले यह रेकार्ड कोलंबिया के फेरिड मोंड्रेगन के नाम था। वह 43 साल की उम्र में अपने देश का प्रतिनिधित्व करने उतरे थे। गौरतलब है कि हैदरी 1991 से प्रफेशनल फुटबॉल खेलते आ रहे हैं। 2013 के बाद से कई बार उनके रिटायर होने की खबरें उड़ चुकी हैं, लेकिन वह मानते हैं कि जब तक उनके अंदर खेलने की ताकत है, वह खेलते रहेंगे। वह खिलाड़ियों को उम्र के तराजू में नहीं तौलने के खिलाफ हैं, क्योंकि उनका मानना है कि उनके अनुभव उन्हें अगले पायदान पर ले जाते हैं। वह तमाम ऐसे खिलाड़ियों का उदाहरण देते हैं जो उम्रदराज़ होने के बाबजूद एकदम फिट हैं।

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टॉपर अब भी टॉप पर

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उस साल ज्यादातर अखबारों की सुर्खियों में उनका नाम था। हो भी क्यों ना! देशभर के सीबीएसई स्टूडेंट्स को पछाड़ उन्होंने टॉप की पोजिशन हासिल की थी। वक्त के पहिए के साथ क्या इन टॉपर्स की चमक फीकी पड़ी या फिर आज भी वे अपनी फील्ड में दूसरों के लिए प्रेरणा साबित हो रहे हैं, यह जानना दिलचस्प हो सकता है। सीबीएसई के बीते बरसों के कुछ टॉपर्स आज क्या कर रहे हैं, बता रही हैं प्रियंका सिंह...

श्रुति लखटकिया

टॉपर: 12वीं क्लास की ह्यूमैनिटीज़ की टॉपर (2010)

मार्क्स:
96.4%

स्कूल: डीपीएस, आर. के. पुरम, दिल्ली

2013: सेंट स्टीफंस कॉलेज (दिल्ली) से इकनॉमिक्स ऑनर्स

2015: लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से इकनॉमिक्स में मास्टर्स

फिलहाल कहां:
हॉवर्ड यूनिवर्सिटी में पीएचडी में ऐडमिशन

आईपीएस पापा की बेटी श्रुति भी शुरू में आईएएस बनना चाहती थीं लेकिन, बाद में उन्होंने मन बदल लिया। मौके आते रहे और वह आगे बढ़ती गईं। हालांकि उन्हें आईएएस न बनने का कोई मलाल नहीं है। उनका कहना है कि कहीं-न-कहीं डिवेलपमेंट की तरफ मेरी दिलचस्पी इसीलिए बढ़ी कि मैं अपने देश के लिए कुछ कर सकूं। एक दिन मैं अपने देश में काम करना चाहूंगी और इसकी तरक्की का हिस्सा बनना चाहूंगी। पढ़ने के अलावा श्रुति को लिखने का भी शौक है। वह कभी-कभार अखबारों में लिखती हैं। उनका मानना है कि ज्यादा-से-ज्यादा महिलाओं को परंपरागत क्षेत्रों से हटकर ट्रैवलिंग, जर्नलिज्म आदि में आना चाहिए। इससे लोगों की सोच बदलेगी और देश की तरक्की भी होगी।

वह आगे कहती हैं कि 'देश में कोई बदलाव लाने के लिए सिर्फ प्रशासनिक सेवा (आईएएस) ही इकलौता जरिया नहीं है। दूसरे तरीकों से भी देश के लिए कुछ किया जा सकता है। यही वजह है कि मैंने अपनी पढ़ाई के केंद्र में 'डिवेलपमेंट' को रखा।' हालांकि पढ़ाई के बीच में श्रुति ने दो साल नौकरी भी की। उन्होंने इंडोनेशिया के पास स्थित छोटे से देश ईस्ट तिमोर (जोकि कुछ साल पहले ही बना है) की मिनिस्ट्री में काम किया। किसी विकासशील देश का बजट कैसे बनता है, वह वर्ल्ड बैंक या दूसरे देशों से कितना लोन ले सकता है, आदि चीजों पर रिसर्च की। श्रुति का मेन फोकस इसी विषय पर है कि विकासशील देश कैसे आगे बढ़ सकते हैं, उनमें राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव कैसे मुमकिन है, ब्यूरोक्रेसी की क्या भूमिका हो सकती है आदि।

टॉप करने पर कितना दबाव

वह कहती हैं कि एक बार टॉप करने के बाद थोड़ा दबाव तो होता है लेकिन, जरूरी नहीं कि हर बार आप ही टॉप करें। मसलन हॉवर्ड या कैंब्रिज जैसी यूनिवर्सिटी में सभी स्टूडेंट्स बेहद अच्छे होते हैं। ऐसे में वहां टॉप करने से कहीं ज्यादा पढ़ना मायने रखता है।

पढ़ाई और करियर में ताल्लुक


श्रुति कहती हैं, 'देखिए, पढ़ाई और करियर के बीच बेशक बहुत गहरा ताल्लुक नहीं है लेकिन, इतना तय है कि अगर आप पढ़ाईवाले क्षेत्र में करियर बनाना चाहते हैं तो पढ़ना जरूरी है। साथ ही जैसा आप पढ़ते हैं, वैसा ही आप करियर में भी करते हैं यानी, अगर आप बहुत मेहनत से पढ़ाई करते हैं तो करियर को लेकर भी संजीदा ज्यादा होते हैं। फिर जब करियर में मेहनत ज्यादा करेंगे तो मौके ज्यादा मिलेंगे। अपने देश में यूं भी नंबरों की अहमियत बहुत ज्यादा है। करियर से पहले सोचें कि आप क्या चाहते हैं? लेकिन यह भी देखें कि आप में वह काम करने की काबिलियत है या नहीं? जिसकी लियाकत है, उसी फील्ड को चुनें।'

पढ़ाई के टिप्स

वह कहती हैं कि मैंने कभी नहीं सोचा था कि टॉप करूंगी। हां, अच्छे नंबरों की उम्मीद जरूर थी क्योंकि, मैंने काफी मेहनत से पढ़ाई की थी। स्कूल स्टूडेंट्स को मेरी सलाह है कि वे पढ़ाई स्मार्ट तरीके से करें। देखें कि पिछले कुछ बरसों में पेपर कैसे आए हैं? साल के आखिरी दिनों के बजाय पूरे साल लगातार पढ़ें। मेहनत से पढ़ें। पूरा सिलेबस पढ़ें।

परनील सिंह

टॉपर: 10वीं क्लास की सीबीएसई टॉपर (2009)

मार्क्स:
98.8%

स्कूल: केंद्रीय विद्यालय, श्री विजयनगर, विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश)

2011: 96.3% मार्क्स के साथ 12वीं पास

2016: आईआईटी, दिल्ली से केमिकल इंजिनियरिंग में ड्यूएल डिग्री

फिलहाल कहां: एमबीए के लिए आईआईएम कोलकाता में ऐडमिशन

परनील सिंह के पापा सरकारी नौकरी में थे। लेकिन परनील का मन कभी भी बंधी-बंधाई सरकारी नौकरी में जाने का नहीं था। इन्हें पढ़ना अच्छा लगता था इसलिए आईआईटी में गईं। वह कहती हैं, 'अब फाइनैंस में आगे पढ़ाई करके बैंकिंग से जुड़ना चाहूंगी। मुझे लगता है कि इंडिया में बैंकिंग सेक्टर में काफी गुंजाइश हैं और इसके जरिए लोगों के लिए काफी कुछ किया जा सकता है जैसे कि सबको लोन की सुविधा मुहैया कराना। हाल में बैंकों से जुड़े इतने सारे स्कैम हुए। ऐसे में तो बैंकिंग का सही दिशा में काम करना और जरूरी है।' वह रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को अपना आदर्श मानती हैं। उनका मानना है कि आगे जाकर वह बैंकिंग के जरिए लोगों के लिए कुछ करना चाहेंगी।

टॉप करने पर कितना दबाव

परनील का कहना है कि जब आप एक बार टॉप कर जाते हैं तो यह जरूरी नहीं कि आगे सभी एग्जाम्स में आप टॉप ही करें। लेकिन मेहनत हमेशा जरूरी है। शुरू में परनील अंतरिक्ष यात्री बनना चाहती थीं। लेकिन मैथ्स में दिलचस्पी थी इसलिए आईआईटी में सिलेक्शन हो गया। वक्त के साथ अपने आप उसी तरह रुझान बनता गया। पढ़ाई के अलावा डांस और स्वीमिंग में भी काफी रुचि है। साथ ही, वक्त मिलने पर सुपरहीरोज़ की मूवी देखना भी पसंद है।

पढ़ाई और करियर में ताल्लुक

वह मानती हैं कि दसवीं या 12वीं के रिजल्ट सिर्फ एक माइलस्टोन भर हैं। आगे बहुत लंबा सफर तय करना होता है। साथ ही, जरूरी नहीं कि अच्छी पढ़ाई करके ही करियर में अच्छा होगा, लेकिन यह तय है कि जो भी करियर चुनें, उसमें मन लगाकर काम करना ही होगा। मेहनत का कोई और विकल्प नहीं है। और मेहनत कभी बेकार नहीं जाती, फिर चाहे पढ़ाई की बात हो या फिर करियर की।

पढ़ाई के टिप्स

अगर किसी वजह से किसी क्लास में नंबर कम भी आएं तो हिम्मत न हारें, कोशिश करते रहें। लगातार पढ़ाई करें। अगली क्लास में अपने आप रिजल्ट बेहतर हो जाएगा। पढ़ाई के लिए कोई शॉर्टकट नहीं होता। किसी भी चैप्टर के पीछे दिए सवाल ही हल करके खुश न हों। खूब मन से पूरा चैप्टर पढ़ें और अपने मन में कॉन्सेप्ट साफ करें।

वैशाली गर्ग

टॉपर:
12वीं क्लास की कॉमर्स टॉपर (2010)

मार्क्स: 97.2%

स्कूल: डीपीएस, आर. के. पुरम, दिल्ली

2013: सेंट स्टीफंस कॉलेज, दिल्ली से ग्रैजुएशन

2014: ब्राउन यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स में मास्टर्स (एक साल का कोर्स)

फिलहाल कहां: ब्राउन यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स में पीएचडी

2010 में जब मैंने टॉप किया तो यकीन ही नहीं हुआ क्योंकि अच्छे मार्क्स की उम्मीद तो थी, लेकिन टॉप करने के बारे में नहीं सोचा था। टॉपर्स की लिस्ट में मेरा नाम देखकर मेरे पैरंट्स, दोस्त, जाननेवाले सभी बहुत खुश हुए। मुझे लगता है कि पूरे साल नियम से पढ़ाई करने और लिखकर प्रैक्टिस करने से मेरे नंबर अच्छे आए। वैसे, टॉपर होने से ज्यादा तो फर्क नहीं पड़ता, हां लोग आपको हमेशा टॉप पर ही देखना चाहते हैं। एक बार टॉप किया तो आगे भी यही उम्मीद होती है। अच्छे नंबरों का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मुझे अपनी पसंद के कॉलेज में पसंदीदा सब्जेक्ट में ऐडमिशन मिल गया। कम नंबर आते तो पता नहीं क्या करती? फिलहाल मैं अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स में पीएचडी कर रही हूं। टॉप करना बेशक उतना अहम नहीं है लेकिन सीबीएसई एग्जाम में अच्छे नंबर लाना बहुत अहम है। खासकर अगर आगे जाकर अकैडमिक्स में जाना हो तो यह और भी जरूरी है, क्योंकि इससे आप बेहतर कॉलेज में पढ़ सकते हैं। फिर अच्छे नंबरों से आपको मेहनत करने की आदत भी हो जाती है। आप आगे जाकर जो भी करते हैं, उसमें मेहनत जरूरी है। वैशाली का कहना है कि मुझे इकनॉमिक्स से जुड़ी रिसर्च में मजा आता है और आगे जाकर एक दिन देश की पॉलिसी-मेकिंग में मदद करना चाहूंगी। पढ़ने के अलावा वैशाली को फटॉग्रफी, हाइकिंग और कुकिंग का शौक है। जिम में एक्सरसाइज करना या गेम्स खेलना उनका फेवरिट टाइमपास है।

टॉप करने पर कितना दबाव

वैशाली के अनुसार टॉप करने पर अच्छा तो लगता है लेकिन टॉप करने के बाद हर साल टॉप ही किया जाए, ऐसा जरूरी नहीं है। फिर सारे स्टूडेंट्स तो टॉपर नहीं हो सकते। ऐसे में नंबर गेम के मुकाबले अगर मन से पढ़ने पर फोकस किया जाए तो कम नंबरों के बावजूद आप जिंदगी में कामयाब हो जाएंगे।

पढ़ाई और करियर में ताल्लुक

वह कहती हैं, 'मैं नहीं मानती कि अच्छे करियर के लिए अच्छे नंबर लाना जरूरी है। इससे कहीं ज्यादा जरूरी है कि आप जो भी करना चाहें, उसमें महारत हासिल करें और पूरी मेहनत करें। सिर्फ मेहनत ही असली चीज है। मेरा मानना है कि मेहनत के आगे बाकी सारी चीजें फेल हैं। आप जो करना चाहें, उसमें अपना सब कुछ लगा दें। हालांकि नंबर लाने इसलिए अहम हैं, क्योंकि कम-से-कम दिल्ली यूनिवर्सिटी में ऐडमिशन सिस्टम ऐसा है कि आपको अच्छे कॉलेज में पढ़ने के लिए अच्छे नंबर लाने ही होंगे। या फिर ऐसा नहीं है तो आपको स्पोर्ट्स या किसी और विधा में बेहतर होना होगा ताकि आपको कोटा के तहत एंट्री मिल सके।'

पढ़ाई के टिप्स


मेहनत, मेहनत और मेहनत, बस यही है पढ़ाई में कामयाब होने का मंत्र।

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डॉक्टर दिवस: मरीजों के 'फरिश्ता' हैं ये डॉक्टर

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डॉक्टरी को सबसे सम्मानित पेशों में माना जाता है क्योंकि एक डॉक्टर के पास किसी की जान बचाने या उसे बेहतर जिंदगी देने का हुनर होता है। ऐसे में बहुत-से डॉक्टर बिना कोई फीस लिए गरीबों का इलाज कर रहे हैं ताकि वे अपने पेशे के साथ इंसाफ कर सकें। ऐसे ही कुछ डॉक्टरों से आपको रूबरू करा रही हैं प्रियंका सिंह...

मां के दिए मिशन को पूरा कर रहे हैं डॉ. स्वप्निल
मां का सपना था कि बेटा बड़ा होकर डॉक्टर बने और जरूरतमंदों की मदद करे। मां के इसी सपने को जिंदगी का मकसद बना लिया है डॉ. स्वप्निल माने ने। डॉ. स्वप्निल आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों को कैंसर जैसी महंगी बीमारी का इलाज मुहैया कराते हैं, वह भी मुफ्त। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में शिरडी से करीब 35 किलोमीटर दूर राहुरी में वह डॉ. माने मेडिकल फाउंडेशन एंड रिसर्च सेंटर और 25 बेड का कैंसर हॉस्पिटल साई धाम चलाते हैं। यहां कैंसर के मरीजों को बेहद कम कीमत पर इलाज मुहैया कराया जाता है। जो बिल्कुल भी पैसा देने की हालत में नहीं होते, उनका इलाज फ्री किया जाता है। वह महाराष्ट्र के अलग-अलग इलाकों में जाकर कैंसर की जांच के लिए कैंप लगाते हैं और लोगों को जागरूक भी करते हैं। डॉ. स्वप्निल माने बताते हैं कि जब मैं 8 साल का था तो मैंने अपने पड़ोस में रहने वाले कैंसर के एक मरीज को देखा। उन्हें फेफड़ों का कैंसर था। वह मजदूरी करके रोजाना मुश्किल से 50-60 रुपये ही कमा पाते थे। हालत ज्यादा खराब होने पर जब वह बड़े अस्पताल पहुंचे तो इलाज के लिए 50-60 हजार रुपये मांगे गए। इतने पैसे उनके पास नहीं थे। जब मैंने अपनी मां से कहा कि डॉक्टर उनका इलाज क्यों नहीं कर रहे तो मेरी मां ने कहा कि डॉक्टर सिर्फ उन्हीं लोगों का इलाज करते हैं, जो उनको पैसा दे सकते हैं। यह बात मेरे मन में घर कर गई और मां से वादा किया कि बड़ा होकर डॉक्टर बनूंगा और गरीबों का फ्री में इलाज करूंगा। आज डॉ. माने अपनी मां से किए वादे को अच्छी तरह निभा रहे हैं। पिछले करीब 7 साल में वह 95 कैंसर चेकअप कैंप, 116 अवेयरनेस कैंप लगा चुके हैं और 1120 कैंसर मरीजों का ऑपरेशन मुफ्त या फिर बेहद कम दामों पर कर चुके हैं।

इलाज के साथ जागरूकता भी फैला रहे हैं डॉ. अंशुमन
महकेश सिंह माली का काम करते हैं। एक दिन काम करते वक्त उनके हाथ में खुरपी से चोट लग गई। चोट में घाव बनने लगा। महकेश को लगा कि प्राइवेट अस्पताल में जाऊंगा तो बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे, इसलिए वह इलाज से हिचकिचा रहे थे। तब किसी ने उन्हें बताया कि पास के इलाके में हर गुरुवार को एक डॉक्टर फ्री में इलाज करते हैं। वह बात कर रहे थे डॉ. अंशुमन की, जो दिल्ली स्थित धर्मशिला कैंसर अस्पताल में सर्जिकल ऑन्कॉलजी के डायरेक्टर और चीफ कैंसर सर्जन हैं। डॉ. अंशुमन हर गुरुवार को ग्रेटर नोएडा के कासना में सिविल सर्विसेज सोसायटी इलाके स्थित अपने फार्महाउस पर गरीबों और जरूरतमंदों की बुखार, पेटदर्द, उलटी जैसी छोटी-मोटी बीमारियों का फ्री इलाज करते हैं। साथ ही, मरीजों को उनकी सेहत को लेकर जागरूक भी करते हैं जैसे कि तंबाकू से होने वाले नुकसान या साफ-सफाई के फायदों आदि की जानकारी भी देते हैं।

डॉ. अंशुमन बताते हैं कि मैं सिर्फ अपने पेशे के साथ इंसाफ करने की कोशिश कर रहा हूं। डॉक्टर शब्द बना है लैटिन शब्द डॉकेर (Docere) से, जिसका मतलब ही टीच होता है यानी डॉक्टर का मतलब हुआ टीचर। ऐसे में लोगों को जागरूक करना डॉक्टर की जिम्मेदारी है। मैंने पाया कि साफ-सफाई बढ़ाने और जागरूक होने से परिवारों की कमाई भी बढ़ी है। जैसे कि पहले कोई मजदूर 1000-1200 रुपये का पान मसाला चबा लेता था। तंबाकू छोड़ने के बाद वह पैसा घर में काम आ रहा है।

वह कहते हैं, 'मेरे पापा भी डॉक्टर हैं। उन्होंने हमेशा जरूरतमंदों की मदद की। किसी आपदा के वक्त वह अपना पूरा क्लिनिक खाली कर लोगों का मुफ्त इलाज करते रहे हैं। मैं भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा हूं। मैं टारा कैंसर फाउंडेशन से भी जुड़ा हूं। हर शनिवार, रविवार को मैं फाउंडेशन के जरिए कैंसर को लेकर अवेयरनेस पैदा करने के लिए अलग-अलग जगह जाकर लोगों को इसकी जानकारी देता हूं।'

बेशक आज जहां ज्यादातर डॉक्टरों ने इसे महज एक पेशे का रूप दे दिया है, डॉ. अंशुमन पूरे मन से लोगों की मदद करने में जुटे हैं। वह मानते हैं कि कोई डॉक्टर अगर अपनी जिंदगी का सिर्फ 10 फीसदी समाज के जरूरतमंद लोगों को दे दे तो हमारी देश की तस्वीर पूरी तरह से बदल सकती है। अगर डॉक्टर पूरी ईमानदारी से काम करे तो भी उसे पैसे की कोई कमी नहीं होने वाली। डॉक्टरों को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभानी चाहिए। अच्छी बात यह है कि डॉ. अंशुमन की कोशिशों से प्रेरित होकर अब और भी कुछ डॉक्टर उनसे साथ जुड़कर जरूरतमंदों के लिए काम करना चाहते हैं।

गरीबों के बीच बैठकर ही उनका इलाज करते हैं डॉ. अजीत
68 साल के डॉक्टर अजीत मोहन चौधरी उस वक्त चर्चा में आए, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' में उनका जिक्र किया। इस जिक्र की वजह भी बड़ी वाजिब थी। डॉक्टर चौधरी कानपुर कचहरी स्थित मंदिर के चबूतरे पर बैठकर गरीबों का मुफ्त इलाज करते हैं। एमडी करने के बाद 1980 से प्रैक्टिस शुरू करने वाले डॉ. चौधरी सुबह 10-11 के बीच चौराहे पर मरीज देखने पहुंच जाते हैं। वह रोजाना करीब 8-10 मरीजों को देखते हैं। देखने के बाद वह मरीजों को फ्री में सैंपल की दवाएं भी देते हैं। मरीजों के इलाज के साथ ही वह शहीद जवानों के परिवारों के लिए फंड भी जमा कर रहे हैं। जहां बैठकर वह इलाज करते हैं, वहीं वह एक दानपात्र भी रखते हैं। उनका कहना है कि समाज के हर शख्स की जिम्मेदारी है कि वह समाज और गरीबों के लिए कुछ करे।

डॉ. अजीत का कहना है कि गरीबों के लिए कुछ करने की चाहत तो हमेशा से थी, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाने के बाद अब मैं मन का करने के लिए फ्री हूं। डॉ. चौधरी की बेटी सिंगापुर में डॉक्टर है, जबकि बेटा इंजीनियर है और हाल में अमेरिका से लौटा है। यह पूछने पर कि वह अपने हॉस्पिटल में गरीबों का इलाज क्यों मुफ्त नहीं करते, वह कहते हैं, 'अपने हॉस्पिटल में इलाज करता तो शायद लोगों को लगता कि मैं अपने हॉस्पिटल का प्रचार कर रहा हूं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न गरीबों का इलाज उन्हीं के बीच बैठकर किया जाए। ऐसे में जो लोग अस्पताल जाने से बचना चाहते हैं, वे भी मेरे पास इलाज के लिए आ जाते हैं।' डॉ. चौधरी का अपना 100 बेड का अस्पताल है। उन्होंने अपना एक एनजीओ भी बनाया हुआ है जो गरीब बच्चों की पढ़ाई में मदद करता है। एक संपन्न परिवार से होने के बावजूद डॉ. अजीत का यह जज्बा काबिलेतारीफ है।

आग में झुलसे मरीजों को जीवन देते हैं 80 साल के डॉ. योगी
डॉक्टर दूसरों को जीवन देते हैं, यह साबित कर रहे हैं देहरादून के डॉ. योगी एरोन। वह आग से जले या झुलसे मरीजों का मुफ्त इलाज करते हैं। अब तक करीब 3000 मरीजों की मुफ्त सर्जरी का इंतजाम वह करा चुके हैं। इस काम में अमेरिका से आई डॉक्टरों की टीम उनकी मदद करती है। यह टीम अमेरिका के एक एनजीओ की होती है, जो 2006 से डॉ. योगी के साथ मिलकर काम कर रही है। ऑपरेशन से पहले और बाद का खर्चा और तमाम इंतजाम डॉ. योगी उठाते हैं। मूल रूप से यूपी के मुजफ्फरनगर जिले के निवासी डॉ. योगी ने 1971 में प्लास्टिक सर्जरी में स्पेशलाइजेशन किया। 1973 में डॉ. योगी को देहरादून के जिला अस्पताल में बतौर प्लास्टिक सर्जन नौकरी मिली। 1982 में अपनी बहन की मदद से उन्हें अमेरिका जाने का मौका मिला। साथ ही, कुछ अच्छे डॉक्टरों का साथ भी। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देहरादून में जमीन खरीदी और अपना अस्पताल बनाया। इसके बाद उन्होंने गरीबों की मदद की मुहिम भी शुरू की। वह बताते हैं कि जो गरीब मेरे पास आते हैं, मैं उनसे सर्जरी की फीस नहीं लेता। उन्हें बस एनेस्थीसिया या कुछ दवाओं का खर्चा उठाना पड़ता है। डॉ. योगी के पास हजारों गरीब इलाज कराने आते हैं। वह कहते हैं कि लोगों की सेवा करने से बहुत संतुष्टि मिलती है।

घर पर मरीजों से फीस नहीं लेते डॉ. दवे
2003 में एम्स के डायरेक्टर पद से रिटायर होने के बाद से ही मशहूर ऑर्थोपिडिक सर्जन डॉ. पी. के. दवे ने नियम बनाया कि जो भी उनके घर बीमारी दिखाने आएगा, उससे वह फीस नहीं लेंगे। 15 साल बाद भी वह इस उसूल पर कायम हैं। डॉ. दवे फिलहाल रॉकलैंड हॉस्पिटल में ऑर्थोपिडिक डिपार्टमेंट के चेयरमैन हैं। वह बताते हैं, 'अक्सर मैं मरीज को दवाएं लिख देता हूं। अगर कोई बहुत गरीब है तो उसे कुछ जेनरिक दवाएं दे भी देता हूं। वैसे, बहुत-से लोग सिर्फ सलाह लेने के लिए भी आते हैं, मसलन मेरे पैरों में दर्द रहता है तो कौन-सी एक्सरसाइज करूं या फिर मालिश करूं या नहीं आदि? घर पर मोटे तौर पर 3-4 मरीज तो रोजाना आ ही जाते हैं। इनमें से ज्यादातर घर में काम करने वाली मेड, माली, चौकीदार, घर के आसपास बैठने वाले फूलवाले, फलवाले या फिर उनके घरवाले, रिश्तेदार आदि होते हैं। मेरा मानना है कि पैसा तो मुझे हॉस्पिटल से मिल जाता है। घर पर मैं (खासकर वे लोग जिनकी माली हालत अच्छी नहीं है) मदद के मकसद से लोगों को देखता हूं। हालांकि कभी-कभार कुछ लोग परेशान भी करते हैं। मसलन, एक बार एक सज्जन मेरे पास आए। वह आर्मी में ऑफिसर थे। वह रात को साढ़े नौ बजे मुझसे देखने की जिद करने लगे। मजेदार बात यह कि उनकी समस्या इमरजेंसी वाली नहीं थी। बहरहाल, मैंने उन्हें समझाया कि यह कोई वक्त नहीं है किसी के घर आकर चेकअप कराने का। इस तरह की छोटी-मोटी समस्याओं के अलावा बाकी जरूरतमंदों को देखने का मेरा अनुभव अच्छा ही रहा है।'

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श..श...श... कोई नहीं है!

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एक खुशहाल परिवार, न पैसे की दिक्कत, न आपसी कलह, न कोई और किल्लत... फिर ऐसा क्या हुआ कि दो भाइयों के पूरे परिवार ने एक साथ जान दे दी। दिल्ली के बुराड़ी इलाके में 11 लोगों की खुदकुशी की घटना ने देश भर को झकझोर कर रख दिया है। मामले में अभी परिवार के बुजुर्ग की आत्मा का असर माना जा रहा है। ऐसे में इसने रूह, आत्मा, झाड़-फूंक आदि को लेकर हमेशा से चली आ रही बहस को फिर से जिंदा कर दिया है। आखिर यह आत्माओं को लेकर कोरा अंधविश्वास है या फिर किसी मनोवैज्ञानिक बीमारी का असर, विज्ञान और आस्था की उलझी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं श्रीकांत शर्मा...

उद्योगपति सुभाष त्यागी की पत्नी निशा की 1990 में किडनी ट्रांसप्लांट हुई थी। ऑपरेशन के बाद वह कोमा में चली गईं। एक महीना कोमा में रहने के बाद जब वह होश में आईं तो उन्होंने जो कुछ बताया, उसे सुन कर उनके परिजन हैरान रह गए। निशा का कहना था कि उस एक महीने के दौरान कोई बुजुर्ग उनका ख्याल रखते थे। एसी के कारण उन्हें ठंड महसूस होती थी तो वह बुजुर्ग उन्हें कंबल ओढ़ाते थे और उन्हें प्यार से तसल्ली दिया करते थे, जबकि असल में उस दौरान उनके कमरे में देखभाल के लिए सिर्फ निशा की मां शांति ही मौजूद रहती थीं। निशा जिस बुजुर्ग के बारे में बात करती थीं, उनका चेहरा-मोहरा सुभाष के ताऊजी से मेल खाता था, जिनका निधन काफी पहले हो चुका था।

ऐसा ही अनुभव मीडियाकर्मी शैली अत्रिषी का भी है। वह ग्वालियर में रेडियो जॉकी थीं। दिल्ली की रहने वालीं शैली ग्वालियर में कंपनी की ओर से मिले मकान में रहती थीं। मकान मालकिन ने एक रात शैली को बताया कि मेरे ससुर मेरी देखभाल के लिए उस मकान में ही रहते हैं। शैली ने तब तक किसी बुजुर्ग को उस मकान में नहीं देखा था। उन्होंने मकान मालकिन से पूछा, 'मैंने तो उन्हें नहीं देखा। कहां हैं वह?' मकान मालकिन ने कहा, ‘उन्हें मरे हुए 10 साल हो गए हैं। लेकिन वह गए नहीं, यहीं रहते हैं।’ यह सुनकर शैली को तो जैसे चक्कर ही आ गया।

खोरशेद भावनगरी की किताब ‘द लॉज़ ऑफ द स्प्रिट वर्ल्ड’ में बताया गया है कि यह किताब उनके बेटों विस्पी और रतू की आत्माओं ने लिखवाई। उनका मकसद इस लोक के वासियों को जीवात्मा लोक के बारे में जानकारी देना और यह बताना था कि जीवात्मा लोक के भी तयशुदा नियम होते हैं। जब कोई आत्मा पृथ्वी लोक से उस लोक में जाती है तो उस लोक में पहले से मौजूद उनके प्रियजनों की आत्माएं उन्हें लेने आती हैं। विस्पी और रतू की एक कार हादसे में जान चली गई थी। अपनी मां को कथित तौर पर किताब लिखवाते हुए उन्होंने बताया कि उनके शरीर से जब उनकी आत्मा निकली तो नानाजी उनके पास आए और उन्हें बताया कि वह जीवात्मा लोक में उनका मार्गदर्शन करने के लिए उन्हें लेने आए हैं।

क्या मार्गदर्शन करती हैं आत्माएं?
निशा या शैली के अनुभव आत्माओं के वजूद पर सोचने को मजबूर करते हैं। अगर आत्मा का वजूद है तो इसकी संभावना बनती है कि वे अपने परिजनों की मदद के लिए पृथ्वी लोक पर रहती हैं। वैसे हिंदू धर्म के अनुसार, व्यक्ति के अंतिम संस्कार के बाद आत्मा बरसी तक पृथ्वी पर रहती है। फिर वह अपने कर्मों का लेखा-जोखा देने के लिए धर्मराज तक पहुंचती है और तब नए रूप में आने तक वह पितर लोक में वास करती है। वहीं से वह अपने प्रियजनों के मार्गदर्शन के लिए धरती पर भी आती है। धर्म में आत्मा और परमात्मा के मिलन को ही किसी भी जीव के अस्तित्व के होने का उद्देश्य माना जाता है। इसीलिए आत्मा कहें या रूह, धर्म में उसका वजूद माना जाता है। हिंदू धर्म हो या मुस्लिम, आत्मा या रूह को लेकर दोनों धर्मों के गुरू अपने-अपने ढंग से इस बारे में तर्क देते हैं। उज्जैन में साधक कांता गुरू पुनर्जन्म की थिअरी का विश्लेषण करते हुए आत्माओं का वर्गीकरण अच्छी आत्मा और दुष्टात्माओं के तौर पर करते हैं, जबकि जामे शहीद दरगाह पंजा शरीफ के मौलाना मजहर अब्बास मजहर गाजी पुनर्जन्म को मानने से इनकार करते हैं, लेकिन अल्लाह के भेजे आखिरी इमाम इमामे मेहदी के आने की बात कहते हुए इस धरती पर मौजूद सभी रूहों के पलट कर आने का दावा करते हैं। लेकिन कांता गुरू या मौलाना मजहर अब्बास में से कोई भी ऐसा कोई सबूत नहीं दे पाए, जिसे विज्ञान स्वीकार कर सके।


मनोवैज्ञानिक बीमारी है यह
दूसरी ओर, मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक इन सारे तर्कों को सिरे से नकार देते हैं। आत्मा, भूत-प्रेत बाधा आदि को वे अंधविश्वास से उपजा रोग मानते हैं। मनोचिकित्सकों का मानना है कि विज्ञान आत्मा के वजूद को ही स्वीकार नहीं करता। कथित रूप से आत्माओं, भूत-प्रेत के असर में आए लोगों की अजीबोगरीब हरकतों या अपनी शक्ति से ज्यादा किसी काम को करने का कारण वे जुनून या उन्माद को मानते हैं। इहबास के डायरेक्टर और मनोचिकित्सक डॉ. निमेष जी देसाई कहते हैं कि विज्ञान किसी के भी होने का सबूत मांगता है। आत्मा के वजूद का सबूत क्या है? ऐसे में बुराड़ी कांड के पीछे आत्मा का हाथ होने की बात पूरी तरह कोरा वहम है।

आत्मा के वजूद के सवाल का जवाब खोजते हुए अवचेतन मन की शक्ति और टेलीपैथी जैसे बातों को जेहन में रखना जरूरी है। आयरलैंड में जन्मे और बाद में अमेरिका में जा बसे डॉ. जोसेफ मर्फी ने अपनी किताब ‘द पावर ऑफ यॉर सबकॉन्शस माइंड’ में दावा किया है कि उन्होंने इस शक्ति के जरिए ट्यूमर को ठीक कर दिया।’ अपनी रिसर्च के सिलसिले में काफी अरसे भारत में भी रहे डॉ. मर्फी लिखते हैं कि आपका अवचेतन मन आपके विचारों पर प्रतिक्रिया करता है और उन्हीं के अनुरूप अनुभवों, घटनाओं और परिस्थितियों को पैदा कर देता है। इस सिद्धांत के अनुसार इंसान जो सुनना चाहता है, उसकी कल्पना कर उसे सुन लेता है। ललित और उसके परिजनों, निशा या शैली और उसकी मकान मालकिन के अवचेतन मन ने भी शायद उनके विचारों के अनुसार परिस्थितियों को पैदा किया।

मनोचिकित्सक डॉ. अरविंद कामरा का कहना है कि ललित और उनके परिजन ‘मानसिक रूप से बीमार’ थे और उन्हें सही इलाज की जरूरत थी। ‘पुनर्जन्म और कर्म की थिअरी’ को भी सिरे से नकारते हुए उनका कहना है कि इन सबका कोई आधार नहीं है। डॉ. कामरा के अनुसार, ललित जिन बातों को अपने पिता की बात समझता था, मुमकिन है, वे बातें उसके मन में पहले से ही बैठी हों और उन बातों को अपने पिता की बात कहकर परिवार का समर्थन लेता हो। सामूहिक खुदकुशी के मामले में भी इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि परिवार के सदस्यों को इस बात पर विश्वास होगा कि ललित के पिता की आत्मा उन्हें बचा लेगी। लेकिन ऐसा तो तब होता, जब सचमुच उनकी आत्मा का कोई अस्तित्व मौजूद होता। आत्मा को घर में आने के लिए दरवाजा-खिड़कियां क्यों खोल कर छोड़ने की जरूरत थी, जबकि मान्यताओं के अनुसार आत्माएं तो कहीं भी, किसी भी प्रकार से आ-जा सकती हैं। फिर अगर आत्मा वाकई थी तो उसने इन लोगों को बचाया क्यों नहीं!

पूरे परिवार पर हो सकता है असर
मनोचिकित्सक डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी बुराड़ी मामले को साइकोटिक डिस्आर्डर बताते हैं। डॉ. त्रिवेदी के अनुसार मनोरोगियों में व्यक्तित्व को लेकर जब विकार आता है तो वह बाई पोलर डिस्आर्डर हो सकता है जिसमें दो अवस्थाएं होती हैं। इन अवस्थाओं को मतिभ्रम की स्थिति माना जाता है। सिजोफ्रेनिया को स्पिलिट पर्सनैलिटी डिस्आर्डर माना जाता है। लोगों को लगता है कि वह किसी के वश में है। ऐसा मनोरोगी खुद को दूसरे की पर्सनैलिटी में समझता है। वह कहते हैं कि ललित के साथ उसके परिवार के बाकी 10 सदस्यों का बर्ताव उन्हें 'शेयर्ड साइकोटिक डिस्ऑर्डर' का शिकार दिखाता है। ललित को अपने पिता पर अगाध श्रद्धा रही होगी और उन्हें विश्वास होगा कि इस दुनिया से जाने के बाद भी पिता परेशानियों में रास्ता दिखाएंगे। अपनी आवाज जाने के बाद ललित ने पिता को याद किया होगा और उन विचारों के कारण वह ललित को सपने में दिखाई दिए। जो ललित सोचते होंगे, वही उन्होंने अपने पिता के मुंह से सुना होगा। इलाज के कारण उनकी आवाज लौटी तो पिता पर ललित और बाकी परिजनों की श्रद्धा बढ़ गई। वे सब 'शेयर्ड साइकोटिक डिस्ऑर्डर' का शिकार हो गए।

शेयर्ड साइकोटिक डिस्ऑर्डर के शिकार लोगों को एक जैसा विश्वास होता है। कोई आवाज न आने पर भी उन्हें एक जैसी ही आवाजें सुनाई देती हैं। कोई आकृति न होने पर भी एक जैसी आकृतियां दिखाई देती हैं। पिता की आत्मा का ललित पर आना मतिभ्रम हो सकता है। ऐसे में इंसान की हरकतें ऐसी हो जाती हैं जो उसकी ताकत से परे होती हैं। पूरा शरीर दिमाग से जुड़ा होता है और अवचेतन में तनाव होने पर उसमें उन्माद चढ़ने लगता है। उस हालत में वह अजीब-सा बर्ताव करने लगता है जिसे देखने वाले परालौकिक शक्तियों का नाम देते हैं। यह सब दिमाग से एक खास तरह का केमिकल निकलने की वजह से होता है। इसी की मात्रा कम करने के लिए मरीज को दवा दी जाती है।

मनोचिकित्सकों के अनुसार यही बात निशा, शैली की मकान मालकिन आदि पर भी खरी उतरती है। निशा को सिर्फ महसूस होता था कि कोई बुजुर्ग उनकी देखभाल कर रहा था, जिसका कोई सबूत नहीं था। शैली को जब तक मकान मालकिन के ससुर की आत्मा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, तब तक वह उस मकान में आराम से थीं, लेकिन जब उन्हें बताया गया कि कोई आत्मा उस मकान में घूमती है, तो वह वहां एक रात भी नहीं बिता सकीं। यह सब माइंडसेट का खेल है। हरियाणा में एक शख्स पर 'ऊपरी हवा’ लगने का अंदेशा था। लोगों का मानना था कि उसके छोटे भाई का भूत उसे सता रहा है क्योंकि उसने अपने भाई की अर्थी का अपमान किया था। लेकिन बाद में पता लगा कि उस शख्स को लिवर का कैंसर था जिससे उसकी मृत्यु हो गई। कैंसर की छटपटाहट में उस व्यक्ति के बर्ताव को गांव वाले भूत-प्रेत का चक्कर बताते रहे जिससे उसकी पीड़ा कई गुना बढ़ गई।

विधु विनोद चोपड़ा की ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में मुरली शर्मा की भूमिका निभाने वाले संजय दत्त को गांधीजी दिखाई देते हैं, जिनके बारे में लाइब्रेरी में तीन दिन-रात बैठ कर दिमाग को आराम दिए बगैर अध्ययन किया होता है। मुरली अध्ययन सामग्री में गांधीजी को इतना आत्मसात कर लेता है कि वह उसे साक्षात दिखने लगते हैं और उससे बात करते हैं। मुरली लोगों के उन्हीं सवालों के जवाब दे पाता है जिनके जवाब उसे पहले से आते हैं। जैसे ही उससे वे सवाल पूछे जाते हैं जिनके जवाब उसे नहीं आते, वह हकबका जाता है। अक्षय कुमार की 'भूल भुलैया' में भी नायिका सिर्फ कहानियों के आधार पर पहले किसी राजा के अत्याचार की शिकार हुई नर्तकी की भूमिका में घुस जाती हैं। 'भुल भुलैया' में तो इस विषय को बहुत ही मनोवैज्ञानिक तरीके से बड़ी खूबसूरती से पेश किया गया।

हालांकि ऐसे डॉक्टरों की भी कमी नहीं है जो मानते हैं कि इलाज तो हम पूरे मन से करते हैं, लेकिन मरीज को तंदुरुस्त करने वाला तो ईश्वर ही है। अब अगर ईश्वर का वजूद है तो आत्माओं के अस्तित्व को भी सिरे से नकारा नहीं जा सकता। घूम-फिरकर बात सबूत पर आकर रुक जाती है। जब तक कोई सबूत सामने नहीं आता, तब तक विज्ञान के ज्ञान को मानना ही बेहतर है।

प्लेनचिट: एक आत्माकथा!
किसी आत्मा को बुलाने की कोशिश एक बार मैंने भी की थी। कोई आत्मा सचमुच मेरे पास आई थी कि नहीं, यह मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। 1966 के आसपास की बात है। उस वक्त प्लेनचिट की चर्चा आम थी। लोग अपने घरों में प्लेनचिट का अनुभव करने को उत्सुक दिखने लगे थे। मेरी उम्र उस वक्त करीब 15 साल की रही होगी। जिस मकान में मैं अपने माता-पिता के साथ रहता था, उसमें एक तहखाना था। उस तहखाने में कबाड़ पड़ा होने के बावजूद उसका थोड़ा-सा हिस्सा बैठने लायक था। प्लेनचिट को लेकर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। एक दिन मेरे माता-पिता बाजार गए हुए थे। मौका पाकर मैंने अपने तीन मित्रों के साथ प्लेनचिट का अनुभव करने की योजना बनाई। जैसा सुना था, उसी के अनुसार हम लोगों ने घर में रखी पुरानी चौकी पर चार मोमबत्तियां जलाईं। चारों दोस्त उस चौकी के चारों ओर मोमबत्तियों के सामने बैठ गए। एक सफेद कागज पर पेंसिल से कुछ लिखकर उसे चौकी के बीचोंबीच रख दिया। उस कागज के बीच में एक पुरानी-सी कैंची रख दी। हम इस असमंजस में थे कि किसकी आत्मा को बुलाया जाए? यह सोच कर कि किसी के दादाजी की आत्मा तो आएगी, यह तय किया गया कि सब अपने दादाजी की आत्माओं का आह्वान करें। सबने आंखें मूंद कर अपने-अपने दादाजी का ध्यान किया और पेंसिल की नोक कैंची के बीच लगे पेंच पर रख दी। पेंसिल का दूसरा सिरा हम पकड़े रहे। थोड़ी देर सब आंखें मूंदे बैठे रहे। अचानक पेंसिल में हल्का-सा कंपन हुआ और हमने आंखें खोल कर कैंची की तरफ देखा। तभी कैंची तेजी से हिली और हम सब घबरा गए। तहखाने में मोमबत्ती की रोशनी के बावजूद सब कुछ छोड़छाड़ कर हम बाहर की तरफ भाग आए।

मैं आज तक नहीं समझ सका कि कैंची हिली कैसे? मुझे लगता है कि उस सारे माहौल में मेरे हाथ से ही कंपन हो गया था और कैंची हिल गई जो संकेत था कि आत्मा आई है। हालांकि इतना जरूर था कि उस सबका डर काफी दिनों तक मन में बैठा रहा और उसके बाद दादाजी की आत्मा को बुलाने की कोशिश करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई।

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सही किक की जरूरत

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पिछले एक महीने से पूरी दुनिया में फुटबॉल का माहौल बना हुआ है। बेशक यह एक ऐसा स्पोर्ट्स इवेंट है, जो पूरी दुनिया को एक सूत्र में पीरो देता है। हालांकि भारत कभी भी इसमें शिरकत नहीं कर पाया है, लेकिन इस खेल के प्रति लोगों का उत्साह किसी और मुल्क से जरा भी कम नहीं है। भारत के लोग भले ही फ्री-टिकट वाली घरेलू फुटबॉल लीग भी देखने नहीं जाते, लेकिन रूस में आयोजित इस वर्ल्ड कप का मजा लेने के लिए दस हज़ार से ज्यादा भारतीयों ने टिकट खरीदा है। फुटबॉल वर्ल्ड कप का जब भी जिक्र होता है हर भारतीय के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर कब हमारी फुटबॉल टीम फीफा वर्ल्ड कप खेलेगी? इसी सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं नीरज झा:

बेशक भारत में क्रिकेट के बाद सबसे ज़्यादा लोकप्रिय खेल फुटबॉल ही है और टीवी रेटिंग्स ने इसे बार-बार साबित भी किया है। इसके बाबजूद हम इस खेल में दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले काफी पीछे हैं। ऐसा भी नहीं है कि भारत के पास पैसों और संस्थानों की कोई कमी है या फिर हम फुटबॉल नहीं खेलना चाहते। फिर ऐसी कौन-सी वजह है कि हम और हमारे खिलाड़ी दुनिया के बड़े-बड़े फुटबॉल टूर्नामेंट में खेल नहीं पाते।


भारत में फुटबॉल
फीफा के पूर्व अध्यक्ष सेप ब्लैटर ने कुछ साल पहले कहा था कि भारत फुटबॉल जगत का सोया हुआ शेर है। शायद यह कथन सच भी हो, लेकिन सवाल यही है कि यह सोया हुआ शेर जागेगा कब? कब इसकी कुंभकरणी नींद टूटेगी? फीफा भारत में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए काफी कोशिश कर रहा है। पिछले चार-पांच बरसों में भारतीय पुरुष फुटबॉल टीम की रैकिंग में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। साल 2014 में भारतीय टीम दुनिया में 170वें नंबर पर थी जो अब बेहतर प्रदर्शन के बाद 97वें नंबर पर आ चुकी है। इंडियन सुपर लीग और यूथ लीग से भारत में फुटबॉल के प्रचार-प्रसार को काफी सहारा मिला है।

दुनिया की आबादी साढ़े 7.6 अरब से कुछ ज्यादा है और करीब 1.3 अरब की आबादी इस मुल्क में रहती है, लेकिन आइसलैंड, सेनेगल और क्रोएशिया जैसी छोटी मुल्कों के सामने भी हम फुटबॉल में फिसड्डी हैं। इस साल के वर्ल्ड कप में इन छोटे देशों ने अपने खेल से बड़े-बड़े मुल्कों को चौंकाया ही नहीं, जोरदार झटका भी दिया है। अफसोस कि 2018 फुटबॉल विश्वकप में 736 खिलाड़ियों में से कोई भी भारतीय नहीं है।

वर्ल्ड कप ने यह भी दिखा दिया है कि फुटबॉल में देश की जनसंख्या या फिर वहां की अर्थव्यवस्था ज्यादा मायने नहीं रखती। सेनेगल भले ही इस वर्ल्ड कप में हिस्सा लेने वाला सबसे गरीब देश था, लेकिन सऊदी अरब जैसे अमीर देशों को भी उसने पछाड़ दिया। दुनिया के सबसे अमीर देशों में शामिल (प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से) स्विट्ज़रलैंड, 1954 के बाद कभी भी क्वार्टर फाइनल के आगे नहीं पहुंच पाया है। आइसलैंड की जनसंख्या सिर्फ 3.5 लाख है, लेकिन अर्जेंटीना जैसी बड़ी टीम के खिलाफ मैच में 1:1 की बराबरी करके उसने सबको चौंका दिया। यही नहीं 40 लाख की जनसंख्या वाली क्रोएशिया तो फाइनल तक पहुंच गई है। फाइनल में पहुंचने वाला क्रोएशिया दुनिया का दूसरा सबसे छोटा मुल्क है।

फीफा के साउथ सेंट्रल एशिया डिवेलपमेंट के पूर्व अधिकारी और दिल्ली फुटबॉल संघ के अध्यक्ष शाजी प्रभाकरन का मानना है, 'भारतीय फुटबॉल में पैसा लाने से ज्यादा जरूरी है कि हम एक अच्छा सिस्टम बनाएं, जिससे अच्छे खिलाड़ी खुद-ब-खुद निकल कर आएं।' उनका यह भी मानना है कि अगर भारत में फुटबॉल संस्कृति सही रूप से विकसित होती है तो स्टार खिलाड़ी भी अपने आप ही पैदा हो जाएंगे। बात भी सही है मेसी और रोनाल्डो अपने देशों में फुटबॉल के प्रति दीवानगी की वजह से ही इतने लोकप्रिय हैं।

एशियाई देशों में कहां हैं हम
फुटबॉल एक्सपर्ट और कई बरसों से भारतीय फुटबॉल को काफी नज़दीक से समझनेवाले कॉमेनटेटर नोवी कपाडिया के अनुसार, 'एशिया में भी हम्मारी स्थिति अच्छी नहीं है। एशिया की पांच टीमें जिन्हें वर्ल्ड कप 2018 के आखिरी 32 में जगह मिली थी वे हैं जापान, साउथ कोरिया, ईरान, सऊदी अरब और ऑस्ट्रेलिया। ये टीमें हमसे कई गुना बेहतर टीमें हैं। इन पांच टीमों के बाद जो अगली पंक्ति है, उसमें चीन, यूएई, कतर, कुवैत, सीरिया, बहरीन, इराक, नॉर्थ कोरिया, उज़्बेकिस्तान और थाईलैंड शामिल है। हमारी टीम तो तीसरी पंक्ति में खड़ी है, इसीलिए हमें वर्ल्ड कप में क्वॉलिफाइ करने से ज्यादा, दूसरी पंक्ति में आने के लिए अपनी पूरी ताकत लगानी चाहिए।'

8 में से 7 में हार
2018 के वर्ल्ड कप क्वॉलिफायर में भारत को अपने कुल 8 मैच में से 7 में हार मिली थी। नोवी के मुताबिक, 'इस वर्ल्ड कप से हमें कई चीज़ें सीखने को मिली हैं। सुनील छेत्री की टीम भले ही एशिया की टॉप टीमों में नहीं हो, लेकिन उनकी टीम को साउथ कोरिया से सीखने की जरूरत है। जिस तरह से उन्होंने अपने से कई गुना बेहतर टीम जर्मनी को मात दी और उन्हें आगे जाने से रोक दिया, वैसे ही छेत्री की टीम को भी पहले एशियाई टीमों को हराकर अपनी रैंकिंग्स सुधारनी चाहिए।


क्लब और कोचिंग
पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बनने के लिए बहुत कुछ सीखने और करने की ज़रूरत होती है। इस खेल में न सिर्फ बेहतर शारीरिक और मानसिक क्षमता बल्कि रणनीतिक कुशलता भी ज़रूरी है। एक बेहतरीन स्कूल सिस्टम, सर्वश्रेष्ठ कोचिंग, विश्वस्तरीय सुविधाएं और हज़ारों घंटे पसीना बहाने के बाद ही कोई पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बन पाता है। मेसी एक सुपरस्टार अर्जेंटीना की वजह से नहीं, बल्कि बार्सिलोना की यूथ 'अकैडमी-ला-मासिआ' की वजह से बने। यहीं फर्क हो जाता है, जब हम भारत की बात करते हैं। शाजी का मानना है कि यूरोपियन मुल्कों में फुटबॉल के लिए एक बढ़िया इंफ्रास्ट्रक्चर बना हुआ है। वहां स्कूल, क्लब, अकैडमी का एक बना-बनाया बेहतरीन ढांचा है, जो उन्हें अपने आप ही एक से बढ़कर एक खिलाड़ी देते हैं। वहां सिलेक्टर्स के सामने टीम चुनने की बड़ी चुनौती होती है कि इतने सारे बेहतरीन खिलाड़ियों में से किस को चुनें!

अपने देश में ग्रासरुट लेवल पर एक बेहतर सिस्टम बनाए जाने की जरूरत है। तभी हम टैलंट खोज पाने में सफल होंगे। शाजी कहते हैं, 'जब पिछले साल अंडर-17 वर्ल्ड कप भारत में हुआ था तो एक बेहतरीन माहौल बना था और सरकार ने भी खुलकर हर स्तर पर सहयोग दिया था। दर्शकों ने भी भारत में पहली बार फीफा द्वारा आयोजित इस वर्ल्ड कप में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, लेकिन कुछ महीने बाद ही सबकुछ फिर से सामान्य हो गया।'

विशेषज्ञों के मुताबिक, अगर भारत को फुटबॉल में क्वॉलिफाइ करना है तो इसकी शुरुआत आज से ही हो जानी चाहिए। इसमें देश के सभी राज्य इकाई, केंद्र सरकार, एआईएफएफए क्लब और अकैडमी, सबको मिलकर काम करना होगा और वह भी एक मिशन के साथ। इस मिशन का सबसे पहला कदम होगा टाटा फुटबॉल अकैडमी और चंडीगढ़ अकैडमी के तर्ज पर हर राज्य में कम से कम एक फुटबॉल अकैडमी जरूर हो। हालांकि एआईएफएफए के गोवा क्लब ने भी देश को कई अच्छे खिलाड़ी दिए हैं, इसके अलावा भी और कुछ अकैडमी हैं, लेकिन उनका स्तर उतना अच्छा नहीं है।

फिलहाल इस खेल में ज्यादातर खिलाड़ियों का मकसद आगे खेलने का नहीं, बल्कि स्पोर्ट्स कोटा के जरिए अच्छे कॉलेजों में एडमिशन लेना होता है। जब तक इस व्यवस्था में सुधार नहीं होता, तब तक मंजिल को पाना आसान नहीं होगा। खेल विशेषज्ञों की मानें तो अगर सही सिस्टम और प्लैन हो तो बहुत जल्द हम एशिया की बड़ी टीमों को चुनौती दे सकते हैं।

आईएसएल का असर
इंडियन सुपर लीग के आने से देश में फुटबॉल का काफी प्रचार हुआ है। आईएमजी मीडिया, रिलायंस इंडस्ट्रीज और स्टार स्पोर्ट्स ने मिलकर आईएसएल की नींव 2014 में रखी थी। पिछले चार सीजन में इस लीग ने फुटबॉल खेलने और दिखाने, दोनों के तरीकों में बदलाव किए हैं और बहुत हद तक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब भी रहे हैं। आईएसएल ने खेल को लोकप्रिय तो बनाया ही है, स्थानीय स्तर पर नए खिलाड़ियों के लिए भी एक बड़ा प्लेटफॉर्म खड़ा कर दिया है। कॉर्पोरेट सेक्टर से पैसा आने की वजह से इसका ब्रैंड वैल्यू भी बढ़ा है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें स्थानीय खिलाड़ियों को दुनिया के बड़े-बड़े खिलाड़ियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेलने का मौका मिलता है। करीब चार महीने चलने वाली आईएसएल में खिलाड़ियों के पास इस खेल की बारीकियों को नजदीक से सीखने का अच्छा मौका होता है। भारत की फीफा रैंकिंग्स में जो सुधार हुआ है, उसमें कहीं-न-कहीं आईएसएल का भी बहुत बड़ा योगदान है।

आईएसएल के होने से भारतीय फुटबॉल का मार्केट पर भी असर हुआ है। इसकी मार्केटिंग अच्छी हुई है। इससे खिलाड़ियों को पैसा आना भी शुरू हो गया है, जिससे अब वे अपने आप को इस खेल में पूरी तरह से झोंक सकते हैं। इंटरनैशनल लीगों की बराबरी करने और टीवी पर इसे सुंदर तरीके से दिखाने की वजह से अब खिलाड़ियों की अच्छी देखभाल, प्रॉपर डायट और बेहतरीन सपोर्ट स्टाफ मिल रहे हैं। इसके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर में भी काफी सुधार हो रहा है।

विदेशी क्लबों का अनुभव
भारतीय खिलाड़ियों का आईएसएल में खेलना तक तो ठीक है, लेकिन उससे ज्यादा अहम है हमारे खिलाड़ियों का इंटरनैशनल लीगों और क्लबों के लिए खेलना। यहां कहीं-न-कहीं हम पिछड़ जाते हैं। भारत के गिने-चुने खिलाड़ी ही हैं, जिन्हें विदेशी क्लबों में खेलने का मौका मिला है। भारत की वर्तमान टीम में सिर्फ दो ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हे विदेशी क्लब में खेलने का थोड़ा-सा अनुभव है। 2010 में कप्तान सुनील छेत्री कंसास सिटी के लिए मेजर लीग सॉकर यूएसए में खेलने गए थे। वह तीसरे भारतीय हैं जो भारत के बाहर खेलने के लिए गए, लेकिन वहां ज्यादा दिन नहीं टिक पाए और वापस आ गए। गोलकीपर गुरप्रीत सिंह संधू टीम के दूसरे ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें विदेशी क्लब में खेलने का मौका मिला। उनका 2014 में नॉर्वे की क्लब स्टाबेक के साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन हुआ था।

2026 में है चांस
भारत की बढ़ती रैंकिंग्स और खिलाड़ियों की बढ़ती क्षमता को देखते हुए ऐसा माना जा रहा है कि 2026 फीफा वर्ल्ड कप भारत के लिए एक बेहतर मौका होगा। फीफा ने पहले ही यह घोषणा कर दी है कि 2026 से वर्ल्ड कप में 32 की जगह कुल 48 टीमें शिरकत करेंगी। इसका मतलब यह हुआ कि एशियाई क्षेत्र से 4 और टीमों को खेलने का मौका मिलेगा। हालांकि भारत के लिए फिर भी क्वॉलिफाइ करना इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि एशिया में उनसे बेहतर टीमें हैं जो इस मौके के इंतज़ार में पहले से ही तैयार बैठी हैं। ऐसे में भारत को पूरी तैयारी के साथ मैदान पर उतरना होगा और उन्हें तैयारी भी अभी से शुरू करनी पड़ेगी। शाजी का मानना है कि भारत अगर अभी से सिस्टम ठीक कर ले और अपना वर्ल्ड कप लक्ष्य तय कर ले तो शायद 2034 तक हमारी टीम क्वॉलिफाइ कर सकती है।

बेशक इस वर्ल्ड कप से भारत को बहुत कुछ सीखने को मिला है। अब खिलाड़ियों, कोच और खेल प्रशासकों को खुले दिमाग से सोचने की जरूरत है। इसके अलावा उनको खेल और सिस्टम में होनेवाले बदलावों को भी दिमागी तौर पर अपनाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। ज्यादा निराश होने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि अच्छी खबर यह है कि बेंगलुरु के तीन खिलाड़ी ध्रुव अल्वा, नमन जग्गा और रोहन नेगी अगले महीने स्पेन जा रहे हैं, जहां ग्लोबल प्रीमियर सॉकर और मैड्रिड के इंटर सॉकर में उन्हें पूरी ट्रेनिंग मिलेगी। खास बात यह है कि तीनों की उम्र 16 साल है। ये हमारे देश की फुटबॉल के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और उम्मीद की जा सकती है कि ये खिलाड़ी भारत के वर्ल्ड कप में शामिल होने के सपने को पूरा करने में सक्षम होंगे।

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जीना इसी का नाम है...

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जिंदगी यूं तो सभी जीते हैं, पर कुछ जिंदगी को इस अंदाज में जीते हैं कि दूसरों के लिए मिसाल बन जाते हैं। ऐसी ही कुछ शख्सियतों के बारे में बता रहे हैं महेश पाण्डे और राजेश भारती

कथक की ताल पर भरोसे की नई कथाएं

जुनून, समर्पण और त्याग से भरी है कथक कलाकार अनु गुप्ता की जिंदगी। जुनून हर हालात में बच्चों को कथक के साथ जिंदगी के गुर सिखाने का। समर्पण ऐसा कि बच्चों के लिए न दिन देखना, न रात और इसके लिए त्याग ऐसा कि बच्चों के लिए कुछ करने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ दी।

अक्टूबर 2015 से अनु इस सफर पर निकली हैं। वह कुछ एनजीओ के साथ मिलकर देशभर में घूम-घूमकर गरीब तबके के बच्चों को कथक सिखाती हैं और वह भी बिल्कुल फ्री। अनु की क्लास में बच्चों के लिए कथक के साथ मेडिटेशन और योग भी शामिल होता है। अनु बताती हैं कि उनकी एक क्लास में 20 बच्चे होते हैं, जिनमें ज्यादातर लड़कियां होती हैं। इनकी उम्र 8 से 16 साल के बीच होती है। वह दिन में दो क्लास लेती हैं, यानी एक दिन में 40 बच्चे। हर क्लास दो घंटे की होती है। क्लास के शुरुआती 15 से 20 मिनट में बच्चों को मेडिटेशन कराया जाता है और फिर 15 से 20 मिनट योग। बाकी समय में वह बच्चों को कथक के साथ लाइफ स्किल्स के बारे में बताती हैं। एक महीने की ट्रेनिंग के बाद वह बच्चों को स्टेज पर परफॉर्म करने बुलाती हैं ताकि उनके कॉन्फिडेंस लेवल को और ऊंचा किया जा सके और बच्चे उन्हें कभी निराश नहीं करते। असम, बिहार, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश से लेकर दिल्ली तक अनु 300 से ज्यादा बच्चों को कथक के जरिए लाइफ स्किल्स सिखा चुकी हैं।

कथक का शौक

अनु को कथक सीखने का शौक स्कूल से ही हो गया था। शुरू में जब उन्होंने कथक सीखना शुरू किया तो पिता काफी नाराज हुए। वह चाहते थे कि अनु सरकारी नौकरी करें। पॉलिटिकल साइंस से अनु ने ग्रैजुएशन किया। इसके बाद उनका रुझान कथक की तरफ और बढ़ गया। लेकिन इस बीच उन्हें एक सरकारी स्कूल में टीचर की जॉब मिल गई। अक्टूबर 2015 में अनु ने गरीब बच्चों को पहली बार कथक सिखाना शुरू किया। कुछ समय बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और इसे ही मिशन बना लिया।

अनु बताती हैं कि 30 दिन की वर्कशॉप के बाद बच्चों की जिंदगी बहुत बदल जाती है। मेडिटेशन, योग और कथक से उनके अंदर कॉन्फिडेंस लेवल बहुत ऊंचा हो जाता है। यही नहीं, बच्चों में लीडरशिप क्वॉलिटी भी पैदा हो जाती है। कथक के जरिए बच्चों में वह कॉन्फिडेंस आ जाता है कि वे स्टेज पर लोगों के सामने खुलकर बोलने लगते हैं।

ऐसे बदली दीपिका की जिंदगी

इसी साल मई में अनु एक एनजीओ के साथ बच्चों को कथक सिखाने असम गई थीं। बच्चों के ग्रुप में दीपिका नाम की लड़की थी। प्राइमरी स्कूल में पढ़नेवाली दीपिका कथक की शुरुआती क्लास में काफी नर्वस रहती थी। यहां तक कि वह किसी से बात भी नहीं करती थी। उसका बर्ताव दूसरे बच्चों से बिल्कुल अलग लड़ाई-झगड़ेवाला था। नतीजन दूसरे बच्चों ने उससे दूरी बनानी शुरू कर दी। कुछ दिन बाद वह बिना बताए क्लास से 4 दिन गायब रही। 4 दिन बाद जब वह क्लास में आई तो अनु उस पर नाराज हुईं, लेकिन बाद में उसे प्यार से समझाया। कुछ समय बाद दीपिका के बर्ताव में बदलाव आने लगा। वह न सिर्फ बच्चों से घुल-मिल गई, बल्कि वर्कशॉप में ऐक्टिव भी रहने लगी। 30 दिन की बाद जब वर्कशॉप खत्म हुई, तो अनु से लिपटकर सबसे ज्यादा दीपिका ही रोई थी। आखिरी दिन दीपिका के माता-पिता भी उसके साथ आए थे।

अनु बताती हैं कि वर्कशॉप के बाद बच्चों के बर्ताव में काफी बदलाव आ जाता है। जहां वे शुरू में शर्माते हैं, वहीं आखिर में उनके अंदर एक जिज्ञासा पैदा हो जाती है। असम में तो संडे को वर्कशॉप की छुट्टी होने के बावजूद बच्चे कथक सीखने आ जाते थे। अनु बताती हैं, 'बच्चों को सिखाने के साथ-साथ मेरे अंदर भी बदलाव आए हैं। अब मैं पहले से ज्यादा धीरज रखने लगी हूं, गुस्सा कम हो गया है और डर भी कम लगने लगा है।'

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संगीत से सुरीली बन रही हैं जिंदगी

शुभम श्रीवास्तव और दामिनी सहाय कॉलेज जानेवाली आम-सी लड़की दिखती हैं, लेकिन ये बेहद मच्योर सोचवाली लड़कियां हैं। जिस उम्र में युवा बेहतर पैकेज के सपने देखते हैं, ये उन लोगों की मदद में जुटी हैं जो जरूरतमंद हैं, लेकिन कहीं-से मदद नहीं मिलती। अपने 'द मूववेंट प्रॉजेक्ट' में ये ऑटिज़म और डाउंस सिंड्रोम के शिकार बच्चों से लेकर डिप्रेशन के शिकार लोगों तक की मदद करती हैं। ऑटिज़म और डाउंस सिंड्रोमवाले बच्चे मानसिक रूप से कुछ कमजोर होते हैं।

कॉन्फिडेंट है सफलता का मंत्र

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ की स्टूडेंट रहीं शुभम और दामिनी मूवमेंट में दुनिया देखती हैं। उनका मानना है कि मूवमेंट आपकी दुनिया बदल सकता है और अपनी मूवमेंट थेरपी के सहारे वे उन लोगों की दुनिया बदलने की कोशिश कर रही हैं जो कमजोर और लाचार हैं। यह लाचारी शारीरिक हो सकती है या फिर मानसिक। उनका फंडा बड़ा साफ है: तन और मन को खुला छोड़ दो, उन्हें रफ्तार दो, वे आपको जीना सिखा देंगे। वे आपको कॉन्फिडेंस देंगे ताकि आप खुद को व्यक्त कर सकें, खुद अपना सहारा बन सकें। वे इसके लिए म्यूजिक और डांस का सहारा लेती हैं, रंगों को चुनती हैं तो आसपास मौजूद किसी भी चीज में मूवमेंट ढूंढ लेती हैं। उनका मंत्र है कॉन्फिडेंस, जिसे वह वर्कशॉप में हिस्सा ले रहे लोगों के अंदर से निकालती हैं और फिर उसके जीवन का हिस्सा बना देती हैं।

ठहराव नहीं, रफ्तार का लें सहारा

शुभम और दामिनी के अंदर जीवन बदलने का यह नजरिया टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ में पढ़ाई के दौरान आया। वे कहती हैं, 'इंसानों के लिए गति जरूरी है। यह इंसान को इमोशन जताने के तमाम तरीके देती है, आपकी जागरूकता को बढ़ाती है, खुद पर भरोसा करना सिखाती और सोशल स्किल्स भी बेहतर बनाती है। यह तनाव दूर करती है और मूड सुधारती है। इससे एकाग्रता भी बढ़ती है। जाहिर है, इससे पूरी सेहत सुधरती है इसीलिए यह अहम है। हम लोगों को जिंदगी के ठहराव से निकालने में मदद करते हैं। ऑटिज़म के शिकार बच्चे हों या डिप्रेशन के शिकार बड़ी उम्र के लोग, वे खुद को एक्सप्रेस करना चाहते हैं। अगर वे अपने मन के भावों को निकाल लेते हैं और उन्हें इसके लिए सराहना भी मिलती है तो वे बेहतर महसूस करते हैं। इससे वे अपनी कमियों और कमजोरियों को दूर कर पाते हैं और उनकी सेहत सुधरती है। हमारी वर्कशॉप की कामयाबी का यही फंडा है।'

उनकी तकनीक खास है और सबसे जुदा भी। वे देश के अलग-अलग हिस्सों में वर्कशॉप कर चुकी हैं और 5 साल के बच्चे से लेकर 50 साल के लोग तक इनका हिस्सा रहे हैं। उनके जीवन का अनमोल पल वह था जब ऑटिज़म और डाउंस सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों के एक खास स्कूल में आठ दिन की वर्कशॉप के बाद एक ऑटिस्टिक बच्चे ने बोलना शुरू कर दिया था। बेशक, वे ऐसी और उपलब्धियां हासिल करते रहना चाहती हैं।

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113 साल की रतन के जतन को सलाम

113 साल की रतनदेई का भरा-पूरा परिवार है, फिर भी वह अपना ज्यादातर काम खुद करती हैं। वजह, उन्हें लगता है कि हाथ-पैर जितने चलते रहेंगे, सेहत उतनी बेहतर रहेगी। ऋषिकेश विधानसभा क्षेत्र में रानीपोखरी के भोगपुर गांव में अपने कुनबे के साथ रहनेवालीं रतनदेई अपनी लंबी उम्र का राज संतुलित जीवनशैली और सामान्य रहन-सहन को मानती हैं। उन्होंने 24 अप्रैल को अपने 85 साल के बेटे, 80 साल की बहू, चार पोते, उनकी पत्नियों और 10 पड़पोतों के साथ मिलकर धूमधाम से अपना 113वां जन्मदिन मनाया। खास बात यह कि उनके जन्मदिन को पूरे गांव ने उत्सव की तरह मनाया।

बिना चश्मा बीन लेती हैं चावल

रतनदेई के सबसे छोटे पोते प्रमोद कुमार तोमर कहते हैं, 'अम्मा की याददाश्त अब भी बहुत तेज है। वह आज भी अपना सब काम खुद ही करती हैं। मैंने कभी किसी को उन्हें सहारा देते नहीं देखा। हां, कमर जरूर झुक गई है, पर वह बिना लाठी के सहारे के खुद आसानी से सीढ़ियां भी चढ़ और उतर जाती हैं।' 113 साल की जिंदगी में कभी भी अस्पताल न जानेवालीं रतनदेई बिना चश्मे के ही चावल बीन लेती हैं और सब्जी भी काट लेती हैं। हां, सुनना जरूर कुछ कम हो गया है, लेकिन इतना कम भी नहीं कि हियरिंग-ऐड की जरूरत पड़े।

रतनदेई की उम्र और सेहत का राज बताते हुए परिवारवाले बताते हैं कि शुद्ध हवा-पानी और खानपान के अलावा अनुशासन भी अम्मा की सेहत का राज है। वह रात 9 बजे तक सो जाती हैं और सुबह 6 बजे बिस्तर छोड़ देती हैं। उठकर आंगन में घूमती हैं। थक जाने पर कुछ देर आराम करने के बाद वह नाश्ते में दो रोटी, सब्जी और दूध लेती हैं। दिन के खाने में थोड़े चावल-दाल लेती हैं तो रात के खाने में दो रोटी और सब्जी।

पुरानी कहानियों का पिटारा हैं अम्मा

वैसे, अम्मा की जिंदगी संघर्षों से भरी रही है। उनके पति बहुत कम उम्र में गुजर गए थे। खेती-बाड़ी के सहारे अकेले ही उन्होंने इकलौते बेटे की परवरिश की। रतनदेई मोतीलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक से मिल चुकी हैं। वह बताती हैं, 'जब मैं इंदिरा गांधी से मिली थीं तो इंदिरा करीब 10 साल की थीं।'

पुराने किस्से याद करते हुए आज भी उनकी आंखों में चमक आ जाती है। अगर कोई बात करने आ जाए तो आजादी के आंदोलन से लेकर अंग्रेजों के जुल्मों तक की कई कहानियां उनके पास होती हैं।

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आतंक के जाल में फंसने वालों की दास्तां

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पाकिस्तान कुछ कश्मीरी युवाओं को जिहाद के नाम पर भड़काता है, उन्हें आतंकी बनाता है और उनसे आर्मी पर पत्थर फिंकवाता है। इससे कुछ कश्मीरियों की छवि देश में खराब हो रही है। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है। कश्मीर घाटी में आतंकियों से लोहा ले रही टेरिटोरियल आर्मी में ऐसे जवान बड़ी संख्या में हैं, जो पहले कभी आतंकी रह चुके हैं। पूनम पाण्डे बता रही हैं ऐसे ही कश्मीरी जवानों की दास्तां, जो अपने और परिवार की जान जोखिम में डालकर अपने फर्ज को अंजाम दे रहे हैं:

हिजबुल मुजाहिदीन से फौज तक
मो. अखलाक (बदला हुआ नाम) 52 साल के हैं और जम्मू-कश्मीर की टेरिटोरियल आर्मी में बतौर सूबेदार तैनात हैं। वह पहले हिजबुल मुजाहिदीन के डिस्ट्रिक्ट कमांडर थे। आतंकवाद और कथित जिहाद की असलियत सामने आने पर उनका अलगाववाद से ऐसा मोहभंग हुआ कि उन्होंने फौज में शामिल होकर देश की सेवा करने का प्रण लिया।

आतंकवादी से सेना का सिपाही बनने तक की अखलाक की दास्तां खासी दिलचस्प है। उन्होंने बताया: 1989-90 में कश्मीर में ऐसा माहौल बना और अफवाहें फैलने लगीं कि हमें भी लगा कि यहां खतरा है और हमें हथियार उठाने चाहिए। तब मैं 19 साल का था। 173 लोगों की टीम के साथ एलओसी पार कर जेहाद के नाम पर मैं पाकिस्तान पहुंच गया। हम पीओके में 20 दिन रहे और फिर हमें रावलपिंडी भेज दिया गया। वहां से जलालाबाद गए, जहां कुछ ट्रेनिंग हुई और फिर काबुल। अफगानिस्तान में हमें पिस्टल से लेकर ऐंटी-एयरक्राफ्ट गन तक, मिसाइल दागने से लेकर आतंक फैलाने तक, यानी हर तरह की ट्रेनिंग दी गई। 6 महीने बाद हम ट्रेनिंग लेकर पीओके वापस आ गए। वहां आकर पाक आर्मी ने हमें तीन महीने की ट्रेनिंग दी। इस दौरान हममें से कइयों को लगने लगा था कि हमने सीमा पार कर बहुत बड़ी गलती कर दी है। हमें महसूस हुआ कि पाकिस्तान अपनी लड़ाई लड़ रहा है और हम कश्मीरियों का महज इस्तेमाल कर रहा है। जब हम वहां थे तो एक बार पाकिस्तानी अफसरों ने पूछा कि हममें से पढ़े-लिखे लोग कितने हैं? मैंने बताया कि मैं 12वीं पास हूं। उन्होंने टेंट की एक कॉलोनी बनाई, वहां औरतें लाई गईं, एक पूरा ड्रामा क्रिएट किया। हमें बोला गया कि अमेरिकन डेलिगेशन आ रहा है। उनके सामने रोना है और बताना है कि भारतीय फौज ने हमारे परिवार के लोगों को मार दिया है और हम पर बहुत ज्यादती हुई है।

यह सब बताते हुए अखलाक की आंखें लाल हो गईं। उन्होंने बताया कि उसी दिन हमारे दिल में यह घर कर गया कि अगर यह जिहाद है तो इसमें झूठ और शैतानी नहीं होनी चाहिए।


घर वापसी का इंतजार
इस ड्रामे के बाद अखलाक इंतजार में थे कि बस किसी तरह भारत आ जाएं। वह कहते हैं: वापस आकर मैं घर बैठ गया और मैंने आतंकवादियों का साथ छोड़ने का फैसला कर लिया। लेकिन उनका खौफ इतना ज्यादा था कि मेरे घरवालों ने मुझसे कह दिया कि मैं वापस उनके साथ चला जाऊं। मैं मरूं तो मरूं, पर पूरे परिवार की बलि नहीं चढ़नी चाहिए। ऐसे में मैंने आतंकवादियों के साथ रहते हुए वहीं अपनी टीम खड़ी करनी शुरू की। मैं हिजबुल मुजाहिदीन का पुलवामा-शोपियां का डिस्ट्रिक्ट कमांडर बन गया, लेकिन अंदर से मैंने उनकी जड़ें काटनी शुरू कर दीं। 1999 में मेरी पोल उनके सामने खुल गई और 35 लड़कों के साथ मैं वापस घर आ गया। हममें से कुछ ने फौज जॉइन की तो कुछ ने पुलिस। दरअसल टेरिटोलियल आर्मी में लोकल लोग ही होते हैं और आर्मी की कोशिश है कि भटके हुए इसके जरिए युवाओं को सही रास्ता दिखाया जाए। बहुत-से युवा आतंकवाद छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उन्हें अपनी जान का खतरा होता है। ऐसे में फौज उनका हाथ थामकर सिर्फ उन्हें सही रास्ते पर ही नहीं ला रही, बल्कि उनका पुनर्वास भी कर रही है। टेरिटोरियल आर्मी में ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं। ये आतंकवाद को खत्म करने और युवाओं को भटकने से रोकने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।

खतरों में फंसी है जान
आतंक की राह छोड़ फौज में शामिल हुए एक दूसरे जवान ने बताया कि मैंने 28 साल में 20 जगहें बदलीं। जहां भी रहता था, वहां आतंकियों के निशाने पर आ जाता था और इसलिए बार-बार डेरा बदलना पड़ा। गांव में मकान बनाया था, पर पिछली दिवाली पर आतंकियों ने मेरे घरवालों पर हमला कर दिया। फिर मैंने उन्हें श्रीनगर शिफ्ट कर दिया, लेकिन यहां पर भी टारगेट करने की कोशिश हुई तो अब मैंने उन्हें दूसरे राज्य में शिफ्ट कर दिया है। मैं आर्मी कैंप के अंदर ही रहता हूं। मेरे जैसे लोगों की जान को हर वक्त खतरा बना रहता है क्योंकि आतंकी किसी भी सूरत में यह बर्दाश्त करने को तैयार नहीं कि कोई उनका साथ छोड़कर मुल्क का साथ दे। हम जब बाहर निकलते हैं तो पहचान छिपाकर रखते हैं।

एक और फौजी बताते हैं कि आतंकवादी हमारे खिलाफ हैं। उन्होंने मेरे भाई और पिता को मार डाला। मामा को तो जिंदा जला दिया। जबसे हम आतंकवाद का साथ छोड़कर आए हैं, वे हमें गद्दार साबित करने पर तुले हैं। मेरा एक रिश्तेदार फौज के साथ काम करता था और उसने 17 आतंकवादी मारे। जब घर पर उसकी मौत हुई तो गांववाले जनाजे में भी नहीं आए। वह बताते हैं कि आतंकवादी तो हमारे दुश्मन हैं ही, गांव के लोग भी हमसे नफरत करते हैं। उनके मन में हमारे खिलाफ जहर घोला गया है। आतंकियों के डर की वजह से भी कोई हमसे संबंध नहीं रखना चाहता। कुछ लोगों को पाकिस्तान से पैसा आता है, वे हमारे खिलाफ नफरत को बढ़ावा देते हैं ताकि ऐसा माहौल बना सकें कि जो भी फौज के साथ है, वह गद्दार है। पाकिस्तान मारे गए आतंकवादी के घर पर हर ईद पर ईदी भेजता है, इससे लोगों को यह लगता है कि आतंकवादी बनकर मरना इज्जत की बात है। कट्टर मौलवी लोगों को भड़काते हैं और हमारा सोशल बायकॉट करने के लिए कहते हैं। 1999 में जब हम आतंकवादियों को मारते थे तो लोग हमारा माथा चूमते थे, लेकिन अब फिर से खौफ का माहौल बनाया जा रहा है और आतंकवादियों के डर से लोग सहमे हुए हैं। वे हमें अपनों से अलग-थलग कर रहे हैं। हालांकि बहुत-से लोग हम पर भरोसा भी करते हैं और छुपते-छुपाते हमें कई जानकारियां भी देते हैं। बेहतर माहौल के लिए हमें लोगों को इस डर से बाहर निकालना होगा।

क्या है आतंक का फॉर्म्युला
किसी वक्त आतंकी बनने की ट्रेनिंग लेने वाले और अब देश के नाम पर जान देने को तैयार ये तमाम फौजी कहते हैं कि आतंकियों का फॉर्म्युला है कि खौफ पैदा करो और झूठ फैलाओ। इसके बूते ही वे लोगों को गुमराह करते हैं, उनकी भावनाओं को उभारते हैं और गलत राह पर ले जाते हैं। वह कहते हैं कि अब तो झूठ फैलाने कि लिए सोशल मीडिया भी है। कश्मीर में लोग हर उस बात पर भरोसा कर लेते हैं जो सोशल मीडिया पर आती है। आतंकी उसका फायदा उठा रहे हैं। पाकिस्तान से झूठा मेसेज तैयार होता है, जिसे वायरल किया जाता है। आतंकी हर 6 महीने में अपना पूरा सिस्टम भी बदल देते हैं इसलिए उनसे लड़ना आसान नहीं है।



पहले यह हकीकत जान लें
हिजबुल के डिस्ट्रिक्ट कमांडर रहे और अब फौज में शामिल एक जवान कहते हैं कि जैसे मैं अंधों की तरह पाकिस्तान चला गया था, उसी तरह आज के युवा भी आतंकवादियों के बहकावे में आ रहे हैं। कुरान के गलत मायने बताकर लड़कों के दिमाग में जहर डाला जा रहा है। वह कहते हैं कि आतंक की राह पर जा रहे युवाओं को यह समझना होगा कि पाकिस्तान का खेल क्या है? जो लोग पाकिस्तान के कहने पर बंदूक उठा रहे हैं, वे एक बार रावलपिंडी में, हैदरपुरा में जाकर देखें कि अवाम वहां किस तरह बुरे हालात में रह रही है और भड़काने वाले कैसे ऐश की जिंदगी काट रहे हैं। एक दूसरे फौजी कहते हैं कि जब हमने आतंकवाद का साथ देकर कुछ हासिल नहीं किया तो जो लोग अब जा रहे हैं, वे भी कुछ नहीं पाएंगे। जिस दिन कश्मीरियों को असलियत समझ आ जाएगी, वे आतंकियों का वह हाल करेंगे, जो 1947 में अंग्रेजों का किया था।

इंडियन आर्मी की जम्मू-कश्मीर लाइट इंफेंट्री (जैकलाइ) में इस समय 50 फीसदी हिंदू हैं और 50 फीसदी मुस्लिम। हालांकि यहां किसी में भी इस तरह का भेद करना आसान नहीं है और न ही वे किसी को अलग मानते हैं। कश्मीर में जैकलाइ के रेजिमेंटल सेंटर में मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा आसपास बने हुए हैं और इन तीनों धर्मस्थलों के बीच बना है सर्वधर्म समभाव स्थल। जहां एक बड़े से हॉल में मंदिर,मस्जिद, गुरुद्वारा एक साथ है। सारे कार्यक्रम, सारे त्योहार इसी हॉल में मनाए जाते हैं।

यहां जवान बताते हैं कि हम एक साथ ईद मनाते हैं और होली भी। रमजान के दौरान हिंदू अधिकारी भी रोजा रखते हैं और नमाज पढ़ते हैं। कोई यह नहीं बता सकता कि कौन क्या धर्म मानता है। एक जवान ने कहा कि फौज में आने से पहले मुझे अपने धर्म के बारे में ही मालूम था, लेकिन यहां आकर मैं सभी धर्मों के बारे में जान गया। इसलिए सभी धर्म मेरे लिए बराबर और सम्मानीय हैं। वह कहते हैं कि बच्चों को भी स्कूल में असेंबली के दौरान सभी धर्मों के बारे में बताना चाहिए जिससे वे भी सभी धर्मों को समझें और भेदभाव जैसा कोई भी विचार उनके दिमाग में न आए। एक जवान ने कहा कि जब लोग फौज में धर्म ढूंढने लगते हैं तो हमारे दिल को ठेस पहुंचती है। हम मिलकर नहीं रहेंगे तो अपना काम कैसे पूरा करेंगे?

आपकी नजर में देशभक्ति क्या है? यह सवाल पूछने पर एक जवान ने कहा कि अपना काम सही से करना ही देशभक्ति है। अगर कोई जाति-धर्म की आड़ में नफरत फैला रहा है तो देशभक्त हो ही नहीं सकता। वह कहते हैं कि मेरा काम देश की रक्षा करना है और अगर मैं वह अच्छे से कर रहा हूं तो मैं देशभक्त हूं।

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1 घर, 16 गुलेरिया

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नई दिल्ली
इंसानों की दोस्ती की दास्तां तो खूब सुनी होंगी लेकिन जानवरों की आपसी दोस्ती के, साझेदारी के किस्से भी कम नहीं हैं। ऐसा ही है दिल्ली का गुलेरिया परिवार, जहां इंसानों का जानवरों से प्यार तो है ही, जानवरों का आपसी प्यार भी बेमिसाल है। इसी परिवार से आपको मिलवा रही हैं प्रियंका सिंह...

अनादिका गुलेरिया, अनहर गुलेरिया, प्रिंस गुलेरिया, एंजल गुलेरिया, वाताबोरू गुलेरिया, कोको गुलेरिया, कपकेक गुलेरिया, बाहुबली गुलेरिया, मंडे गुलेरिया, ट्यूज़डे गुलेरिया, वेंसडे गुलेरिया, थर्सडे गुलेरिया, मैडम रूसी गुलेरिया, क्राउन गुलेरिया... इन सभी बच्चों के ममा-पापा का नाम है क्रांति गुलेरिया और दिनेश गुलेरिया। खासियत यह है कि ये बच्चे अलग-अलग नस्ल के हैं। अनादिका और अनहर जहां दिनेश और क्रांति के बेटी-बेटा हैं, वहीं बाकी सब इनके पालतू डॉग, बिल्ली, खरगोश और तोते के नाम हैं लेकिन ये कहने के लिए ही जानवर हैं। जी हां, गुलेरिया साहब के परिवार में कुल 16 सदस्य हैं। चार इंसान और 12 पशु-पक्षी। ये पशु-पक्षी भी इस परिवार के अभिन्न अंग हैं। यही वजह है कि इनके घर के बेटे-बेटी की तरह की परिवार का सरनेम भी दिया गया है। एक और खासियत यह है कि एक ही घर में ये सभी बड़े प्यार और आराम से रहते हैं। न डॉग बिल्ली पर हमला करते हैं, न बिल्ली खरगोश या तोते पर। अलग-अलग नस्ल के ये जीव प्रेम और दोस्ती की अलग ही मिसाल कायम कर रहे हैं। यहां तक कि कई बार ये सभी जानवर एक ही प्लेट में खाना भी खाते हैं।

दिल्ली के रोहिणी इलाके में रहनेवाले गुलेरिया परिवार को शुरू से ही जानवरों से लगाव रहा है। परेशान या बीमार जानवरों को घर का हिस्सा बनाने की शुरुआत की क्रांति गुलेरिया ने। उनकी बेटी अनादिका करीब 2 साल की थीं, तब पहली बार वह एक डॉग घर लेकर आईं। इसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा। उन्होंने उन डॉग्स को भी अपने घर का हिस्सा बनाया, जो इतने बीमार थे कि अस्पताल वालों ने भी उनका इलाज करने से इनकार कर दिया। दरअसल, फ्राइडे और शुकु-फुकू नाम के डॉग्स को डिस्टेंपर नामक बीमारी हो गई थी। इस बीमारी को इतना घातक और संक्रामक माना जाता है कि कोई अस्पताल भी इलाज करने के लिए तैयार नहीं हुआ। लेकिन गुलेरिया परिवार ने हिम्मत नहीं हारी। उसी दौरान मां और बेटी को जरूरी काम से शहर से बाहर जाना पड़ा तो बेटे ने स्कूल से छुट्टी लेकर फ्राइडे और शुकू-फुकू की देखभाल की। प्यार और देखभाल का नतीजा यह हुआ कि दोनों डॉगी ठीक हो गए। हालांकि बाद में शुकू-फुकू की दूसरी बीमारी से जान चली गई।

मां ने सिखाया प्यार से रहना
वैसे, इन सभी को एक साथ एक प्लेट में खाते देखकर किसी के भी मन में सवाल आता है कि आखिर अलग-अलग नस्ल के जीव एक साथ कैसे रहते हैं? इसका जवाब क्रांति बहुत ही संजीदगी के साथ देती हैं, 'ये सब प्यार से एक साथ रहते हैं क्योंकि इनकी मां (क्रांति) एक है। मां ने ही अपने बच्चों को प्यार से साथ रहना सिखाया है।' अनादिका कहती हैं कि यह सोचनेवाली बात है कि ये जानवर होकर भी एक-दूसरे के लिए सहनशीलता रखते हैं और दूसरे को जैसा है, वैसा ही स्वीकार करते हैं लेकिन हम इंसान होकर भी दूसरे इंसान को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। यह शर्मनाक है।

गुलेरिया परिवार इंसान से जानवर की दोस्ती की तो मिसाल है ही, जानवरों की आपसी दोस्ती की भी अनूठी दास्तां है। दोस्ती का आलम यह है कि जहां कोई भी डॉगी या कैट ज्यादातर रात में परिवार के साथ बेड पर ही सोते हैं, वहीं बिल्ला प्रिंस मानो भूल गया है कि वह कैट है और कई बार वह साथी डॉगियों के लिए सर्व की गई पेडिग्री को खा लेता है तो डॉग्स भी उसकी प्लेट में रखे फिश बिस्किट खाने में गुरेज नहीं करते। इन्हें आपस में इतना प्यार है कि अगर एक जीव दुखी या बीमार होता है तो बाकी सबके चेहरे उदास हो जाते हैं। जिस तरह इनकी दोस्ती अनूठी है, वैसे ही इनमें से कई के नाम भी अनोखे हैं। वाताबोरू और शुकु-फुकू, दोनों जापानी शब्द हैं। वाताबोरू का मतलब है रुई का गोला, वहीं शुकु-फुकू का मतलब है खुशी की प्रार्थना।

बड़े-बुजुर्ग का रुतबा
पहले इस परिवार में सिकंदर और पोरस नाम के दो मुर्गे भी थे, जिनका पिछले साल देहांत हो गया। आपसी जुगलबंदी और समझ ऐसी कि जब मुर्गों की पूंछ बहुत लंबी हो जाती थीं, तो खरगोश पूंछ कुतर कर हेयर ड्रेसर का रोल निभाते थे। हालांकि ऐसा नहीं है कि ये आपस में झगड़ा नहीं करते। कभी-कभी मिलकर छोटे डॉग्स को शैतानी सूझती है तो वे मिलकर प्रिंस यानी बिल्ले पर डराने की कोशिश भी करते हैं। इस पर प्रिंस पंजा मारकर उन्हें धीरे से उनकी हद समझा देता है। ऐसा इसलिए है कि प्रिंस इनके बुजुर्ग हैं। उनकी उम्र करीब 14 साल है। पहले प्रिंस काफी चुलबुले थे लेकिन जब घर में कई डॉगी आ गए तो उन्होंने एक तरह से 'डू नॉट डिस्टर्ब' का रुख अख्तियार कर लिया यानी कोई आकर उन्हें परेशान करेगा तो वह उसकी हद समझा देंगे।

डिजाइनर बन गए डॉगी!
वैसे, ये कभी-कभी नुकसान भी करते हैं। जैसे कि एक बार मेहमानों के आने पर इन्हें कमरे में बंद कर दिया तो गुस्से में इन्होंने दरवाजे के पीछे टंगी जींस को खींचकर कुतर डाला। हालांकि क्रांति ने इस पर मज़ाक में कहा कि दिनेश, आपको रिप्ड जींस खरीदने की जरूरत नहीं है। आपका काम आपके बच्चों ने कर दिया है। क्रांति की यह बात सुनकर दिनेश मुस्कुराए बिना न रह सके।

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कौओं से दोस्ती के 46 बरस

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नई दिल्ली
अगर सबसे ज्यादा किसी पक्षी को नापसंद किया जाता है तो वह है कौआ, लेकिन दिल्ली के 73 साल के नवीन खन्ना का कौओं से अलग ही नाता है। यह नाता है दोस्ती का और दोस्ती भी कोई नई-नवेली नहीं, बल्कि इसे करीब 50 बरस होने को हैं। इस सच्ची दोस्ती की दास्तां आपसे साझा कर रहे हैं मुकुल...

दिल्ली के विकासपुरी इलाके में एक घर की मुंडेर पर सुबह-सुबह दसियों कौए जमा हो जाते हैं। वैसे, ये खुद यहां जमा नहीं होते। घर के मालिक और कौओं के दोस्त नवीन इन्हें आवाज लगाकर यहां बुलाते हैं। नवीन इन्हें खाना खिलाते हैं। इनसे बतियाते हैं। यहां तक कि उनके साथ ताश भी खेलते हैं। यह सिलसिला बरसों से यों ही चल रहा है। घर के अलावा नवीन से मिलने पास ही मौजूद पार्क में भी बड़ी संख्या में कौए उतर आते हैं। कौओं के साथ नवीन की दोस्ती की वजह से उन्हें 'क्रो-मैन' भी कहा जाता है। उन्होंने कौओं पर काफी रिसर्च की है और इसे एक किताब का रूप दिया है।

सबके नाम हैं यूनीक
अपने इन खास दोस्तों को नवीन ने अलग-अलग नाम दिए हुए हैं। जिस कौए के साथ वे ताश खेलते हैं, उसका नाम है भगत जी। भगत जी नवीन के जरा खास हैं। वह बताते हैं, 'भगत जी के आने के बाद मैंने कौओं के बारे में नई किताब लिखना छोड़ दिया क्योंकि मैंने जो कुछ लिखा, उनमें से बहुत-सी बातें भगत जी पर फिट नहीं बैठतीं। जैसे कि कौए ताउम्र एक ही मादा के साथ रहते हैं जबकि भगत जी पहले 'भोली' के साथ आते थे, लेकिन अब 'रजिया' के साथ आते हैं।' भगत जी अपनी चोंच से ताश के पत्ते पकड़ कर नवीन को देते हैं। इसी तरह एक कुंवारे कौए का नाम झुमरू है। नवीन के लिए कुंवारे कौए वे हैं, जो मादा अपने साथ नहीं लाते। जो कौए अब इस दुनिया में नहीं रहे, उनके नाम पर भी वे दूसरे नए कौओं का नाम रखते हैं। नवीन के एक दोस्त का नाम वाइट हाउस है तो एक का नाम जयपुर लेग, क्योंकि उसकी एक टांग में कुछ परेशानी है।

पहला खाना कौओं को
आपने सुना होगा कि पहली रोटी गाय की, लेकिन यहां हिसाब कुछ अलग है। घर में सबसे पहले खाना कौओं के लिए तैयार किया जाता है। उनके बाद ही सब खाते हैं। नवीन बताते हैं कि कौओं को खाने में बूंदी (छोटी पकोड़ी), पनीर, देसी घी लगी हुई थोड़ी कच्ची रोटी पसंद है। नवीन जी सुबह 8-9 बजे बालकनी में अपने दोस्तों को ‘कौए-कौए’ की आवाज लगाकर बुलाते हैं। हालांकि इधर उनके घर आने वाले कौए कम हो गए हैं। दो साल पहले उनके पास 40-50 कौए रोज आते थे। 2016 में वह सिंगापुर में अपने बेटे के पास 4-5 महीने रहे। उसके बाद जब वे वापस भारत आए तो घर आने वाले कौओं की तादाद 10-12 रह गई। यह भी सच है कि दिल्ली जैसे महानगर में कौओं की तादाद भी लगातार कम हो रही है। घर के कौओं को खिलाने के बाद वह पार्क के कौओं से मिलने जाते हैं। पार्क में दूर से ही इन्हें देखकर इनके दोस्त आना शुरू हो जाते हैं। नवीन रोटी का टुकड़ा उछालने से पहले उन्हें उड़ने का इशारा करते हैं और कौए उड़कर हवा में अपना टुकड़ा पकड़ लेते हैं। इस दौरान वह एक गाना भी गुनगुनाते हैं। पार्क में लोग कौओं के साथ उनकी दोस्ती देखकर विडियो बनाना शुरू कर देते हैं।

पत्नी भी देती हैं पूरा साथ
अकेले नवीन को इस दोस्ती का श्रेय देना गलत होगा। इस दोस्ती को निभाने में उनकी पत्नी सुनीला भी पूरा साथ देती हैं। कौओं का खाना सुनीला ही तैयार करती हैं। सुनीला ध्यान रखती हैं कि पार्क के कौए भी इंतजार कर रहे होंगे और उन्हें खाना देने तक ज्यादा धूप न हो जाए। ऐसे में वह उन कौओं का खाना नवीन को देकर जल्द ही पार्क भेज देती हैं। नवीन ने अपनी किताब ‘कौओं के साथ दोस्ती के 45 वर्ष’ पत्नी सुनीला को ही समर्पित की है। वह इसका कारण बताते हैं कि सुनीला रोजाना मन से पंखों वाले मेरे इन दोस्तों की सेवा करती हैं।

दोस्ती का जोश आज भी है बरकरार
साल 2011 में नवीन को मुंह का कैंसर हुआ, लेकिन बीमारी को कभी उन्होंने दोस्ती के आड़े नहीं आने दिया। अब भी हर सुबह वह उतनी ही गर्मजोशी से अपने दोस्तों से मिलते हैं, जिस तरह दशकों पहले मिलते थे। कौओं के साथ दोस्ती के लिए नवीन इतना मशहूर हुए कि 1995 में उनका नाम 'लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स' में दर्ज हो गया। अपने इन फ्रेंड्स के बीच रहकर वह अपनी बीमारी भूल चुके हैं। बहरहाल, यह तो तय है कि इंसान और पक्षियों की ऐसी अनूठी दोस्ती कम ही देखने को मिलती है।

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पाकीज़ा दोस्ती

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नई दिल्ली
इमरान खान पाकिस्तान के नए वजीर-ए-आज़म बनने वाले हैं। पाकिस्तान में उनके चाहने वाले लाखों हैं तो हिंदुस्तान में भी उनके मुरीदों की कमी नहीं। यहां भी इमरान के दोस्तों की अच्छी-खासी फेहरिस्त है। फ्रेंडशिप डे के मौके पर इमरान के चंद हिंदुस्तानी दोस्तों से आपको रूबरू करा रहे हैं नरेश तनेजा...

बढ़िया करेंगे देश की कप्तानी भी: कपिल
इंडियन क्रिकेट के दिग्गज कपिल देव उर्फ कपिल पा जी इमरान खान के करीबी इंडियन दोस्तों में से हैं। कपिल इमरान को फील्ड के अंदर और बाहर, दोनों जगह अच्छा इंसान मानते हैं। वह कहते हैं, 'इस दुनिया में आप किसी भी इंसान को उसके कैरक्टर के आधार पर ही अच्छा या बुरा कह सकते हैं। इमरान का भी एक खास तरह का कैरक्टर है। वह अपनी बात के पक्के हैं। इधर की बात उधर करना उनके स्वभाव में नहीं है। चाहे वह राजनीति में आ गए हैं, लेकिन मैं नहीं मानता कि वह दूसरे राजनेताओं की तरह हैं। वह काफी खुले दिल के शख्स हैं।'

कामयाब होंगे इमरान
कपिल कहते हैं कि राजनीति में आने के बाद से इमरान क्रिकेट के अवसरों पर ज्यादा नहीं जाते लेकिन जब भी किसी मौके पर मुलाकात होती है तो मैं उनकी तारीफ जरूर करता हूं कि उन्होंने नई दिशा में कदम बढ़ाया है। खासकर पाकिस्तान जैसे देश में, जहां यह सब इतना आसान नहीं है। वैसे, क्रिकेट खेलने के दौरान हम खूब मिलते थे। बाद में भी जब-जब वह भारत आते तो मुलाकातें होती रहीं। हालांकि मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं उनका बहुत गहरा दोस्त हूं। हां, यह जरूर कहूंगा कि मैं इमरान को अच्छी तरह जानता हूं। क्रिकेट छोड़ राजनीति में गए हुए इमरान को 20-22 साल हो गए हैं। ऐसे में रेग्युलर न सही, पर कभी लंदन, कभी दुबई या फिर किसी वर्ल्ड कप के दौरान मुलाकातें होती रहीं। मैं हमेशा उन्हें शुभकामना देता था कि वह जो कर रहे हैं, वह अच्छा है और इंशाअल्लाह वह उसमें कामयाब हों।
यह पूछने पर कि एक तरफ आप भारत के फास्ट बोलर और दूसरी तरफ इमरान पाकिस्तान के फास्ट बोलर, फिर आपस में दोस्ती कैसे मुमकिन हुई? हंसते हुए कपिल ने कहा, 'वह तो बहुत पुरानी बात हो गई। दोनों ने अपने देश के लिए अच्छी तरह खेला और एक-दूसरे के काम को सराहा। बस, इतना ही काफी है।' कपिल इमरान को एक उम्दा बोलर और एक बहुत बढ़िया कप्तान मानते थे क्योंकि पाकिस्तानी टीम का कप्तान होना आसान बात नहीं था। ठीक इसी तरह पाकिस्तान को एक नेता के रूप में हैंडल करना भी काफी मुश्किल है।

कुछ और कॉमन कनेक्शन
कपिल कहते हैं, 'यह याद करके अच्छा लगता है कि जब भी कभी इमरान मुझसे, मदनलाल या सिद्धू से बात करते थे तो ठेठ पंजाबी में बात करते थे क्योंकि हम सभी पंजाबी हैं, इमरान भी। इस तरह आपस में एक पंजाबी कनेक्शन जुड़ गया था।' कहा जा रहा है इमरान ने अपने पद की शपथ ग्रहण कार्यक्रम के लिए भारत में से जिन लोगों को न्योता भेजा है, उनमें आपका नाम भी है, यह पूछने पर कपिल कहते हैं कि अभी तक तो मेरे पास लिखित में ऐसा कोई बुलावा आया नहीं है। अगर उन्होंने भेजा है तो उनकी मेहरबानी। हालांकि बधाई तो मैं उन्हें बहुत अच्छे-से दे चुका हूं। न्योता आया और वीज़ा मिल गया तो शपथ ग्रहण समारोह में जाऊंगा।
पाकिस्तान में एक क्रिकेटर के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने से कपिल बहुत खुश हैं। कहते हैं कि एक खिलाड़ी का अपने फील्ड के अलावा दूसरे फील्ड में जाकर नाम कमाना और आगे बढ़ना वाकई बहुत अच्छा लगता है। हमारे यहां भी ऐसे ही नवजोत सिंह सिद्धू आदि खेल से राजनीति में जाकर अच्छा काम कर रहे हैं। कपिल को कोई शक नहीं कि क्रिकेट का अच्छा कप्तान देश की कप्तानी भी अच्छी तरह कर पाएगा। वह मानते हैं कि इमरान का पीएम बनना दोनों देशों के रिश्तों में मील का पत्थर साबित हो सकता है। चूंकि इमरान समझदार और काबिल हैं तो उम्मीद है कि अपने देश के साथ-साथ पड़ोसियों के बारे में भी वह अच्छा ही सोचेंगे।


जीतना जानते हैं इमरान: मदनलाल
मदनलाल की इमरान खान से पहली मुलाकात तब हुई, जब भारत की टीम ऑक्सफर्ड में काउंटी मैच खेलने गई थी। इमरान तब ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे और यूनिवर्सिटी की तरफ से खेलने आए थे। उसके बाद मदनलाल क्रिकेट टूर पर पाकिस्तान गए तो फिर मुलाकात हुई। इस तरह सिलसिला बढ़ता गया। बाद में इमरान ने जब कैंसर हॉस्पिटल खोला तो उसके लिए फंड जमा करने के मकसद से चैरिटी मैच में मदनलाल खेले। फिर तो हॉन्गकॉन्ग ऑलराउंडर चैंपियनशिप, शारजाह और इंडिया हर जगह मुलाकातें होती रहीं। फोन पर भी बातें होती थीं। मदनलाल कहते हैं कि मैंने उनके लिए चैरिटी मैच खेले तो वह भी पूछते रहते थे कि कोई जरूरत हो तो बताओ।

कुछ अच्छा करने की उम्मीद
मदनलाल की निगाह में इमरान एक शालीन शख्स हैं। जिसने कैंसर रोगियों के मुफ्त इलाज के लिए हॉस्पिटल बनवाया हो, वह अच्छा इंसान तो होगा ही! मदन की नजर में इमरान न तो गुस्से वाले हैं, न ही अकड़ू। हां, वह कोई बात मन में नहीं रखते। जो कहना है, कह देते हैं। दरअसल, मदनलाल अमृतसर के हैं और इमरान लाहौर के। दोनों जगहों के बीच ज्यादा फासला नहीं है। न जमीनी दूरी का, न कल्चर का। बिजी शेड्यूल होने की वजह से अब तो दोनों के बीच काफी समय से बात नहीं हुई। लेकिन पीएम चुने जाने पर मदनलाल ने टीवी चैनलों के जरिए बधाई जरूर दे दी। मदनलाल भी इमरान को अच्छा कप्तान मानते हैं, जो जानता है कि जीतना कैसे है। कप्तान वही होता है, जो लीड कर सके और सही फैसले ले सके। इमरान क्रिकेट के तो सफल कप्तान रहे, लेकिन राजनीति के सफल कप्तान हो पाएंगे कि नहीं, इस पर मदनलाल श्योर नहीं हैं क्योंकि दोनों अलग-अलग चीजें हैं। हालांकि उनकी सोच पॉजिटिव है इसलिए उम्मीद है कि कुछ अच्छा कर पाएंगे।


आस है अमन की: बुखारी
दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी से भी इमरान से अच्छे ताल्लुकात हैं। कुछ बरस पहले इमरान जब भारत आए तो जामा मस्जिद में नमाज अता करने गए थे। उस वक्त बुखारी से भी मुलाकात हुई थी। इमरान के पीएम बनने का स्वागत करते हुए बुखारी कहते हैं कि उस वक्त वह हमारे पास तकरीबन दो-तीन घंटे रुके थे। उनसे सियासत समेत बहुत सारे विषयों पर बातचीत हुई थी। मौलाना इमरान को एक बहुत ही सुलझा हुआ, खुशमिजाज और विनम्र शख्स मानते हैं। कहते हैं कि उनके साथ दोस्ताना ताल्लुकात रहे हैं और रहेंगे।

चाय वाला पीएम बन सकता है तो क्रिकेटर क्यों नहीं
मौलाना बुखारी को उम्मीद है कि अपनी 22 साल की सियासी जद्दोजहद के बाद अब वह पीएम चुने गए हैं तो जैसे क्रिकेट के मैदान पर उन्होंने सिक्का जमाया, वैसे ही अमन के मैदान पर भी नतीजे देंगे। क्या एक क्रिकेटर सफल पीएम हो सकता है, इस पर बुखारी कहते हैं कि जब एक चाय वाला प्राइम मिनिस्टर हो सकता है तो एक क्रिकेटर क्यों नहीं? वैसे भी पिछले 22 साल में तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए इमरान को राजनीति का काफी तजुर्बा हो गया है। बुखारी कहते हैं, 'मुझे खुशी है कि हमारे पड़ोस में जम्हूरी अंदाज़ में सियासत की अदला-बदली हुई है, जिसका फायदा उठाकर इमरान दोनों देशों के बीच अमन कायम करने की कोशिश कर पाएंगे।'

संतुलित व्यक्तित्व के मालिक: लोकेश
इमरान के एक और दोस्त हैं लोकेश शर्मा। कभी पत्रकार रहे और अब स्पोर्ट्स मैनेजमेंट से जुड़े लोकेश की इमरान से पहचान 1983 में तब हुई, जब वह आनंद बाज़ार पत्रिका से जुड़े थे। क्रिकेट के सिलसिले में मुलाकात होती थी। सिलसिला बढ़ता गया और कामकाजी मुलाकातें दोस्ताना ताल्लुकात में तब्दील होती गईं। बाद में जब लोकेश ने एक बड़े खिलाड़ी के साथ मिलकर फीचर सर्विस शुरू की तो इमरान उसके लिए लिखते भी थे। पिछले साल तो इमरान लोकेश की पत्नी के दिल्ली के लोदी गार्डन स्थित रेस्तरां भी आए, जहां उन्होंने मेहमाननवाज़ी का लुत्फ उठाया।

खूब चलती है पाकिस्तानी क्रिकेट में
एक घटना याद करते हुए लोकेश बताते हैं, 'इमरान की पाकिस्तानी क्रिकेट में कितनी चलती थी, इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं। विल्स सुपर कप फाइनल के दौरान हम लोग लाहौर में इमरान के घर में बैठे थे तो उन्होंने कहा कि वकार यूनुस नाम का लड़का आजकल अच्छी गेंदबाज़ी कर रहा है। क्यों न उसको पाकिस्तानी टीम में ले लिया जाए। बस, इतना कहना था और वकार यूनुस की टीम में एंट्री हो गई।' वैसे, लोकेश शपथ ग्रहण पर पाकिस्तान नहीं जाएंगे, पर बातचीत अक्सर होती रहती है। लोकेश की नज़र में इमरान न ज्यादा नरम हैं, न ज्यादा तल्ख लेकिन इरादे के पक्के हैं। वह कहते हैं, 'मुझे नहीं पता कि इमरान के पीएम बनने से भारत-पाक रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा। कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा। यह तो विदेश नीति का कोई एक्सपर्ट ही बता सकता है।'


मददगार रहा, पर दोस्त का दर्जा न मिला: दलेर
इमरान के हिंदुस्तानी दोस्तों की लिस्ट में एक ऐसा नाम भी है, जिसने अपनी तरफ से दोस्ती का फर्ज अता किया लेकिन यह नहीं कह सकता कि इमरान उसे दोस्त मानते हैं या नहीं! पंजाबी सिंगर दलेर मेहंदी के सामने जब इमरान का जिक्र छेड़ा तो वह पुरानी यादों में खो गए। उन्होंने बताया कि जब इमरान खान ने शौकत खान कैंसर ट्रस्ट बनाया तो उस वक्त दोनों देशों के रिश्ते बहुत खराब थे। भारत से इमरान का कोई भी दोस्त पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं था। ऐसे में एक दिन इमरान का फोन आया और उन्होंने कहा कि मैं पाकिस्तान में कैंसर रोगियों के इलाज के लिए एक अस्पताल बनाना चाहता हूं। इसके लिए मुझे पैसे की जरूरत है। क्या आप यहां आकर प्रोग्राम कर सकते हैं जिससे फंड इकट्ठा किया जा सके? मैंने अच्छा मकसद देखते हुए सहमति दे दी। कैंसर मरीजों के नाम पर मदद करके मैंने अपना फर्ज निभाया।

किए कई स्पेशल शो
अपने शो के जरिए लाहौर और कराची से 3-3 करोड़, दुबई से 5 करोड़ और लंदन से 7 करोड़ रुपये इकट्ठा करके इमरान की मदद की। 2004 में फिर इमरान का मदद के लिए फिर फोन आया। दलेर फिर गए। लेकिन अफसोस इमरान इस दोस्ताना जज़्बे का जवाब उसी रवायत से न दे सके। अपना दुख बयां करते हुए दलेर कहते हैं कि मुझे तो लोग जरूरत के वक्त बुलाते हैं, फिर भूल जाते हैं। दोस्ती होती तो प्रधानमंत्री बनने के मौके पर इमरान क्या मुझे नहीं बुलाते? दलेर को इस बात का मलाल है कि जब इमरान के करीबी दोस्त खुलकर मदद की हिम्मत नहीं जुटा पाए, उन्होंने दोस्त न होकर भी दोस्ती का फर्ज निभाया, पर इमरान उन्हें दोस्त का दर्जा नहीं दे पाए। हालांकि अब भी दलेर दलेरी दिखाने में नहीं चूके। अपने पाकिस्तानी दोस्तों के जरिए दलेर ने इमरान को प्रधानमंत्री बनने की मुबारकबाद भेज दी है।

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देसी कबड्डी पर विदेशी कब्जा!

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भारतीय पुरुष कबड्डी टीम की इंडोनेशिया में चल रहे एशियन गेम्स में ईरान से हार के बाद सबके मन में पहला विचार यही आया कि एक गोल्ड हमारे हाथ से चला गया। लेकिन मामला एक गोल्ड के हाथ से फिसलने भर का नहीं है। मसला कबड्डी में हमारी बादशाहत के लिए पैदा हुए खतरे का है। जिस खेल में हम अजेय रहे हैं, आखिर क्यों उसमें शिकस्त हमारे हाथ लगी है। कबड्डी में हार की वजहों का जायजा ले रहे हैं भविन पंडया...

माटी के खेल रहे कबड्डी का हमारा अजेय किला दरक रहा है। इसकी वजह भी साफ है। अब कबड्डी वह देसी खेल नहीं रहा, जो हम मिट्टी में खेलते हैं। यह अब ग्लोबल खेल बन गया है, जो भारतीय उपमहाद्वीप से निकलकर दुनियाभर में जगह बना रहा है। अब इस खेल में प्रफेशनल्स हैं। प्रो-कबड्डी जैसी बड़ी प्रफेशनल लीग हो रही हैं। अब वक्त आ गया है कि हम यह मानना छोड़ दें कि यह तो हमारे गांव-गांव में खेला जाने वाला खेल है, इसलिए कोई भी हमारे सामने नहीं टिक सकेगा।

1990 से भारत का है दबदबा
कबड्डी हमारे देश का सबसे पुराना खेल है। इसकी शुरुआत कब हुई, यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह तय है कि काफी पुराना खेल है। माना जाता है कि कबड्डी का जन्म तमिलनाडु में हुआ। कबड्डी शब्द तमिल काई-पीडि (चलो हाथ पकड़ते हैं) से बना है। पंजाब, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में इसे राज्य खेल का दर्जा हासिल है। हमारे देश की मिट्टी से जुड़े इस खेल के करीब 5000 रजिस्टर्ड क्लब हैं। हमारे पड़ोसी देशों बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी कबड्डी के अनगिनत दीवाने हैं। कबड्डी का आधुनिक स्वरूप महाराष्ट्र की देन है। 1921 में कबड्डी के नियम महाराष्ट्र में बनाए गए। दो साल बाद इन नियमों में एक कमिटी द्वारा बदलाव किए गए जिनको अमल में लाया गया ऑल इंडिया कबड्डी टूर्नामेंट के दौरान, जो 1923 में आयोजित हुआ। हिंदुस्तान की कबड्डी की टीम दुनिया की बेताज बादशाह है।

अंतरराष्ट्रीय पहचान से बनी बात
‌भारत की मिट्टी से उपजी कबड्डी के नैशनल फेडरेशन की स्थापना वैसे तो 1950 में ही हो गई थी, लेकिन इस खेल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता दिलाने के प्रयास ऐमेचर कबड्डी फेडरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना के साथ शुरू हुए। इस फेडरेशन के प्रयासों के कारण ही 1982 में नई दिल्ली में हुए नौवें एशियाई खेलों में कबड्डी को प्रदर्शनी खेल के तौर पर शामिल किया गया। हालांकि इसे 1986 में हुए अगले एशियाई खेलों में शामिल नहीं किया जा सका। 1990 में बीजिंग में हुए एशियाई खेलों से कबड्डी को एक बार फिर शामिल किया जाने लगा। 1990 के बाद से कबड्डी खेल एशियाई खेलों का अभिन्न अंग बन गया है।


प्रफेशनल अवतार में कबड्डी
क्रिकेट की मशहूर टी-20 लीग इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) की शुरुआत 2008 में हुई थी। फ्रेंचाइजी आधारित इस लीग ने जल्द ही लोकप्रियता के नए शिखरों को छूआ। कम समय में नतीजे, कांटेदार मैच, चौके-छक्के की बौछार। इन सब मसालों ने खेल को ऐसा लोकप्रिय बना दिया कि दूसरे खेलों की प्रफेशनल लीग को साकार रूप देने की कोशिशें होने लगीं। मशहूर टीवी कॉमेंटेटर चारू शर्मा की कोशिशों से मशाल स्पोर्ट्स की स्थापना हुई जिसने कबड्डी को प्रोफेशनल अवतार में पेश करते हुए प्रो कबड्डी लीग लॉन्च की। लीग के पांच एडिशन अब तक आयोजित हो चुके हैं। टीमों की संख्या बढ़कर 8 से 12 हो गई। आईपीएल की तर्ज पर इस लीग में खिलाड़ियों की नीलामी भी हुई। देसी के साथ-साथ विदेशी खिलाड़ियों पर भी फ्रेंचाइजी मालिकों ने बोली लगाई। इस लीग के शुरू होने के बाद कबड्डी की लोकप्रियता देश के बाहर विदेश में भी बढ़ी है। इसमें भारत के अलावा ईरान और साउथ कोरिया के खिलाड़ी सबसे ज्यादा डिमांड में रहते हैं।

करोड़पति बने खिलाड़ी
इस साल मई महीने के अंत में प्रो-कबड्डी लीग के तहत खिलाड़ियों की नीलामी मुंबई में हुई थी। ईरान के फाजेल अत्राचली ने पहले ही दिन इतिहास रचा, जब उन्हें 'यू मुंबा' टीम ने एक करोड़ रुपये में खरीदा। अत्राचली लीग के पहले करोड़पति खिलाड़ी बन गए। ईरानी डिफेंडर की बेस प्राइस 20 लाख रुपये थी जिसकी तुलना में उन्हें 5 गुना ज्यादा कीमत मिली। फाजेल लीग के बेहतरीन डिफेंडर्स में शुमार किए जाते हैं। वैसे भारत के मोनु गोयत सबसे ज्यादा कीमत पर बिकने वाले खिलाड़ी रहे, जिन्हें हरियाणा स्टीलर्स ने 1.51 करोड़ रुपये की भारी-भरकम राशि खर्च कर खरीदा।


1990 से एंट्री हुई एशियन गेम्स में
किसी बड़े मल्टी-स्पोर्ट्स इवेंट में कबड्डी को तवज्जो मिली 1990 के एशियाई खेलों के जरिए। 1990 से लेकर 2014 तक हर बार भारत ने कबड्डी में एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल जीता। 2010 के एशियाई खेलों में पहली बार महिलाएं भी कबड्डी खेलती दिखीं। 2010 और 2014 में भारत की महिला टीम ने गोल्ड मेडल जीता, लेकिन 2018 में भारत गोल्ड मेडल की हैटट्रिक नहीं बना सका। उसे ईरान ने हरा दिया। कबड्डी के वर्ल्ड कप की बात करें तो यह कुल तीन बार 2004, 2007 और 2016 में आयोजित किया जा चुका है। तीनों दफा भारत ही चैंपियन बना है और तीनों बार उससे मुंह की खाई ईरान ने। वर्तमान में किसी भी खेल में दुनिया में सर्वश्रेष्ठ टीम और प्रदर्शन की बात हो तो वह खेल कबड्डी ही है, जिसका हर वर्ल्ड कप भारत के नाम है। ‌

अब तक 12
वैसे यह बात ध्यान देने लायक है कि 1990 से लेकर 2018 तक, कुल 12 देशों ने ही एशियाई खेलों में पुरुषों की कबड्डी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। महिलाओं की कबड्डी प्रतियोगिता में यह संख्या 11 ही है। अभी जकार्ता में चल रहे एशियाई खेलों में जिस ईरान ने भारत को चौंकाकर पुरुषों की प्रतियोगिता के फाइनल में जगह पक्की की, उसने तो 2006 में पहली बार एशियाई खेलों के लिए अपनी कबड्डी टीम भेजी थी। ईरान ने अपना दमखम दिखाते हुए 2010 और 2014 में फाइनल तक का सफर तय किया लेकिन हर बार उसे भारत के हाथों खिताबी मुकाबले में हार झेलनी पड़ी। जकार्ता एशियाई खेलों में भारतीय पुरुष टीम को साउथ कोरिया ने भी मात दी। साउथ कोरिया की कबड्डी टीम सिर्फ तीसरी बार एशियाई खेलों में उतरी है। भारतीय टीम पर उसकी जीत यह साबित करने के लिए काफी है कि मिट्टी के इस खेल में पारंगत भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे दिग्गज देशों पर ईरान और साउथ कोरिया जैसे देश भारी पड़ रहे हैं।


अजेय किले को ढहाया कोरिया ने
जकार्ता एशियाई खेलों में भारत की कबड्डी में बादशाहत खत्म हो गई। वैसे कबड्डी में भारत का अजेय किला दरकने की शुरुआत 2016 में ही हो गई थी, जब अहमदाबाद में हुए वर्ल्ड कप में साउथ कोरिया ने भारत को हराया था। हालांकि तब इसे महज एक उलटफेर माना गया। वैसे तो खेल की दुनिया में कोई अजेय नहीं होता, लेकिन इस हार के बाद शायद हमें सबक लेना था, जो हमने नहीं लिया। ईरान से भारत जकार्ता एशियाई खेलों में हारा, लेकिन इससे पहले के दोनों एशियाई खेलों में ईरान ही भारत से फाइनल में हारा था। 2014 के एशियाई खेलों में ईरान ने भारत को कड़ी टक्कर दी थी। भारत किसी तरह 27-25 से जीत पाया था। 1996 में ईरान में कबड्डी फेडरेशन की स्थापना हुई, लेकिन उसका पेशेवर रवैया देखिए कि आज वह इस खेल का एशियाई चैंपियन बन गया है।

जू-जू से कबड्डी-कबड्डी तक
ईरान के स्टार कबड्डी प्लेयर फाजेल का दावा है कि यह खेल हजारों साल पहले से ईरान में खेला जा रहा है। उनके मुताबिक फेडरेशन बनने तक यह खेल सिर्फ मनोरंजन के लिए खेला जाता था। एक इंटरव्यू के दौरान फाजेल ने बताया कि देश में फेडरेशन की स्थापना से पहले कोई राष्ट्रीय टीम नहीं थी और न ही कोई टूर्नामेंट। खिलाड़ी मिट्टी में तो नहीं, लेकिन फर्श पर खेलते थे। उन्हें ‘कबड्डी-कबड्डी’ नहीं बल्कि ‘जू-जू’ बोलना होता था। फाजेल ने एक मजेदार बात यह भी बताई कि ईरान के कबड्डी फेडरेशन ने शुरुआती बरसों में पहलवानों को चुना और उन्हें कबड्डी का खेल अपनाने के लिए प्रेरित किया। फाजेल स्वीकार करते हैं कि वह 11 साल की उम्र में कबड्डी से जुड़ने से पहले कुश्ती और जूडो खेला करते थे। फाजेल को कबड्डी का खेल कुश्ती के खेल जैसा लगा इसलिए वह इसकी ओर आकर्षित हुए। इस डिफेंडर के मुताबिक, ईरान में कबड्डी मुख्यत: चार शहरों तेहरान, इस्फाहान, मेराज और गोर्गन में खेली जाती है।

विदेशी टीम के साथ भारतीय कोच
अब विदेशी खिलाड़ी भारतीयों के साथ खेल-खेलकर उनकी बराबरी पर आ रहे हैं। उन्हें भी वही कोच सिखा रहे हैं, जो भारतीयों को सिखा रहे हैं। जकार्ता एशियाई खेलों में ईरान की महिला कबड्डी टीम ने भारत को हराकर गोल्ड मेडल जीता। उसकी कोच एक भारतीय शैलजा जैन हैं। वह महाराष्ट्र के नागपुर से ताल्लुक रखती हैं। स्पष्ट है कि विदेशी टीमें अपनी ताकत बढ़ाने के लिए भारत के पूर्व खिलाड़ियों की मदद ले रही हैं। भारत-ईरान गोल्ड मेडल मैच के बाद एक इंटरव्यू में शैलजा ने बताया कि उन्होंने भारतीय डिफेंस की एक कमजोरी को भांप लिया था। मैच के शुरुआती 5 मिनट में उनकी रेडर्स ने भारतीय डिफेंस की इस कमजोरी पर प्रहार किया और नतीजा सबके सामने है।

एक्सपर्ट की नजर में
अर्जुन पुरस्कार विजेता रह चुके कोच राजू भावसार कहते हैं कि जकार्ता एशियाई खेलों में ईरान की पुरुष और महिला टीम के प्रदर्शन पर उन्हें जरा भी हैरानी नहीं हुई। पुरुष टीम का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ईरानी टीम हर हाल में गोल्ड जीतने पर आमादा थी क्योंकि पिछले दो एशियाई खेलों में उसे फाइनल में शिकस्त मिली थी। ईरान के वैसे तो कई खिलाड़ी प्रो-कबड्डी लीग में खेल रहे हैं लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में रहे फाजेल अत्राचली, जो दुनिया के बेहतरीन डिफेंडर्स में शुमार किए जाते हैं। राजू ने ईरान टीम की सफलता की वजह बताते हुए कहा कि एशियाई खेलों में खेलने उतरी ईरान की पुरुष टीम में केवल फाजेल ही ऐेसे खिलाड़ी थे, जो प्रो-कबड्डी लीग में खेले हैं। बाकी खिलाड़ी युवा थे, जो भारत सहित तमाम विपक्षी टीमों के लिए सरप्राइज पैकेज साबित हुए। फाजेल ने प्रो-कबड्डी लीग में खेलकर उन सभी भारतीय खिलाड़ियों के खेल को भांप लिया था, जो भारत के लिए इंटरनैशनल टूर्नामेंटों में भी खेलते हैं। फाजेल का अनुभव और युवा खिलाड़ियों की पुरजोर मेहनत ने ईरान को चैंपियन बना दिया।

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रक्षाबंधन स्पेशल: कच्चे धागों से बंधे पक्के रिश्ते

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भाई-बहन का रिश्ता यूं तो होता ही खास है लेकिन कुछ दास्तानें ऐसी होती हैं, जो मिसाल कायम कर देती हैं। भाई-बहन के प्रेम की ऐसी ही अनोखी दास्तानें आपसे साझा कर रही हैं प्रियंका सिंह...

बहन के करियर के लिए भाई ने छोड़ दी पहलवानी
जकार्ता में चल रहे एशियन गेम्स में ब्रॉन्ज मेडल जीतकर रेसलर दिव्या काकरान ने अपने परिवार का सपना साकार किया है। दिव्या को यहां तक पहुंचाने में उनकी मेहनत के अलावा पिता सूरज पहलवान की कोशिशें और बड़े भाई देव की कुर्बानी भी अहम रही हैं। दिव्या के बड़े भाई देव भी पहलवानी करते थे। घर की माली हालत अच्छी नहीं थी। पिता सूरज परिवार का पेट पालने के लिए दंगलों में लंगोट बेचते थे। ऐसे में बड़े भाई देव ने जब बहन में अपने से बेहतर संभावनाएं देखीं तो उन्होंने पिता के साथ मिलकर दिव्या को ही आगे बढ़ाने की ठान ली। इसके लिए उन्होंने अपनी पहलवानी और पढ़ाई, दोनों छोड़ दी। देव इसके बाद दिव्या को स्कूल और अखाड़े, दोनों जगह छोड़ने जाने लगे। उन्होंने हर कदम पर दिव्या का साथ दिया। आज दिव्या की कामयाबी से वह बेहद खुश हैं। वह कहते हैं, 'दिव्या में शुरू से ही जीतने का जज्बा था। वह मेहनती भी खूब थी। आज उसकी मेहनत रंग ला रही है।' दिव्या का छोटा भाई दीपक इन दिनों पंजाब में पहलवानी सीख रहा है।


मूल रूप से मुजप्फरनगर के पुरबालियान गांव के रहने वाले दिव्या के पिता सूरज कहते हैं, 'हमारे गांव में आठवीं तक ही स्कूल था। बच्चों को पढ़ाने के लिए मैं दिल्ली आ गया। इनकी मां लंगोट सिलती थीं और मैं उन्हें बेचने अखाड़ों में जाता था। हरियाणा में मैंने देखा कि लड़कियां खूब पहलवानी कर रही हैं। हमारे भी खून में पहलवानी थी ही। तब मैंने बेटों के साथ बेटी को भी पहलवानी सिखानी शुरू की, लेकिन दिक्कत यह थी कि तीनों बच्चों की पढ़ाई और पहलवानी, एक साथ मुमकिन नहीं थी। दिव्या शुरू से ही बढ़िया खेल रही थी। ऐसे में हमने दिव्या को ही आगे बढ़ाना तय किया। बेटे देव ने भी इसमें पूरा साथ दिया। दिव्या में ऐसी लगन थी कि वह दंगलों में लड़कों को हरा देती थी। हालांकि बतौर पिता, कई बार बेटी को बेटों के साथ दंगल कराने का मन नहीं करता था, लेकिन इन्हीं दंगलों में जीतने पर दिव्या को पैसे मिलते थे, उसी से परिवार का खर्चा चलता था। ऐसे में उसका दंगल लड़ना जारी रहा। दिव्या आज भी पूरे घर का ख्याल रखती है।' एशियन गेम्स में जीत के बाद यूपी सरकार ने दिव्या को गैजेटिड अफसर की नौकरी देने और 20 लाख रुपये नकद देने का ऐलान किया है। बहन की सफलता से देव बहुत खुश हैं। उनका कहना है कि दिव्या ने वह कर दिखाया, जो मैं न कर सका। उसने हम सबके सपनों को पूरा कर दिया है। मैं दुआ करुंगा कि वह आगे और भी मेडल जीते और अपने परिवार के साथ-साथ देश का नाम भी रोशन करे।

परिवार के लिए नहीं की शादी, भाई को बनाया अफसर
करीब 19-20 साल की थीं राजबाला, जब परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। पिता दिल्ली पुलिस में नौकरी करते थे। अचानक उनका देहांत हो गया। ऐसे में हंसते-खेलते परिवार के सामने पालन-पोषण का संकट खड़ा हो गया। घर में कमाने वाला कोई नहीं था। मां पर चार बच्चों को पालने की जिम्मेदारी थी। तब घर की बड़ी बेटी राजबाला ने आगे बढ़कर पूरे परिवार की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उस वक्त वह बीए सेकंड इयर में थीं। उन्होंने पढ़ाई पूरी होने का इंतजार भी नहीं किया। जब पिता के बदले दिल्ली पुलिस में नौकरी ऑफर हुई तो उन्होंने फौरन नौकरी जॉइन कर ली। नौकरी के साथ ही उन्होंने अपनी पढ़ाई भी पूरी की। उन्होंने पॉलिटिकल साइंस में एमए किया। दिल्ली पुलिस की नौकरी करके राजबाला ने अपनी दो छोटी बहनों और भाई को पिता बनकर पाला। दोनों छोटी बहनों की पढ़ाई पूरी होने के बाद राजबाला ने उनकी शादी अच्छे परिवारों में कर दी। दोनों बहनें अपने परिवारों में खुश हैं। बहनों की जिम्मेदारी से फ्री होने के बाद उन्होंने छोटे भाई को बड़ा सरकारी अफसर बनाने की ठानी। भाई ने भी बहन के बलिदान और प्यार का मान रखा। मन से पढ़ाई की और यूपीएससी एग्जाम पास किया। भाई राकेश यादव फिलहाल रीजनल कमिश्नर ऑफ पीएफ के पद पर कार्यरत हैं। राकेश फख्र से कहते हैं, 'जीजी ने मेरे और पूरे परिवार के लिए जो किया, वह छोटी बात नहीं है। उन्होंने हमेशा मेरी और परिवार की खुशी को तरजीह दी। उन्होंने हमें कभी पापा की कमी महसूस नहीं होने दी।'


घर-परिवार की जिम्मेदारी बखूबी पूरी करने के बाद अब राजबाला पुलिस से रिटायर हो गई हैं। यह पूछने पर कि क्या जिंदगी में किसी बात का मलाल है, वह साफ कहती हैं, 'बिल्कुल नहीं। मैंने वही किया, जो मेरा फर्ज था। भगवान ने जो दिया, मैं उसमें खुश हूं। हां, शुरू में बुरा लगा था कि पापा को उन्होंने इतनी जल्दी अपने पास बुला लिया। लेकिन फिर उसकी मर्जी को स्वीकार कर आगे बढ़ने की ठान ली। वैसे भी अपने परिवार के लिए सभी लोग बहुत कुछ करते हैं। परिवार होता ही इसलिए है। मेरे भाई-बहन खुश हैं और उन्हें देखकर मैं खुश हूं। जहां तक परिवार की बात है तो मेरे भाई और बहनों के परिवार भी तो मेरे परिवार ही हैं। ऐसे में अपना परिवार न होने या शादी न करने जैसी कोई बात मेरे मन में आती ही नहीं है।' राजबाला की इसी सोच का नतीजा है कि पूरा परिवार उन्हें घर में सबसे बड़े का दर्जा और सम्मान देता है।

बहन के इलाज में किए बरसों कुर्बान
एक भाई कंस सरीखा था, जिसने अपनी बहन पर एसिड अटैक कराया तो दूसरे भाई ने कृष्ण की तरह आगे बढ़कर उसे सुरक्षा का कवच दिया। भाई-बहन के अनूठे प्रेम और अपनेपन की यह कहानी है हरियाणा के रोहतक निवासी ऋतु और उनके भाई रवि की। 26 मई 2012 का वाकया है। वॉलिबॉल की स्टेट लेवल खिलाड़ी ऋतु घर से खेलने के लिए निकली थीं कि कुछ बदमाशों ने उन पर एसिड अटैक कर दिया जिसमें ऋतु करीब 35 फीसदी जल गईं। चेहरा भी बुरी तरह झुलस गया। यहां तक कि एक आंख भी जाती रही। जांच में पता चला कि ऋतु पर अटैक कराने वाला उनकी बुआ का बेटा था, जो उम्र में ऋतु से 22 साल बड़ा था और उनसे एकतरफा प्यार करता था। इस हमले के बाद 2 महीने पीजीआई, रोहतक में ऋतु का इलाज चला और बाद में अपोलो में। अभी तक उनके कुल 15 ऑपरेशन हो चुके हैं।

इस दर्दनाक हादसे से ऋतु हौसला हार चुकी थीं। वह जिंदगी से बेजार हो चुकी थीं, लेकिन तब उन्हें सबसे बड़ा सहारा दिया उनके भाई रवि ने। 5 भाई-बहनों में रवि दूसरे नंबर के हैं और ऋतु सबसे छोटी। रवि ऋतु से करीब 7 साल बड़े हैं। उम्र के इस बड़े फासले की वजह से उनमें बहुत नजदीकियां नहीं थीं, लेकिन जब ऋतु को सहारे, मदद और अपनेपन की जरूरत थी तो रवि ने आगे बढ़कर सारा जिम्मा उठा लिया। ऋतु बताती हैं, 'जब मेरा चेहरा देखकर भी लोग मुंह फेर लेते थे, भाई ने मेरा पूरा साथ दिया। वह पूरे इलाज के दौरान मेरे साथ रहा। वह मेरे जख्म साफ करता था। एसिड से जो आंख गल कर पूरी तरह चिपक गई थी, उस आंख को साफ करता था। मुझे भी दूसरों से जख्म साफ कराने पर दर्द होता था, लेकिन भाई से नहीं। यह उस पर एक तरह से मेरा भरोसा ही था। फंड दिलाने में भी मेरी मदद की और केस लड़ने में भी। वह साये की तरह हमेशा मेरे साथ रहा। मुझे लगता है कि अपनी जिंदगी के करीब 5-6 साल पूरी तरह मेरे नाम कर दिए। आज भी मुझे किसी भी मदद या सलाह की जरूरत होती है तो सबसे पहले मैं रवि को ही याद करती हूं। मुझे लगता है कि एक वह भाई था, जिसने करीब-करीब मेरी जान ही ले ली और एक यह भाई है, जिसने जिंदा रहने का हौसला दिया। मैं भगवान से प्रार्थना करूंगी कि ऐसा भाई सबको दे।' बता दें कि इस मामले में 3 लोगों को उम्रकैद और 2 को 10-10 की सजा मिल चुकी है।

करीब 4 महीने पहले रवि की शादी हुई है। ऋतु उसकी नई जिंदगी को लेकर बहुत उत्साहित हैं और चाहती हैं कि वह हमेशा खुश रहे। उधर रवि का कहना है कि मैंने वही किया, जो भाई होने के नाते मेरा फर्ज था। आखिर मेरी बहन को मेरी जरूरत थी, तो मैं उसके काम नहीं आता तो कौन आता? मैं खुश हूं कि उसने अपनी मेहनत और लगन से जिंदगी को एक बार फिर गले लगा लिया है।

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अथ श्री कथावाचक कथा

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कृष्ण का जीवन और मार्गदर्शन आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने द्वापर में थे। यही कारण है कि कन्हैया की कथाओं को सुनाने की परंपरा बदस्तूर जारी है। हां, कुछ बदलाव जरूर हुए हैं। अब कथावाचन में बिजनेस का पुट भी आ गया है। कथावाचकों के बीच कृष्ण की लोकप्रियता के कारणों और कथा के बदलते स्वरूप के बारे में जानकारी दे रहे हैं नरेश तनेजा

'आनंद और उत्साह के देवता हैं कृष्ण'
- रमेश भाई ओझा
धीर-गंभीर रमेश भाई ओझा 40-45 बरसों से कृष्ण भक्तों को भागवत और कृष्ण कथारस पिला रहे हैं। शेरो-शायरी, गजल, कविता, भजन और व्याख्यानों के ताने-बाने के जरिए वह कथा के मर्मस्पर्शी और गूढ़ विषयों को लोगों के सामने रखते हैं ताकि रोचकता बनी रहे और युवाओं की भी जिज्ञासा शांत हो।

ओझा के मुताबिक, कृष्ण के कथावाचकों में लोकप्रिय होने के तीन अहम कारण हैं। पहला, उनकी लीलाएं आज की समस्याओं का समाधान देने वाली हैं। दूसरा, वह आनंद और उत्साह के देवता हैं और आज हर आदमी आनंद और उत्साह चाहता है। तीसरी बात, श्रीकृष्ण एक पूर्णावतार हैं। शासक, आध्यात्मिक गुरु, कलाविद, कलाकार और समाज सुधारक, अपने सभी रूपों में कृष्ण श्रेष्ठ हैं। उनके व्यक्तित्व के सभी आयामों से प्रेरणा मिलती है।

कृष्ण की पूजा हो और उसमें गीत-संगीत न आए तो सब कुछ फीका-फीका-सा लगता है। इसलिए संकीर्तन के साथ गायन भी होता है। लोग नृत्य भी करने लगते हैं। वैसे भी, कथा की दो पद्धतियां हैं: व्यास पद्धति और नारदीय पद्धति। व्यास पद्धति में वाचक कथा कहता है और श्रोता सुनते हैं। लेकिन पिछले कुछ बरसों से कथा की नारदीय पद्धति को पसंद किया जा रहा है। नारद जी के हाथ में वीणा और खड़ताल है। इसीलिए इस पद्धति में भजन-कीर्तन का महत्व रहता है।

बहुत जरूरी है मनोमंथन
लोग कथा की ओर कैसे आकर्षित होते हैं? ओझा कहते हैं कि जीवन में मनोरंजन ही सब कुछ नहीं है। रोजमर्रा की समस्याएं भी होती हैं, जिन्हें कथा के माध्यम से समझा जा सकता है। मनोरंजन भी जरूरी है, लेकिन मनोमंथन बहुत जरूरी है। कथा बूढ़ों के टाइमपास का साधन मात्र नहीं है। यह युवाओं के लिए भी उतना ही अहम है। युवाओं के सामने लंबा जीवन पड़ा है। उस जीवन को कैसे जिएं, कथा इसके रास्ते भी सुझाती है।

इसे बिजनेस बनाना ठीक नहीं
आज जिस तरह कच्चे-पक्के लोग कथा करने लगे हैं, उससे क्या यह एक बिजनेस नहीं बन गया? इस पर ओझा कहते हैं, 'बढ़ती भौतिकता को काउंटर करने के लिए आध्यात्मिक विकास जरूरी है। कथावाचन, श्रवण व ज्ञान आदि आध्यात्मिक विकास के तरीके हैं। इनके लिए बड़ी संख्या में कथावाचकों की जरूरत पड़ती है। वाचन करने से पहले योग्य गुरु के पास जाकर संस्कृत और भागवत, वेद शास्त्रों और भाषा का अनुशासित तरीके से अध्ययन करना चाहिए ताकि खुद भी ठीक से समझ सकें और श्रोताओं को भी सही व्याख्या कर सकें। दूसरे, कथा वितरण और प्रसार के लिए होती है। इसका बिजनेस नहीं बनाया जाना चाहिए।' कुछ बड़े कथावाचक आयोजकों के सामने बड़े पंडाल, ज्यादा श्रोता और दक्षिणा की मांग के सवाल पर वह कहते हैं कि अगर आप किसी बड़े कथावाचक को बुलाते हैं तो लोग ज्यादा आ जाएंगे और अव्यवस्था फैल जाएगी। इसके लिए व्यवस्था करनी पड़ती है।

'भजन-कीर्तन, नृत्य से माहौल बनता है'
- देवकी नंदन ठाकुर
झूलते लंबे काले बालों वाले देवकीनंदन ठाकुर 40 बरस के हैं और 1997 से कथा कर रहे हैं। वह कहते हैं, 'श्रीकृष्ण इसलिए कथावाचकों को सबसे ज्यादा भाते हैं क्योंकि वह लोगों की भावनाओं को समझते थे। उन्होंने लीलाएं भी ऐसी कीं जिनसे लोग मोहित और प्रेरित हुए और हो रहे हैं। वह जानते थे कि युगों-युगों तक इंसान की चाह क्या होगी। इसीलिए सब उनसे जुड़ जाते हैं। संपर्क में आने वाले हर किसी को कृष्ण मित्र बना लेते थे। कथा कृष्ण के मैत्री भावना के विस्तार का संदेश देता है, फिर चाहे वह दो लोगों के बीच हो या दो देशों के। उनकी कथाएं सिखाती हैं कि हमें माता-पिता, परिवार और समाज के साथ कैसे रहना चाहिए।'

कथा के माहौल को रोचक बनाने के लिए देवकीनंदन कथा के दौरान उन मूल्यों को वापस लाने की चर्चा करते हैं, जिनकी आज परिवार और आपसी संबंधों में कमी होती जा रही है। अपनी परेशानियों से लोग कैसे उबरें इसका उदाहरण वह कथा के प्रसंगों से निकालकर देते हैं। इसके अलावा उनकी कथा में भजन-कीर्तन और नृत्य भी माहौल बना देते हैं। हालांकि, देवकीनंदन नहीं मानते कि ज्यादातर लोग कथा का बिजनस कर रहे हैं। वह कहते हैं कि भले ही आज कच्चे-पक्के सब तरह के कथावाचक कथाएं कर रहे हैं, पर जितने भी लोगों तक वे कथा पहुंचा रहे हैं, भगवान से ही तो जोड़ रहे हैं। देवकी नंदन नहीं मानते कि एक महीने में कोई कथावाचक बन सकता है।

'कथा से निकालते हैं समस्याओं का हल'
- डॉ. संजय कृष्ण सलिल
एचडी डिग्रीधारी डॉ.संजय कृष्ण सलिल को बड़े पंडाल या श्रोताओं के बड़े हुजूम की जरूरत नहीं होती। उनके अनुसार, 'कथावाचकों के बीच कृष्ण इसलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि वह आज के समय की जरूरत हैं। कृष्ण ने वह किया जो आम लोगों को पसंद आता है। अगर किसी के घर में बच्चा शरारत करता है, चोरी से खाता है, नटखट है तो परिवार के लोगों को वह बहुत भाता है। इसलिए कान्हा की बालकथाएं उन्हें पसंद हैं। फिर उन्होंने समाज को जो संदेश द्वापर में दिए थे, वे आज भी उतने ही मायने रखते हैं। आम लोगों को समस्याओं से निकलने का रास्ता दिखाते हैं, तनाव को दूर करते हैं, उन्हें राह से डिगने से बचाने का संबल बनते हैं।' सलिल मानते हैं कि कथावाचक को अपनी कथा को उपयोगी बनाने के लिए भजन-कीर्तन की चाशनी का प्रयोग करना होता है। समाज और उसकी समस्याओं के हल कथा से निकालकर देने होते हैं, ताकि वह अधिक उपयोगी हो सके।

सलिल कहते हैं, 'यह सच है कि टीवी पर आने से कथावाचक को ज्यादा शोहरत मिलती है। लोग नाम जानने लगते हैं। पहचानने लगते हैं। अहम बात यह है कि जो लोग कथास्थल तक नहीं आ पाते, खासकर बुजुर्ग और बीमार या जिनके बच्चे उन्हें लेकर नहीं आ पाते। मैंने ऐसी जगहों पर भी कथावाचन किया है, जहां लोगों के पास साधन नहीं थे।'

'जो आकर्षित करे वही कृष्ण'
- देवी चित्रलेखा
खने में जितनी सुंदर और मासूम, कथा करने और व्याख्या करने में उतनी ही कुशल। देवी चित्रलेखा काफी समय से कथा वाचन कर रही हैं। वह कहती हैं जो आपको आकर्षित करता है, वही कृष्ण है। कृष्ण की महिमा ही ऐसी है कि बच्चे हों या बूढ़े सब उनसे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। बच्चों के साथ बच्चे और बड़ों के साथ बड़े। इसलिए कृष्ण के साथ सबको नजदीकी या अपनापन लगता है।

देवी चित्रलेखा को कथावाचन करते हुए तकरीबन 14 बरस हो गए हैं। सिर्फ 7 साल की छोटी-सी उम्र में उनका सफर शुरू हुआ था। कथावाचन के लिए न कोई प्रॉपर ट्रेनिंग और न ही प्लैनिंग। संत-महात्माओं के यहां कथा सुनने गए बस, कथावाचन का चाव हो गया। पहले भजन गाए, फिर धीरे-धीरे कथा वाचन करने लगीं। शुरुआत में दूसरों से सुन-सुनकर याद कीं। बाद में भागवत और दूसरे ग्रंथों के अध्ययन से जानकारी बढ़ाई। हाल ही में उन्होंने बीए फाइनल इयर की परीक्षा दी हैं। वह मानती हैं कि कथा का दिलचस्प होना जरूरी है, लेकिन कथा मनोरंजन नहीं मनमंथन के लिए होती है। आज के दौर में श्रोता कथा में भजन-कीर्तन और नृत्य भी चाहते हैं। इसलिए मर्यादित रहकर ऐसी व्यवस्था का भी ध्यान रखना पड़ता है।

कथाएं तो ज्यादातर लोगों को मालूम ही होती हैं। ऐसे में कथा तत्व से जोड़े रखने के लिए पारिवारिक बातों और युवाओं से जुड़े मुद्दे भी लेने पड़ते हैं ताकि श्रोता खुद को कथा से जुड़ा हुआ महसूस करें। अगर आज की बात नहीं की जाएगी तो कथा में दिलचस्पी पैदा नहीं होगी। हालांकि, लोगों को कथा की तरफ आकर्षित करने के लिए वह अलग से कुछ नहीं करतीं। वह कहती हैं, 'जो शास्त्रों में कहा गया है, वही बोलती हूं क्योंकि जो सत्य है और शुद्ध है, वही लंबे समय तक चलता है।

कथावाचन के बिजनेस बन जाने के बारे में वह कहती हैं कि अगर कोई कथा के लिए निश्चित धनराशि मांगे तो यह कथा को बेचने जैसा है। इससे कथा करने और करवाने वाले, दोनों को कोई लाभ नहीं होगा। जहां तक पैसे की बात है तो मैं अपने लिए कुछ नहीं मांगती। हमारी टीम में म्यूजिक वाले और दूसरे लोग भी हैं। उनका तो खर्च आता ही है। अब हम किसी को बोलें कि सारा दिन मुफ्त में हमारे साथ कीर्तन करने चलो तो रोज-रोज कौन आएगा? उनका घर कैसे चलेगा? हमारा जानवरों का एक हॉस्पिटल भी है, जिसका खर्च 20 लाख रुपये है। अस्पताल में 500 गाय हैं। उनकी देखभाल भी जरूरी है। आयोजक उसके लिए जो देना चाहें दे देते हैं, लेकिन मैं पहले से ही दक्षिणा की मांग करके कथा नहीं करती।

कथा के लिए आजकल जो तामझाम होते हैं, उसके बारे में चित्रलेखा कहती हैं, 'पंडाल, कूलर, पंखे आदि का इंतज़ाम श्रोताओं के लिए होता है। कुछ लोग जमीन पर नहीं बैठ सकते। उनके लिए कुर्सियां रखनी पड़ती हैं। इसे आडंबर न माना जाए। सर्दी-गर्मी के हिसाब से श्रोताओं के लिए इंतजाम तो आयोजक को करने ही पड़ते हैं।' चित्रलेखा मानती हैं कि टीवी व सोशल मीडिया से कथावाचकों को प्रसिद्धि मिलती है। जहां कथा करने जाओ, लोगों को आपके बारे में पहले से ही पता होता है। इससे वे और ज्यादा श्रद्धा से कथा सुनते हैं।

कथावाचक का क्रैश कोर्स
मथुरा से कपिल शर्मा
कथावाचकों की बढ़ती लोकप्रियता इंस्टेंट कथावाचक पैदा कर रही है। ये ऐसे कथावाचक हैं जो सत्संग के गुर इंस्टिट्यूट में सीख रहे हैं और वह भी गुरुदक्षिणा नहीं बल्कि फीस देकर। कभी आप वृंदावन जाएं तो वहां की दीवारों पर गौर करें। फटाफट कथावाचक बना देने वाले दावों से वे अंटी पड़ी हैं। वृंदावन में कथावाचक पैदा करने एक-दो नहीं बल्कि 100 के करीब सेंटर खुल गए हैं। इनमें से कुछ ऐसे संस्थान हैं जो 3 से 6 महीने में ही एक्सपर्ट कथावाचक बनाने का दावा करते हैं।

बेशक कथावाचन का काम इतना आसान नहीं होता। मंच पर बैठकर मिनटों नहीं, घंटों तक लोगों को अपनी बातों से बांधकर रखाना होता है। कथा में ज्ञान होता है, हास्य का पुट और गंभीरता भी। इन सभी चीजों को लोगों के सामने सही तरीके से रखने के लिए लंबे अनुभव की जरूरत होती है। इसलिए इसे अब भी पारंपरिक रूप से गुरु के निर्देशन में सीखने की ही कोशिश की जाती है, लेकिन इसका यह कमर्शल एंगल खासा दिलचस्प है।

वृंदावन में 1962 में स्थापित हुआ था श्रीनाथ धाम। इस गुरुकुल में पारंपरिक रूप से भागवत कथा बांचने की शिक्षा दी जाती है। यहां के संचालक डॉ. मनोज मोहन शास्त्री बताते हैं, 'यहां देश के विभिन्न हिस्सों से लोग तो आते ही हैं, नेपाल से भी बड़ी संख्या में छात्र भागवत पढ़ने के लिए आते हैं। भागवत कथावाचक बनने के लिए शास्त्री (स्नातक) की डिग्री जरूरी है, लेकिन पिछले कुछ समय में ऐसा बदलाव आया है कि अब शास्त्री की डिग्री की जरूरत न के बराबर रह गई है। युवा वर्ग जल्दी से जल्दी कथावाचक बनकर पैसा कमाना चाहते हैं। ऐसे में वृंदावन के कुछ संस्थानों के लिए वे आसान टार्गेट हैं। लेकिन सच यही है कि 6 महीने में कथावाचक बनाने का जो दावा वे करते हैं, वह मुमकिन नहीं है।' भागवत कथा में पारंगत होने के लिए 3 बरस तो लगते ही हैं।

पं. श्रीकांत शास्त्री भी वृंदावन में एक ट्रेनिंग सेंटर चलाते हैं। वह कहते हैं, 'यह सीखने वाले की पढ़ाई में रुचि और ज्ञान पर निर्भर करता है कि वह कितने महीने में कथावाचक बन सकता है।' श्री रंगलक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य रामसुदर्शन शुक्ल का कहना है कि बेहतर कथावाचक बनने के लिए व्याकरण और संस्कृत का ज्ञान होना जरूरी है, लेकिन अब मैं युवाओं में इसका अभाव देखता हूं।

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यह था कृष्ण के अवतार का मकसद

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भारत के मीलपत्थर
सूर्यकान्त बाली

तो यह धर्म क्या था, जिसकी स्थापना करना कृष्ण ने अपने अवतार का प्रयोजन बताया? धर्म को लेकर हमारी चेतना साफ हो जानी चाहिए। भारतीय परम्परा धर्म का वह अर्थ नहीं लेती, जो अंग्रेजी के रिलिजन शब्द से निकलता है और जिस अर्थ-कसौटी पर इस्लाम या ईसाइयत खरे उतरते हैं। भारतीय विचार इन दोनों को धर्म नहीं, संप्रदाय या पंथ मानता है। कृष्ण ने अगर किसी धर्म की स्थापना की है तो जाहिर है कि उसमें न कोई जड़ता है और न संकीर्णता। कृष्ण जैसा अप्रतिबद्ध, कर्म-परम्परा का प्रतीक व्यक्तित्व जड़ता और संकीर्णता का हामी हो ही नहीं सकता था।

धर्म का अर्थ है जीवनमूल्य और जीवनमूल्य हैं कि हर युग में, हर व्यवसाय ही नहीं हर व्यक्ति और समाज में बदलते रहते हैं। इसलिए भारतीय परम्परा में हरेक का अपना धर्म है-राजधर्म, नारीधर्म, पतिधर्म, पुत्रधर्म, वाणिज्यधर्म, जातिधर्म, ब्राह्मणधर्म, गृहस्थधर्म, युगधर्म वगैरह। इसलिए भारत में न कभी धर्म को परिभाषाओं में बांधा गया, न ही सब पर थोप दिए जाने वाले विधि-निषेधों में जकड़ा गया और न ही उसे किसी एक व्यक्ति, ग्रंथ या उपासना विधि का प्रतीक माना गया। धर्म की ग्लानि और अधर्म के अभ्युत्थान के सन्दर्भ में साधुओं के परित्राण और दृष्कृतों के विनाश की कैसी भी व्याख्या आप करना चाहें, आपको इसी संदर्भ में करनी पड़ेगी।

इसलिए गीता में, जिसे कृष्ण का जीवनदर्शन माना जाता है, किसी एक संप्रदाय या विचारधारा को धर्म कहकर उसका प्रतिपादन नहीं किया गया। गीता में अपने समय की तमाम विचारसरणियों का विवरण है। वहां सांख्य है, योग है, कर्म है, ज्ञान है, भक्ति है, संन्यास है, ध्यान है, अक्षरब्रह्मयोग है, राजविद्या है, विभूतिवर्णन और उसका प्रतिनिधि विश्वरूप दर्शन है, प्रकृति-पुरुष विवेचन है, दैवी-आसुरी सम्पदा है, यज्ञ प्रकार हैं और मोक्ष का वर्णन है।

अगर हम यह जानना चाहेंगे कि क्या कृष्ण ने इनमें से किसी धर्म का खास प्रतिपादन किया है तो गीता हमें कोई दो टूक उत्तर नहीं देती। दो टूक उत्तर यही देती है कि इसमें से किसी एक के साथ कृष्ण खुद को नहीं बांधते। बांधते होते तो इतने सारे जीवन मूल्यों का सविस्तार प्रतिपादन नहीं कर पाते। और तो और, कृष्ण ने एकाधिक बार कहा है कि जो वे अब कह रहे हैं, वह सनातन धर्म है- एष धर्म: सनातन:। इसके भरोसे हिन्दू कर्मकांडियों ने, जो कल तक छूआछूत, पूजापाठ, कर्मकांड और जात-पात को ही इस देश की आत्मा कहते रहे और आर्य समाज के उद्भव के बाद अपने विचारों को सनातन धर्म कहना जिन्होंने शुरू किया, वे गीता की दुहाई देकर कहते थे कि देखो, वहां सनातन धर्म को महत्व मिला है और साफ कह दिया गया है कि दूसरे का धर्म मत अपनाओ, चाहे अपने धर्म के कारण मर ही क्यों न जाना पड़े - स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:। पर यह धर्म की वही कर्मकाण्डी और सांप्रदायिक व्याख्या है, जिस पर इस्लाम और ईसाइयत तो खरे उतर सकते हैं, हिंदुत्व नहीं, क्योंकि यहां धर्म का अर्थ है जीवन मूल्य या जीवन जीने की शैली, जो राजा और मंत्री के अलग-अलग हो सकते हैं, पिता और पुत्र के, भाई और बहन के, ब्राह्मण और वैश्य के, किसान और कुम्हार के, कसाई और समाज सुधारक के अलग-अलग हो सकते हैं।

कृष्ण के काम एक ही दिशा में, एक-दूसरे के साथ जुड़ते हुए, बढ़ते नजर नहीं आते। वे राक्षसों का वध करते हैं, मथुरा छोड़ द्वारका जा सकते हैं, सारथी बनते हैं और युद्ध में ही नहीं, हमेशा पांडवों का साथ देते हैं, इन सब में कोई ऐसा सम्यक सूत्र नहीं है, जो कृष्ण के किसी एक महान लक्ष्य की ओर हमें ले जाता हो। कृष्ण पांडवों के साथ सिर्फ इसलिए नहीं थे कि पांचों पांडव कोई बड़े नैतिकतावादी या धर्म पर, मूल्यों के संदर्भ वाले धर्म पर मर मिटने वाले थे, बल्कि इसलिए थे कि धृतराष्ट्र के पुत्रों के बजाय कुन्ती पुत्र उनके ज्यादा निकट थे, अर्जुन के वे सखा थे और द्रौपदी के साथ उनके संबंधों में अपरिभाषित राग का कोई अद्भुत समावेश था।

पांडव चाहे खुद बड़े तपस्वी और महात्मा न रहे हों, पर उनके साथ पूरा न्याय नहीं हआ था, उनके विरुद्ध शुरू से ही हत्या-षड्यंत्र हुआ और वे अपने युद्ध-पूर्व व्यवहार में प्राय: उत्तेजक या क्षोभकारी नहीं हुए, उससे वे सबके चहेते बन गए थे। बिना पिता के बेटों को भटकाया गया, इससे उन्हें जन-सहानुभूति भी मिली। कृष्ण भी अगर इन सब कारणों से पांडवों के साथ हो गए हों तो क्या अजब? पर जो लोग यह कहना चाहते हैं कि पांडवों का पक्ष न्याय और धर्म का पक्ष था और उनके मार्फत कृष्ण कोई उद्देश्य पूरा करना चाह रहे थे तो इसे पांडवों का अधिमूल्यांकन और कृष्ण का अवमूल्यांकन ही कहा जाएगा। पांडवों से सब काम ठीक ही होते तो कृष्ण यह न चाहते कि मैं रहता तो युद्धिष्ठिर को जुआ न खेलने देता। यानी धर्मराज ने भी जुआ खेलकर अधर्म किया। पर इसी कृष्ण ने युद्ध में पांडवों से कई तरह के अनैतिक काम भी करवाए...जो युद्धिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने हिचकिचाते हुए किए।

यानी हमारी समस्या वहीं है। कृष्ण का जीवन कामों की विविधता और परस्पर विरोंधों से भरा पड़ा है, जो हमें किसी एक प्रयोजन की ओर नहीं ले जाता। उनकी गीता कई तरह के और कहीं-कहीं परस्पर विरोधी विचारों से भरी पड़ी है, जो हमें एक विचारधारा से जुड़ने में सहायता नहीं देती। पर चूंकि कृष्ण का भारतीय मानस पर प्रभाव अप्रतिम है, उनका प्रभामंडल विलक्षण है, इसलिए साफ नजर आ रहे उनके निश्चित लक्ष्यविहीन कर्मों और निश्चित निष्कर्षविहीन विचारों में ऐसा क्या है, जिसने कृष्ण को कृष्ण बना दिया, विष्णु का पूर्णावतार मनवा दिया? कुछ तो है। वह 'कुछ' क्या है?

कृष्ण का कोई कर्म उनके अपने स्वार्थ परिपूर्ण प्रयोजन से अनुप्राणित या उसका पोषक नहीं रहा। व्यास अपनी बुद्धिजीविता में संकुचितकर्म हो गए। भीष्म अपनी प्रति के मारे जिन्दा लाश हो गए। भीष्म कृष्ण के समकक्ष माने जा सकते हैं, पर वे तो राज्य के लिए लड़ रहे थे, वह भी निहायत निस्तेज तरीके से। इन सब में कृष्ण अपनी विवेक-अनुप्राणित और तेजस्वी सक्रियता, कर्मशीलता के कारण सर्वश्रेष्ठ हो गए, अग्रपूज्य हो गए, पूर्णावतार हो गए।

कृष्ण ने गीता में भी कहा है। जीवन में वे कर्म करते रहे, गीता में वे कर्म का उपदेश दे रहे हैं। जीवन में उनका कोई भी कर्म विवेक का ही क्रियान्वयन करता है, अपने किसी स्वार्थ या प्रयोजन की पूर्ति नहीं। गीता में भी वे मनुष्य को जिस कर्म के लिए कहते हैं, उसमें फल के अधिकार को उससे छीन लेते हैं। गीता में उस वक्त की सभी विचारधाराओं का वैसा ही प्रतिपादन है, जैसा कि जीवन में कृष्ण हर घटनास्थल पर उपस्थित रहने के प्रयास में रहे। इस तमाम विचार-जंगल में कृष्ण सिर्फ कर्म को मनुष्य के अधिकार क्षेत्र में रखते हैं और जीवन के घटना-महाकान्तार में वे हमेशा सोत्साह कर्मशील नजर आते हैं। गीता में कहते हैं कि कर्म हमारे अधिकार क्षेत्र में है, उसका परिणाम हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर है। तो क्या इसीलिए उन्होंने अपने पूरे कर्मपरायण और तेजस्वी जीवन को प्रयोजन-विशेष से नहीं बांधा?

दो बातें और कहनी हैं। कृष्ण के इस दर्शन को अक्सर गलत शब्दावली में रख दिया जाता है। कह दिया है कि कर्म करो, फल की इच्छा न करो। कोई अव्यावहारिक ही ऐसा कहेगा, कृष्ण जैसा खांटी व्यावहारिक व्यक्ति नहीं। बल्कि कृष्ण ने कुछ और ही कहा है- मनुष्य का अधिकार कर्म में है- कर्मणोवाधिकारस्ते। फल मिलेगा या नहीं, जाने कैसा मिलेगा, इस पर हमारा बस कहां है? इसलिए कर्मफल मनुष्य के अधिकार में नहीं है- मा फलेषु कदाचन (ते अधिकार:)। कृष्ण के दर्शन की गलत समझ ने देश को गुलाम बनाया, जबकि ठीक समझ उसे विश्व की महाशक्ति और जगदगुरु बनाने की अणुशक्ति संजोए है।

दूसरी बात। समस्या यह है कि फल हमारे अधिकार में नहीं, चूंकि यह कटु यथार्थ है, इसलिए कैसे व्यक्ति कर्म के लिए कर्म करने को उद्यत हो। इसके लिए कृष्ण ने रास्ता बताया है भक्ति का। भक्ति का अर्थ मन्दिर में घंटियां बजाना नहीं है, समर्पण है। अगर आप समर्पित हैं तो फल पर अधिकार न जताते हुए भी साधिकार कर्म करते चले जाएंगे। पर समर्पण किसको? समर्पण खुद को और किसको? पर यह कैसे सम्भव है? इसी के जवाब में कृष्ण कहते हैं कि मुझे यानी कृष्ण को यानी ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करो- 'मन्मना भव भद्भभक्त:' पर 'कुरु कमैंव तस्मात् त्वम्'। कर्म तो करना ही होगा।

यानी खुद को या कृष्ण को समर्पित होने का अर्थ है विश्व को (समाज को?) समर्पित होना। खुद को समर्पित होना है तो पहले खुद को विश्वाकार बनाना मानना पड़ेगा। एक बार बन गए तो एक ओर अहम ब्रह्मस्मि का मर्म समझ में आ जाता है तो दूसरी ओर कृष्ण के तेजस्वी, आपातत: निर्लक्ष्य पर सतत कर्मपरायण जीवन का और फल पर अधिकार जताए बना कर्मशील गीता-दर्शन का मर्म भी समझ में आ जाता है। पर खुद को विश्वाकार समझना ही तो कठिन है। इसलिए तो कहते हैं कि कृष्ण बनना ही आसान कहां है? पूर्णावतार होना कोई खाला का घर तो नहीं।

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कैमरा भी नहीं पकड़ पाता था ब्रूस ली का धुआंधार ऐक्शन

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ब्रूस ली तब छोटे थे। हॉन्गकॉन्ग की गलियों में खेला करते थे। दूसरे बच्चे उनकी पिटाई कर देते थे। बचाव के लिए उन्होंने कुछ मित्रों को मिलाकर एक गैंग बना लिया। गैंग के बाकी बच्चे भी उनके जैसे ही थे। नतीजा यह कि पहले जहां ब्रूस ली अकेले पिटते थे, अब अपने पूरी गैंग के साथ पिटने लगे। एक दिन चोटिल अपने घर पहुंचे, तो मां से उनकी हालत न देखी गई। उन्हें हिम्मत बंधाकर मां सीधे इप मान के पास ले गई। इप मान महान मार्शल आर्टिस्ट थे। डॉनी येन की मुख्य भूमिका वाली विल्सन यिप निर्देशित ‘इप मान’ (जिसे लोग ‘आईपी मैन’ पढ़ लेते हैं) सीरिज की फिल्में इन दिनों टीवी पर खूब आती हैं।

इप मान ने ब्रूस ली की विलक्षणता को पहचाना और उन्हें मार्शल आर्ट्स की बारीकियां सिखाईं। इससे ब्रूस ली का तुरंत तो कोई भला न हुआ, पर वह मुहल्ले के माने हुए गुंडे बन गए। हर दूसरे दिन उनके दरवाजे पर पुलिस आ जाती थी। मां-बाप बहुत परेशान हुए। जब ब्रूस ली में कोई सुधार न दिखा, तो उन्होंने पुलिसवालों को रिश्वत खिलाकर ब्रूस ली के सारे मामले रफा-दफा करवाए और उन्हें अमेरिका भेज दिया ताकि वह डॉक्टर बन सकें।

ब्रूस ली ने वहां कॉलेज में दाखिला तो ले लिया, लेकिन उनका मन मार्शल आर्ट्स में रमा रहता था। उन्होंने अपना एक कुंग-फू स्कूल खोल लिया। इससे अमेरिका में रहने वाले चीनी बहुत नाराज हुए क्योंकि उनका मानना था कि गैर-चीनियों को मार्शल आर्ट्स सिखाना अपराध है। ब्रूस ली पर कोई फर्क नहीं पड़ा, तो उस जमाने के मशहूर चीनी-अमेरिकी लड़ाके वोंग जैक-मान ने उन्हें चुनौती दे दी कि मुझे हरा दोगे तो ही अमेरिका में अपना स्कूल चला सकोगे। ब्रूस ली ने उससे मुकाबला किया। कहते हैं कि डेढ़-दो मिनट में ही वोंग जैक-मान मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। तब ब्रूस ली ने दौड़ा-दौड़ाकर उन्हें ललकारा। उसके बाद अमेरिका में उनके स्कूल की ख्याति बढ़ती गई।

बरसों के संघर्ष के बाद जब ब्रूस ली को फिल्म मिली और उनके शॉट्स फिल्माए जाने लगे, तो कैमरामैन ने हाथ खड़े कर दिए क्योंकि ब्रूस ली के मूव्स और स्टंट इतने तेज़ थे कि कैमरे की पकड़ में ही नहीं आ रहे थे। चीते से भी ज्यादा फुर्तीले ब्रूस ली से कहा गया कि वह अपने स्टंट धीरे करें। आज भी कैमरा पर ब्रूस ली के स्टंट बहुत तेज दिखते हैं, जबकि वे उनके असली स्टैंडर्ड के मुकाबले धीमे स्टंट हैं।

आज के सुपरस्टार जैकी चेन उस जमाने में ब्रूस ली की फिल्मों में बतौर एक्स्ट्रा काम करते थे। ‘एंटर द ड्रैगन’ के एक दृश्य में लड़ते हुए ब्रूस ली की लाठी, दुर्भाग्य से, जैकी चेन को जोर से लग गई। वह घायल हो गए। लेकिन जैकी चेन इसे एक सौभाग्य मानते हैं क्योंकि इस घटना के बाद ब्रूस ली ने उनका माथा सहलाया और उन्हें गले लगाया। जैकी इसी बात से खुश रहते हैं कि इसके बाद ब्रूस ली उन्हें नाम से जानने लगे थे।

ब्रूस ली की बिजली जैसी तेजी ने उन्हें एक लेजंड में तब्दील कर दिया। जब वह अपनी शौहरत के शिखर पर थे, एक दिन उनकी मौत की खबर आई। उनकी मृत्यु का रहस्य आज तक नहीं सुलझ पाया है। इस रहस्य ने उनके प्रति लोगों के आकर्षण को और बढ़ा दिया। वह सिर्फ एक लड़ाके ही नहीं थे, बल्कि उनकी आध्यात्मिक चेतना बहुत विकसित थी। उनके निजी पत्रों का संग्रह ‘लेटर्स ऑफ द ड्रैगन’ पढ़कर यह बात समझी जा सकती है। वह किताबें पढ़ते थे, ध्यान व चिंतन करते थे और दर्शन की खासी समझ रखते थे। 1962 में अपनी एक मित्र पर्ल त्सू से एक खत में उन्होंने कहा था, 'मेरे भीतर एक रचनात्मक आध्यात्मिक शक्ति है, जो मेरे धर्म, मेरी आस्था, मेरी महत्वाकांक्षा, मेरे आत्मविश्वास, मेरे संकल्प व मेरे सपनों से कहीं ज्यादा बड़ी है और यह शक्ति मेरे हाथों में रहती है।' परदे पर उनकी फुर्ती देखने के बाद इस बात की सचाई महसूस होती है।

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