'मां बस से नहीं चलती थीं, हमारे खाने के लिए पैसे बचा लेती थीं'
तीन भाई-बहनों में सबसे छोटे अजीत आज जो कुछ भी है, इसका श्रेय वह अपनी मां को देते हैं। उन दिनों को याद कर कई बार अजीत की आंखें भर आती हैं। मुफलिसी के उस दौर में भी उन्होंने तब हिम्मत नहीं हारी थी क्योंकि मां संबल बनकर हमेशा घनी छाया देती रहीं। अजीत अपना अनुभव साझा करते हुए आगे बताते हैं, ‘मां ने भले ही नाम किस्मती पाया हो, पर किस्मत ने हमेशा उनके साथ धोखा किया। पापा छोटा-मोटा काम करते और मां जैसे-तैसे घर चलातीं। कुछ बरसों तक यूं ही चलता रहा। इस बीच हम तीन भाई-बहनों का जन्म हो चुका था। अचानक कुछ बरसों बाद नियति ने ऐसी पलटी खाई कि सब कुछ खत्म हो गया। पापा ने बिस्तर पकड़ लिया था। उन्हें लकवे का अटैक हुआ था। इसी बीच एक और बड़े हादसे ने मां को भीतर तक झकझोर दिया। जब मैं छह साल का था तब किसी दवा के रिऐक्शन ने मेरी आंखों की रोशनी छीन ली। एक तरफ पापा बिस्तर पर थे, दूसरी ओर मां मुझे लिए अस्पताल-दर-अस्पताल चक्कर काट रही थीं। आंखों की रोशनी वापस लाने के लिए डॉक्टरों ने 6 लाख का खर्च बताया था। मां पैसे जोड़ने की जद्दोजहद में थीं कि किसी तरह मेरी आंखें वापस आ जाएं लेकिन वह कर भी क्या पातीं। पैसे हो तब न। मां ने सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया और दीदी की शादी कर दी। मेरी जिंदगी में रोशनी की कोई किरण नहीं बची थी। सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी थीं। मैं तो लगभग हार चुका था, लेकिन मां अब भी हालात से लड़ रही थीं। कई बार तो घर में फांके होते। हालात इतने बुरे थे कि अस्पतालों में आने-जाने या कहीं बाहर आने-जाने के लिए हमें कई-कई किलोमीटर धूप में पैदल चलना पड़ता। पैसों को बस किराए में इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि पीने को पानी और कुछ खाने को नहीं बचता। तंगी के कारण तबला सीखने का शौक भी छोड़ना पड़ा। मैं हिम्मत हारकर रोने लगता। मां मुझे हौसला बंधाती। आगे बढ़ने को प्रेरित करती। 2008 में पापा इस दुनिया से चले गए। मैं कॉलेज की फीस नहीं भर सकता था। मां ने मुझे आगे बढ़ने का भरोसा दिया। मेरा दाखिला एक दृष्टिहीनों के स्पेशल कॉलेज में करवाया। मां के अदम्य साहस और कभी न हारने वाले माद्दे ने मेरे भीतर एक नई जान डाल दी थी। मैंने ठान लिया था कि अब मुझे लड़ना है, हारना नहीं है। फिर मेरा चयन एक सरकारी महकमे में अच्छे पद पर हो गया।
'किसी भी त्योहार में मां को नए कपड़े पहने नहीं देखा'
तनु अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहती हैं, ‘आसमान में कितने तारे पर चांद जैसा कोई नहीं। इस धरती पर कितने चेहरे, पर मां जैसा कोई नहीं।’हम दोनों भाई-बहन तब बहुत छोटे थे। जब सबने निराश किया, उन्होंने हमें तब उठने का साहस दिया। उस वक्त पूरे परिवार ने हिम्मत खो दी, जब पापा का ऐक्सिडेंट हो गया था। लगा, सब कुछ खत्म हो गया, लेकिन मां के भरोसे ने चुनौतियों से लड़ने का साहस दिया। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। ऑपरेशन के लिए पैसे नहीं थे। मां को अपने सारे गहने बेचने पड़े। सारी जिम्मेदारी अचानक ही मां के कंधों पर आ गई। पापा बिस्तर पर और मां सड़कों की खाक छानतीं। मां ने ग्रैजुएशन तक अपनी पढ़ाई पूरी तो की थी, लेकिन वह कभी बाहर नहीं गई थीं। बाहर निकलने से घबराती थीं। उन्होंने मामाओं के पास बहुत हाथ-पैर जोड़े ताकि कुछ मदद मिल जाए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब मम्मी के पास हम दोनों भाई-बहनों को पालने का कोई जरिया नहीं था। वह सारी रात जागकर पापा की तीमारदारी करतीं और दिन में काम की तलाश में निकल जातीं। कई बरसों तक ऐसी ही स्थिति रही। पापा की दवाइयों और हमारी जरूरतों के कारण मां को क्लीनर का काम करना पड़ा। हालात इतने बुरे थे कि मां अक्सर हमें खिलाकर खुद भूखी सो जातीं। इन्हीं हालात में हम धीरे-धीरे बड़े होते रहे। मां ने हमें अच्छी शिक्षा देने के लिए बहुत जतन किए। कपड़े सिले, दुकानों पर काम किया, भूखे पेट रहकर हमें खिलाया। मैंने कभी मां को किसी त्योहार पर नए कपड़े पहने नहीं देखा। कुछ न कर पाने का मलाल मुझे भीतर से खाए जाता। आज जब मैं मां के बूते एक अच्छे मुकाम पर पहुंच गई हूं तो लगता है कि अगर मां हमें न संभालतीं तो आज हम कहां होते। आज जब मां को भरपेट खाते देखती हूं तो मन खुश होता है।
'तब मां को हम लोगों की परवरिश के लिए अपना मकान बेचना पड़ा था'
वुमन कैब ड्राइबर बनकर नाम करने वाली नीलम अपनी उपलब्धियों का श्रेय अपनी मां को देती हैं। मां के बारे में बात करते ही उनकी आंखों में एक खास तरह की चमक आ जाती है। दिल्ली की सड़कों पर फर्राटे से कैब चलाती नीलम के लिए यह सब इतना आसान नहीं था। आज वह पूरी कॉलोनी के लिए प्रेरणा की स्रोत बन गई हैं। एक वक्त था जब उनके पास सिर छुपाने तक की जगह नहीं थी और आज उनके पास अपना घर है।
वह कहती हैं कि मेरी मां मेरे लिए भगवान हैं। उन्होंने मेरी जिन्दगी ही बदल दी। 18 साल की छोटी सी उम्र में शादी और परिवार संभालना उनके लिए आसान नहीं था। 20 साल में पहली बार प्रेगनेंट हुईं, लेकिन पैसों की तंगी ने उनसे उनके बच्चे को छीन लिया। वहीं पापा को शराब की लत थी। सारा काम मां को ही संभालना पड़ता था। लगातार बेटियां जनने के कारण पिताजी भी अक्सर मां से नाराज रहने लगे। एक दिन बिना कुछ कहे वह घर छोड़कर कहीं चले गए। मां ने उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की लेकिन वह नहीं मिले। इसी बीच हम दो भाई-बहनों की परवरिश की सारी जिम्मेदारी मां के कंधों पर आ गई। मां को मकान बेचना पड़ा। इसके बाद हम लोग जे.जे. कॉलोनी में शिफ्ट हो गए। हम सबका पेट पालना उनके लिए भारी पड़ रहा था। मां ने हार नहीं मानी। उन्होंने आसपास की कोठियों में छोटे-मोटे काम करने शुरू कर दिए। वह दूसरों के जूठे बर्तन धोतीं, साफ-सफाई का काम करतीं। तब कहीं जाकर हमें एक वक्त का खाना नसीब हो पाता। मुश्किल के लम्हों में मां हमेशा हौसला बंधातीं। हम सबके बीच एक मां ही थी जो बदकिस्मती के आगे तनकर खड़ी हो गईं। हमें अच्छी परवरिश और शिक्षा देने के लिए वह दिन में कोठियों में काम करतीं और शाम को सिलाई करतीं। वक्त धीरे-धीरे पंख लगाकर उड़ता रहा। मैंने एक एनजीओ में काम सीखा और नौकरी लग गई। इससे हमारी हालत कुछ सुधर गई है। मैंने हेवी वीइकल चलाने की ट्रेनिंग ली और एक स्कूल में बस चलाती हूं।
'घर में फाके होते तो मां गुरुद्वारे में लंगर खिलाने ले जातीं'
एक छोटे-से कमरे से बाहर निकलते ही सोनी बेगम को आस-पड़ोस के लोग घेर लेते हैं और अपनी छोटी-मोटी समस्याएं बताने लगते हैं। सोनी बेगम सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। वह अपने बुते ही आसपास के लोगों की मदद करती हैं। उनसे जब इस दरियादिली और नेक नीयति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने तपाक से कहा, मां और कौन?
वह बताती हैं कि तब मैं बहुत छोटी थी तो देखा करती थी कि मां किस तरह हालातों से जूझती रहती थी। पापा जॉब में नहीं थे। वह सब्ज़ी का ठेला लगाते और कमाए पैसों को शराब में बहा देते। मां की शादी महज 9 साल में ही हो गई थी। 13 साल की उम्र में ही पहली बार प्रेगनेंट हो गईं। जानकारी के अभाव में साल-दर-साल वह बच्चे जनती रहीं और हर बार उन्हें बेटियां ही पैदा होतीं। दादी को पोता चाहिए था, इसलिए वह मां को दिन-रात ताने देती। ससुरालवालों ने मां का जीना हराम कर दिया था। पैसों के अभाव में एक के बाद सभी बच्चों की मौत हो गई। मां के पास तो खाने के भी पैसे नहीं थे, बच्चों का इलाज कहां से करवातीं। पापा भी साथ नहीं देते थे। एक दिन पापा बिना बताए कहीं चले गए। मां ने उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की लेकिन कोई पता न चल सका।
पापा के जाने बाद मां की असल परीक्षा शुरू हुई। दादी ने मां को घर से बहार निकाल दिया। उन्होंने छोटी पूंजी के साथ साप्ताहिक हाट में फलों का ठेला लगाना शुरू किया। इससे जो थोड़ी आमदनी होती, उसे वह हमारी ट्यूशन और पढ़ाई में लगा देती। मां ने कोठियों में सफाई और आया का काम शुरू किया। उन्होंने फुटपाथ पर ही हम चार बहनों और एक भाई को लेकर अपना डेरा जमा लिया। मुझे याद है मां कभी भी ईद पर हमें ईदी देना नहीं भूलती थीं। वह हमारा दाखिला किसी अच्छे स्कूल में करवाना चाहती थीं। मेरा दाखिला करवाने के लिए उन्होंने अपनी जोड़ी हुई पाई-पाई खर्च कर दी, पर बाद में फीस भरनी मुश्किल हो गई। इसलिए मां को मुझे स्कूल से बाहर निकालना पड़ा। उस दिन मां की आंखों में मैंने बेबसी के आंसू देखे थे। हम सब धीरे-धीरे बड़े हो गए। जब कभी घर में फाके होते तो मां हमें गुरुद्वारे में लंगर खिलाने ले जातीं। मैं कई एनजीओ से भी जुड़ी हूं और दूसरों की मदद करने का यह ज़ज़्बा मुझे अपनी मां से ही मिला।
मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट।